हे ज्ञानमूर्ति माँ ज्ञानमती, तव ज्ञानकिरण यदि पा जाऊँ।
अज्ञान अंधेरा दूर भगा, निज ज्ञानज्योति को प्रगटाऊँ।।
भारत इक था गुलजार चमन, हिंसा ने उसको नष्ट किया।
सच्चाई के इस उपवन को, स्वार्थी तत्त्वों ने भ्रष्ट किया।।
ऐसी शक्ती मैं प्रगट करूँ, जो विश्वशांति को ला पाऊँ।
अज्ञान अंधेरा दूर भगा, निज ज्ञानज्योति को प्रगटाऊँ।।१।।
उपकार करूँ सारे जग का, यह भाव हृदय में आता है।
दुःखियों को देख हृदय रोता, मन करुणा से भर जाता है।।
दो शक्ति मुझे मैं सब जग का, दुःख दूर स्वयं ही कर पाऊँ।
अज्ञान अंधेरा दूर भगा, निज ज्ञानज्योति को प्रगटाऊँ।।२।।
भगवान न यदि बन सवूँâ तो मैं, इन्सान की श्रेणी पा जाऊँ।
यदि साधु नहीं बन सवूँâ तो मैं, सज्जन की श्रेणी पा जाऊँ।।
निज पर को ही ‘‘चन्दनामती’’, मैं सज्जनता सिखला पाऊँ।
अज्ञान अंधेरा दूर भगा, निज ज्ञानज्योति को प्रगटाऊँ।।३।।