विकृत्य रूपं स्वं तत्र निधाय हरिविष्टरे।
अशोकवनमभ्येत्य गृहीत्वा चन्दनां द्रुतम्।।३९।।
प्रत्यागतो मनोवेगाप्येतं विहितवञ्चनम्।
ज्ञात्वा कोपारुणीभूतविभीषणविलोचना।।४०।।
तां विद्यादेवतां वामपादेनाक्रम्य सावधीत्।
कृताट्टहासा सा विद्याप्यगात्सिंहासनात्तदा।।४१।।
चेष्टामालोकिनीविद्यातो ज्ञात्वा स्वपतेरनु।
गच्छन्त्यर्धपथे द्रष्ट्वा विसृजेमां स्वजीवितम्।।४२।।
यदि वाञ्छेरिति क्रोधात्तं निर्भर्त्सयति स्म सा।
स भूतरमणेऽरण्ये तां स्वदारातिभीलुक:।।४३।।
ऐरावतीसरिदक्षिणान्ते साधितविद्यया।
पर्णलघ्व्या तदैवान्तःकृतशोको विसृष्टवान्।।४४।।
सापि पञ्चनमस्कारपरिवर्तनतत्परा।
निनाय शर्वरीं कृच्छ्राद्भानुमत्युदिते स्वयम्।।४५।।
अर्थ–मनोवेग विद्याधर रूपिणी विद्या से अपना दूसरा रूप बनाकर सिंहासन पर बैठा आया और अशोक वन में आकर तथा चंदना को लेकर शीघ्र ही वापस चला गया। उधर मनोवेगा उसकी माया को जान गई जिससे क्रोध के कारण उसके नेत्र लाल होकर भयंकर दिखने लगे। उसने उस विद्यादेवता को बायें तरफ की पैर की ठोकर देकर मार दिया जिससे वह अट्टहास करती हुई सिंहासन से उसी समय चली गई।।३९–४१।।
तदनंतर वह मनोवेगा रानी आलोकिनी नाम की विद्या से अपने पति की सब चेष्टा जानकर उसके पीछे दौड़ी और आधे मार्ग में चंदना सहित लौटते हुए पति को देखकर बोली-यदि अपना जीवन चाहते हो तो इसे छोड़ दो। इस प्रकार क्रोध से उसने उसे बहुत ही डाँटा। मनोवेग अपनी स्त्री से बहुत ही डर गया इसलिए हृदय में बहुत ही शोक कर सिद्ध की हुई पर्णलघ्वी नाम की विद्या से उस चंदना को भूतरमण नामक वन में ऐरावती नदी के दाहिने किनारे पर छोड़ दिया।।४२–४४।। पञ्च नमस्कार मंत्र का जप करने में तत्पर रहने वाली चंदना ने वह रात्रि बड़े कष्ट से बिताई।