उवरिमजलस्स जोयण उणवीससयाणि सत्तहरिदािंण।
खयवड्ढीण पमाणं णादव्वं लवणजलणिहिम्मि१।।२४०५।।
१९००।
७
पत्तेक्कं दुतडादो पविसिय पणणउदिजोयणसहस्सा।
गाढा तस्स सहस्सं एवं सोधिज्ज अंगुलादीणं।।२४०६।।
९५०००। १०००। १।
९५
दुतडादो जलमज्झे पविसिय पणणउदिजोयणसहस्सा।
सत्तसयाइं उदओ एवं सोहेज्ज अंगुलादीणं।।२४०७।।
९५०००। ७००। ७।
९५०
जलसिहरे विक्खंभो जलणिहिणो जोयणा दससहस्सा।
एवं संगाइणिए लोयविभाए विणिद्दिट्ठं।।२४४८।।
१००००। पाठान्तरम्।
दुतडाए सिहरम्मि य वलयायारेण दिव्वणयरीओ।
जलणिहिणो चेट्ठंते बादालसहस्सएक्कलक्खािंण।।२४४९।।
१४२०००।
अब्भंतरवेदीदो सत्तसयं जोयणाणि उवहिम्मि।
पविसिय आयासेसुं बादालसहस्सणयरीओ।।२४५०।।
७०० खे। ४२०००।
लवणोवहिबहुमज्झे सत्तसया जोयणाणि दो कोसा।
गंतूण होंति गयणे अडवीससहस्सणयरीओ।।२४५१।।
७००। २। २८०००।
णयरीण तडा बहुविहवररयणमया हवंति समवट्टा।
एदाणं पत्तेक्कं विक्खंभो जोयणदससहस्सा।।२४५२।।
१००००।
पत्तेक्कं णयरीणं तडवेदीओ हवंति दिव्वाओ।
धुव्वंतधयवडाओ वरतोरणपहुदिजुत्ताओ।।२४५३।।
ताणं वरपासादा पुरीण वररयणणियररमणिज्जा।
चेट्ठंति हु देवाणं वेलंधरभुजगणामाणं।।२४५४।।
जिणमंदिररम्माओ पोक्खरणीउववणेिंह जुत्ताओ।
को वण्णिदुं समत्थो अणाइणिहणाओ णयरीओ।।२४५५।।
वण्णिदसुराण णयरीपणिधीए जलहिदुतडसिहरेसुं।
वज्जपुढवीए उविंर तेत्तियणयराणि के वि भासंति।।२४५६।।
पाठान्तरम्।
बादालसहस्सािंण जोयणया जलहिदोतडािंहतो।
पविसिय खिदिविवराणं पासेसुं होंति अट्ठगिरी।।२४५७।।
४२०००।
सोलससहस्सअधियं जोयणलक्खं च तिरियविक्खंभो।
पत्तेक्काणं जगदीगिरीणि मिलिदूण दोलक्खा।।२४५८।।
११६०००। ८४०००। २०००००।
ते कुंभद्धसरिच्छा सेला जोयणसहस्समुत्तुंगा।
एदाणं णामाइं ठाणविभागं च भासेमि।।२४५९।।
१०००।
पादालस्स दिसाए पच्छिमए कोत्तुभो असदि सेलो।
पुव्वाए कोत्थुभासो दोण्णि वि ते वज्जमयमूला।।२४६०।।
मज्झिमरजदंरजिदा अग्गेसुं विविहदिव्वरयणमया।
चरिअट्टालयचारू तडवेदीतोरणेिंह जुदा।।२४६१।।
ताणं हेट्ठिममज्झिमउवरिमवासाणि संपइ पणट्ठा।
तेसुं वरपासादा विचित्तरूवा विरायंति।।२४६२।।
वेलंधरवेंतरया पव्वदणामेिंह संजुदा तेसुं।
कीडंति मंदिरेसुं विजयो व्व णिआउपहुदिजुदा।।२४६३।।
उदको णामेण गिरी होदि कदंबस्स उत्तरदिसाए।
उदकाभासो दक्खिणदिसाए ते णीलमणिवण्णा।।२४६४।।
सिवणामा सिवदेओ कमेण उवरिम्मि ताण सेलाणं।
कोत्थुभदेवसरिच्छा आउप्पहुदीिंह चेट्ठंति।।२४६५।।
वडवामुहपुव्वाए दिसाए संख त्ति पव्वदो होदि।
पच्छिमए महसंखो दिसाए ते संखसमवण्णा।।२४६६।।
उदगो उदगावासो कमसो उवरिम्मि ताण चेट्ठंति।
देवा आउप्पहुदिसु उदगाचलदेवसारिच्छा।।२४६७।।
दकणामो होदि गिरि दक्खिणभागम्मि जूवकेसरिणो।
दकवासो उत्तरए भाए वेरुलियमणिमया दोण्णि।।२४६८।।
उवरिम्मि ताण कमसो लोहिदणामो य लोहिदंकक्खो।
उदयगिरिस्स सरिच्छा आउप्पहुदीसु होंति सुरा।।२४६९।।
एदाणं देवाणं णयरीओ अवरजंबुदीवम्मि।
होंति णियणियदिसाए अवराजिदणयरसारिच्छा।।२४७०।।
बादालसहस्साइं जोयणया जंबुदीवजगदीदो।
गंतूण अट्ठ दीवा णामेणं सूरदीउ त्ति।।२४७१।।
४२०००।
पुव्वपवण्णिदकोत्थुहपहुदीणं हवंति दोसु पासेसुं।
एदे दीवा मणिमयणिग्गच्छियदीआ पभासंति।।२४७२।।
एरावदविजओदिदरत्तोदावाहिणीए पणिधीए।
मागधदीवसरिच्छो होदि समुद्दम्मि मागधो दीओ।।२४७३।।
अवराजिददारस्सप्पणिधीए होदि लवणजलहिम्मि।
वरतणुणामो दीओ वरतणुदीवोवमो अण्णो।।२४७४।।
एरावदखिदिणिग्गदरत्तापणिधीए लवणजलहिम्मि।
अण्णो पभासदीओ पभासदीओ व चेट्ठेदि।।२४७५।।
मागधदीवसमाणं सव्वं चिय वण्णणं पभासस्स।
चेट्ठदि परिवारजुदो पभासणामो सुरो तिंस्स।।२४७६।।
जे अब्भंतरभागे लवणसमुद्दस्स पव्वदा दीवा।
ते सव्वे चेट्ठंते णियमेणं बाहिरे भागे।।२४७७।।
दीवा लवणसमुद्दे अडदाल कुमाणुसाण चउवीसं।
अब्भंतरम्मि भागे तेत्तियमेत्ताए बाहिरए।।२४७८।।
लवणसमुद्र में उपरिम (समतल भूमि के ऊपर स्थित) जल की क्षय-वृद्धि का प्रमाण सात से भाजित उन्नीस सौ योजनमात्र है।।२४०५।। (२००००० – १००००) ´ ७०० · १९००/७ । दोनों में से प्रत्येक किनारे से पंचानवे हजार योजन प्रवेश करने पर उसकी गहराई एक हजार योजनमात्र है। इसी प्रकार अंगुलादिक को शोध लेना चाहिए।।२४०६।। ९५००० । १०००। १/१५ · १०००० / ९५००००। दोनों तटों से जल के मध्य में पंचानवे हजार योजन प्रमाण प्रवेश करने पर सात सौ योजन मात्र ऊँचाई है। इसी प्रकार अंगुलादिकों को शोध लेना चाहिए।।२४०७।। ९५०००। ७००। ७/९५० · ७००/९५०००।
जलशिखर पर समुद्र का विस्तार दश हजार योजन है इस प्रकार संगाइणी में लोकविभाग में बतलाया गया है।।२४४८।। १०००००। पाठान्तरम्। समुद्र के दोनों किनारों तथा शिखर पर वलय के आकार से एक लाख बयालीस हजार दिव्य नगरियाँ स्थित हैं।।२४४९।। १,४२०००। उनमें से बाह्य वेदी से ऊपर सात सौ योजन जाकर आकाश में समुद्र पर बहत्तर हजार नगरियाँ हैं।।२४४९ १।। ७००। ७२०००। ़
अभ्यन्तर वेदी से ऊपर सात सौ योजन जाकर आकाश में समुद्र पर बयालीस हजार नगरियाँ हैं।।२४५०।। ७०० यो. आकाश में । ४२०००। लवणसमुद्र के बहुमध्य भाग में सात सौ योजन और दो कोसप्रमाण ऊपर जाकर आकाश में अट्ठाईस हजार नगरियाँ हैं।।२४५१।। यो. ७०० को. २। २८०००। नगरियों के तट बहुत प्रकार के उत्तम रत्नों से निर्मित समान गोल हैं। इनमें से प्रत्येक का विस्तार दश हजार योजनप्रमाण है।।२४५२।। १००००।
प्रत्येक नगरियों में फहराती हुई ध्वजापताकाओं से सहित और उत्तम तोरणादिक से संयुक्त दिव्य तटवेदियाँ हैं।।२४५३।। उन नगरियों में उत्कृष्ट रत्नों के समूहों से रमणीय वेलंधर और भुजग नामक देवों के प्रासाद स्थित हैं।।२४५४।। जिनमंदिरों से रमणीय और वापिकाओं व उपवनों से संयुक्त इन अनादिनिधन नगरियों का वर्णन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है ?।।२४५५।
समुद्र के दोनों किनारों और शिखर पर बतलाई गई देवों की नगरियों के पार्श्वभाग में वङ्कामय पृथिवी के ऊपर भी इतनी ही नगरियाँ हैं, ऐसा कितने ही आचार्य वर्णन करते हैं।।२४५६।। (पाठान्तर)।
समुद्र के दोनों किनारों से बयालीस हजार योजनप्रमाण प्रवेश करके पातालों के पार्श्वभागों में आठ पर्वत हैं।।२४५७।। ४२०००। प्रत्येक पर्वत का तिरछा विस्तार एक लाख सोलह हजार योजन प्रमाण है। इस प्रकार जगती से पर्वतों तक तथा पर्वतों का विस्तार मिलाकर दो लाख योजन होता है।।२४५८।। पर्वत विस्तार १,१६०००। जगती से पर्वत का अंतराल ४२००० ± ४२००० · ८४०००। १,१६००० ± ८४००० · २,०००००। अर्धघट के सदृश वे पर्वत एक हजार योजन ऊँचे हैं। इनके नाम और स्थान विभाग को कहते हैं।।२४५९।। १०००। पाताल की पश्चिम दिशा में कौस्तुभ और पूर्वदिशा में कौस्तुभास पर्वत स्थित है। वे दोनों पर्वत वङ्कामय मूलभाग से संयुक्त हैं।।२४६०।।
ये पर्वत मध्य में रजत से रचित, अग्रभागों में विविध प्रकार के दिव्य रत्नों से निर्मित, मार्ग व अट्टालयों से सुन्दर तथा तटवेदी एवं तोरणों से युक्त हैं।।२४६१।। इन पर्वतों का नीचे, मध्य में और ऊपर जो कुछ विस्तार है, उसका प्रमाण इस समय नष्ट हो गया है। इनके ऊपर विचित्र रूप वाले उत्तम प्रासाद विराजमान हैं।।२४६२।। इन प्रासादों में विजयदेव के समान अपनी आयु आदिक से सहित और पर्वतों के नामों से संयुक्त बेलंधर व्यन्तरदेव क्रीडा करते हैं।।२४६३।। कदंबपाताल की उत्तरदिशा में उदक नामक पर्वत और दक्षिण दिशा में उदकाभास नामक पर्वत स्थित है। ये दोनों पर्वत नीलमणि जैसे वर्ण वाले हैं।।२४६४।।
उन पर्वतों के ऊपर क्रम से शिव और शिवदेव नामक देव निवास करते हैं। इनकी आयुप्रभृति कौस्तुभदेव के समान है।।२४६५।। वड़वामुख पाताल की पूर्वदिशा में शंख और पश्चिम दिशा में महाशंख नामक पर्वत है। ये दोनों ही शंख के समान वर्ण वाले हैं।।२४६६।। इनके ऊपर क्रम से उदक और उदकावास नामक देव स्थित हैं। ये दोनों देव आयु आदिकों में उदक पर्वत पर स्थित देव के सदृश हैं।।२४६७।। यूपकेशरी के दक्षिण भाग में दक नामक पर्वत और उत्तर भाग में दकवास नामक पर्वत स्थित है। ये दोनों ही पर्वत वैडूर्यमणिमय हैं।।२४६८।। उनके ऊपर क्रम से लोहित और लोहितांक नामक देव निवास करते हैं। ये देव आयु आदिकों में उदकपर्वत पर रहने वाले देव के समान हैं।।२४६९।। इन देवों की नगरियाँ अपर जम्बूद्वीप में अपनी-अपनी दिशा में अपराजित नगर के समान हैं।।२४७०।। जम्बूद्वीप की जगती से बयालीस हजार योजन जाकर ‘सूर्यद्वीप’ नाम से प्रसिद्ध आठ द्वीप हैं।।२४७१।। ४२०००।
ये द्वीप पूर्व में बतलाए हुए कौस्तुभादिक पर्वतों के दोनों पार्श्वभागों में स्थित होकर निकले हुए मणिमय दीपकों से युक्त प्रकाशमान हैं।।२४७२।। ऐरावत क्षेत्र में कही हुई रक्तोदा नदी के पार्श्वभाग में मागधद्वीप के सदृश समुद्र में मागधद्वीप है।।२४७३।। अपराजितद्वार के पार्श्वभाग में वरतनुद्वीप के सदृश अन्य वरतनु नामक द्वीप लवणसमुद्र में स्थित है।।२४७४।।
लवणसमुद्र में ऐरावत क्षेत्र में से निकली हुई रक्तानदी के पार्श्वभाग में प्रभासद्वीप के सदृश अन्य प्रभासद्वीप स्थित है।।२४७५।। प्रभासद्वीप का सम्पूर्ण वर्णन मागधद्वीप के समान है। इस द्वीप में परिवार से युक्त होकर प्रभास नामक देव रहता है।।२४७६।। लवण समुद्र के अभ्यन्तर भाग में जो पर्वत और द्वीप हैं, वे सब नियम से उसके बाह्य भाग में भी स्थित हैं।।२४७७।। लवणसमुद्र में अड़तालीस कुमानुषों के द्वीप हैं। इनमें से चौबीस द्वीप तो अभ्यन्तर भाग में और इतने ही बाह्य भाग में भी हैं।।२४७८।। २४±२४ · ४८।
भावार्थ-इन पर्वतों के ऊपर रहने वाले देवों के भवनों में सभी में जिनमंदिर हैं।