मध्ये सागरमेतस्मिन् द्वीपा: सन्त्यतिभूरय:।
कल्पद्रुमसमाकारै: पादपैर्व्याप्तदिङ्मुखा:१।।६२।।
आचिता विविधै रत्नैस्तुङ्गशृङ्गा महौजस:।
गिरयो येषु देवानां सन्ति क्रीडनहेतव:।।६३।।
भीमातिभीमदक्षिण्यात्ते चान्यैरपि व: कुले।
अनुज्ञाता: सुरै: सर्वै: पूर्वमित्येवमागम:।।६४।।
पुराणि तेषु रम्याणि सन्ति काञ्चनसद्मभि:।
संपूर्णानि महारत्नै: करदष्टदिवाकरै:।।६५।।
संध्याकारो मनोह्लाद: सुवेल: काञ्चनो हरि:।
योधनो जलधिध्वानो हंसद्वीपो भरक्षम:।।६६।।
अर्द्धस्वर्गोत्कटावर्तौ विघटो रोधनोऽमल:।
कान्त: स्फुटतटो रत्नद्वीपस्तोयावली सर:।।६७।।
अलङ्घनो नमोभानु: क्षेममित्येवमादय:।
आसन् ये रमणोद्देशा देवानां निरुपद्रवा:।।६८।।
त एव सांप्रतं जाता भूरिपुण्यैरुपार्जिता:।
पुराणां संनिवेशा वो नानारत्नवसुंधरा:।।६९।।
दूतोऽवरोत्तरे भागे समुद्रपरिवेष्टिते।
शतत्रयमतिक्रम्य योजनानामलं पृथु:।।७०।।
अतिशाखामृद्वीप: प्रसिद्धो भुवनत्रये।
यस्मिन्नवान्तरद्वीपा: सन्ति रम्या: सहस्रश:।।७१।।
पुष्परागमणेर्भाभि: क्वचित् प्रज्वलतीव य:।
सस्यैरिव क्वचिच्छन्नौ हरिन्मणिमरीचिभि:।।७२।।
इन्द्रनीलप्रभाजालैस्तमसेव चित: क्वचित्।
पद्माकरश्रियं धत्ते पद्मरागचयै: क्वचित्।।७३।।
भ्रमता यत्र वातेन गगने गन्धचारुणा।
हृता जानन्ति नो यस्मिन्पताम इति पक्षिण:।।७४।।
स्फटिकान्तरविन्यस्तै: पद्मरागै: समत्विष:।
ज्ञायन्ते चलनाद्यत्र सर:सु कमलाकरा:।।७५।।
मत्तैर्मध्वासवास्वादाच्छकुन्तै: कलनादिभि:।
संभाषत इति द्वीपान् य: समीपव्यवस्थितान्।।७६।।
यत्रौषधिप्रभाजालैस्तमो दूरं निराकृतम्।
चक्रे बहुलपक्षेऽपि समावेशं न रात्रिषु।।७७।।
यत्रच्छत्रसमाकारा: फलपुष्पसमन्विता:।
पादपा विपुलस्कन्धा: कलस्वनशकुन्तय:।।७८।।
सस्यै: स्वभावसंपन्नैर्वीर्यकान्तिवितारिभि:।
चलद्भिर्मन्दवातेन मही यत्र सकञ्चुका।।७९।।
विकचेन्दीवरैर्यत्र षट्पदौघसमन्वितै:।
नयनैरिव वीक्षन्ते दीर्धिका भू्रविलासिभि:।।८०।।
पवनाकम्पनाद्यस्मिन् सात्कारश्रोत्रहारिभि:।
पुण्ड्रेक्षोर्विपुलैर्वाटै: प्रदेशा: पवनोज्झिता:।।८१।।
रत्नकाञ्चनविस्तीर्णशिलासंघातशोभन:।
मध्ये तस्य महानस्ति किष्कुर्नाम महीधर:।।८२।।
त्रिकूटेनेव तेनासौ श्रृङ्गबाहुभिरायतै:।
आलिङ्गिता दिश: कान्ता श्रियमारोपिता: पराम्।।८३।।
इस समुद्र के बीच में ऐसे बहुत से द्वीप हैं जहाँ कल्पवृक्षों के समान आकार वाले वृक्षों से दिशाएँ व्याप्त हो रही हैं।।६२।। इन द्वीपों में ऐसे अनेक पर्वत हैं जो नाना प्रकार के रत्नों से व्याप्त हैं, ऊँचे-ऊँचे शिखरों से सुशोभित हैं, महादेदीप्यमान हैं और देवों की क्रीड़ा के कारण हैं।।६३।। राक्षसों के इन्द्र भीम, अतिभीम तथा उनके सिवाय अन्य सभी देवों ने आपके वंशजों के लिए वे सब द्वीप तथा पर्वत दे रखे हैं, ऐसा पूर्व परम्परा से सुनते आते हैं।।६४।। उन द्वीपों में सुवर्णमय महलों से मनोहर और किरणों से सूर्य को आच्छादित करने वाले महारत्नों से परिपूर्ण अनेक नगर हैं।।६५।। उन नगरों के नाम इस प्रकार हैं-सन्ध्याकार, मनोह्लाद, सुवेल, कांचन, हरि, योधन, जलधिध्वान, हंसद्वीप, भरक्षम, अर्धस्वर्गोत्कट, आवर्त, विघट, रोधन, अमल, कान्त, स्फुटतट, रत्नद्वीप, तोयावली, सर, अलंघन, नमोभानु और क्षेम इत्यादि अनेक सुन्दर-सुन्दर स्थान हैं। इन स्थानों में देव भी उपद्रव नहीं कर सकते हैं।।६६-६८।।
जो बहुत भारी पुण्य से प्राप्त हो सकते हैं और जहाँ की वसुधा नाना प्रकार के रत्नों से प्रकाशमान हैं, ऐसे वे समस्त नगर इस समय आपके आधीन हैं।।६९।। यहाँ पश्चिमोत्तर भाग अर्थात् वायव्य दिशा में समुद्र के बीच तीन सौ योजन विस्तारवाला बड़ा भारी वानर द्वीप है। यह वानर द्वीप तीनों लोकों में प्रसिद्ध है और उसमें महामनोहर हजारों अवान्तर द्वीप हैं।।७०-७११। यह द्वीप कहीं तो पुष्पराग मणियों की लाल-लाल प्रभा से ऐसा जान पड़ता है मानों जल ही रहा हो, कहीं हरे मणियों की किरणों से आच्छादित होकर ऐसा सुशोभित होता है मानो धान के हरे-भरे पौधों से ही आच्छादित हो।।७२।। कहीं इन्द्रनील मणियों के कान्ति से ऐसा लगता है मानो अंधकार के समूह से व्याप्त ही हो, कहीं पद्मराग मणियों की कान्ति से ऐसा जान पड़ता है मानों कमलाकर की शोभा धारण कर रहा हो।।७३।। जहाँ आकाश में भ्रमती हुई सुगंधित वायु से हरे गये पक्षी यह नहीं समझ पाते हंैं कि हम गिर रहे हैं।।७४।।
स्फटिक के बीच-बीच में लगे हुए पद्मराग मणियों के समान जिनकी कान्ति है ऐसे तालाबों के बीच प्रफुल्लित कमलों के समूह जहां हलन-चलनरूप क्रिया के द्वारा ही पहचाने जाते हैं।।७५।। जो द्वीप मकरन्दरूपी मदिरा के आस्वादन से मनोहर शब्द करने वाले मदोन्मत्त पक्षियों से ऐसा जान पड़ता है मानो समीप में स्थित अन्य द्वीपों से वार्तालाप ही कर रहा हो।।७६।। जहाँ रात्रि में चमकने वाली औषधियों की कान्ति के समूह से अंधकार इतनी दूर खदेड़ दिया गया था कि वह कृष्ण पक्ष की रात्रियों में भी स्थान नहीं पा सका था।।७७।। जहाँ के वृक्ष छत्रों के समान आकार वाले हैं, फल और फूलों से सहित हैं, उनके स्कंध बहुत मोटे हैं और उन पर बैठे हुए पक्षी मनोहर शब्द करते रहते हैं।।७८।। स्वभावसम्पन्न-अपने आप उत्पन्न, वीर्य और कान्ति को देने वाले एवं मन्द-मन्द वायु से हिलते धान के पौंधों से जहाँ की पृथिवी ऐसी जान पड़ती है मानो उसने हरे रंग की चोली ही पहन रखी हो।।७९।।
जहाँ की वापिकाओं में भ्रमरों के समूह से सुशोभित नील कमल फूल रहे हों और उनसे वे ऐसी जान पड़ती है मानों भौहों के सञ्चार से सुशोभित नेत्रों से ही देख रही हों।।८०।।
हवा के चलने से समुत्पन्न अव्यक्त ध्वनि से कानों को हरने वाले पौंड़ों और ईखों के बड़े-बड़े बगीचों से जहाँ के प्रदेश वायु के संचार से रहित हैं अर्थात् जहाँ पौंडे और ईख के सघन वनों से वायु का आवागमन रुकता रहता है।।८१।। उस वानरद्वीप के मध्य में रत्न और सुवर्ण की लम्बी-चौड़ी शिलाओं से सुशोभित किष्कु नाम का बड़ा भारी पर्वत है।।८२।। जैसा यह त्रिकूटाचल है वैसा ही वह किष्कु पर्वत है, सो उसकी शिखररूपी लम्बी-लम्बी भुजाओं से आलिंगित दिशारूपी स्त्रियाँ परम शोभा को प्राप्त हो रही हैं।।८३।।