(श्री गौतमस्वामीकृत-निषीधिकादण्डक तथा चैत्यभक्ति से)
उड्ढमहतिरियलोए सिद्धायदणाणि णमंसामि, सिद्धणिसीहियाओ अट्ठावयपव्वए सम्मेदे उज्जंते चंपाए पावाए मज्झिमाए हत्थिवालियसहाए जावो अण्णाओ काओवि णिसीहियाओ जीवलोयम्मि।
ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक में जितने भी सिद्धायतन जिनमंदिर हैं तथा इस मनुष्यलोक में अष्टापद पर्वत, सम्मेदशिखर, ऊर्जयंत-गिरनार, चंपापुरी, पावापुरी आदि जितने भी तीर्थंकर आदि भगवन्तों के जन्म, निर्वाण आदि क्षेत्र हैं, उन सबको मैं नमस्कार करता हूँ।
यावन्ति सन्ति लोकेऽस्मिन्नकृतानि कृतानि च। तानि सर्वाणि चैत्यानि, वंदे भूयांसि भूतये१।।१८।।
इस जग में जितनी प्रतिमा हैं, कृत्रिम अकृत्रिम सबको।
मैं वंदूँ शिववैभव हेतू, सब जिनचैत्य जिनालय को।।१८।।
अयोध्या मंगलं कुर्या-दनंततीर्थकर्तृणाम्। शाश्वती जन्मभूमिर्या, प्रसिद्धा साधुभिर्नुता।।१।।
ऋषभोऽजिततीर्थेशो-ऽप्यभिनंदनतीर्थकृत्। श्रीमान् सुमतिनाथश्चा-नन्तनाथजिनेश्वर:।।२।।
पंचतीर्थकृतां गर्भ-जन्मकल्याणकादिषु। इंद्रादिभि: सदा वंद्या, वंद्यते वंदयिष्यते।।३।।
असंख्यात-मुक्तिगानां, भरतादिन¸णामपि। जन्मभूमिर्मया भक्त्या, त्रिसंध्यं वन्द्यते मुदा।।४।।
अनंतों तीर्थंकरों की जन्मभूमि ‘अयोध्या’ यह शाश्वत तीर्थ है। यह तीर्थ साधुओं के द्वारा भी नमस्कृत है, ऐसा यह अयोध्या तीर्थ मंगल करे, हम सभी के लिए मंगलकारी होवे।।१।। यह अयोध्या श्री ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ एवं अनंतनाथ इन पाँच तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म आदि कल्याणकों में इन्द्र आदि देवगणों के द्वारा सदा वंदित रही है, वर्तमान में वंदना को प्राप्त हो रही है एवं भविष्य में भी सभी के द्वारा वंद्य होती रहेगी।।२-३।। भरत चक्रवर्ती आदि असंख्यातों महापुरुषों ने अयोध्या जन्मभूमि में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त किया है। ऐसी अयोध्यापुरी को मेरा तीनों कालों में भक्ति एवं प्रीतिपूर्वक अनंतबार नमस्कार होवे।।४।।
भावार्थ – इस अयोध्या में वर्तमान में श्री ऋषभदेव के गर्भ, जन्म दो कल्याणक एवं शेष द्वितीय, चतुर्थ, पंचम एवं चौदहवें तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान ऐसे ४-४ कल्याणक हुए हैं।
दोहा-
तीर्थंकर को वंदते, जन्मभूमि वंदंत।
तीर्थंकर को तीर्थ को, नमूँ मिले भव अंत।।१।।
चौबीस तीर्थंकर इस अवसर्पिणी में हुए हैं-
१. श्री ऋषभदेव २. श्री अजितनाथ
३. श्री संभवनाथ ४. श्री अभिनंदननाथ
५. श्री सुमतिनाथ ६. श्री पद्मप्रभनाथ
७. श्री सुपार्श्वनाथ ८. श्री चन्द्रप्रभनाथ
९. श्री पुष्पदंतनाथ १०. श्री शीतलनाथ
११. श्री श्रेयांसनाथ १२. श्री वासुपूज्यनाथ
१३. श्री विमलनाथ १४. श्री अनंतनाथ
१५. श्री धर्मनाथ १६. श्री शांतिनाथ
१७. श्री कुंथुनाथ १८. श्री अरनाथ
१९. श्री मल्लिनाथ २०. श्री मुनिसुव्रतनाथ
२१. श्री नमिनाथ २२. श्री नेमिनाथ
२३. श्री पार्श्वनाथ २४. श्री महावीरस्वामी
इनमें प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम व चौदहवें तीर्थंकर इसी अयोध्या में जन्मे हैं। शेष तीर्थंकर अन्यत्र जन्में हैं। यह हुण्डावसर्पिणी का निमित्त माना है।
अवसप्पिणिउस्सप्पिणिकाल च्चिय रहटघटियणाएणं।
होंति अणंताणंता भरहेरावदखिदिम्मि पुढं१।।१६१४।।
भरत और ऐरावत क्षेत्र में रँहटघटिकान्याय से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल अनन्तानन्त होते हैं। (अर्थात् जिस प्रकार रँहट की घरियां बार-बार ऊपर व नीचे आती-जाती हैं, इसी प्रकार अवसर्पिणी के पश्चात् उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणी के पश्चात् अवसर्पिणी, इस क्रम से सदा इन कालों का परिवर्तन होता ही रहता है)।।१६१४।।
अवसप्पिणिम्मि काले तहेव उवसप्पिणिम्मि कालम्मि।
उप्पज्जंति महप्पा तेसट्ठिसलागवरपुरिसा२।।२०८।।
अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी काल में तिरेसठ शलाका महापुरुष उत्पन्न होते हैं।।२०८।।
अवसप्पिणिउस्सप्पिणिकालसलाया गदे य संखाणिं।
हुंडावसप्पिणी सा एक्का जाएदि तस्स चिण्हमिमं।।१६१५।।
असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीकाल की शलाकाओं के बीत जाने पर प्रसिद्ध एक हुण्डावसर्पिणी आती है, उसके चिन्ह ये हैं।।१६१५।।
विशेषार्थ-हुंडावसर्पिणी में कुछ अघटित घटनाएं हुई हैं। जैसे-प्रथम तीर्थंकर तीसरे काल में हो गये आदि। इसी निमित्त से अयोध्या में पाँच तीर्थंकर ही जन्मे हैं। शेष तीर्थंकरों की अन्य जन्मभूमियाँ मिलाकर सोलह हो गई हैं।
ताभ्यामलंकृते पुण्ये देशे कल्पांघ्रिपात्यये।
तत्पुण्यैर्मुहुराहूत: पुरूहूत: पुरीं व्यधात्१।।६९।।
मरुदेवी और नाभिराज से अलंकृत पवित्र स्थान में जब कल्पवृक्षों का अभाव हो गया, तब वहाँ उनके पुण्य के द्वारा बार-बार बुलाये हुए इन्द्र ने एक नगरी की रचना की।
संचस्करुश्च तां वप्रप्राकारपरिखादिभि:।
अयोध्यां न परं नाम्ना गुणेनाप्यरिभि: सुरा:२।।७६।।
देवों ने उस नगरी को वप्र (धूलि के बने हुए छोटे कोट), प्राकाार (चार मुख्य दरवाजों से सहित, पत्थर के बने हुए मजबूत कोट) और परिखा आदि से सुशोभित किया था। उस नगरी का नाम अयोध्या था। वह केवल नाममात्र से अयोध्या नहीं थी किन्तु गुणों से भी अयोध्या थी। कोई भी शत्रु उससे युद्ध नहीं कर सकते थे इसलिए उसका वह नाम सार्थक था (अरिभि: योद्धुं न शक्या-अयोध्या)।।७६।।
पुण्येऽहनि मुहूर्त्ते च शुभयोगे शुभोदये।
पुण्याहघोषणां तत्र सुराश्चक्रु: प्रमोदिन:३।।८१।।
विश्वद्दृश्वैतयो: पुत्रो जनितेति शतक्रतु:।
तयो: पूजां व्यधत्तोच्चैरभिषेकपुरस्सरम्४।।८३।।
षड्भिर्मासैरथैतस्मिन् स्वर्गादवतरिष्यति।
रत्नवृष्टिं दिवो देवा: पातयामासुरादरात्५।।८४।।
खाङ्गणे गणनातीता रत्नधारा रराज सा।
विप्रकीर्णेव कालेन तरला तारकावली६।।९२।।
अनन्तर उस अयोध्या नगरी में सब देवों ने मिलकर किसी शुभ दिन, शुभ मुहूर्त, शुभ योग और शुभ लग्न में हर्षित होकर पुण्याहवाचन किया।।८१।।
इन दोनों के (महाराजा नाभिराज व महारानी मरुदेवी) सर्वज्ञ ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे। यह समझकर इन्द्र ने अभिषेकपूर्वक उन दोनों की बड़ी पूजा की थी।।८३।।
तदनन्तर छह महीने बाद ही भगवान ऋषभदेव यहाँ स्वर्ग से अवतार लेंगे, ऐसा जानकर देवों ने बड़े आदर के साथ आकाश से रत्नों की वर्षा की।।८४।।
आकाशरूपी आंगन में वह असंख्यात रत्नों की धारा ऐसी जान पड़ती थी, मानों समय पाकर पैâली हुई नक्षत्रों की चंचल और चमकीली पङ्क्ति ही हो।।९२।।
कृतप्रथममाङ्गल्ये, सुरेन्द्रो जिनमंदिरम्।
न्यवेशयत् पुरस्यास्य, मध्ये दिक्ष्वप्यनुक्रमात्।।१५०।।
अर्थ-इन्द्र ने प्रथम ही मांगलिक कार्य किया और फिर उसी अयोध्यापुरी के बीच में जिनमंदिर की रचना की। इसके बाद पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर इस प्रकार चारों दिशाओं में भी यथाक्रम से जिनमंदिरों की रचना की, तभी से जिनमंदिर निर्माण की परम्परा चली आ रही है।।१५०।।