मुद्रा के चार भेद हैं-जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वन्दनामुद्रा, मुक्ताशुक्तिमुद्रा। इन चारों मुद्राओं का लक्षण क्रम से कहते हैं।
जिनमुद्रा-दोनों पैरों में चार अंगुल प्रमाण अन्तर रखकर और दोनों भुजाओं को नीचे लटकाकर कायोत्सर्गरूप से खड़े होना सो जिनमुद्रा है। योगमुद्रा-पद्मासन, पर्यंकासन और वीरासन इन तीनों आसनों की गोद में नाभि के समीप दोनों हाथों की हथेलियों को चित रखने को जिनेन्द्रदेव योगमुद्रा कहते हैं। वन्दना मुद्रा-दोनों हाथों को मुकुलितकर और कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े हुए पुरुष के वन्दना मुद्रा होती है।
मुक्ताशुक्तिमुद्रा-दोनों हाथों की अंगुलियों को मिलाकर और दोनों कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े हुए को आचार्य मुक्ताशुक्तिमुद्रा कहते हैं।
देववन्दना के लिए जिनमंदिर में पहुँचकर हाथ-पैर धोकर ‘निःसहि’’ का तीन बार उच्चारण कर जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करें। अनंतर ‘‘दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि’’ इत्यादि स्तोत्र को पढ़ते हुए चैत्यालय की तीन प्रदक्षिणा देवें। पुनः ‘निःसंगोऽहं जिनानां’’ इत्यादि दर्शनस्तोत्र पढ़कर यदि खड़े होकर सामायिक करना है तो खड़े होकर ‘‘ईर्यापथशुद्धि पाठ’’ से सामायिक शुरू करें। यदि खड़े होकर सामायिक करने की शक्ति नहीं है तो बैठकर करें।
बैठकर भी देववन्दना करने का विधान-
‘‘साधुः पुनर्वंदनां यथोक्तविशेषणविशिष्टः-सपर्यंकः सप्रतिलेखन-मुकुलितवत्सोत्संगितकरः कुर्यात् । कया? अशक्त्या। उद्भो यदि वंदितुं न शक्नुयादित्यर्थः१।’’
साधु यदि खड़े होकर वंदना नहीं कर सकते हैं-असमर्थ हैं तो पर्यंकासन से बैठकर, पिच्छी लेकर, मुकुलित हाथ जोड़कर वक्षःस्थल के पास रखकर देववंदना करें। (अपनी वसतिका में सामायिक करने में ‘‘दृष्टं जिनेन्द्र भवनं……तथा नि:संगोऽहं जिनानां……आदि पढ़ें तो अच्छा ही है, नहीं भी पढ़ें मात्र नि:संगोऽहंजिनानां ऐसा एक श्लोक पढ़कर ‘‘पडिक्कमामि भंते।’’ से भी शुरू कर सकते हैं।)
चैत्यभक्ति में तीन प्रदक्षिणा-
चैत्यभक्ति पढ़ते-पढ़ते भी जिनप्रतिमा की तीन प्रदक्षिणा देने का विधान है।
दीयते चैत्यनिर्वाण-योगिनंदीश्वरेषु हि।२
वंद्यमानेष्वधीयानैस्तत्तद्भक्तिं प्रदक्षिणा।।९२।।
चैत्यभक्ति, निर्वाणभक्ति, योगिभक्ति और नन्दीश्वर भक्ति पढ़ते-पढ़ते मंदिर में, निर्वाणक्षेत्रों में, योगियों की व जिनबिम्बों की प्रदक्षिणा करना चाहिए।