लवण समुद्र के मध्य भाग में चारों ओर उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ऐसे १००८ पाताल हैं। ज्येष्ठ पाताल ४, मध्यम ४ और जघन्य १००० हैं। उत्कृष्ट पाताल चार दिशाओं में ४ हैं। मध्यम पाताल ४ विदिशाओं में ४ एवं उत्कृष्ट मध्यम के मध्य में ८ अन्तर दिशाओं में १००० जघन्य पाताल हैं१।
उस समुद्र के मध्य भाग में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से पाताल, कदम्बक, वडवामुख और यूपकेसर नामक चार पाताल हैं। इन पातालों का विस्तार मूल में और मुख में १०००० योजन प्रमाण है। इनकी गहराई (उँचाई ) और मध्यविस्तार मूल विस्तार से दस गुणा-१००००० योजन प्रमाण है। पातालों की वङ्कामय भित्तिका ५०० योजन मोटी है। ये पाताल जिनेन्द्र भगवान द्वारा अरंजन-घट विशेष के समान कहे गये हैं। पाताल के उपरिम त्रिभाग में सदा जल रहा है, उनके मूल के त्रिभाग में घनीवायु और मध्य त्रिभाग में क्रम से जल, वायु दोनों रहते हैं। सभी पातालों के पवन सर्वकाल शुक्ल पक्षों में स्वभाव से बढ़ते हैं एवं कृष्ण पक्ष में स्वभाव से घटते हैं। शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा तक प्रतिदिन २२२२-२/९ योजन पवन की वृद्धि हुआ करती है। पूर्णिमा के दिन पातालों के अपने-अपने तीन भागों में से नीचे के दो भागों में वायु और ऊपर के तृतीय भाग में केवल जल रहता है। अमावस्या के दिन अपने-अपने तीन भागों में से क्रमशः ऊपर के दो भागों में जल और नीचे के तीसरे भाग में केवल वायु स्थित रहता है। पातालों के अंत में अपने-अपने मुख विस्तार को ५ गुणा करने पर जो प्राप्त हो, उतने प्रमाण आकाश में अपने-अपने पार्श्व भागों में जलकण जाते हैं। ‘तत्त्वार्थराजवार्तिक’ ग्रंथ में जलवृद्धि का कारण किन्नरियों का नृत्य बतलाया है।
यथा—‘रत्नप्रभाखरपृथ्वी-भागसन्निवेशिभवनालयवातकुमारतद्वनिताक्रीड़ा जनिता निलसंक्षोभकृतपातालोन्मीलन निमीलनहेतुकौ वायुतोयनिष्क्रमप्रवेशौ भवत:। तत्कृता दशयोजनसहस्रविस्तार मुखजलस्योपरि पंचाशद्योजनावधृता जलवृद्धि:। तत उभयत आरत्नवेदिकाया: सर्वत्र द्विगव्यूतिप्रमाण जलवृद्धि:। पातालोन्मीलन-वेगोपशमेन हानि:।
अर्थ—रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में रहने वाली वातकुमार देवियों की क्रीडा से क्षुब्ध वायु के कारण ५०० योजन जल की वृद्धि होती है अर्थात् वायु और जल का निष्क्रम और प्रवेश होता है और दोनों तरफ रत्नवेदिका पर्यंत सर्वत्र दो गव्यूति प्रमाण जलवृद्धि होती है। पाताल के उन्मीलन के वेग शांति से जल की हानि होती है। इन पातालों का तीसरा भाग १००००० ´ ३ · ३३३३३-१/३ योजन प्रमाण है।
ज्येष्ठ पाताल सीमंत बिल के उपरिम भाग से संलग्न है अर्थात् ये पाताल ऊभी (खड़ी) मृदंग के आकार जैसा गोल है, समभूमि से नीचे की गहराई का जो प्रमाण है वह इन पातालों की ऊँचाई है। यदि प्रश्न यह होवे कि १ लाख योजन तक इनकी गहराई समतल से नीचे वैâसी होगी ? तो उसका समाधान यह है कि रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है, वहाँ खरभाग, पंकभाग पर्यंत ये पाताल पहुँचे हुए उँड़े (गहरे) हैं।
विदिशाओं में भी इनके समान चार पाताल हैं, उनका मुख विस्तार और मूल विस्तार १००० योजन तथा मध्य में और उँâचाई (गहराई) में १०००० योजन है, इनकी वङ्कामय भित्ति ५० योजन प्रमाण है। इन पातालों के उपरिम तृतीय भाग में जल, नीचे के तृतीय भाग में वायु, मध्य के तृतीय भाग में जल और वायु दोनों रहते हैं। पातालों की गहराई-उँचाई १०००० योजन है, १०००० ´ ३ · ३३३३-१/३। पातालों का तृतीय भाग तीन हजार तीन सौं तेतीस से कुछ अधिक है। इनमें प्रतिदिन होने वाली जलवायु की हानि-वृद्धि का प्रमाण २२२-२/९ योजन प्रमाण है।
उत्तम, मध्यम पातालों के मध्य में आठ अंतर दिशाओं में एक हजार जघन्य पाताल हैं। इनके विस्तार आदि का प्रमाण मध्यम पातालों की अपेक्षा दसवें भाग मात्र है अर्थात् मुख और मूल में ये पाताल १००० योजन हैं। मध्य में चौड़े और गहरे १००० योजन प्रमाण हैं। इनमें भी उपरिम त्रिभाग में जल, नीचे में वायु और मध्य में जलवायु दोनों हैं। इनका त्रिभाग ३३३-१/३ योजन है और प्रतिदिन जलवायु की हानि-वृद्धि २२-२/९ योजन मात्र है।