४.१ इस दृश्य जगत् में जब से मानव ने आँखे खोलीं, तभी से ‘आत्मतत्त्व’ को जानने की इच्छा की प्रक्रिया शुरू हुई। इसी आत्मतत्त्व को जैनदर्शन ‘जीव’ के रूप में, सांख्य दर्शन पुरुष के रूप में और अन्य दर्शन आत्मा के रूप में अभिहित करते हैं। जीवविचार अन्य भारतीय दर्शनों की तरह जैनदर्शन के केन्द्र में है। जैनदर्शन में जीव और अजीव तत्त्व मूल में माने गये हैं।
जीव : व्युत्पत्तिपरक अर्थ-‘जीवप्राणधारणे’ धातु से भाव ‘जीवनम् इति जीव:’ अर्थात् जीवन या प्राण धारण करने को जीव कहते हैं। जैन वाङ्मय में जीव के अनेक पर्याय नामों का निर्देश मिलता है। धवलाकार ने भी जीव के पर्याय शब्दों का उल्लेख किया है। महापुराण में भी जीव, प्राणी, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, अन्तरात्मा, ज्ञानी आदि अनेक जीवार्थक शब्द प्रयोग में आये हैं।
विभिन्न भारतीय दर्शनों में जीव (आत्मा)- सभी भारतीय दर्शन चूँकि अध्यात्मवादी हैं, इसलिए सबके केन्द्र में ‘जीव’ या आत्मा का चिंतन रहा है। सभी ने किसी न किसी रूप में आत्मा पर अवश्य प्रकाश डाला है। चार्वाक को छोड़कर सभी भारतीय दर्शनों का लक्ष्य मोक्ष है अत: सबके केन्द्र में आत्मा ही है क्योंकि मोक्ष का सीधा संबंध आत्मा से ही है। प्रश्न उठता है कि मुक्ति किसकी ? उत्तर के रूप में ‘जीव’ अर्थात् आत्मा का अस्तित्व स्वत: सामने आता है। सभी भारतीय दर्शन आत्मा में आस्था रखते हैं, अपने चिंतन के केन्द्र में आत्मा को रखते हैं इसलिए वे अध्यात्मवादी भी कहलाते हैं। यहाँ हमारा उद्देश्य सभी दर्शनों की संक्षिप्त आत्ममीमांसा को प्रस्तुत करना है।
चार्वाक दर्शन भौतिकवादी दर्शन है। यहाँ चार भौतिक या जड़तत्त्व ही मूल तत्त्व हैं-‘‘पृथिव्यप्तेजवायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदाये शरीरेन्द्रिय विषय संज्ञा।’’ अर्थात् पृथ्वी, अप्, तेज और वायु ये चार ही मूल तत्त्व हैं। इन्हीं से शरीर, इन्द्रिय एवं संसार के सभी तत्त्वों की उत्पत्ति हुई है। ‘तेभ्य: चैतन्योऽपि’ अर्थात् इन्हीं से चेतना की भी उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार चार्वाक चार जड़ तत्त्वों को ही चेतना का भी कारण मानता है। इससे यह सिद्ध होता है कि चेतन तत्त्व नित्य, शाश्वत नहीं है। यह उत्पन्न और नष्ट होता है। प्रश्न यह उठता है कि जड़ तत्त्व से चेतना की उत्पत्ति वैâसे हो सकती है तो चार्वाक दर्शन में कहा गया है-
‘‘जड़भूतविकारेसु चैतन्यं यत्तु दृश्यते रज:।
ताम्बूलपूगचूर्णानां रागादिवोत्थितम्।।’’
अर्थात् जैसे पान, सुपारी और चूना में से लालिमा किसी में नहीं है किन्तु जब ये आपस में मिल जाते हैं तो लालिमा की उत्पत्ति स्वत: हो जाती है। उसी प्रकार चारों जड़ तत्त्वों में चेतना नहीं है किन्तु इनके मिलने से चेतना की उत्पत्ति होती है। चार्वाक चूँकि नित्य आत्मा को नहीं मानता अत: मुक्ति से आत्मा की मुक्ति को भी नहीं मानता। उसके अनुसार ‘मरणमेवापवर्ग:’ अर्थात् मृत्यु ही मोक्ष है। वह पुनर्जन्म में भी विश्वास नहीं करता है। ‘पुनरागमनं कुत:’ कहकर पुनर्जन्म का भी खण्डन करता है। अत: यहाँ जीव या आत्मा का चिंतन भी बिल्कुल अलग तरीके का हुआ है।
सांख्य दर्शन में आत्मा को पुरुष कहते हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार आत्मा नित्य, शाश्वत है।
अमूर्त्त है, चेतन है, साक्षी है, वैâवल्यस्वरूप है, तटस्थ है, द्रष्टा है, भोक्ता है और अकर्त्ता है। सांख्य दर्शन में आत्मा को अकर्त्ता के साथ भोक्ता कहा गया है। प्रश्न यह उठता है कि जो अकर्त्ता है, वह भोक्ता वैâसे है ? सांख्य दार्शनिक ‘बालहुताशनतरव:’ का दृष्टान्त देकर अकर्त्ता के साथ आत्मा का भोक्ता होना सिद्ध करते हैं। जैसे बालक कुछ नहीं करता है किन्तु माँ उसे दूध, जल आदि का पान कराती है। अग्नि और वृक्ष जिसका उपभोग करते हैं वे उनका निर्माण नहीं करते हैं अत: ये जैसे भोक्ता हैं किन्तु कर्त्ता नहीं उसी प्रकार पुरुष (आत्मा) भी भोक्ता है किन्तु कर्त्ता नहीं है। सांख्यदर्शन में आत्मा एक नहीं अनेक है। सांख्य दर्शन में आत्मा की अनेकता के संदर्भ में कहा गया है कि जन्म, मृत्यु और इन्द्रियों की व्यवस्था से आत्मा की अनेकता सिद्ध होती है। आत्मा यदि एक होती तो एक के जन्म लेने से सारे जन्म लेते, एक की मृत्यु से सारे मरते और एक के अंधे, लूले, लंगड़े होने से सारे अंधे, लूले और लंगड़े होते किन्तु ऐसा नहीं होता अत: आत्मा एक नहीं अनेक है। यदि आत्मा एक है तो उसमें तीनों गुणोें का जैसा स्वरूप है वैसा सबमें होता किन्तु ऐसा नहीं है। कोई सुखी है, कोई दु:खी है, कोई मोह में है। सबके अलग-अलग गुण होने से आत्मा की अनेकता सिद्ध होती है अत: सांख्य दर्शन के अनुसार आत्मा एक नहीं, अनेक है। यहाँ मुक्तात्मा (सत्, रज एवं तम से रहित की अवस्था) है।
बौद्ध दर्शन के संस्थापक गौतम बुद्ध थे। प्रतीत्यसमुत्पाद अर्थात् प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण होता है, उनके दर्शन का आधारभूत सिद्धान्त है, जिससे यह सिद्ध होता है कि कुछ भी शाश्वत नहीं है। सब कुछ उत्पन्न और नष्ट होता है अर्थात् सब कुछ अनित्य एवं क्षणिक है। आत्मा भी अनित्य है। बौद्ध दर्शन का ‘अनात्मवाद’ प्रसिद्ध है। अनात्मवाद से तात्पर्य ‘न आत्मा अनात्मा’ अर्थात् आत्मा नहीं है, ऐसा नहीं है अपितु अनात्मवाद से तात्पर्य है ‘न नित्यात्मा अनात्मा’ अर्थात् नित्य आत्मा नहीं है। आत्मा पाँच स्कंधों का समूह है। पंच स्कंध हैं-वेदना, संज्ञा, रूप, संस्कार और विज्ञान। जब ये पाँचों मिलते हैं तो आत्मा कहलाते हैं और जब ये अलग हो जाते हैं तो आत्मा नष्ट हो जाती है। ‘मिलिन्दपहनो’ ग्रंथ में बौद्ध भिक्षु नागसेन और राजा मिनाण्डर के वार्तालाप से इस प्रकार की आत्मा का चित्रण हुआ है। गौतम बुद्ध मध्यम प्रतिपदावादी थे। वे शाश्वत आत्मा को नहीं मानते थे और न ही आत्मा का निषेध करते थे अत: आत्मा के संदर्भ में प्रश्न पूछे जाने पर वे मौन रहते थे। बौद्ध दर्शन में आत्मा की स्वीकृति के संदर्भ में कहा गया है-जैसे बिल्ली अपने बच्चे को अपने मुँह में न अति कठोरता से दबाती है कि बच्चा चोटिल हो जाये और न अति शिथिलता से दबाती है कि बच्चा गिरकर चोटिल हो जाये अपितु मध्यम रूप में दबाती है, वैसे ही यहाँ आत्मा से मुक्ति माना गया है अर्थात् निर्वाण पूर्णतया शांत अवस्था है। यहाँ आत्मा का अस्तित्व भी नहीं रहता। कहा गया है-‘‘दीपो यथा निवृत्तिमभ्युपेतो नैवावनिं नान्तरिक्षम्’’। दिशं न कांचित् विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात् केवलमेव शांतिम्।’’ अर्थात् जैसे बुझा हुआ दीपक न पृथ्वी पर, न अंतरिक्ष में, न दिशा-विदिशा में कहीं नहीं रह जाता वैसे राग-द्वेष मुक्त आत्मा का भी कहीं अस्तित्व नहीं रह जाता है।
यहाँ भी आत्मा को नित्य एवं विभु माना गया है। इनके अनुसार आत्मा एक ऐसा द्रव्य है जिसमें बुद्धि या ज्ञान, सुख-दु:ख, राग-द्वेष, इच्छा, कृति या प्रयत्न आदि गुण के रूप में विद्यमान रहते हैं। ये जड़ द्रव्यों के गुणों की तरह नहीं हैं क्योंकि ये बाह्य इन्द्रियों से बोधगम्य नहीं हो सकते। ज्ञान या चैतन्य का संचार तब होता है जब उसका मन के साथ, मन का इन्द्रियों के साथ और इन्द्रियों का बाह्य वस्तुओं के साथ संपर्क होता है। ऐसा न होने पर आत्मा में चैतन्य का उदय नहीं हो सकता। आत्मा जब शरीर मुक्त होता है तब उसमें ज्ञान का अभाव रहता है अत: यह कहा जा सकता है कि न्याय-वैशेषिक दर्शन से चैतन्य आत्मा का स्वरूप लक्षण न होकर आगंतुक लक्षण है। चूँकि चेतना आगंतुक धर्म है अत: मुक्तात्मा में यह चेतना नहीं रह सकती और कोई नया स्वरूप भी नहीं प्राप्त होता है, इसलिए व्यंग्य में यह कहा जाता है कि न्याय-वैशेषिक दर्शन में आत्मा को मुक्त करने की अपेक्षा शृगाल (सियार) बनकर वृन्दावन की हरी-हरी घास चरना अधिक अच्छा है।
वेदान्त दर्शन में आत्मा त्रैकालिक सत् है। चेतना आत्मा का स्वरूप लक्षण है न कि आगंतुक लक्षण। यहाँ ब्रह्म और आत्मा को एक माना गया है। ‘तत्त्वमसि’ अर्थात् आत्मा ब्रह्म है आदि औपनिषदिक वाक्यों से आत्मा और ब्रह्म की एकरूपता यहाँ सिद्ध है। ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:’ वाक्य भी जीव और ब्रह्म की एकरूपता को प्रतिपादित करते हैं। वह आत्मा सच्चिदानन्द स्वरूप है अर्थात् सत्, चित् और आनन्द स्वरूप है।
यहाँ आत्मा को अनेक न मानकर एक माना गया है। एक ही आत्मा सब जगह व्याप्त है। कहा भी गया है-‘एक एव हि भूतात्मा भूते-भूते व्यवस्थित:’ अर्थात् आत्मा एक है और सभी में स्थित है। अद्वैत वेदान्त में यह भी कहा गया है कि यह एक आत्मा अविद्या आदि के द्वारा अनेक प्रतीत होता है अन्यथा यह ‘एकमेवाद्वितीयम्’ अर्थात् एक ही और अद्वितीय है। जिस प्रकार एक चन्द्र का प्रतिबिम्ब विभिन्न जलपात्रों में पड़ने पर वह अनेक रूप में दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार एक आत्मा का प्रतिबिम्ब अविद्या पर पड़ने से वह अनेक प्रतीत होता है। वेदान्त के अनुसार अनेकात्मवाद की कल्पना अज्ञान के कारण है।
जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेह परिणामो।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई।। (द्र. सं. २)
जो जीता है सो जीव कहा, उपयोगमयी वह होता है।
मूर्ती विरहित कर्ता स्वदेह परिमाण कहा और भोक्ता है।।
संसारी है औ सिद्ध कहा, स्वाभाविक ऊर्ध्वगमनशाली।
इन नौ अधिकारों से वर्णित, है जीव द्रव्य गुणमणिमाली।।२।।
अर्थ-प्रत्येक प्राणी जीव है, उपयोगमय है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण रहने वाला है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है। ये जीव के नव विशेष लक्षण हैं।
१. जीव-अपने प्राणों से जो जीता है सो जीव है। ‘जीवति, जीविष्यति, जीवितपूर्वो वा इति जीव:’।
२. उपयोगमय-‘चैतन्यानुविधायी आत्मन: परिणाम: उपयोग:’ चैतन्य से अनुप्राणित जीव का परिणाम उपयोग है।
३. अमूर्तिक-निश्चयनय की अपेक्षा जीव कर्ममल से रहित होने के कारण (अमूर्त, अतीन्द्रिय, शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव वाला होने से) अमूर्तिक है।
४. कर्त्ता-मन, वचन, काय के व्यापार के कारण कर्मसहित होने से शुभाशुभ कर्मों का कर्त्ता है।
५. स्वदेह परिमाण-शरीर नामकर्म के उदय से संकोच विस्तार वाला होने से स्वदेह प्रमाण है।
६. भोक्ता-शुभाशुभ कर्म से उत्पन्न सुख-दु:ख का भोगने वाला होने से भोक्ता है।
७. संसारस्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पाँच प्रकार के संसार में भ्रमण करने से संसारस्थ है।
८. सिद्ध-अनन्त ज्ञान और अनन्त गुण स्वभाव का धारक होने से सिद्ध है।
ऊर्ध्वगति स्वभावी-केवलज्ञानादि अनन्त गुणों की प्राप्ति होने के कारण मोक्षगमन के समय जीव स्वभाव से ही ऊर्ध्वगमन करने वाला होने से ऊर्ध्वगति स्वभावी है।
जीव (चार्वाक के प्रति) यद्यपि शुद्ध निश्चयनय से आदि, मध्य और अन्तरहित स्वपरप्रकाशी शुद्ध चैतन्य (ज्ञान) रूप निश्चय प्राण से जीता है तथापि अशुद्ध निश्चयनय से अनादि कर्मबंध के कारण द्रव्य प्राण और भाव प्राण से जीता है।
उपयोगमयी (नैयायिक)-यद्यपि शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से परिपूर्ण तथा निर्मल ज्ञानदर्शन रूप उपयोग स्वरूप है तथापि अशुद्धनय से क्षायोपशमिक ज्ञानदर्शनरूप है इसलिए जीव को ज्ञानदर्शन स्वभावी (उपयोगवान) कहा है।
अमूर्तिक-यद्यपि जीव व्यवहार नय से मूर्त कर्मों के अधीन होने से स्पर्श, रस, गंध और वर्ण वाली मूर्ति से युक्त होने के कारण मूर्तिक है तथापि निश्चयनय से इन्द्रियों के अगोचर शुद्ध स्वभाव का धारक होने से अमूर्तिक है।
कर्त्ता (सांख्य)-यद्यपि वह जीव निश्चय से क्रियारहित, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभाव का धारक है तथापि व्यवहार नय से मन, वचन, काय के व्यापार को उत्पन्न करने वाले कर्मों से सहित होने के कारण शुभ और अशुभ कर्मों का कर्त्ता है।
स्वदेहपरिमाण (नैयायिक, मीमांसक, सांख्य)-यद्यपि जीव निश्चय से स्वभाव से उत्पन्न शुद्ध अलोकाकाश के समान असंख्यात प्रदेशों का धारक है तथापि शरीर नामकर्म के उदय से उत्पन्न संकोच/विस्तार के अधीन होने से घट आदि भाजनों में स्थित दीपक की तरह निज देह (स्वदेह) के प्रमाण है।
भोक्ता (बौद्ध)-यद्यपि जीव शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से रागादि विकल्परूप उपाधियों से शून्य है और निजात्मा से उत्पन्न सुखरूप अमृत का भोगने वाला है तथापि अशुद्ध नय से इस अमृत-भोजन के अभाव से शुभाशुभ कर्म से उत्पन्न सुख-दुख का भोगने वाला है।
संसारस्थ (सदाशिव)-यद्यपि जीव शुद्ध निश्चयनय से संसार रहित है तथा नित्य आनन्दरूप एक स्वभाव का धारक है तथापि अशुद्धनय से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पाँच प्रकार के संसार में रहता है।
सिद्ध (भट्ट, चार्वाक)-यद्यपि यह जीव व्यवहारनय से निज आत्मा की प्राप्ति रूप जो सिद्धत्व है, उसके प्रतिपक्षी कर्मों के उदय से असिद्ध है, तथापि निश्चयनय से अनन्तज्ञान और अनन्तगुण स्वभाव का धारक होने से सिद्ध है।
स्वभाव से ऊर्ध्वगामी (माण्डलिक ग्रंथकार के प्रति)-यद्यपि व्यवहार से चतुर्गतियों को उत्पन्न करने वाले कर्मों के उदय के वश से ऊँचा, नीचा तथा तिरछा गमन करने वाला है तथापि निश्चय से केवलज्ञानादि अनंत गुणों की प्राप्तिस्वरूप मोक्ष जाने के समय स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है।
चार्वाक मत-चार्वाक मत पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूूतों के संयोग से जीव में शक्ति (जानने/देखने की क्षमता) मानता है। स्वतंत्र जीव का अस्तित्व नहीं मानता।
नैयायिक मत-नैयायिक ज्ञान, दर्शन गुण को गुणी आत्मा से सर्वथा भिन्न मानते हैं। इसी बात का निराकरण करने के लिए ही कहा गया है कि ज्ञान दर्शन गुण आत्मा से भिन्न नहीं हैं। ज्ञानदर्शन स्वभावी उपयोगमयी आत्मा है। भिन्न ज्ञान दर्शन का संयोग कराने वाले समवाय संबंध से आत्मा ज्ञाता दृष्टा नहीं बना है।
भट्ट, चार्वाक-भट्ट और चार्वाक दर्शन, आत्मा को भूतचतुष्टय (पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु) के संयोग से उत्पन्न हुआ मूर्तिक मानते हैं।
नैयायिक, सांख्य-सांख्य, प्रधान को कर्मों का कर्त्ता और आत्मा को अकर्त्ता मानता है।
नैयायिक, मीमांसक और सांख्य-यह तीनों आत्मा को वट बीज बराबर छोटा तथा सारे ब्रह्माण्ड में पैâला हुआ मानते हैं।
बौद्धमत-बौद्धदर्शन आत्मा को कर्त्ता तो मानता है परन्तु भोक्ता नहीं मानता क्योंकि उसके सिद्धान्त में आत्मा क्षण-क्षण में नष्ट हो जाता है इसलिए कर्त्ता और भोक्ता कोई और दूसरा रहता है, यह बौद्ध दर्शन की मान्यता है।
सदाशिवमत-सदाशिव सिद्धान्तवादी आत्मा को हमेशा कर्मों से रहित ही मानता है। इस बात के निराकरण के लिए ही कर्मसहित आत्मा को संसारी कहा है।
अन्यमत (माण्डलिक)-जिस स्थान से जीव मुक्त होता है, उसी स्थान पर वह रह जाता है, ऐसी मान्यता वालों के सिद्धान्त का निराकरण करने के लिए ही जीव को ऊर्ध्वगमन स्वभावी कहा है
उक्त चं- सदाशिव: सदाऽकर्मा सांख्यो मुक्तं सुखोज्झितं।
मस्करी किल मुक्तानां मन्यते पुनरागतिम्।।१।।
क्षणिकं निर्गुणं चैव बुद्धो योगश्च मन्यते।
कृतकृत्यं तमीशानो मण्डलो चोर्ध्वगामिनम्।।२।। (बृ. द्र.सं.गा. २ टीका से)
अट्ठविहकम्मवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा।
अट्ठगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा।। (जी.का.गाथा ६८)
१. ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों से रहित।
२. अनन्तसुखरूपी अमृत का अनुभव करने वाले शांतिमय।
३. नवीनकर्मबंध के कारणभूत मिथ्यादर्शनादि भावकर्मरूपी अंजन से रहित।
४. नित्य।
५. अष्टकर्म के अभाव में प्रकट हुए आठ गुणों से सहित।
६. जिनको कोई कार्य करना बाकी नहीं रह गया ऐसे कृतकृत्य।
७. लोक के अग्रभाग में निवास करनेवाले।
उपर्युक्त सात विशेषणों का प्रयोजन-
सदाशिव संखो मक्कडि, बुद्धो णेयाइयो य वेसेसी।
ईसरमंडलिदंसणविदूसणट्ठं कयं एदं।। (जी. का. गा. ६९)
अर्थ-सदाशिव, सांख्य, मस्करी, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, कर्तृत्त्ववादी, (ईश्वर को कर्त्ता मानने वाले) माण्डलिक इनके मतों का निराकरण करने के लिए ये विशेषण दिये हैं।
१. सदाशिव मत वाला जीव को सदा कर्म से रहित ही मानता है, उसके निराकरण के लिए ही कहा गया है कि सिद्ध अवस्था प्राप्त होने पर ही जीव कर्म से रहित होता है, सदा नहीं। सिद्धावस्था के पूर्व संसारावस्था में कर्म सहित रहता है। इससे उस याज्ञिक मत का भी निराकरण हो जाता है, जिसके अनुसार जीव को मुक्ति कभी होती ही नहीं। सदा कर्म सहित संसारावस्था ही रहती है।
२. सांख्य मत वाले मानते हैं कि बंध, मोक्ष, सुख, दु:ख प्रकृति को होते हैं, आत्मा को नहीं, इसके निराकरण के लिए ‘‘सुखस्वरूप’’ ऐसा विशेषण दिया है।
३. मस्करी मत वाला मुक्त जीव का लौटना मानता है। इस बात का निराकरण करने के लिए कहा है कि सिद्ध निरंजन हैं अर्थात् क्रोध, मान आदि भाव कर्मों से रहित हैं क्योंकि बिना भावकर्म के नवीन कर्म ग्रहण नहीं हो सकता और बिना कर्म ग्रहण के जीव निर्हेतुक संसार में लौट नहीं सकता।
४. बौद्धों का मत है कि सम्पूर्ण पदार्थ क्षणिक अर्थात् क्षणध्वंसी है। इस बात के निराकरण के लिए ‘नित्य’ कहा है।
५. नैयायिक तथा वैशेषिक मत वाले मानते हैं कि मुक्ति में बुद्ध्यिादि गुणों का विनाश हो जाता है। इस मत के निराकरण के लिए सिद्धों को ज्ञानादि आठ गुणों से युक्त कहा है।
६. ईश्वर को कर्त्ता मानने वालों के मत का निराकरण करने के लिए ‘कृतकृत्य’ कहा है अर्थात् अब (मुक्त होने पर) जीव को सृष्टि आदि बनाने का कार्य शेष नहीं रहा।
७. माण्डलिक मत वाला मानता है कि मुक्त जीव सदा ऊपर को ही गमन करता जाता है। उसके इस मत का निराकरण करने के लिए लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, ऐसा कहा है।