जिनवाणी के करणानुयोग विभाग में जैन भूगोल की जानकारी आती है । इस विषय में “लोकाकाश” से जुड़े हुए कुछ प्रश्न प्रस्तुत है ।
प्रश्नोत्तर प्रस्तुतकर्ता – पंकज जैन शाह- चिंचवड, पुणे, महाराष्ट्र
लोकाकाश कहाँ स्थित है ? केवली भगवान कथित अनन्तानन्त आलोकाकाश के बहुमध्य भाग में ३४३ घन राजु प्रमाण लोकाकाश स्थित है । लोकाकाश किससे व्याप्त है ? लोकाकाश जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म और काल इन ५ द्रव्यों से व्याप्त है और स्वभाव से उत्पन्न है । इसकी सब दिशाओं मे आलोकाकाश स्थित है । लोकाकाश का आकार कैसा है ? कोई पुरुष अपने दोनो पैरो मे थोडासा अन्तर रखकर, और अपने दोनो हाथ अपने कमर पर रखकर खडा होने पर उसके शरीर का जो बाह्य आकार बनता है, उस प्रकार लोकाकाश का आकार है । लोकाकाश किसके आधार से स्थित है ? लोकाकाश निम्नलिखित ३ स्तरों के आधार से स्थित है। # घनोदधिवातवलय # घनवातवलय # तनुवातवलय वातवलय किसे कहते है? और वे कैसे स्थित है? * वातवलय वायुकयिक जीवों के शरीर स्वरूप है। * वायु अस्थिर स्वभावी होते हुए भी, ये वातवलय स्थिर स्वभाव वाले वायुमंडल है। * ये वातवलय लोकाकाश को चारो ओर से वेष्टीत है। * प्रथम वलय को घनोदधिवातवलय कहते है। * घनोदधिवातवलय के बाहर घनवातवलय है। * घनवातवलय के बाहर तनुवातवलय है। * तनुवातवलय के बाहर चारो तरफ अनंत अलोकाकाश है। वातवलयों के वर्ण कौनसे है? * घनोदधिवातवलय गोमुत्र के वर्ण वाला है। * घनवातवलय मूंग के वर्ण वाला है। * तनुवातवलय अनेक वर्ण वाला है। लोकाकाश मे तीनो वातवलयों की मोटाई कितनी है? * लोक के तल भाग मे १ राजू कि ऊंचाई तक प्रत्येक वातवलय बीस हजार योजन मोटा है। (कुल ६०,००० योजन) * सातवी नरक पृथ्वी के पार्श्व भाग मे क्रम से इन तीनो कि मोटाई सात, पाँच और चार योजन है। (कुल १६ योजन) * इसके उपर मध्यलोक के पार्श्व भाग मे क्रम से पाँच, चार और तीन योजन है। (कुल १२ योजन) * इसके आगे ब्रह्म स्वर्ग के पार्श्व भाग मे क्रम से सात, पाँच और चार योजन है। (कुल १६ योजन) * आगे ऊर्ध्व लोक के अंत मे – पार्श्व भाग मे क्रम से पाँच, चार और तीन योजन है। (कुल १२ योजन) * लोक शिखर के उपर क्रमश्ः २ कोस, १ कोस और ४२५ धनुष्य कम १ कोस प्रमाण है। (कुल ३ कोस १५७५ धनुष्य) लोकाकाश में कितने लोक हैं ? लोकाकाश में ३ लोक हैं । # अधोलोक # मध्यलोक # ऊर्ध्वलोक इन तीनों लोकों के आकार कैसे हैं ? अधोलोक का आकार वेत्रासन के समान, मध्यलोक का खड़े किये हुए मृदंग के ऊपरी भाग के समान्, और ऊर्ध्वलोक का खड़े किये हुए मृदंग के समान है । सारे लोक की ऊँचाई और मोटाई कितनी है ? ऊँचाई १४ राजु प्रमाण और मोटाइ ७ राजु है । इस १४ राजु की ऊँचाई का लोकाकाश के निचले भाग से उपर तक का विवरण दिजिये । * सबसे निचे के ७ राजू मे अधोलोक है, जिसमे ७ नरक है । * बचे हुए ७ राजू मे १ लाख ४० योजन का मध्यलोक है, जिसमे असन्ख्यात द्वीप-समुद्र और् मध्य मे सबसे ऊँचा सुमेरू पर्वत है । * सुमेरू पर्वत के उपर १ लाख ४० योजन कम ७ राजू का उर्ध्वलोक है, जिसमे १६ स्वर्ग, ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला है । इसतरह १४ राजू कि ऊँचाई मे मध्यलोक कि ऊँचाई नगन्य होने से ७ राजू मे अधोलोक और ७ राजू मे उर्ध्वलोक कहा गया है । लोकाकाश कि चौडाइ का विवरण दिजिये ।* अधोलोक के तलभाग मे जहा निगोद है, वहा चौडाई ७ राजू है । * यह चौडाइ घटते घटते मध्यलोक मे १ राजू रह जाती है । * पुनः बढते बढते उर्ध्वलोक के पांचवे स्वर्ग (ब्रम्ह स्वर्ग) तक ५ राजू हो जाती है । * पुनः ब्रम्ह स्वर्ग से घटते घटते सिद्धशिला तक १ राजू होती है । लोकाकाश का घनफल कितना है? * लोक की कुल चौडाई १४ राजू है। (तलभाग मे ७ राजू + मध्यलोक मे १ राजू + ब्रह्म स्वर्ग मे ५ राजू + सिद्धशिला मे १ राजू) * यह कुल चौडाई ४ विभागो मे मिलकर है इसलिये अॅवरेज चौडाई निकालने के लिये, इस मे ४ का भाग देने से साढे तीन राजू हुए।(१४/४ = ३ १/२) * लोक की ऊंचाई १४ राजू और मोटाई ७ राजू है * इस प्रकार लोक का घनफल लोक की ऊँचाई × चौडाई × मोटाई = १४ राजू × ३ १/२ राजू × ७ राजू = ३४३ घनराजू है। अधोलोक से मध्यलोक तक कि चौडाई घटने का क्रम कैसा है ? * अधोलोक के तल भाग मे : ७ राजू * सातवी पृथ्वी-नरक के निकट : ६ १/७ राजू * छटवी पृथ्वी-नरक के निकट : ५ २/७ राजू * पांचवी पृथ्वी-नरक के निकट : ४ ३/७ राजू * चौथी पृथ्वी-नरक के निकट : ३ ४/७ राजू * तिसरी पृथ्वी-नरक के निकट : २ ५/७ राजू * दूसरी पृथ्वी-नरक के निकट : १ ६/७ राजू * प्रथम पृथ्वी-नरक के निकट : १ राजू संपूर्ण मध्य लोक की चौडाई १ राजू मात्र ही है। मध्यलोक से सिद्धशिला तक लोक की चौडाई बढने – घटने का क्रम कैसा है ? * मध्यलोक् मे : १ राजू * पहले और दूसरे स्वर्ग(सौधर्म और ईशान)के अंत मे : २ ५/७ राजू * तिसरे और चौथे स्वर्ग (सानत्कुमार् और माहेन्द्र)के अंत मे : ४ ३/७ राजू * पाँचवे और छठे स्वर्ग (ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर)के अंत मे : ५ राजू * साँतवे और आँठवे स्वर्ग (लांतव और कापिष्ठ)के अंत मे : ४ ३/७ राजू * नौवे और दसवे स्वर्ग (शुक्र और महाशुक्र)के अंत मे : ३ ६/७ राजू * ग्यारहवे और बारहवे स्वर्ग (सतार और सहस्त्रार्)के अंत मे : ३ २/७ राजू * तेरहवे और चौदहवे स्वर्ग (आनत और प्राणत)के अंत मे : २ ५/७ राजू * पन्द्रहवे और सोलहवे स्वर्ग (आरण और अच्युत)के अंत मे : २ १/७ राजू * ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश, ५ अनुत्तर और सिद्धशिला पृथ्वी तक : १ राजू नोट : अपने अपने अंतिम इन्द्रक विमान संबंधी ध्वजदंड के अग्रभाग तक उन उन स्वर्गो का अंत समझना चहिए। त्रसनाली क्या है और कहाँ होती है? * तीनो लोको के बीचो बीच मे १ राजू चौडे एवं १ राजू मोटे तथा कुछ कम १३ राजू ऊंचे, त्रस जीवों के निवास क्षेत्र को त्रसनाली कहते है। * ऊंचाई मे कुछ कम का प्रमाण ३२१६२२४१ २/३ धनुष है। * इसके बाहर त्रस जीव नही होते। मगर उपपाद, मारणांतिकसमुदघात और केवलिसमुदघात की अपेक्षा से त्रस नाली के बाहर त्रस जीव पाये जाते है। उपपाद की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है? * किसी भी विवक्षित भव के प्रथम पर्याय को उपपाद कहते है। * लोक के अंतिम वातवलय मे स्थित कोइ स्थावर जीव जब विग्रहगती द्वारा त्रस पर्याय मे उत्पन्न होने वाला है और वह जब मरण करके प्रथम मोडा लेता है,उस समय त्रस नाम कर्म का उदय आ जाने से त्रस पर्याय को धारण करके भी त्रसनाली के बाहर होता है। मारणांतिक समुदघात की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है?त्रसनाली का कोइ जीव, जिसे मरण करके त्रसनाली के बाहर स्थावर मे जन्म लेना है, वह जब मरण के अंतर्मुहूर्त पहले, मारणांतिक समुदघात के द्वारा त्रसनाली के बाहर के प्रदेशों को स्पर्श करता है, तब उस त्रस जीव का अस्तित्व त्रसनाली के बाहर पाया जाता है। केवलिसमुदघात की अपेक्षा त्रस जीव; त्रसनाली के बाहर कैसे पाए जाते है?जब किसी सयोग केवली भगवान के आयु कर्म की स्थिति अंतर्मुहूर्त मात्र ही हो परन्तु नाम, गोत्र, और वेदनीय कर्म की स्थिती आधिक हो, तब उनके दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुदघात होता है। ऐसा होने से सब कर्मो की स्थिती एक बराबर हो जाती है। इन समुदघात अवस्था मे त्रस जीव त्रसनाली के बाहर भी पाये जाते है।