(जैनेन्द्र व्रत कथा संग्रह मराठी पुस्तक के आधार से)
आषाढ़ शुक्ला चतुर्थी के दिन उपवास करके यह व्रत किया जाता है। पुन: श्रावण कृ. ४, श्रावण शु. ४, भाद्रपद कृ. ४, भाद्रपद शु. ४, आश्विन कृ. ४, आश्विन शु. ४, कार्तिक कृ. ४ और कार्तिक शु. ४, ऐसी नौ चतुर्थी को यह व्रत करना है। इस व्रत में तृतीया और पंचमी को एकाशन एवं चतुर्थी को उपवास यह उत्तम विधि है और मात्र चतुर्थी को एकाशन यह जघन्य विधि है।
व्रत के दिन मंदिर में चौबीस तीर्थंकर की प्रतिमा का या किन्हीं भी भगवान की प्रतिमा का पंचामृत अभिषेक करके, चौबीसी समुच्चय पूजा करें पुन: एक चौकी पर चार स्वस्तिक बनाकर उन पर चार पान रखें। पुन: निम्न मंत्रों का उच्चारण कर उन स्वस्तिक पर चार पुंज चढ़ावें, फल-पुष्पादि चढ़ावें।
‘‘चत्तारिमंगलं-अरिहंत मंगलं’’ बोलकर एक स्वस्तिक पर एक पुंज रखें। ‘‘सिद्धमंगलं’’ बोलकर दूसरा पुंज, ‘साहू मंगलं’ बोलकर तीसरा पुंज एवं ‘‘केवलिपण्णत्तोधम्मो मंगलं’’ बोलकर चौथा पुंज रखें।
संसार में अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली प्रणीत धर्म ये चार ही मंगल हैं-मंगलस्वरूप हैं।
पुन: इसी मंत्र की एक माला जपें।
मंत्र-चत्तारिमंगलं-अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। (सुगंधित पुष्पों से १०८ बार महामंत्र जपें) पुन: ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम: स्वाहा। (इस मंत्र का भी १०८ बार जाप्य करें)
व्रत के दिन तीर्थंकर भगवान की पूजा, शास्त्र पूजा, गुरुपूजा आदि करके कार्तिक शुक्ला चतुर्थी को यह व्रत पूर्णकर यथाशक्ति उद्यापन करें। चार-चार उपकरण मंदिर में रखें तथा चौबीस तीर्थंकर विधान करके चतुर्विध संघ को चार प्रकार के दान आदि देकर चार तीर्थों की यात्रा करके व्रत को पूर्ण करें।