कषाय के उदय से अनुरंजित मन—वचन—काय की योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इन दोनों अर्थात् कषाय और योग का कार्य है चार प्रकार का कर्म—बन्ध। कषाय से कर्मों की स्थिति और अनुभाग बन्ध होते हैं, योग से प्रकृति और प्रदेश—बन्ध। पथिका: ये षट्पुरुषा:, परिभ्रष्टा अरण्यमध्यदेशे। फलभरितवृक्षमेकं, प्रेक्ष्य ते विचिन्तयन्ति।। निर्मूलस्कन्धशाखोपशाखां छित्वा चित्वा पतितानि। खादितुं फलानि इति, यन्मनसा वचनं भवेत् कर्म।।
छह पथिक थे। जंगल के बीच जाने पर भटक गए। भूख सताने लगी। कुछ देर बाद उन्हें फलों से लदा एक वृक्ष दिखाई दिया। उनकी फल खाने की इच्छा हुई। वे मन ही मन विचार करने लगे। एक ने सोचा कि पेड़ को जड़—मूल से काटकर इसके फल खाए जाएँ। दूसरे ने सोचा कि केवल स्कन्ध ही काटा जाए। तीसरे ने सोचा कि शाखा ही तोड़ना ठीक होगा। चौथा सोचने लगा कि उपशाखा (छोटी डाली) ही तोड़ ली जाए। पाँचवाँ चाहता था कि फल ही तोड़े जाएँ। छठे ने सोचा कि वृक्ष से टपक कर नीचे गिरे हुए पके फल ही चुनकर क्यों न खाए जाएँ। इन छहों पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म क्रमश: छहों लेश्याओं के उदाहरण हैं। लेश्याशुद्धि: अध्यवसानविशुद्धया भवति जीवस्य। अध्यवसानविशुद्धि:, मन्दकषायस्य ज्ञातव्या।।
जीवात्मा के भावों में शुद्धि होने पर लेश्या होती है और जीवात्मा के भावों में शुद्धि होती है कषायों के मंद होने से। लोगो वादपदिट्ठो।
लोक वायु के आधार पर प्रतिष्ठित है।