(अति सघन सल्लकी नाम का वन है। जहाँ आज हर्ष का वातावरण है क्योंकि आज इस वन में विशाल मुनिसंघ ठहरा हुआ है)
निर्देशक-(कहीं-कहीं ऊँचे वृक्षों के नीचे कुछ मुनि मिलकर स्वाध्याय कर रहे हैं। कहीं कोई मुनि अपनी शुद्धात्मा के ध्यान में निमग्न हैं, कुछ मुनि जिनेन्द्रदेव की आराधना में तत्पर हो स्तुति से दिशाओं को मुखरित कर रहे हैं। उसी वन में मर्कट, सिंह-व्याघ्र आदि जीव-जन्तु विचरण कर रहे हैं। कहीं श्रावक-श्राविकाएं भोजन बनाने में व्यस्त हैं, कहीं श्रावक भगवान की पूजा में संलग्न हैं। संघ शिरोमणि आचार्य श्री अरविंद मुनिराज शुद्ध पाषाण शिला पर विराजमान निजात्मा का चिंतन कर रहे हैं)
एक मुनिराज-महाराज जी! देखो तो, इस शास्त्र में कितनी सुन्दर पंक्तियाँ लिखी हैं। लिखा है-
शिवं शुद्ध बुद्धं परम विश्वनाथं,
न देवो न बंधुर्न कर्ता न कर्म।
न अंगं न संगं न इच्छा न कायं,
चिदानन्द रूपं नमो वीतरागं।।
दूसरे मुनिराज-हाँ महाराज जी! इसी वीतराग अवस्था को प्राप्त करने के लिए ही तो हम सब तपश्चर्या कर रहे हैं।
दूसरी ओर-एक मुनिराज (भगवान की भक्ति करते हुए)
आदीश्वरादि जिनसूर्य युगादि नाथ:।
साकेतशासनपति: पुरुदेव नाथ:।।
स्वायम्भुव: सकल लोक हितंकरो य:।
तं नाभिनन्दन जिनं प्रणमामि नित्यं।।
वहीं एक श्रावक भगवान की पूजा कर रहे हैं-
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
एक ओर-(कुछ श्रावक-श्राविकाएं आहारचर्या की सामग्री जुटा रहे हैं)
हर्षित-अरे भाई! जरा जल्दी करो। आहार चर्या का समय होने वाला है।
गौरव-हाँ भइया! सारी तैयारी हो चुकी है बस, चौक पूरना बाकी है। (पास खड़ी बहन से) संस्कृति बहन! जरा चौक तो पूर देना।
संस्कृति-अच्छा भइया। (कहकर चौक पूरने लगती है)
(तभी बाहर कोलाहल सुनाई देता है और कुछ श्रावकगण इधर-उधर भागते हुए नजर आते हैं)
गौरव-बहना! देख तो यह शोर वैâसा है?
संस्कृति-पूछती हूँ भइया। पता नहीं क्या बात है? लोग इधर-उधर क्यों भाग रहे हैं? (एक श्रावक से)
भइया! क्या हुआ? आप सब इतने घबराए हुए क्यों हैं?
एक श्रावक-बहन! एक विशाल हाथी पूरे संघ में क्षोभ को उत्पन्न कर रहा है, ना जाने कितने ही श्रावकों को गिरा दिया।
(तभी वहाँ गौरव, हर्षित एवं संस्कार भी आ जाते हैं)
हर्षित-क्या हुआ भाई?
दूसरा श्रावक-भइया! एक हाथी ने बहुत परेशान कर डाला है, पूरे संघ को अस्त-व्यस्त कर दिया है।
गौरव-क्या! अब क्या होगा?
एक श्राविका-हाँ, उस क्रूर हाथी ने कितने ही हाथी, घोड़ों और गाय-बैलों को मार डाला है। कितने ही ऊँटों को गिरा दिया जो कि बेचारे पुन: नहीं उठ सके।
दूसरी श्राविका-और तो और भाई! उसने पाकशाला में व्यस्त हुई महिलाओं को दु:खी कर दिया।
संस्कार-(चिंतित मुद्रा में) ओह! यह तो मुनि संघ पर उपसर्ग ही आ गया। कहीं वह किसी मुनि का अहित न कर देवे।
संस्कृति-हाँ भाइयों-बहनों! जल्दी सोचो। इस उपसर्ग का निवारण वैâसे हो। चलो जल्दी चलो, सभी आचार्यश्री के पास चलकर देखें।
(सभी भागकर आचार्यश्री के पास पहुँचते हैं और देखकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं कि वह हाथी मदजल बरसाता हुआ मुनिराज अरविंद के पास ही पहुँच गया है)
एक श्रावक-(चिंतित मुद्रा में) अरे! अब क्या होगा? वह तो आचार्यवर्य के पास ही पहुँच गया।
दूसरा-(घबड़ाकर) हे भगवन्! रक्षा करो। इस उपसर्ग को दूर करो।
श्राविका-अरे! कोई तो आओ! कहीं यह गुरुवर का कुछ अहित न कर देवे।
(सभी श्रावक-श्राविकाएं आकुल-व्याकुल हो इधर-उधर भागदौड़ कर रहे हैं परन्तु सूरिवर्य गुरुदेव सुमेरुपर्वत के समान अचल हैं। उनके वक्ष:स्थल में श्रीवत्स का चिन्ह था। उसको देखते ही उस गजराज को जातिस्मरण हो गया)
(वह वङ्काघोष हाथी मुनिराज को एकटक देख रहा है)
हाथी-(मन में) ओह! यह तो मेरे पूर्वजन्म के स्वामी हैं और मैं इनका मंत्री मरुभूति था।
(जातिस्मरण होते ही वह क्रूर हाथी एकदम शांत हो गया और मुनिराज के चरणों में मस्तक टेक दिया। तब मुनिराज ने उसे सम्बोधित किया)
मुनिराज-हे गजराज! तुमने यह क्या किया? अरे! यह िंहसाकर्म महान दु:खों को देने वाला है। यह हिंसा स्व और पर दोनों को दुखदायी है।
(पुन: उसे ध्यान से सुनते देखकर कहते हैं)
अहो! तुमने ब्राह्मण के पुत्र मरुभूति मंत्री की पर्याय से भाई के प्रति आर्तध्यानपूर्वक मरकर यह तिर्यंचयोनि पाई है। मैं अरविंद राजा तुम्हारा स्वामी था। मैंने तुम्हें इस दुष्टात्मा कमठ से मिलने को मना किया था पर तुम नहीं माने और उस दुष्ट तापसी ने तुम्हारे सिर पर शिला पटक दी।
(गजराज को एक-एक बातें स्मरण हो आती हैं तब मुनि पुन: कहते हैं)
तुम भाई के मोहरूपी आर्त परिणाम से मरकर इस गजयोनि में आ गए हो, उस कमठ की भार्या वरुणा भी कालांतर में मरकर तुम्हारी हथिनी हुई है। जिस भावज को तुमने माता के समान समझा था आज तुम उसी के साथ रमण करते हुए सुखी हो रहे हो। अरे करपति! देखो, देखो, संसार की विचित्रता तो देखो।
(उस समय हाथी के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी मानो उसके अंतरंग से मिथ्यात्व और दुर्ध्यान ही अश्रुजल के बहाने निकल रहे हैं)
(दूर खड़े श्रावकगण अचरज में हैं कि यह क्रूर हाथी इतना शांत वैâसे है?)
एक श्रावक-अरे-घोर आश्चर्य! इतना क्रूर हाथी और एकदम शांत। यह वैâसे हुआ?
दूसरा-शायद वीतराग मुद्रा की ही महिमा है।
तीसरा-भाई! मुझे तो लगता है कि उसे जातिस्मरण हो गया है।
एक श्राविका-(आश्चर्य से) जातिस्मरण?
दूसरी श्राविका-हाँ, मैंने पुराणों में ऐसे कथानक कई-कई बार पढ़े हैं।
तीसरी श्राविका-चलो बहनों-भाईयों! हम भी पास जाकर देखें कि मुनिराज उसे क्या उपदेश दे रहे हैं।
सभी-हाँ, हाँ, चलो चलते हैं।
(इधर मुनिराज उसे निरन्तर सम्बोधित कर रहे हैं)-
मुनिराज-हे गजेन्द्र! मैंने तुम्हारे वियोग से दु:खी होकर अवधिज्ञानी महामुनि से पूछा था कि मेरा प्रिय मंत्री मरुभूति अभी तक क्यों नहीं आया, तब उन्होंने सारी घटना सुनाई थी। पुन: एक दिन मैं महल के ऊपर छत पर प्राकृतिक सुषमा को देख रहा था कि अकस्मात् आकाश में मेघ से निर्मित एक सुन्दर मंदिर दिखाई पड़ा और मैं उसे साकार रूप देने के लिए कागज-कलम उठाकर उसका चित्र खींचने ही वाला था कि वह सुन्दर भवन विघटित हो गया। बस, मुझे संसार, शरीर व भोगों से विरक्ति हो गई और मैंने निर्ग्रन्थ गुरु के सानिध्य में जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। इस समय मैं चतुर्विध संघ सहित सम्मेदशिखर महातीर्थ की वंदना के लिए जा रहा हूँं। इसकी वंदना करने वाले जीव भव्य ही होते हैं और ४९ भव के अंदर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
(गजराज अब और शांतचित्त हो महामुनि की धर्ममयी वाणी का पान कर रहा है और श्रावकगण भी वहीं आकर बैठ जाते हैं और उपदेशामृत सुनने लगते हैं)
मुनिराज पुन: उसे सम्बोधित करते हैं-
गजराज! अब तुम मिथ्यात्वरूपी विष का वमन करो और पाँचों पापों का त्याग करो। यह सम्यग्दर्शन ही मोक्ष महल में चढ़ने के लिए पहली सीढ़ी है। दयामयी धर्म ही सच्चा धर्म है, निर्ग्रन्थ गुरु ही सच्चे गुरु हैं। बस, इन्हीं का दृढ़ श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है। नि:शंकित आदि आठ अंग हैं इसके बिना यह दर्शन संसार की बेल को उखाड़ने में समर्थ नहीं है।
सुनो! अब तुम पंच उदुम्बर फल और मद्य, मांस, मधु का त्याग करो। पंच अणुव्रतों का पालन करो। इनकी रक्षा करने वाले सात शीलों का पालन करो। इन व्रतों के प्रभाव से तुम नियम से देवगति को प्राप्त करोगे।
निर्देशक-(इस प्रकार से गुरुदेव ने विस्तार के साथ सम्यक्त्व और व्रतों का उपदेश दिया तब हाथी उन व्रतों को ग्रहण करके अपने हर्ष को व्यक्त करते हुए बार-बार गुरुदेव को नमस्कार करने लगा और बार-बार पृथ्वीतल पर मस्तक टेक-टेककर अपनी श्रद्धा प्रकट करने लगा)
(गजराज को श्रावक जानकर सभी श्रावकगण उसे मिष्ठान्न आदि खिलाकर प्रासुक जल पिलाते हैं)
एक श्रावक-भइया! क्या आश्चर्य की बात है कि हाथी जैसा पशु भी श्रावक हो गया है।
दूसरा-हाँ! उसने मुनिराज से पंच अणुव्रत ग्रहण कर लिए हैं।
तीसरा-चलो चलें, उसे मिष्ठान्न और प्रासुक जल दे कर आते हैं।
सभी तैयार हो जाते हैं-हाँ, हाँ चलो चलते हैं, उसे कुछ खिला-पिला भी दें और आचार्यश्री के दर्शन भी कर लें।
श्राविका-हाँ, मैं भी चलूँगी, क्योंकि मैंने सुना है कि आचार्य श्री वहाँ से विहार कर सम्मेदशिखर की ओर प्रस्थान कर रहे हैं।
(सभी उसे मिष्ठान्न आदि खिलाते हैं पुन: एक श्राविका कहती हैं)
श्राविका-आइए चलते हैं, क्योंकि आचार्यवर्य संघ सहित शिखरजी की ओर विहार कर रहे हैं।
(हाथी भी यह सुनकर कुछ दूर तक संघ के साथ जाकर गुरुदेव को पहुँचाकर आया और गुरु के पादकमल का स्मरण करते हुए वहीं सल्लकी वन में रहने लगा)
(अब हाथी संयमासंयम को साध रहा है। वह सम्यग्दृष्टि है, किसी भी जीव को भूलकर भी नहीं सताता है। अपने शरीर को कृश करते हुए इन्द्रियों को दमन कर रहा है। अपने शीलव्रत को पालन करने में कुशल वह हाथी हथिनी के पास भी नहीं जाता है। उस निर्जन वन में अन्य जंतुओं द्वारा किए गए उपसर्गों को सहन करने में समर्थ होता हुआ अपने मन में किंचित् भी दुर्ध्यान नहीं लाता है। इस प्रकार बहुत काल तक दुर्द्धर तप करते हुए उसकी शक्ति क्षीण हो गई फिर भी वह पंचपरमेष्ठी के चिंतवन में अपने मन को क्षीण नहीं करता है।)
एक दिन वह करीन्द्र प्यासा हुआ वेगवती नदी के तट पर आया और सूंड़ से पँâूक करके जल को प्रासुक किया, पुन: जल पीने लगा।
हाथी–(मन में) बहुत प्यास लगी है, जल को प्रासुक करके थोड़ा सा जल पी लूँ।
(तभी) अरे! यहाँ तो कीचड़ बहुत अधिक है, अरे! मेरा तो पैर ही फंसा जा रहा है। हे भगवान्! अब मैें बाहर वैâसे निकलूँ।
(हाथी कीचड़ में बुरी तरह फंस गया है और मन ही मन सोचता है)-
अब मुझे इस अथाह कीचड़ से कोई भी निकालने वाला नहीं है जैसे मोहरूपी कीच में फंसे हुए संसारी जीव को इस संसाररूपी अथाह समुद्र से निकालने वाला कोई नहीं है। हाँ! यदि मैं सल्लेखनारूपी बंधु का सहारा ले लूँ तो वह मुझे अवश्य ही यहाँ से निकालकर उत्तम देवगति में पहुँचा सकता है।
निर्देशक-(ऐसा निश्चय कर गजराज ने चतुराहार का जीवन भर के लिए त्याग करके महामंत्र का स्मरण करते हुए पंचपरमेष्ठी का अवलम्बन ले लिया। कुछ काल बीता ही था कि एक कुक्कुट जाति का सांप वहाँ आ गया और पूर्व जन्म के बैर के संस्कार से उसे डस लिया)।
गजराज वेदना से व्याकुल हो रहा है किन्तु गुरुदेव द्वारा प्राप्त उपदेश से स्वयं को संभाले हुए है।)
हाथी-हे प्रभू! इस सर्प ने अकारण ही मुझे डस लिया। एक तो कीचड़ से न निकल पाने की वेदना और दूसरी इसके काटने की वेदना। फिर भी मुझे संतोष रखना होगा क्योंकि गुरुदेव ने कहा था कि यह आत्मा भिन्न है-शरीर भिन्न है-२।।
निर्देशक-(ऐसा वाक्य स्मरण करते हुए वह शरीर से अपनी आत्मा को पृथव्â समझ पंचपरमेष्ठी का ध्यान करने लगा और अपने परिणामों को स्थिर करके धर्मध्यानपूर्वक इस नश्वर देह का त्यागकर बारहवें स्वर्ग में स्वयंप्रभ विमान में ‘शशिप्रभ’ देव हो गया।)