लवण समुद्र के मध्य भाग में चारों ओर उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ऐसे १००८ पाताल हैं। ज्येष्ठ पाताल ४, मध्यम ४ और जघन्य १००० हैं। उत्कृष्ट पाताल चार दिशाओं में ४ हैं। मध्यम पाताल ४ विदिशाओं में ४ एवं उत्कृष्ट मध्यम के मध्य में ८ अन्तर दिशाओं में १००० जघन्य पाताल हैं।
उस समुद्र के मध्य भाग में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से पाताल, कदम्बक, वडवामुख और यूपकेसर नामक चार पाताल हैं। इन पातालों का विस्तार मूल में और मुख में १०००० योजन प्रमाण है। इनकी गहराई (उँचाई) और मध्यविस्तार मूल विस्तार से दस गुणा-१००००० योजन प्रमाण है। पातालों की वङ्कामय भित्तिका ५०० योजन मोटी है। ये पाताल जिनेन्द्र भगवान द्वारा अरंजन-घट विशेष के समान कहे गये हैं। पाताल के उपरिम त्रिभाग में सदा जल रहा है, उनके मूल के त्रिभाग में घनीवायु और मध्य त्रिभाग में क्रम से जल, वायु दोनों रहते हैं। सभी पातालों के पवन सर्वकाल शुक्ल पक्षों में स्वभाव से बढ़ते हैं एवं कृष्ण पक्ष में स्वभाव से घटते हैं। शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा तक प्रतिदिन २२२२-२/९ योजन पवन की वृद्धि हुआ करती है। पूर्णिमा के दिन पातालों के अपने-अपने तीन भागों में से नीचे के दो भागों में वायु और ऊपर के तृतीय भाग में केवल जल रहता है। अमावस्या के दिन अपने-अपने तीन भागों में से क्रमशः ऊपर के दो भागों में जल और नीचे के तीसरे भाग में केवल वायु स्थित रहता है। पातालों के अंत में अपने-अपने मुख विस्तार को ५ गुणा करने पर जो प्राप्त हो, उतने प्रमाण आकाश में अपने-अपने पाश्र्व भागों में जलकण जाते हैं। ‘तत्त्वार्थराजवार्तिक’ ग्रंथ में जलवृद्धि का कारण किन्नरियों का नृत्य बतलाया है। यथा—
‘रत्नप्रभाखरपृथ्वी-भागसन्निवेशिभवनालयवातकुमारतद्वनिताक्रीड़ा जनिता निलसंक्षोभकृतपातालोन्मीलन निमीलनहेतुकौ वायुतोयनिष्क्रमप्रवेशौ भवतः। तत्कृता दशयोजनसहस्रविस्तार मुखजलस्योपरि पंचाशद्योजनावधृता जलवृद्धिः। तत उभयत आरत्नवेदिकायाः सर्वत्र द्विगव्यूतिप्रमाण जलवृद्धिः। पातालोन्मीलन-वेगोपशमेन हानिः।
अर्थ—रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में रहने वाली वातकुमार देवियों की क्रीडा से क्षुब्ध वायु के कारण ५०० योजन जल की वृद्धि होती है अर्थात् वायु और जल का निष्क्रम और प्रवेश होता है और दोनों तरफ रत्नवेदिका पर्यंत सर्वत्र दो गव्यूति प्रमाण जलवृद्धि होती है। पाताल के उन्मीलन के वेग शांति से जल की हानि होती है। इन पातालों का तीसरा भाग १००००० ´ ३ · ३३३३३-१/३ योजन प्रमाण है। ज्येष्ठ पाताल सीमंत बिल के उपरिम भाग से संलग्न है अर्थात् ये पाताल ऊभी (खड़ी) मृदंग के आकार जैसा गोल है, समभूमि से नीचे की गहराई का जो प्रमाण है वह इन पातालों की ऊँचाई है। यदि प्रश्न यह होवे कि १ लाख योजन तक इनकी गहराई समतल से नीचे कैसी होगी ? तो उसका समाधान यह है कि रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार मोटी है, वहाँ खरभाग, पंकभाग पर्यंत ये पाताल पहुँचे हुए उँडे (गहरे) हैं।
विदिशाओं में भी इनके समान चार पाताल हैं, उनका मुख विस्तार और मूल विस्तार १००० योजन तथा मध्य में और उँâचाई (गहराई) में १०००० योजन है, इनकी वङ्कामय भित्ति ५० योजन प्रमाण है। इन पातालों के उपरिम तृतीय भाग में जल, नीचे के तृतीय भाग में वायु, मध्य के तृतीय भाग में जल और वायु दोनों रहते हैं। पातालों की गहराई-उँâचाई १०००० योजन है, १०००० ´ ३ · ३३३३-१/३। पातालों का तृतीय भाग तीन हजार तीन सौं तेतीस से कुछ अधिक है। इनमें प्रतिदिन होने वाली जलवायु की हानि-वृद्धि का प्रमाण २२२-२/९ योजन प्रमाण है।
उत्तम, मध्यम पातालों के मध्य में आठ अंतर दिशाओं में एक हजार जघन्य पाताल हैं। इनके विस्तार आदि का प्रमाण मध्यम पातालों की अपेक्षा दसवें भाग मात्र है अर्थात् मुख और मूल में ये पाताल १००० योजन हैं। मध्य में चौड़े और गहरे १००० योजन प्रमाण हैं। इनमें भी उपरिम त्रिभाग में जल, नीचे में वायु और मध्य में जलवायु दोनों हैं। इनका त्रिभाग ३३३-१/३ योजन है और प्रतिदिन जलवायु की हानि-वृद्धि २२-२/९ योजन मात्र है। ==
उवरिमजलस्स जोयण उणवीससयाणि सत्तहरिदािण। खयवड्ढीण पमाणं णादव्वं लवणजलणिहिम्मि१।।२४०५।।१९००।७
पत्तेक्वं दुतडादो पविसिय पण्णउदिजोयणसहस्सा। गाढा तस्स सहस्सं एवं सोधिज्ज अंगुलादीणं।।२४०६।।९५०००। १०००। १।९५
दुतडादो जलमज्झे पविसिय पण्णउदिजोयणसहस्सा। सत्तसयाइं उदओ एवं सोहेज्ज अंगुलादीणं।।२४०७।।९५०००। ७००। ७।९५०
जलसिहरे विक्खंभो जलणिहिणो जोयणा दससहस्सा। एवं संगाइणिए लोयविभाए विणिद्दिट्ठं।।२४४८।।१००००। पाठान्तरम्।
दुतडाए सिहरम्मि य वलयायारेण दिब्वणयरीओ। जलणिहिणो चेट्ठंते बादालसहस्सएक्कलक्खािण।।२४४९।।१४२०००।
अब्भंतरवेदीदो सत्तसयं जोयणाणि उवहिम्मि। पविसिय आयासेसुं बादालसहस्सणयरीओ।।२४५०।।७०० खे। ४२०००।
लवणोवहिबहुमज्झे सत्तसया जोयणाणि दो कोसा। गंतूण होंति गयणे अडवीससहस्सणयरीओ।।२४५१।।७००। २। २८०००।
णयरीण तडा बहुविहवररयणमया हवंति समवट्टा। एदाणं पत्तेक्वं विक्खंभो जोयणदससहस्सा।।२४५२।।१००००।
पत्तेक्वं णयरीणं तडवेदीओ हवंति दिव्वाओ। धुव्वंतधयवडाओ वरतोरणपहुदिजुत्ताओ।।२४५३।।
ताणं वरपासादा पुरीण वररयणणियररमणिज्जा। चेट्ठंति हु देवाणं वेलंधरभुजगणामाणं।।२४५४।।
जिणमंदिररम्माओ पोक्खरणीउववणेिंह जुत्ताओ। को वण्णिदुं समत्थो अणाइणिहणाओ णयरीओ।।२४५५।।
वण्णिदसुराण णयरीपणिधीए जलहिदुतडसिहरेसुं।
वज्जपुढवीए उविंर तेत्तियणयराणि के वि भासंति।।२४५६।। पाठान्तरम्।
बादालसहस्सािंण जोयणया जलहिदोतडािहतो। पविसिय खिदिविवराणं पासेसुं होंति अट्ठगिरी।।२४५७।।४२०००।
सोलससहस्सअधियं जोयणलक्खं च तिरियविक्खंभो।
पत्तेक्काणं जगदीगिरीणि मिलिदूण दोलक्खा।।२४५८।। ११६०००। ८४०००। २०००००।
ते कुंभद्धसरिच्छा सेला जोयणसहस्समुत्तुंगा। एदाणं णामाइं ठाणविभागं च भासेमि।।२४५९।।१०००।
पादालस्स दिसाए पच्छिमए कोत्तुभो असदि सेलो। पुव्वाए कोत्थुभासो दोण्णि वि ते वज्जमयमूला।।२४६०।।
मज्झिमरजदंरजिदा अग्गेसुं विविहदिव्वरयणमया। चरिअट्टालयचारू तडवेदीतोरणेिह जुदा।।२४६१।।
ताणं हेट्ठिममज्झिमउवरिमवासाणि संपइ पणट्ठा। तेसुं वरपासादा विचित्तरूवा विरायंति।।२४६२।।
वेलंधरवेंतरया पव्वदणामेिह संजुदा तेसुं। कीडंति मंदिरेसुं विजयो व्व णिआउपहुदिजुदा।।२४६३।।
उदको णामेण गिरी होदि कदंबस्स उत्तरदिसाए। उदकाभासो दक्खिणदिसाए ते णीलमणिवण्णा।।२४६४।।
सिवणामा सिवदेओ कमेण उवरिम्मि ताण सेलाणं। कोत्थुभदेवसरिच्छा आउप्पहुदीिंह चेट्ठंति।।२४६५।।
वडवामुहपुव्वाए दिसाए संख त्ति पव्वदो होदि। पच्छिमए महसंखो दिसाए ते संखसमवण्णा।।२४६६।।
उदगो उदगावासो कमसो उवरिम्मि ताण चेट्ठंति। देवा आउप्पहुदिसु उदगाचलदेवसारिच्छा।।२४६७।।
दकणामो होदि गिरि दक्खिणभागम्मि जूवकेसरिणो।
दकवासो उत्तरए भाए वेरुलियमणिमया दोण्णि।।२४६८।।
उवरिम्मि ताण कमसो लोहिदणामो य लोहिदंकक्खो।
उदयगिरिस्स सरिच्छा आउप्पहुदीसु होंति सुरा।।२४६९।।
एदाणं देवाणं णयरीओ अवरजंबुदीवम्मि। होंति णियणियदिसाए अवराजिदणयरसारिच्छा।।२४७०।।
बादालसहस्साइं जोयणया जंबुदीवजगदीदो। गंतूण अट्ठ दीवा णामेणं सूरदीउ त्ति।।२४७१।।४२०००।
पुव्वपवण्णिदकोत्थुहपहुदीणं हवंति दोसु पासेसुं। एदे दीवा मणिमयणिग्गच्छियदीआ पभासंति।।२४७२।।
एरावदविजओदिदरत्तोदावाहिणीए पणिधीए। मागधदीवसरिच्छो होदि समुद्दम्मि मागधो दीओ।।२४७३।।
अवराजिददारस्सप्पणिधीए होदि लवणजलहिम्मि। वरतणुणामो दीओ वरतणुदीवोवमो अण्णो।।२४७४।।
एरावदखिदिणिग्गदरत्तापणिधीए लवणजलहिम्मि। अण्णो पभासदीओ पभासदीओ व चेट्ठेदि।।२४७५।।
मागधदीवसमाणं सव्वं चिय वण्णणं पभासस्स। चेट्ठदि परिवारजुदो पभासणामो सुरो तिंस्स।।२४७६।।
जे अब्भंतरभागे लवणसमुद्दस्स पव्वदा दीवा। ते सव्वे चेट्ठंते णियमेणं बाहिरे भागे।।२४७७।।
दीवा लवणसमुद्दे अडदाल कुमाणुसाण चउवीसं। अब्भंतरम्मि भागे तेत्तियमेत्ताए बाहिरए।।२४७८।।
लवणसमुद्र में उपरिम (समतल भूमि के ऊपर स्थित)
जल की क्षय-वृद्धि का प्रमाण सात से भाजित उन्नीस सौ योजनमात्र है।।२४०५।। (२००००० – १००००) ´ ७०० · १९००/७ । दोनों में से प्रत्येक किनारे से पंचान्नवे हजार योजन प्रवेश करने पर उसकी गहराई एक हजार योजनमात्र है। इसी प्रकार अंगुलादिक को शोध लेना चाहिए।।२४०६।। ९५००० । १०००। १/१५ · १०००० / ९५००००। दोनों तटों से जल के मध्य में पंचानवे हजार योजन प्रमाण प्रवेश करने पर सात सौ योजन मात्र ऊँचाई है। इसी प्रकार अंगुलादिकों को शोध लेना चाहिए।।२४०७।। ९५०००। ७००। ७/९५० · ७००/९५०००। जलशिखर पर समुद्र का विस्तार दश हजार योजन है इस प्रकार संगाइणी में लोकविभाग में बतलाया गया है।।२४४८।। १०००००। पाठान्तरम्। समुद्र के दोनों किनारों तथा शिखर पर वलय के आकार से एक लाख बयालीस हजार दिव्य नगरियाँ स्थित हैं।।२४४९।। १,४२०००। ड उनमें से बाह्य वेदी से ऊपर सात सौ योजन जाकर आकाश में समुद्र पर बहत्तर हजार नगरियाँ हैं।।२४४९ १।। ७००। ७२०००। अभ्यन्तर वेदी से ऊपर सात सौ योजन जाकर आकाश में समुद्र पर बयालीस हजार नगरियाँ हैं।।२४५०।। ७०० यो. आकाश में । ४२०००। लवणसमुद्र के बहुमध्य भाग में सात सौ योजन और दो कोसप्रमाण ऊपर जाकर आकाश में अट्ठाईस हजार नगरियाँ हैं।।२४५१।। यो. ७०० को. २। २८०००। नगरियों के तट बहुत प्रकार के उत्तम रत्नों से निर्मित समान गोल हैं। इनमें से प्रत्येक का विस्तार दश हजार योजनप्रमाण है।।२४५२।। १००००। प्रत्येक नगरियों में फहराती हुई ध्वजापताकाओं से सहित और उत्तम तोरणादिक से संयुक्त दिव्य तटवेदियाँ हैं।।२४५३।। उन नगरियों में उत्कृष्ट रत्नों के समूहों से रमणीय वेलंधर और भुजग नामक देवों के प्रासाद स्थित हैं।।२४५४।। जिनमंदिरों से रमणीय और वापिकाओं व उपवनों से संयुक्त इन अनादिनिधन नगरियों का वर्णन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है ? ।।२४५५। समुद्र के दोनों किनारों और शिखर पर बतलाई गई देवों की नगरियों के पाश्र्वभाग में वङ्कामय पृथिवी के ऊपर भी इतनी ही नगरियाँ हैं, ऐसा कितने ही आचार्य वर्णन करते हैं।।२४५६।। (पाठान्तर)। समुद्र के दोनों किनारों से बयालीस हजार योजनप्रमाण प्रवेश करके पातालों के पाश्र्वभागों में आठ पर्वत हैं।।२४५७।। ४२०००। प्रत्येक पर्वत का तिरछा विस्तार एक लाख सोलह हजार योजन प्रमाण है। इस प्रकार जगती से पर्वतों तक तथा पर्वतों का विस्तार मिलाकर दो लाख योजन होता है।।२४५८।। पर्वत विस्तार १,१६०००। जगती से पर्वत का अंतराल ४२००० ± ४२००० · ८४०००। १,१६००० ± ८४००० · २,०००००। अर्धघट के सदृश वे पर्वत एक हजार योजन ऊँचे हैं। इनके नाम और स्थान विभाग को कहते हैं।।२४५९।। १०००। पाताल की पश्चिम दिशा में कौस्तुभ और पूर्वदिशा में कौस्तुभास पर्वत स्थित है। वे दोनों पर्वत वङ्कामय मूलभाग से संयुक्त हैं।।२४६०।। ये पर्वत मध्य में रजत से रचित, अग्रभागों में विविध प्रकार के दिव्य रत्नों से निर्मित, मार्ग व अट्टालयों से सुन्दर तथा तटवेदी एवं तोरणों से युक्त हैं।।२४६१।। इन पर्वतों का नीचे, मध्य में और ऊपर जो कुछ विस्तार है, उसका प्रमाण इस समय नष्ट हो गया है। इनके ऊपर विचित्र रूप वाले उत्तम प्रासाद विराजमान हैं।।२४६२।। इन प्रासादों में विजयदेव के समान अपनी आयु आदिक से सहित और पर्वतों के नामों से संयुक्त बेलंधर व्यन्तरदेव क्रीडा करते हैं।।२४६३।। कदंबपाताल की उत्तरदिशा में उदक नामक पर्वत और दक्षिण दिशा में उदकाभास नामक पर्वत स्थित है। ये दोनों पर्वत नीलमणि जैसे वर्ण वाले हैं।।२४६४।। उन पर्वतों के ऊपर क्रम से शिव और शिवदेव नामक देव निवास करते हैं। इनकी आयुप्रभृति कौस्तुभदेव के समान है।।२४६५।। वड़वामुख पाताल की पूर्वदिशा में शंख और पश्चिम दिशा में महाशंख नामक पर्वत है। ये दोनों ही शंख के समान वर्ण वाले हैं।।२४६६।। इनके ऊपर क्रम से उदक और उदकावास नामक देव स्थित हैं। ये दोनों देव आयु आदिकों में उदक पर्वत पर स्थित देव के सदृश हैं।।२४६७।। यूपकेशरी के दक्षिण भाग में दक नामक पर्वत और उत्तर भाग में दकवास नामक पर्वत स्थित है। ये दोनों ही पर्वत वैडूर्यमणिमय हैं।।२४६८।। उनके ऊपर क्रम से लोहित और लोहितांक नामक देव निवास करते हैं। ये देव आयु आदिकों में उदकपर्वत पर रहने वाले देव के समान हैं।।२४६९।। इन देवों की नगरियाँ अपर जम्बूद्वीप में अपनी-अपनी दिशा में अपराजित नगर के समान हैं।।२४७०।। जम्बूद्वीप की जगती से बयालीस हजार योजन जाकर ‘सूर्यद्वीप’ नाम से प्रसिद्ध आठ द्वीप हैं।।२४७१।। ४२०००। ये द्वीप पूर्व में बतलाए हुए कौस्तुभादिक पर्वतों के दोनों पाश्र्वभाग में स्थित होकर निकले हुए मणिमय दीपकों से युक्त प्रकाशमान हैं।।२४७२।। ऐरावत क्षेत्र में कही हुई रक्तोदा नदी के पाश्र्वभाग में मागधद्वीप के सदृश समुद्र में मागधद्वीप है।।२४७३।। अपराजितद्वार के पाश्र्वभाग में वरतनुद्वीप के सदृश अन्य वरतनु नामक द्वीप लवणसमुद्र में स्थित है।।२४७४।। लवणसमुद्र में ऐरावत क्षेत्र में से निकली हुई रक्तानदी के पाश्र्वभाग में प्रभासद्वीप के सदृश अन्य प्रभासद्वीप स्थित है।।२४७५।। प्रभासद्वीप का सम्पूर्ण वर्णन मागधद्वीप के समान है। इस द्वीप में परिवार से युक्त होकर प्रभास नामक देव रहता है।।२४७६।। लवण समुद्र के अभ्यन्तर भाग में जो पर्वत और द्वीप हैं, वे सब नियम से उसके बाह्य भाग में भी स्थित हैं।।२४७७।। लवणसमुद्र में अड़तालीस कुमानुषों के द्वीप हैं। इनमें से चौबीस द्वीप तो अभ्यन्तर भाग में और इतने ही बाह्य भाग में भी हैं।।२४७८।। २४ ± २४ · ४८।
अनन्तर लवणोदकपरिपालकानां भुजगानां विमानसंख्यां स्थानत्रयाश्रयेणाह—
बेलंधर भुजगविमाणाण सहस्साणि बाहिरे सिहरे।
अंते बावत्तरि अडवीसं बादालयं लवणे१।।९०३।।
बेलन्धरभुजगविमानानां सहस्राणि बाह्ये शिखरे।
अन्ते द्वासप्ततिः अष्टविंशतिः द्वाचत्वािंरशत् लवणे।।९०३।। बेलं।
जम्बूद्वीपापेक्षया लवणसमुद्रस्य बाह्ये शिखरे अभ्यन्तरे च
यथासंख्यं वेलंधरभुजगानां विमानानि द्वासप्ततिसहस्राणि ७२०००
अष्टाविंशतिसहस्राणि २८००० द्वाचत्वािंरशत्सहस्राणि ४२००० स्युः।।९०३।।
अथ तद्विमानानामवस्थानविशेषं तद्व्या चाह—
दुतडादो सत्तसयं दुकोसअहियं च होइ सिहरादो।
णयराणि हु गयणतले जोयणदसगुणसहस्सवासाणि।।९०४।।
द्वितटात् सप्तशत द्विक्रोशाधिवं च भवति शिखरात्।
नगराणि हि गगनतले योजनदशगुणसहस्रव्यासानि।।९०४।। दुतडा।
लवणसमुद्रस्योभयतटात्सप्तशतयोजनानि ७०० तच्छिखराच्च द्विक्रोशाधिकानि
सप्तशतयोजनानि ७०० क्रो २ त्यक्त्वा गगनतले दशसहस्रयोजनव्यासानि १०००० नगराणि सन्ति।।९०४।।
लवणसमुद्राभ्यन्तरद्वीपान् तद्व्यासादिवं च गाथाचतुष्टयेनाह—
तडदो गत्ता तेत्तियमेत्तियवासा हु विदिस अंतरगा। अडसोलस ते दीवा वट्टा सूरक्खचंदक्खा१।।९०९।। तडतः गत्वा तावन्मात्रव्यासा हि विदिक्षु अन्तरकाः। अष्टषोडश ते द्वीपा वृत्ताः सूर्याख्यचन्द्राख्याः।।९०९।। तडदो। उभयतटात्तावन्मात्राणि योजनानि ४२००० गत्वा तावन्मात्रव्यासा ४२०००। विदिक्ष्वन्तरदिक्षु च यथासंख्यं अष्ट षोडशसंख्या सूर्याख्यचन्द्राख्यास्ते द्वीपाः वृत्ताः स्युः।।९०९।।
तडदो बारसहस्सं गंतूणिह तेत्तियुदयवित्थारो। गोदमदीओ चिट्ठदि वायव्वदिसम्हि वट्टुलओ।।९१०।। तटतो द्वादशसहस्रं गत्वेह तावदुदयविस्तारः। गौतमद्वीपः तिष्ठति वायव्यदिशि वर्तुलः।।९१०।। तड। इह लवणे अभ्यन्तरतटात् द्वादशसहस्र १२००० योजनानि गत्वा तावन्मात्रोदयः १२००० तावन्मात्रविस्तारः १२००० वृत्ताकारो वायव्यां दिशि गौतमाख्यो द्वीपस्तिष्ठति।।९१०।। बहुवण्णणपासादा वणवेदीसहिय तेसु दीवेसु। तस्सामी वेलंधरणागा सगदीवणामा ते।।९११।। बहुवर्णनप्रासादाः वनवेदीसहितेषु तेषु द्वीपेषु। तत्स्वामिनो बेलन्धरनागाः स्वकद्वीपनामानस्ते।।९११।। बहु। वनैर्वेदिकाभिः सहितेषु तेषु द्वीपेषु सर्वेषु बहुवर्णनोपेताः प्रासादाः सन्ति। तद्द्वीपस्वामिनो ये बेलंधरनागास्ते स्वकीयस्वकीयद्वीपनामानः।।९११।।
मागहतिदेवदीवत्तिदयं संखेज्जजोयणं गत्ता। तीरादो दक्खिणदो उत्तरभागेवि होदित्ति।।९१२।। मागधत्रिदेवद्वीपत्रितयं संख्यातयोजनं गत्वा। तीरात् दक्षिणतः उत्तरभागेऽपि भवतीति।।९१२।। मागह। भरतक्षेत्रे दक्षिणतस्तीरात् संख्यातयोजनानि गत्वा मागधवरतनुप्रभासाख्यामराणां त्रयाणां देवानां तत्तन्नामद्वीपत्रयमस्ति, ऐरावतोत्तरभागेऽपि तथा द्वीपत्रयमस्ति।।९१२।।
अब लवणोदक समुद्र के प्रतिपालक नागकुमार देवों के विमानों की संख्या को तीन स्थानों के आश्रय से कहते हैं—
गाथार्थ :— लवण समुद्र के बाह्य में, शिखर में और अभ्यन्तर में बेलन्धर जाति के नागकुमार देवों के विमान क्रम से बहत्तर हजार, अट्ठाईस हजार और बयालीस हजार हैं।।९०३।।
विशेषार्थ :— जम्बूद्वीप की अपेक्षा लवण समुद्र के बाह्य में, बेलन्धर जाति के नागकुमार देवों के ७२००० विमान हैं। शिखर में (१६००० उँâची जलराशि के ऊपर) २८००० और अभ्यन्तर में ४२००० विमान हैं। अब उन विमानों का अवस्थानविशेष और व्यास कहते हैं—
गाथार्थ :— लवण समुद्र के दोनों (बाह्य, अभ्यन्तर) तटों से सात-सात सौ योजन और शिखर से दो कोस अधिक सात सौ योजन ऊपर जाकर अर्थात् जल से ऊपर मात्र आकाश में दस-दस हजार (प्रत्येक) योजन व्यास वाले नगर हैं।।९०४।।
लवण समुद्र के अभ्यन्तर द्वीपों और उनके व्यासादिक को चार गाथाओं द्वारा कहते हैं—
गाथार्थ :— जितने योजन व्यास वाले द्वीप हैं दोनों तटों से उतने ही योजन दूर जाकर विदिशा और अन्तर दिशाओं में सूर्य नामक आठ और चन्द्र नामक सोलह वृत्ताकार द्वीप हैं।।९०९।। विशेषार्थ :— अभ्यन्तर तट से बाहर की ओर और बाह्य तट से भीतर की ओर बयालीस-बयालीस हजार योजन दूर जाकर विदिशाओं और अन्तर दिशाओं में ४२००० योजन व्यास वाले द्वीप हैं। वहाँ चारों विदिशाओं के दोनों पाश्र्वभागों में आठ सूर्य नाम के द्वीप हैं तथा अन्तर दिशाओं के दोनों पाश्र्व भागों में सोलह चन्द्र नाम के द्वीप हैं। ये सर्व द्वीप गोल आकार वाले हैं।
गाथार्थ :— जितने योजन विस्तार और उँचाई वाला द्वीप है, लवण समुद्र के अभ्यन्तर तट से बाहर की ओर उतने ही योजन दूर जाकर वायव्य दिशा में गोल आकार वाला गौतम नाम का द्वीप है।।९१०।।
विशेषार्थ :— लवण समुद्र के अभ्यन्तर तट से बाहर की ओर वायव्य दिशा में १२००० योजन दूर जाकर १२००० योजन उँâचा और १२००० योजन चौड़ा गोल आकार वाला गौतम नाम का द्वीप है।
गाथार्थ :— वे सब द्वीप वनों और वेदिकाओं से युक्त हैं, उनमें महान् विभूतियुक्त प्रासाद हैं, उन द्वीपों के स्वामी अपने-अपने द्वीप सदृश नाम वाले वेलन्धर जाति के नागकुमार देव हैं।।९११।।
गाथार्थ :— समुद्र के दक्षिण तट से संख्यात योजन आगे जाकर मागध आदि तीन देव हैं और इन्हीं नाम के धारी तीन द्वीप हैं। उत्तर भाग अर्थात् ऐरावत क्षेत्र में भी तीन द्वीप हैं।।९१२।। विशेषार्थ :— भरत क्षेत्र की गङ्गा सिन्धु नदियों के प्रवेशद्वार और एक जम्बूद्वीप का द्वार इन तीनों द्वारों के सम्मुख संख्यात योजन आगे जाकर मागध, वरतनु और प्रभास नामक तीन देवों के इसी नाम वाले तीन द्वीप हैं। इसी प्रकार उत्तर भाग अर्थात् ऐरावत क्षेत्र में भी तीन द्वीप हैं। ==
बादालीस सहस्सा गंतूणं जोयणाणि वेदीदो। बेलंधरदेवाणं अट्ठेव य पव्वदा होंति१।।२७।। जोयणसहस्सतुंगा कलसद्धसमाणभासुरा विउला। वणवेदिएिंह जुत्ता वरतोरणमंडिया दिव्वा।।२८।। वलयामुहाण णेया दो दो पासेसु होंति णायव्वा। अक्खयअणाइणिहणा णाणामणिरयणपरिणामा।।२९।। पुव्वेण होंति णेया कोत्थुभणामा णगा हु कणयमया। कोत्थुभणामसुिंरदा वसंति वेलंधरा तेसु।।३०।। दक्खिणदिसेण णेया दगभासा अंकरयणमयसेला। दगभासदेवसहिया बहुविहपासादसंच्छण्णा।।३१।। पच्छिमदिसेण सेला रुप्पमया संखजुवलवरणामा। संखजुगलाभिधाणा वसंति वेलंधरा देवा।।३२।। उत्तरदिसेण णेया वेरुलियमर्यां हवंति वरसेला। दगसीमदेवसहिया दससीमा होंति णामेण।।३३।। सव्वे वि वेदिसहिया वरतोरणमंडिया मणभिरामा। धुव्वंतधयवडाया जिणभवणविहूसिया दिव्वा।।३४।। पायालाणं णेया उभये पासेसु तह य सिहरेसु। आयासे णिद्दिट्ठा पण्णगदेवाण णगराणि।।३५।। बावत्तिंर सहस्सा बाहिरमब्भंतरं च बाचत्ता। अग्गोदगं धरंता अट्ठावीसं सहस्साणि।।३६।। एयं च सयसहस्सा भुजग सहस्साणि चेव बाचत्ता। वेलासु दोसु अग्गोदगे य लवणम्हि अच्छंता।।३७।। तत्तो वेदीदो पुण बादालसहस्स जोयणा गंतुं। विदिसासु होंति दीवा बादालसहस्सवित्थिण्णा।।३८।। दीवेसु तेसु णेया णगराणि हवंति रयणणिवहाणि। णागाणं णिद्दिट्ठा गोउरपायारणिवहाणि।।३९।।
वेदीदो गंत्तूणं बारह तह जोयणसहस्साणि। वायव्वदिसेण पुणो होइ समुद्दम्मि वरदीवो।।४०।। बारहसहस्सतुंगो वित्थिण्णायामतेत्तिओ चेव। कंचणवेदीसाहिओ मरगयवरतोरणुत्तुंगो।।४१।। ससिकंतसूरकंतो कक्केयणपउमरायमणिणिवहो। वरवज्जकणयविद्दुममरगयपासादसंजुत्तो।।४२।। गोदुमणामो दीवो णाणातरुगहणसंकुलो रम्भो। पोक्खरणिवाविपउरो जिणभवणबिहूसिओ दिव्वो।।४३।।
लवणसमुद्र में पर्वतों पर जिनमंदिर (जंबूद्वीवपण्णत्ति से)
वेदी से बयालीस हजार योजन जाकर बेलंधर देवों के आठ पर्वत हैं।।२७।। एक हजार योजन ऊँचे, अर्ध कलश के समान भासुर, विशाल, वनवेदियों से युक्त, दिव्य और उत्तम तोरणों से मण्डित वे पर्वत वलयमुख (वडवामुख) प्रभृति पातालों के दो पाश्र्व भागों में दो-दो हैं, ऐसा जानना चाहिए। ये पर्वत अक्षय, अनादिनिधन और नाना मणियों एवं रत्नों के परिणामरूप हैं।।२८-२९।। इनमें से पूर्व की ओर कौस्तुभ (और कौस्तुभास) नामक सुवर्णमय पर्वत हैं। उनके ऊपर कौस्तुभ (और कौस्तुभास) नामक वेलंधर सुरेन्द्र रहते हैं।।३०।। दक्षिण दिशा की ओर (उदक और) उदकभास देवों से सहित तथा बहुत प्रकार के प्रासादों से व्याप्त अंकरत्नमय (उदक और) उदकभास नामक शैल जानना चाहिए।।३१।। पश्चिम दिशा में उत्तम शंखयुगल (शंख व महाशंख) नाम वाले रजतमय शैल जानना चाहिए। इनके ऊपर शंखयुगल (शंख व महाशंख) नामक बेलंधर देव निवास करते हैं।।३२।। उत्तर दिशा में वैडूर्यमणिमय उदकसीम (उदक और उदवास) नाम उत्तम शैल हैं। इनके ऊपर उदकसीम (उदक और उदवास) नाम देव हैं।।३३।। सब ही दिव्य पर्वत वेदी से सहित, उत्तम तोरणों से मण्डित, मन को अभिराम, फहराती हुई ध्वजापताकाओं से सहित और जिनभवन से विभूषित हैं।।३४।। पातालों के उभय पाश्र्व भागों में तथा शिखरों पर आकाश में पन्नग (नागकुमार) देवों के नगर निर्दिष्ट किए गए हैं।।३५।। लवण समुद्र की बाह्य (धातकीखंड की ओर) वेला को धारण करने वाले बहत्तर हजार, अभ्यन्तर (जम्बूद्वीप की ओर) वेला को धारण करने वाले बयालीस हजार और अग्रोदक (जलशिखा) को धारण करने वाले अट्ठाईस हजार इस प्रकार लवण समुद्र में दोनों वेलाओं के ऊपर व अग्रोदक (शिखर) पर एक लाख बयालीस हजार (७२००० ± ४२००० ± २८०००) नागकुमार देव स्थित हैं।।३६-३७।। पुनः उस वेदी से बयालीस हजार योजन जाकर विदिशाओं में बयालीस हजार योजन विस्तीर्ण (आठ) द्वीप हैं।।३८।। उन द्वीपों में रत्नसमूहों से युक्त और गोपुर एवं प्राकार समूह से संयुक्त नागकुमारों के नगर निर्दिष्ट किए गए जानना चाहिए।।३९।।
वेदी से वायव्य दिशा की ओर बारह हजार योजन जाकर समुद्र में गौतम नामक उत्तम द्वीप है। यह दिव्य द्वीप बारह हजार योजन ऊँचा, इतने ही विस्तार व आयाम से संयुक्त, सुवर्णमय वेदी से सहित, मरकत मणिमय उत्तम तोरणों से उन्नत; चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, कर्वेतन एवं पद्मराग मणियों के समूह से सहित; उत्तम वङ्का, सुवर्ण, विद्रुम एवं मरकत मणिमय प्रासादों से संयुक्त; नाना वृक्षों के वनों से व्याप्त, रम्य, प्रचुर पुष्करिणियों एवं वापिकाओं से युक्त और जिनभवनों से विभूषित है।।४०-४३।।
उस र्धािमक रुचि के कारण दोनों को जाति-स्मरण भी हो गया। तदनन्तर श्रद्धा से भरे मेघवाहन और सहस्रनयन अजितनाथ भगवान् की इस प्रकार स्तुति करने लगे।।१४२।। हे भगवन् ! जो बुद्धि से रहित हैं तथा जिनका कोई नाथ-रक्षक नहीं है ऐसे संसारी प्राणियों का आप बिना कारण ही उपकार करते हैं इससे अधिक आश्चर्य और क्या हो सकता है।।१४३।। आपका रूप उपमा से रहित है तथा आप अतुल्य वीर्य के धारक हैं। हे नाथ! इन तीनों लोकों में ऐसा कौन पुरुष है जो आपके दर्शन से सन्तृप्त हुआ हो।।१४४।। हे भगवन्! यद्यपि आप प्राप्त करने योग्य समस्त पदार्थ प्राप्त कर चुके हैं, कृतकृत्य हैं, सर्वदर्शी हैं, सुखस्वरूप हैं, अचिन्त्य हैं, और जानने योग्य समस्त पदार्थ जान चुके हैं तथापि जगत् का हित करने के लिए उद्यत है।।।१४५।। हे जिनराज! संसाररूपी अन्धकूप में पड़ते हुए जीवों को आप श्रेष्ठ धर्मोपदेशरूपी हस्तावलम्बन प्रदान करते हैं।।१४६।। इस प्रकार जिनकी वाणी गद्गद् हो रही थी और नेत्र आँसुओं से भर रहे थे ऐसे परम हर्ष को प्राप्त हुए मेघवाहन और सहस्रनयन विधिपूर्वक स्तुति और नमस्कार कर यथास्थान बैठ गये।।१४७।। सिंहवीर्य आदि मुनि, इन्द्र आदि देव और सगर आदि राजा परम आश्चर्य को प्राप्त हुए।।१४८।। अथानन्तर—श्री अजितनाथ जिनेन्द्र भगवान् के समवसरण में राक्षसों के इन्द्र भीम और सुभीम प्रसन्न होकर मेघवाहन से कहने लगे कि हे विद्याधर के बालक ! तू धन्य है जो सर्वज्ञ अजित जिनेन्द्र की शरण में आया है, हम दोनों तुझ पर सन्तुष्ट हुए हैं अतः जिससे तेरी सर्वप्रकार से स्वस्थता हो सकेगी वह बात हम तुझसे इस समय कहते हैं सो तू ध्यान से सुन, तू हम दोनों की रक्षा का पात्र है।।१४९-१५१।। बहुत भारी मगरमच्छों से भरे हुए इस लवणसमुद्र में अत्यन्त दुर्गम्य तथा अतिशय सुन्दर हजारों महाद्वीप हैं।।१५२।। उन महाद्वीपों में कहीं गन्धर्व, कहीं किन्नरों के समूह, कहीं यक्षों के झुण्ड और कहीं किंपुरुषदेव क्रीड़ा करते हैं।।१५३।। उन द्वीपों के बीच एक ऐसा द्वीप है जो राक्षसों की शुभ क्रीड़ा का स्थान होने से राक्षस द्वीप कहलाता है और सात सौ योजन लम्बा तथा उतना ही चौड़ा है।।१५४।। उस राक्षस द्वीप के मध्य में मेरु पर्वत के समान त्रिकूटाचल नामक विशाल पर्वत है। वह पर्वत अत्यन्त दुःप्रवेश है और उत्तमोत्तम गुहारूपी गृहों से सबको शरण देने वाला है।।१५५।। उसकी शिखर सुमेरु पर्वत की चूलिका के समान महामनोहर है, वह नौ योजन ऊँचा और पचास योजन चौड़ा है।।१५६।। उसके सुवर्णमय किनारे नाना प्रकार के रत्नों की कान्ति के समूह से सदा आच्छादित रहते हैं तथा नाना प्रकार की लताओं से आिंलगित कल्पवृक्ष वहाँ संकीर्णता करते रहते हैं।।१५७।। उस त्रिवूटाचल के नीचे तीस योजन विस्तारवाली लंका नगरी है, उसमें राक्षस वंशियों का निवास है, और उसके महल नाना प्रकार के रत्नों एवं सुवर्ण से र्नििमत हैं।।१५८।। मन को हरण करने वाले बाग बगीचों, कमलों से सुशोभित सरोवरों और बड़े-बड़े जिन-मन्दिरों से वह नगरी इन्द्रपुरी के समान जान पड़ती है।।१५९।। वह लंका नगरी दक्षिण दिशा की मानों आभूषण ही है। हे विद्याधर ! तू अपने बन्धुवर्ग के साथ उस नगरी में जा और सुखी हो।।१६०।। ऐसा कहकर राक्षसों के इन्द्र भीम ने उसे देवाधिष्ठित एक हार दिया। वह हार अपनी करोड़ों किरणों से चाँदनी उत्पन्न कर रहा था।।१६१।। जन्मान्तर सम्बन्धी पुत्र की प्रीति के कारण उसने वह हार दिया था और कहा था कि हे विद्याधर! तू चरमशरीरी तथा युग का श्रेष्ठ पुरुष है इसलिए तुझे यह हार दिया है।।१६२।। उस हार के सिवाय उसने पृथ्वी के भीतर छिपा हुआ एक ऐसा प्राकृतिक नगर भी दिया जो छह योजन गहरा तथा एक सौ साढ़े इकतीस योजन और डेढ़ कलाप्रमाण चौड़ा था।।१६३।। उस नगर में शत्रुओं का शरीर द्वारा प्रवेश करना तो दूर रहा मन से भी प्रवेश करना अशक्य था। उसमें बड़े-बड़े महल थे, अलंकारोदय उसका नाम था और शोभा से वह स्वर्ग के समान जान पड़ता था।।१६४।। यदि तुझ पर कदाचित् परचक्र का आक्रमण हो तो इस नगर में खड्ग का आश्रय ले सुख से रहना। यह तेरी वंश-परम्परा के लिए रहस्य-सुरक्षित स्थान है।।१६५।। इस प्रकार राक्षसों के इन्द्र भीम और सुभीम ने पूर्णधन के पुत्र मेघवाहन से कहा जिसे सुनकर वह परम हर्ष को प्राप्त हुआ। वह अजितनाथ भगवान् को नमस्कार कर उठा।।१६६।। राक्षसों के इन्द्र भीम ने उसे राक्षसी विद्या दी। उसे लेकर इच्छानुसार चलने वाले कामग नामक विमान पर आरूढ़ हो वह लंकापुरी की ओर चला।।१६७।। ‘‘राक्षसों के इन्द्र ने इसे वरदानस्वरूप लंका नगरी दी है’’ यह जानकर मेघवाहन के समस्त भाई बान्धव इस प्रकार हर्ष को प्राप्त हुए जिस प्रकार कि प्रातःकाल के समय कमलों के समूह विकास भाव को प्राप्त होते हैं।।१६८।। इस प्रकार लवण समुद्र की शोभा देखते हुए मेघवाहन ने त्रिकूटाचल के शिखर के नीचे स्थित लंकापुरी में प्रवेश किया। वह लंका बहुत भारी प्राकार और गोपुरों से सुशोभित थी, अपनी लाल-कान्ति के द्वारा संध्या के समान आकाश को लिप्त कर रही थी, कुन्द के समान सपेद, उँचे पताकाओं से सुशोभित, कोट और तोरणों से युक्त जिनमन्दिरों से मण्डित थी। लंकानगरी में प्रविष्ट हो सर्वप्रथम उसने जिनमंदिर में जाकर जिनेन्द्रदेव की वन्दना की और तदनन्तर मंगलोपकरणों से युक्त अपने योग्य महल में निवास किया।।१७५-१७७।। रत्नों की शोभा से जिनके नेत्र और नेत्रों के पंक्तियाँ आर्किषत हो रही थी ऐसे अन्य भाई-बन्धु भी यथायोग्य महलों में ठहर गये।।१७८।। विशेष—यह जिनमंदिर अकृत्रिम हो सकता है।
श्रीकण्ठ से ऐसा कहकर र्कीितधवल ने अपने पितामह के क्रम से आगत महाबुद्धिमान् आनन्द नामक मन्त्री को बुलाकर कहा।।५८।। कि तुम चिरकाल से मेरे नगरों की सारता और असारता को अच्छी तरह जानते हो अतः श्रीकण्ठ के लिए जो नगर सारभूत हो सो कहो।।५९।। इस प्रकार कहने पर वृद्ध मन्त्री कहने लगा। जब वह वृद्ध मन्त्री कह रहा था तब उसकी सपेद दाढ़ी वक्षःस्थल पर हिल रही थी और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो हृदय में विराजमान स्वामी को चमर ही ढोर रहा हो।।६०।। उसने कहा कि हे राजन्! यद्यपि आपके नगरों में ऐसा एक भी नगर नहीं है जो सुन्दर न हो तथापि श्रीकण्ठ स्वयं ही खोजकर इच्छानुसार—जो इन्हें रुचिकर हो, ग्रहण कर लें।।६१।। इस समुद्र के बीच में ऐसे बहुत से द्वीप हैं जहाँ कल्पवृक्षों के समान आकार वाले वृक्षों से दिशाएँ व्याप्त हो रही हैं।।६२।। इन द्वीपों में ऐसे अनेक पर्वत हैं जो नाना प्रकार के रत्नों से व्याप्त हैं, उँचे-उँचे शिखरों से सुशोभित हैं, महादेदीप्यमान हैं और देवों की क्रीड़ा के कारण हैं।।६३।। राक्षसों के इन्द्र भीम, अतिभीम तथा उनके सिवाय अन्य सभी देवों ने आपके वंशजों के लिए वे सब द्वीप तथा पर्वत दे रखे हैं ऐसा पूर्व परम्परा से सुनते आते हैं।।६४।। उन द्वीपों में सुवर्णमय महलों से मनोहर और किरणों से सूर्य को आच्छादित करने वाले महारत्नों से परिपूर्ण अनेक नगर हैं।।६५।। उन नगरों के नाम इस प्रकार हैं—सन्ध्याकार, मनोह्लाद, सुवेल, कांचन, हरि, योधन, जलधिध्वान, हंसद्वीप, भरक्षम, अर्धस्वर्गोत्कट, आवर्त, विघट, रोधन, अमल, कान्त, स्पुटतट, रत्नद्वीप, तोयावली, सर, अलंघन, नभोभानु और क्षेम इत्यादि अनेक सुन्दर-सुन्दर स्थान हैं। इन स्थानों में देव भी उपद्रव नहीं कर सकते हैं।।६६-६८।। जो बहुत भारी पुण्य से प्राप्त हो सकते हैं और जहाँ की वसुधा नाना प्रकार के रत्नों से प्रकाशमान है ऐसे वे समस्त नगर इस समय आपके आधीन हैं।।६९।। यहाँ पश्चिमोत्तर भाग अर्थात् वायव्य दिशा में समुद्र के बीच तीन सौ योजन विस्तार वाला बड़ा भारी वानर द्वीप है। यह वानरद्वीप तीनों लोकों में प्रसिद्ध है और उसमें महामनोहर हजारों अवान्तर द्वीप हैं।।७०-७१।। यह द्वीप कहीं तो पुष्पराग मणियों की लाल-लाल प्रभा से ऐसा जान पड़ता है मानो जल ही रहा हो, कहीं हरे मणियों की किरणों से आच्छादित होकर ऐसा सुशोभित होता है मानो धान के हरे-भरे पौधों से ही आच्छादित हो।।७२।। उस वानरद्वीप के मध्य में रत्न और सुवर्ण की लम्बी-चौड़ी शिलाओं से सुशोभित किष्कु नाम का बड़ा भारी पर्वत है।।८२।। जैसा यह त्रिवूâटाचल है वैसा ही वह किष्कु पर्वत है सो उनकी शिखररूपी लम्बी-लम्बी भुजाओं से आिंलगित दिशारूपी स्त्रियाँ परम शोभा को प्राप्त हो रही हैं।।८३।। आनन्द मन्त्री के ऐसे वचन सुनकर परम आनन्द को प्राप्त हुआ श्रीकण्ठ अपने बहनोई र्कीितधवल से कहने लगा कि जैसा आप कहते हैं वैसा मुझे स्वीकार है।।८४।। तदनन्तर चैत्र मास के मंगलमय प्रथम दिन में श्रीकण्ठ अपने परिवार के साथ वानरद्वीप गया।।८५।। तदनन्तर समस्त दिशाओं में अपनी नीली दृष्टि चलाता हुआ श्रीकण्ठ आश्चर्य से भरे हुए उस वानरद्वीप में उतरा।।९०।। नाना प्रकार के वृक्षों से सुशोभित वहाँ के प्रदेश नाना रंग के दिखाई देते थे। वे प्रदेश इतने सुन्दर थे कि उन्हें देखकर फिर स्वर्ग के देखने की इच्छा नहीं रहती थी।।१०१।। तोताओं के समान स्पष्ट बोलने वाले चकोर और चकोरी का जो मैनाओं के साथ वार्तालाप होता था वह उस वानर द्वीप में सबसे बड़ा आश्चर्य का कारण था।।१०१।। तदनन्तर वह श्रीकण्ठ, नाना प्रकार के वृक्षों की छाया में स्थित, फूलों की सुगन्धि से अनुलिप्त, रत्नमय तथा सुवर्णमय शिलातलों पर सेना के साथ बैठा और वहीं उसने शरीर को सुख पहुँचाने वाले समस्त कार्य किये।।१०२-१०३।। तदनन्तर—जनमें नाना प्रकार के पुष्प फूल रहे थे, हंस और सारस पक्षी शब्द कर रहे थे, स्वच्छ जल भरा हुआ था और जो मछलियों के संचार से कुछ-कुछ कम्पित हो रहे थे ऐसे मालाओं की, तथा फूलों के समूह की वर्षा करने वाले, महाकान्तिमान् और पक्षियों की बोली के बहाने मानो जोर-जोर से जय शब्द का उच्चारण करने वाले वृक्षों की एवं नाना प्रकार के रत्नों से व्याप्त भूभागों—प्रदेशों की सुषमा से युक्त उस वानर द्वीप में श्रीकण्ठ जहाँ-तहाँ भ्रमण करता हुआ बहुत सुखी हुआ।।१०४-१०६।। तदनन्तर नन्दन वन के समान उस वन में विहार करते हुए श्रीकण्ठ ने इच्छानुसार क्रीड़ा करने वाले अनेक प्रकार के वानर देखे।।१०७।। सृष्टि की इस विचित्रता को देखकर श्रीकण्ठ विचार करने लगा कि देखो ये वानर तिर्यंच योनि में उत्पन्न हुए है फिर भी मनुष्य के समान क्यों है ?।।१०८।। ये वानर मुख, पैर, हाथ तथा अन्य अवयव भी मनुष्य के अवयवों के समान ही धारण करते हैं। न केवल अवयव ही, इनकी चेष्टा भी मनुष्यों के समान हैं।।१०९।। तदनन्तर उन वानरों के साथ क्रीड़ा करने की श्रीकण्ठ के बहुत भारी इच्छा उत्पन्न हुई। यद्यपि वह स्थिर प्रकृति का राजा था तो भी अत्यन्त उत्सुक हो उठा।।११०।। उसने विस्मित चित्त होकर मुख की ओर देखने वाले निकटवर्ती पुरुषों को आज्ञा दी कि इन वानरों को शीघ्र ही यहाँ लाओ।।१११।। कहने की देर थी कि विद्याधरों ने सैकड़ों वानर लाकर उनके समीप खड़े कर दिये। वे सब वानर हर्ष से कल-कल शब्द कर रहे थे।।११२।। राजा श्रीकण्ठ उत्तम स्वभाव के धारक उन वानरों के साथ क्रीड़ा करने लगा। कभी वह ताली बजाकर उन्हें नचाता था, कभी अपनी भुजाओं से उनका स्पर्श करता था और कभी अनार के फूल के समान लाल, चपटी नाक से युक्त एवं चमकीली सुनहली कनीनिकाओं से युक्त उनके मुख में उनके सपेद दाँत देखता था।।११३-११४।। इसके बाद पहाड़ के शिखरों, लताओं, निर्झरनों और वृक्षों से जिसका मन हरा गया था ऐसा श्रीकण्ठ उन वानरों को लिवाकर किष्कु पर्वत पर चढ़ा।।१२०।। वहाँ उसने लम्बी-चौड़ी, विषमतारहित तथा अन्त में उँचे-उँचे वृक्षों से सुशोभित उत्तुंग पहाड़ों से सुरक्षित भूमि देखी।।१२१।। उसी भूमि पर उसने किष्कुपुर नाम का एक नगर बसाया। यह नगर शत्रुओं के शरीर की बात तो दूर रहे मन के लिए भी दुर्गम था।।१२२।। यह नगर चौदह योजन लम्बा-चौड़ा था और इसकी परिधि—गोलाई बयालीस योजन से कुछ अधिक थी।।१२३।। इस नगर में विद्याधरों ने महलों की ऐसी-ऐसी उँची श्रेणियाँ बनाकर तैयार की थीं कि जिनके सामने उत्तुंग दरवाजे थे, जिनकी दीवालें मणि और सुवर्ण से र्नििमत थीं, जो अच्छे-अच्छे बरण्डों से सहित थीं, रत्नों के खम्भों पर खड़ी थी। जिनकी कपोतपाली के समीप का भाग महानील मणियों से बना था और ऐसा जान पड़ता था कि रत्नों की कान्ति ने जिस अन्धकार को सब जगह से खदेड़कर दूर कर दिया था मानो उसे यहाँ अनुकम्पावश स्थान ही दिया गया था।
तदनन्तर अत्यन्त उत्सुकता से भरे राम ने शीघ्र ही पूछा कि हे विद्याधरों! बतलाओ कि लंका कितनी दूर है?।।९९।। हे देव! किसी तरह उच्चारण किया हुआ जिसका नाम ही भय से ज्वर उत्पन्न कर देता है उसके विषय में हम आपके सामने क्या कहें ?।।१०३।। क्षुद्र शक्ति के धारक हम लोग कहाँ और लंका का स्वामी रावण कहाँ ? अतः इस समय आप इस जानी हुई वस्तु की हठ छोड़िए।।१०४।। अथवा हे प्रभो! यह सुनना आवश्यक ही है तो सुनिए कहने में क्या दोष है ? आपके समक्ष तो कुछ कहा जा सकता है।।१०५।। दुष्ट मगरमच्छों से भरे हुए इस लवण समुद्र मेंं अनेक आश्चर्यकारी स्थानों से युक्त प्रसिद्ध राक्षसद्वीप है।।१०६।। जो सब ओर से सात योजन विस्तृत है तथा कुछ अधिक इक्कीस योजन उसकी परिधि है।।१०७।। उसके बीच में सुमेरु पर्वत के समान त्रिकूट नाम का पर्वत है जो नौ योजन ऊँचा और पचास योजन चौड़ा है।।१०८।। सुवर्ण तथा नाना प्रकार के मणियों से देदीप्यमान एवं शिलाओं के समूह से व्याप्त है। राक्षसों के इन्द्र भीम ने मेघवाहन के लिए वह दिया था।।१०९।। तट पर उत्पन्न हुए नाना प्रकार के चित्र-विचित्र वृक्षों से सुशोभित उस त्रिकूटाचल के शिखर पर लंका नाम की नगरी है जो मणि और रत्नों की किरणों तथा स्वर्ग के विमानों के समान मनोहर महलों एवं क्रीड़ा आदि के योग्य सुन्दर प्रदेशों से अत्यन्त शोभायमान है।।११०-१११।। जो सब ओर से तीस योजन चौड़ी है तथा बहुत बड़े प्राकार और परिखा से युक्त होने के कारण दूसरी पृथिवी के समान जान पड़ती है।।११२।। लंका के समीप में और भी ऐसे स्वाभाविक प्रदेश हैं तो रत्न, मणि तथा स्वर्ण से र्नििमत हैं।।११३।। वे सब प्रदेश उत्तमोत्तम नगरों से युक्त हैं, राक्षसों की क्रीड़ा-भूमि हैं तथा महाभोगों से युक्त विद्याधरों से सहित हैं।।११४।। सन्ध्याकार, सुवेल, कांचन, ह्लादन, योधन, हंस, हरिसागर और अद्र्ध स्वर्ग आदि अन्य द्वीप भी वहाँ विद्यमान हैं जो समस्त ऋद्धियों तथा भोगों को देने वाले हैं, वन-उपवन आदि से विभूषित हैं तथा स्वर्ग प्रदेशों के समान जान पड़ते हैं।।११५-११६।। लंकाधिपति रावण भृत्यवर्ग से आवृत हो मित्रों, भाइयों, पुत्रों, स्त्रियों तथा अन्य इष्टजनों के साथ उन प्रदेशों में क्रीड़ा किया करता है।।११७।। क्रीड़ा करते हुए उस विद्याधरों के अधिपति को देखकर मैं समझता हूँ कि इन्द्र भी आशंका को प्राप्त हो जाता है।।११८।। जिसका भाई विभीषण लोक में अत्यधिक बलवान् है, युद्ध में बड़े-बड़े लोगों के द्वारा भी अजेय है और राजाओं में श्रेष्ठ है।।११९।। बुद्धि द्वारा उसकी समानता करने वाला देव भी नहीं है फिर मनुष्य तो निश्चित ही नहीं है। जगत्प्रभु रावण को उसी एक भाई का संसर्ग प्राप्त होना पर्याप्त है।।१२०।। उसका गुणरूपी आभूषणों से सहित एक छोटा भाई भी है जो कुम्भकर्ण इस नाम से प्रसिद्ध है तथा त्रिशूल नामक महाशस्त्र से सहित है।।१२१।।
अथानन्तर राक्षसों का अधीश्वर रावण अपने दूत के वचन सुनकर क्षणभर मन्त्र के जानकार मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा करता रहा। उसने विचार किया कि मैं बहुरूपिणी नाम से प्रसिद्ध वह विद्या सिद्ध करता हूँ कि जिसमें सदा तत्पर रहने वाले देव भी विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकते।।६।। ऐसा विचार कर उसने शीघ्र ही िंककरों को बुलाकर आदेश दिया कि शान्तिजिनालय की उत्तम तोरण आदि से सजावट करो।।७।। तथा सब प्रकार के उपकरणों से युक्त सर्व मन्दिरों में जिनभगवान् की पूजा करो। किज्र्रों को ऐसा आदेश दे उसने पूजा की व्यवस्था का सब भार उत्तमचित्त की धारक मन्दोदरी के ऊपर रखा।।८।। गौतम स्वामी कहते हैं कि वह सुर और असुरों द्वारा वन्दित बीसवें मुनिसुव्रत भगवान् का महाभ्युदयकारी समय था। उस समय लम्बे-चौड़े समस्त भरत क्षेत्र में यह पृथ्वी अर्हन्तभगवान् की पवित्र प्रतिमाओं से अलंकृत थी।।९-१०।। देश के अधिपति राजाओं तथा गाँवों का उपभोग करने वाले सेठों के द्वारा जगह-जगह देदीप्यमान जिनमन्दिर खड़े किये गये थे।।११।। वे मन्दिर, समीचीन धर्म के पक्ष की रक्षा करने में निपुण, कल्याणकारी, भक्तियुक्त शासनदेवों से अधिष्ठित थे।।१२।। देशवासी लोग सदा वैभव के साथ जिनमें अभिषेक तथा पूजन करते थे और भव्य जीव सदा जिनकी आराधना करते थे, ऐसे वे जिनालय स्वर्ग के विमानों के समान सुशोभित होते थे।।१३।। हे राजन्! उस समय पर्वत पर्वत पर, अतिशय सुन्दर गाँव-गाँव में वन-वन में पत्तन पत्तन में, महल महल में, नगर नगर में, संगम संगम में, तथा मनोहर और सुन्दर चौराहे चौराहे पर महाशोभा से युक्त जिनमन्दिर बने हए थे।।१४-१५।। वे मन्दिर शरद् ऋतु के चन्द्रमा के समान कान्ति से युक्त थे, संगीत की ध्वनि से मनोहर थे, तथा नाना वादित्रों के शब्द से उनमें क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र के समान शब्द हो रहे थे।।१६।। वे मन्दिर तीनों संध्याओं में वन्दना के लिए उद्यत साधुओं के समूह से व्याप्त रहते थे, गम्भीर थे, नाना आचार्यों से सहित थे और विविध प्रकार के पुष्पों के उपहार से सुशोभित थे।।१७।। परम विभूति से युक्त थे, नाना रङ्गके मणियों की कान्ति से जगमगा रहे थे, अत्यन्त विस्तृत थे, उँâचे थे और बड़ी-बड़ी ध्वजाओं से सहित थे।।१८।। उन मन्दिरों में सुवर्ण, चाँदी आदि की बनी छत्रत्रय चमरादि परिवार से सहित पाँच वर्ण की जिनप्रतिमाएँ अत्यन्त सुशोभित थीं।।१९।। विद्याधरों के नगर में स्थान-स्थान पर बने हुए अत्यन्त सुन्दर जिनमन्दिरों के शिखरों से विजयार्ध पर्वत उत्कृष्ट हो रहा था।।२०।। इस प्रकार यह समस्त संसार बाग बगीचों से सुशोभित, नाना रत्नमयी, शुभ और सुन्दर जिनमन्दिरों से व्याप्त हुआ अत्यधिक सुशोभित था।।२१।। इन्द्र के नगर के समान वह लज्र भी भीतर और बाहर बने हुए पापापहारी जिनमन्दिरों से अत्यन्त मनोहर थी।।२२।। गौतम स्वामी कहते हैं कि वर्षा ऋतु के मेघसमूह के समान जिसकी कान्ति थी, हाथी की सूँड़ के समान जिसकी लम्बी-लम्बी भुजाएँ थीं पूर्णचन्द्र के समान जिसका मुख था दुपहरिया के पूâल के समान जिसके लाल लाल ओंठ थे, जो स्वयं सुन्दर था, जिसके बड़े-बड़े नेत्र थे, जिसकी चेष्टाएँ स्त्रियों के मन को आकृष्ट करने वाली थीं, लक्ष्मीधर-लक्ष्मण के समान जिसका आकार था और जो दिव्यरूप से सहित था, ऐसा दशानन, कमलिनियों के साथ सूर्य के समान अपनी अठारह हजार स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करता था।।२३-२५।। जिस पर सब लोगों के नेत्र लग रहे थे, जो अन्य महलों की पंक्ति से घिरा था, नाना रत्नों से र्नििमत था और चैत्यालयों से सुशोभित था, ऐसे दशानन के घर में सुवर्णमयी हजारों खम्भों से सुशोभित, विस्तृत, मध्य में स्थित, देदीप्यमान और अतिशय उँâचा वह शान्ति जिनालय था जिसमें शान्ति जिनेन्द्र विराजमान थे।।२६।। गौतम स्वामी कहते हैं कि उत्तम भाग्यशाली मनुष्य, धर्म में दृढ़ बुद्धि लगाकर तथा संसार के सब पदार्थों को अस्थिर जानकर जगत् में उन जिनेन्द्र भगवान् के कान्ति सम्पन्न, उत्तम मन्दिर बनवाते हैं जो सबके द्वारा वन्दनीय हैं तथा इन्द्र के मुकुटों के शिखर में लगे रत्नों की देदीप्यमान किरणों के समूह से जिनके चरणनखों की कान्ति अत्यधिक वृद्धिंगत होती रहती है।२७।। बुद्धिमान् मनुष्य कहते हैं कि प्राप्त हुए विशाल धन का फल पुण्य की प्राप्ति करना है और इस समस्त संसार में एक जैनधर्म ही उत्कृष्ट पदार्थ है, यही इष्ट पदार्थ को सूर्य के समान प्रकाशित करने वाला है।।२८।।
अथानंतर समागमरूपी सूर्य से जिसका मुखकमल खिल उठा था ऐसी सीता का हाथ अपने हाथ से पकड़ श्रीराम उठे और इच्छानुकूल चलने वाले ऐरावत के समान हाथी पर बैठाकर स्वयं उस पर आरूढ़ हुए। महातेजस्वी तथा सम्पूर्ण कान्ति को धारण करने वाले श्रीराम हिलते हुए घंटों से मनोहर हाथी रूपी मेघ पर सीतारूपी रोहिणी के साथ बैठे हुए चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे।।१-३।। जिनकी बुद्धि स्थिर थी, जो अत्यधिक उन्नत प्रीति को धारण कर रहे थे, बहुत भारी जनसमूह जिनके साथ था, जो चारों ओर से बहुत बड़ी सम्पदा से घिरे थे, बड़े-बड़े अनुरागी विद्याधरों से अनुगत, उत्तम कान्तियुक्त चक्रपाणि लक्ष्मण से जो सहित थे तथा अतिशय निपुण थे ऐसे श्रीराम, सूर्य के विमान समान जो रावण का भवन था उसमें जाकर प्रविष्ट हुए।।४-६।। वहाँ उन्होंने भवन के मध्य में स्थित श्रीशान्तिनाथ भगवान् का परम सुन्दर मन्दिर देखा। वह मन्दिर योग्य विस्तार और उँâचाई से सहित था, स्वर्ण के हजार खम्भों से र्नििमत था, विशाल कान्ति का धारक था, उसकी दीवालों के प्रदेश नाना प्रकार के रत्नों से युक्त थे, वह मन को आनन्द देने वाला था, विदेह क्षेत्र के मध्य में स्थित मेरुपर्वत के समान था, क्षीर समुद्र के पेनपटल के समान कान्तिवाला था, नेत्रों को बाँधने वाला था, रुणझुण करने वाली किाqज्र्णियों के समूह एवं बड़ी-बड़ी ध्वजाओं से सुशोभित था, मनोज्ञरूप से युक्त था तथा उसका वर्णन करना अशक्य था।।७-१०।। तदनन्तर जो मत्तगजराज के समान पराक्रमी थे, निर्मल नेत्रों के धारक थे तथा श्रेष्ठ लक्ष्मी से सहित थे, ऐसे श्रीrराम ने हाथी से उतरकर सीता के साथ उस मन्दिर में प्रवेश किया।।११।। तत्पश्चात् कायोत्सर्ग करने के लिए जिन्होंने अपने दोनों हाथ नीचे लटका लिये थे और जिनका हृदय अत्यन्त शान्त था, ऐसे श्रीराम ने सामायिक कर सीता के साथ दोनों करकमलरूपी कुड्मलों को जोड़कर श्रीशान्तिनाथ भगवान का पापभञ्जक पुण्यवर्धक स्तोत्र पढ़ा।।१२-१३।। स्तोत्र पाठ करते हुए उन्होंने कहा कि जिनके जन्म लेते ही संसार में सर्वत्र ऐसी शान्ति छा गई कि जो सब रोगों का नाश करने वाली थी तथा दीप्ति को बढ़ाने वाली थी।।१४।। जिनके आसन कम्पायमान हुए थे तथा जो उत्तम विभूति से युक्त थे ऐसे हर्ष से भरे भक्तिमन्त इन्द्रों ने आकर जिनका मेरु के शिखर पर अभिषेक किया था।।१५।। जिन्होंने राज्य अवस्था में बाह्यचक्र के द्वारा बाह्यशत्रुओं के समूह को जीता था और मुनि होने पर ध्यानरूपी चक्र के द्वारा अन्तरङ्ग शत्रुसमूह को जीता था।।१६।। जो जन्म, जरा, मृत्यु भयरूपी खङ्ग आदि शस्त्रों से चञ्चल संसाररूपी असुर को नष्ट कर कल्याणकारी सिद्धिपुर-मोक्ष को प्राप्त हुए थे।।१७।। जिन्होंने उपमा रहित, नित्य, शुद्ध, आत्माश्रय, उत्कृष्ट और अत्यन्त दुरासद निर्वाण का साम्राज्य प्राप्त किया था, जो तीनों लोकों की शान्ति के कारण थे, जो महा ऐश्वर्य से सहित थे तथा जिन्होेंने अनन्त शान्ति प्राप्त की थी ऐसे श्रीशान्तिनाथ भगवान् के लिए मन, वचन, काय से नमस्कार हो।।१८-१९।। हे नाथ! आप समस्त चराचर विश्व से अत्यन्त स्नेह करने वाले हैं, शरणदाता हैं, परम रक्षक हैं, समाधिरूप तेज तथा रत्नत्रयरूपी बोधि को देने वाले हैं।।२०।। तुम्हीं एक गुरु हो, बन्धु हो, प्रणेता हो, परमेश्वर हो, इन्द्र सहित चारों निकायों के देवों से पूजित हो।।२१।। हे भगवन्! आप उस धर्मरूपी तीर्थ के कर्ता हो जिससे भव्य जीव अनायास ही समस्त दुःखों से छुटकारा देने वाला परम स्थान-मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।।२२।। हे नाथ! आप देवों के देव हो इसलिये आपको नमस्कार हो, आप कल्याणरूप कार्य के करने वाले हो इसलिए आपको नमस्कार हो, आप कृतकृत्य हैं अतः आपको नमस्कार हो और आप प्राप्त करने योग्य समस्त पदार्थों को प्राप्त कर चुके हैं इसलिये आपको नमस्कार हो।।२३।। हे भगवन्! प्रसन्न होइये और हम लोगों के लिये महाशान्तिरूप स्वभाव में स्थित, सर्वदोष रहित, उत्कृष्ट तथा नित्यपद-मोक्षपद प्रदान कीजिये।।२४।। इस प्रकार स्तोत्र पाठ पढ़ते हुए कमलायतलोचन तथा पुण्य कर्म में दक्ष श्रीराम ने शान्तिजिनेन्द्र की तीन प्रदक्षिणाएँ दी।।२५।। जिसका शरीर नम्र था, जो स्तुति पाठ करने में तत्पर थी तथा जिसने हस्तकमल जोड़ रखे थे ऐसी भाव भीनी सीता श्रीराम के पीछे खड़ी थी।।२६।।
अथानन्तर हाथी से उतरकर, जिनका रत्नों के अर्घ आदि से सत्कार किया गया था ऐसे सीता सहित राम लक्ष्मण ने विभीषण के सुन्दर भवन में प्रवेश किया।।६२।। विभीषण के विशाल भवन के मध्य में श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र का वह मन्दिर था जो रत्नमयी तोरणों से सहित था, स्वर्ण के समान देदीप्यमान था, समीप में स्थित महलों के समूह से मनोहर था, शेष नामक पर्वत के मध्य में स्थित था, प्रेम की उपमा को प्राप्त था, स्वर्णमयी हजार खम्भों से युक्त था, उत्तम देदीप्यमान था, योग्य लम्बाई और विस्तार से सहित था, नाना मणियों के समूह से शोभित था, चन्द्रमा के समान चमकती हुई नाना प्रकार की वल्लभियों से युक्त था, झरोखों के समीप लटकती हुई मोतियों की जाली से सुशोभित था, अनेक अद्भुत रचनाओं से युक्त प्रतिसर आदि विविध प्रदेशों से सुन्दर था, और पाप को नष्ट करने वाला था।।६३-६७।। इस प्रकार के उस मन्दिर में श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र की पद्मराग मणि र्नििमत वह अनुपम प्रतिमा विराजमान थी, जो अपनी प्रभा से मणिमय भूमि में कमल-समूह की शोभा प्रकट कर रही थी। सब लोग उस प्रतिमा की स्तुति वन्दना कर यथायोग्य बैठ गये।।६८-६९।। तदनन्तर विद्याधर राजा, हृदय में राम और लक्ष्मण को धारण करते हुए जहाँ जिसके लिए जो स्थान बनाया गया था वहाँ यथायोग्य रीति से चले गये।।७०।।