पं. माणिकचंद्रजी कौन्देय का जन्म ग्राम चावली (आगरा) उत्तरप्रदेश में पिता लाला हेत सिंहजी, माता श्रीमति झल्लाबाई जी के यहाँ हुआ ।
आपको न्यायाचार्य, तर्करत्न, न्यायदिवाकर, सिद्धान्त महोदधि, स्याद्वाद वारिधि, दार्शनिक शिरोमणि, विद्वत् सम्राट्, प्रवचन चक्रवर्ती, सिद्धान्त भास्कर, न्यायरत्न की उपाधियाँ प्रदान की गईं। आप न्यायशास्त्र में निष्णात विद्वान् थे।
आपने दिल्ली, पानीपत, अजमेर, भिवानी आदि स्थानों पर आर्य समाज के विद्वानों से शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करके जैनधर्म की विजय पताका फहराई।
बीसवीं शताब्दी में जैन भारती के भण्डार को अप्रतिम समृद्धि दिलाने वाले जो अनेक शुभ संयोग जुटे हैं। उनमें दो घटनाएँ प्रधान हैं-
प्रथम- लगभग २००० वर्ष पूर्व वीरसेन स्वामी द्वारा रचित श्री धवल ग्रन्थों की प्रतिलिपि कराकर उनका हिन्दी में अनुवाद और प्रकाशन होना पहली गौरवपूर्ण घटना है। यह कार्य कुशल विद्वानों के सक्षम समुदाय ने सम्पन्न किया ।
दूसरी – लगभग ११०० वर्ष पूर्व श्री विद्यानंदि स्वामी द्वारा रचित तत्त्वार्थों का विशद – विस्तृत वर्णन करने वाले संस्कृत तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक जैसे महान् ग्रन्थ का हिन्दी महाभाष्य, तत्त्वार्थ चिन्तामणि का लेखन सवा लाख श्लोक प्रमाण महाभाष्य, तत्त्वार्थ चिन्तामणि की श्रमसाध्य रचना का दुसह कार्य एक अकेले मनीषी पं. माणिकचन्द्रजी कौन्देय ने सम्पन्न किया । जिन्होंने १५ वर्ष अहोरात्र परिश्रम करके यह महान् कार्य पूरा किया। यहबड़ी विद्वत्ता, दृढ़ साहस एवं धैर्य का काम था ।
पण्डित माणिकचन्द्रजी कौन्देय की असीम विद्वत्ता केवल जैनदर्शन या न्याय तक ही सीमित नहीं थी। हिन्दी में उनका मौलिक लेखन भी इतना विविध, ऐसा आगमानुसारी और इतना सुगम है जो सहज ही उन्हें समय के श्रेष्ठ रचनाकारों की अंग्रिम पंक्ति में बिठाता है।