-आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी
चैतन्य एवं ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाला आत्मद्रव्य अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। इस परिभ्रमण के कारण हैं स्वयं उसके द्वारा उपार्जित उसके कर्म। मूलत: कर्मप्रकृतियाँ आठ हैं, जिनके उत्तर भेद १४८ और अवान्तर भेद असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं। इन आठ कर्मों में गोत्र नाम का भी एक कर्म है जो अनादिकाल से जीव के साथ लगा हुआ है और चौदहवें गुणस्थानक े अन्त तक साथ रहता है।
गोत्र कर्म-लक्षण-
१. गमयत्युच्चनीचकुलमिति गोत्रम्। उच्चनीचकुलेसु उप्पादओ पोग्गलक्खेंधो मिच्छत्तादिपच्चएहिजीव संबद्धो गोदमिदि उच्चदे। -धवला पु. ६, पृ. ७७
जो जीव को उच्च और नीच कुलों में ले जाता है वह गोत्र कर्म है। मिथ्यात्व आदि बंध कारणों के द्वारा जीव के साथ संबंध को प्राप्त एवं उच्च और नीच कुलों में उत्पन्न कराने वाला पुद्गल स्कंध ‘गोत्र’ नाम से कहा जाता है।
२. गोत्रं कुलं वंश: सन्तानमित्येकोऽर्थ:। -धवल पु. ६, पृ.७७
गोत्र, कुल, वंश और संतान ये सब एकार्थक नाम है।
उपर्युक्त लक्षणों से यह सिद्ध होता है कि गोत्र कर्म के उदय से ही जीवों का ऊँच-नीच कुलों में जन्म होता है अथवा उनमें ऊँच व नीच संस्कारों की प्रतीति होती है और इसी कारण वर्णों की व्यवस्था है।
गोत्र कर्म : भेद
गोदस्स कमस्स दुवे पयडीओ।
उच्च गोदं चेव णिच्चागोदं चेव।। -धवला पु. ६, पृ. ७७
अवान्तर भेदेण जदि वि बहुआवो अस्थि तो वि ताओ ण उत्ताओ गंथ-बहुत्त-भएण अथ्थवत्तीए तदवगमादो। -धवला पु. १२, पृ. ४८४
गोत्र कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं। उच्च गोत्र और नीच गोत्र अवान्तर भेद भी बहुत हैं किन्तु ग्रंथ बढ़ जाने के भय से अथवा अर्थापत्ति से उनका ज्ञान हो जाने के कारण उनको यहाँ नहीं कहा जा रहा है।
उच्चुच्च उच्च तह उच्चणीय णीचुच्च णीचं च।
जस्सोदयेण भावो णीचुच्च-विवज्जिदो तस्स।।
धवला पुस्तक ७, पृ. १५ पर उद्धृत
जिस गोत्र कर्म के उदय से जीव उच्च-उच्च, उच्च, उच्च-नीच, नीच-उच्च, नीच और नीच-नीच भाव को प्राप्त होता है।
इस प्रकार गोत्रकर्म के ये उपर्युक्त छह भेद हैं।
उच्च और नीच गोत्र के लक्षण-
जस्य कम्मस्स उदएण उच्चागोदं होदि तमुच्चागोदं गोत्रं कुलं वंश: सन्तानमित्येकोऽर्थ:। जस्स कम्मस्स उदयेण जीवाणं णीचगोदं होदि तं णीचगोदं णाम।
गोत्र, कुल, वंश, सन्तान ये सब एकार्थक नाम हैं। जिस कर्म के उदय से जीवों के उच्च गोत्र, कुल या वंश होता है वह उच्च गोत्र कर्म है और जिस कर्म के उदय से जीवों के नीच गोत्र, कुल या वंश होता है नीच गोत्र कर्म है।
यस्योदयाल्लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम्।
यद्रुदयाद् गर्हितेषु कुलेषु जन्म तन्नीचैर्गोत्रम्।
-सर्वार्थसिद्धि अ. ८, सूत्र १२, पृ. ३९४।
लोकपूजितेषु कुलेषु प्रथितमाहात्म्येषु इक्ष्वाकूग्रकुरुहरिज्ञाति-प्रभृतिषु जन्म यस्योदयाद् भवति तदुच्चैर्गोत्रमवसेयम्। गर्हितुषु दरिद्राप्रतिज्ञातदु:खाकुलेषु यत्कृतं प्राणिनां जन्म तन्नीचैर्गोत्रम् प्रत्येव्यम्। ता. रा. वा. अ. ८, सूत्र १२, पृ. ५८०।
जिस कर्म के उदय से महत्त्वशाली उत्तम कुलों में जन्म हो, वह उच्च गोत्रकर्म है और जिसके उदय से गर्हित, निंद्य, दरिद्र, अप्रसद्धि और दु:खाकुल कुलों में जन्म हो वह नीच गोत्र कर्म है।
गोत्र कर्म और उसके भेद-प्रभेदों की उपर्युक्त लक्षणावली उच्च-नीच कुलों का अस्तित्व और गोत्रकर्म के साथ कुलों एवं अंशों का अविनाभाव संबंध स्वत: सिद्ध करती है।
गोत्र कर्म का व्यापार एवं उसका फल बताते हुए क्रमश: आचार्य वीरसेन और शुभचन्द्र कहते हैं कि-
तस्स गोदस्स णीचुच्च-कुल-समुप्पायणिम्मि वावारावो।-क्षुल्लबंध स्वामित्व सूत्र १५, धवला
उस गोत्रकर्म का नीच और उच्च कुल में उत्पन्न कराने का व्यापार होता है।
गोत्राख्यं जन्तु जातस्य कर्म-दत्ते स्वकं फलम्।
शस्ताशस्तेषु गोत्रेषु जन्म निष्पाद्य सर्वथा।।३४-२४।। (ज्ञानार्णव)
गोत्र के जीवों को प्रशस्त और अप्रशस्त गोत्रों में उत्पन्न कराकर सर्वप्रकार से अपना फल देता है।
उपर्युक्त प्रमाण स्पष्टत: घोषित करते हैं कि गोत्रकर्म अनादि है। इस तथ्य को स्वीकार कर लेने पर स्वत: ही कुल और जाति की व्यवस्था अनादिकालीन सिद्ध होती है। यदि ऐसी व्यवस्था नहीं मानेंगे तो उच्च-नीच कर्म के बंधक कारणों का अभाव मानना पड़ेगा और तब कारण का अभाव होने से गोत्र कर्मरूप कार्य का भी अभाव मानना पड़ेगा, सो कदापि संभव नहीं है।
नीच गोत्र बंध के कारण-
कुलरूवाणाबल-सुद…………णीचागोदं कुणदि कम्मं।१३७५।-भगवती आराधना
कुल, रूप, आज्ञा, बल श्रुतज्ञान…… आदि से अपने को ऊँचा मानने वाला मनुष्य नीच गोत्र का बंध करता है।
जातिकुलबलरूप श्रुताज्ञैश्वर्य………………तीर्थेकराधिक्षेपादि:। -त.रा.वा. अध्याय ६, सूत्र २५, पृ. ५३१।
जाति, कुल, बल, रूप, श्रुत, आज्ञा, ऐश्वर्य और तप का मद करना, तीर्थंकरों पर आपेक्ष करना आदि नीचगोत्र के आस्रव के कारण हैं और जाति, कुल, बल, रूप आदि का मद नहीं करना उच्चगोत्र के आस्रव के कारण हैं।
सम्यग्दर्शन एवं उसके क्षय, क्षयोपशमादि भेद अनादि परम्परा से चले आ रहे हैं अत: क्षयोपशम सम्यक्त्व में लगने वाले पच्चीस दोष भी अनादि है। इन पच्चीस दोषों में आठ मद भी गिनाये गये हैं जिनमें कुल एवं जाति का मद भी सम्यक्त्व का मल है। यथा-
ज्ञानं पूजां कुलं जातिं, बलमृद्धिं तपो वपु:।
अष्टावाश्रित्य मानित्वं, स्मयय्माहुर्गतस्मया:।।२५।।
(रत्नकरण्डश्रावकाचार)
यदि कुल (पिता का वंश) और जाति (माता का वंश) आदि की व्यवस्थाएँ अनादिकालीन न होती तो आठ मदों में इनकी गिनती वैâसे हो सकती थी ?
कुल और जाति-
गोत्र कर्म के फलस्वरूप जो कुल एवं जाति (व्यवस्था) उल्लिखित हुई उसका संबंध माता-पिता के रज और वीर्य से है। ‘आदिपुराण’ में सप्तपरम स्थानों का वर्णन है, इनमें प्रथम स्थान सज्जाति है। सज्जातित्व की सिद्धि विशुद्ध कुल और विशुद्ध जाति के आश्रय से होती है-
पितुरन्वयशुद्धिर्या तत्कुलं परिभाष्यते।
मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते।।८५।।
विशुद्धि/भयस्यास्य, सज्जातिरनुवर्णिता।
यत्प्राप्तौ सुलभा बोधिरयत्नोपनतै: गुणै:।।८६।। (पर्व ३९)
इससे भिन्न यदि माता-पिता में से किसी एक की भी अन्वयशुद्धि नहीं है तो वह सन्तति जाति संकर कहलाती है। सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री नेमिचन्द्राचार्य ‘त्रिलोकसार’ में कहते हैं कि-
संस्कृत छाया-
दुर्भावाशुचि-सूतक-पुष्पवती-जाति-संकरादिभि:।
कृतदाना अपि कुपात्रेषु जीवा: कुनरेषु जायन्ते।।९२४।।
जो दुर्भावना, अपवित्रता, सूतक, पुष्पवती स्त्री के स्पर्श तथा जाति संकर आदि दोषों से युक्त होते हुए भी दान देते हैं और जो कुपात्रों को दान देते हैं वे जीव मरकर कुमनुष्यों में उत्पन्न होते हैं।
जातिसंकर दोष से युक्त आहारदान करने का अधिकारी नहीं है, ऐसी आर्ष आज्ञा है। इस आज्ञा की अवमानना करने वाला ९६ अन्तर्द्वीपों में कुमानुषों में उत्पन्न होता है।
वर्ण-
बीज और वृक्ष की भांति वर्ण-परम्परा भी अनादिकालीन है। भरतैरावत आर्यखण्डों में देश और काल के आश्रय से इनका अविर्भाव एवं तिरोभाव होता रहता है। विदेहक्षेत्रों में यह व्यवस्था अनादि से अक्षुण्य है।
इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे में उत्पन्न होने वाले ऋषभदेव तीन ज्ञान के धारी थे। उन्होंने अपने अवधि नेत्र से विदेह की व्यवस्था और वहाँ के मनुष्यों की बाह्याभ्यन्तर वृत्ति देखकर तीनों वर्णों को यहाँ प्रगट किया था। ‘‘तीर्थकृद्भि: इयं सृष्टा धर्म-सृष्टिं प्रभावयेत्’’ तीर्थंकर के द्वारा रची गई यह धर्मसृष्टि ही सनातन है-इस श्रद्धा को धारण करने वाली सम्पूर्ण प्रजा यथा-योग्य अपने-अपने कर्म को सांकर्य के बिना करने लगी। विवाह, जाति संबंध और सम्पूर्ण व्यवहार व्यवस्थित चलने लगे-
यथास्वं स्वोचितं कर्म प्रजा दधुरसंकरम्।
विवाहजातिसंबंधव्यवहारश्च तन्मतम्।। (१६-१८७ आ. पु.)
राजा आदिनाथ की दीक्षा के बाद चक्रवर्ती भरत ने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में मात्र प्रथम तीन वर्ण ही दीक्षा एवं आहारदान योग्य हैं, शूद्र नहीं क्योंकि शूद्रों की पिण्ड शुद्धि नहीं है और उनका आचार-विचार भी उपयुक्त नहीं है।
पिण्डशुद्धेरभावत्वान्मद्यमांसनिषेवनात्।
सेवादिनीचवृत्तित्वात् शूद्राणां संस्कारो न हि।।
शूद्रों की पिण्डशुद्धि नहीं देखी जाती, वे मद्य-मांस का सेवन करते हैं और सेवादि नीच वृत्ति से अपनी आजीविका करते हैं अत: उनका संस्कार नहीं होता।
पौनर्पुनर्विवाहत्वात् पिण्डशुद्धेरभावत:।
ऋत्वादिषु क्रियाभावात् तेषु न मोक्षमार्गता।।
शूद्रों में बार-बार विवाह होता है, उनकी पिण्डशुद्धि नहीं होती तथा उनमें ऋतुधर्म आदि के समय क्रिया का अभाव है, अत: उनमें मोक्षमार्गता नहीं बनती।
संस्कृते देह एवासौ दीक्षाविधिरभिस्मृत:।
शौचाचारविधिप्राप्तौ, देह: संस्कर्तुमर्हति।।
संस्कार सम्पन्न देह में ही यह दीक्षाविधि कही गई है तथा शौचाचार विधि को प्राप्त हुआ देह ही संस्कार के योग्य हैं।
विशिष्टान्वयजो शुद्धो जातिकुलशुद्धि भाक्।
न्यसतेऽसौ सुसंस्कारैस्तु कि परमं तप:।।
जो विशिष्ट अन्वय में उत्पन्न हुआ है, शुद्ध है तथा जाति और कुल के आश्रय से विशुद्धियुक्त है, वहीं संस्कारों का अधिकारी है और उसी से परम तप होता है।
शूद्र को छोड़कर शेष तीन वर्णों में भी जिन मनुष्यों की जाति और कुल शुद्ध है वे ही दीक्षा के अधिकारी हैं।
वण्णेसु तीसु एक्को कल्लाणंगो तवोसहो वयसा।
सुमुहो कुच्छारहिदो लिंगग्गहणे हवदि जोग्गो।।३-२५।।
-उद्धृत प्रवचनसार-जयसेन की टीका
जो नीरोग हैं, उम्र से तप को सहन करने में समर्थ हैं, सौम्यमुख हैं और दुराचार आदि लोकापवाद से रहित हैं, तीन वर्णों में से किसी भी वर्ण का ऐसा मनुष्य जिनदीक्षा ग्रहण करने के योग्य है।
विशुद्धकुलगोत्रस्य, सद्वृत्तस्य वपुष्मत:।
दीक्षा योग्यत्वमाम्नातं, सुमुखस्य सुमेधस:।।३९-१५८ (म.पु.)
जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है, चारित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और बुद्धि सन्मार्ग की ओर है, ऐसा पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करने योग्य माना गया है।
आचार्य परमेष्ठी का लक्षण इस प्रकार है-
देस-कुल-जाइ-सुद्धो सोमंगो संगभंग उन्मुक्को।
गयणव्व णिरुवलेवो आइरिया एरिसो होइ।।
(उद्धृत, ध.पु. १, पृ. ४९)
जो देश, कुल और जाति से शुद्ध है, सौम्य मूर्ति है, अंतरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित है और आकाश के समान निर्लेप है, सो आचार्य परमेष्ठी होता है।
देस-कुल-जाइ-सुद्धा-विशुद्ध मणवयणकाय संजुत्ता।
तुम्हं पायपयोरुहमिह मंगलमत्थु मे णिच्चं।।१।। (प्रा.आ. भक्ति)
जो देश, कुल एवं जाति से शुद्ध है तथा मन-वचन-काय की शुद्धि से संयुक्त हैं, वे आचार्य कुल और जाति से शुद्ध तीन वर्ण वालों को ही दीक्षा देते हैं। यदि स्वयं आचार्य की कुलशुद्धि नहीं होगी तो वह दीक्षार्थी एवं दाताश्रावक की कुल, जाति को भी नहीं देखेगा और मोक्षमार्ग को दूषित करेगा।
‘प्रायश्चित चूलिका’ ग्रंथ में तो यहाँ तक कहा गया है कि जो आचार्य जानते हुए भी नीच कुल वाले को दीक्षा देते हैं, उस आचार्य का ही त्याग कर देना चाहिए-
ब्राह्मणा: क्षत्रिया: वैश्या:, योग्या: सर्वज्ञदीक्षणे।
कुलहीने न दीक्षास्ति, जिनेन्द्रोदिष्टशासने।।१०६।।
सर्वज्ञ पद के योग्य दीक्षा में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन वर्ण ही योग्य माने गये हैं। जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपदिष्ट शासन में कुलहीन की दीक्षा नहीं है।
आचार्योऽपि स मोक्तव्य: साधुवर्र्गरतोन्यथा।।
आचार्य यदि जानते हुए भी नीच कुल वाले को दीक्षा देते हैं, तो साधु समुदाय का कर्तव्य है कि वह ऐसे आचार्य का त्याग कर दें।
आचार्यपद के गर्व से गर्वित जो आचार्य सर्वज्ञ की आज्ञा का लोप कर नीच कुलीन, शूद्रादि और अयोग्य व्यक्तियों को दीक्षा देते हैं उनके लिए छेद पिण्ड अधिकार में स्थिति के अनुसार एक गुरुमास से चौंसठ गुरुमास तक प्रायश्चित करने का विधान बताया गया है।
अइबाल-बुड्ढ-दासेर-गब्भिणी संढ-कारुगादीणं।
पव्वज्जा दिंतस्स हु छग्गुरुमासा हवदि छेदो।।२१९।।
अति बालक, वृद्ध, दास, गर्भिणी स्त्री, नपुंसक और कारु शूद्रों को दीक्षा देने वाले आचार्य छह गुरु मास नामक प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं।
विंति परे एदेसु व कारुग-णिग्गंथ-दिक्खणे गुरुणो।
गुरुमासो दायव्वो तस्स य णिग्घाडणं तह य।।२२०।।
दूसरे आचार्य कहते हैं कि जो इन सबको और कारु शूद्रों को दीक्षा देता है उसे एक गुरु मास नामक प्रायश्चित्त देना चाहिए और उसे संघ से अलग कर देना चाहिए।
णाविय-कुलाल-तेलिय-सालिय-कल्लाल-लोहयाराणं।
मालारप्पहुदीणं तव-दोणे विण्णि गुरुमासा।।२२१।।
जो नाई, कुम्हार, तेली, शालिक, कलार, लुहार और माली को दीक्षा देता है, वह दो गुरुमास प्रायश्चित्त के योग्य है।
चम्मार-वरुड-छिंपिय-खत्तिय-राजगादिगाण चत्तारि।
कोसट्टय-पारद्धिय-पासिय-सावणिय-कोलयादिसु अट्ठं।।२२२।।
जो चमार, वरुण, छीपा, खाती और धोबी को दीक्षा देता है वह चार गुरु मास तथा जो कोशरुक, पारधी, नकली साधु, श्रावणिक और कोल को दीक्षा देता है वह आठ गुरुमास नाम प्रायश्चित्त का पात्र है।
चंडालादिसु सोलस गुरुमासा वाह-डोव-वाउरिया।
प्पहुदीणं बत्तीसं गुरुमासा होंति तव-दाणे।।२२।।
चाण्डाल आदि को जिन दीक्षा देने पर सोलह तथा गाड़ीवान, डोम और व्याध आदि को जिनदीक्षा देने पर बत्तीस गुरुमास नामक प्रायश्चित्त का पात्र कहा गया है।
चउसट्ठी गुरुमासा गोक्खय-मायंग-खट्टिकादीणं।
णिग्गंथ-दिक्खिदाणे पायच्छित्त समुद्दिट्ठं।।२२४।।
गाय को मारने वाले, मातंड और खटीक को निग्रन्थ दीक्षा देने पर आचार्य को चौंसठ गुरु मास नाम प्रायश्चित्त का पात्र कहा गया है।
जीवन निर्वाह के लिए भोजन-पान अत्यन्त आवश्यक है। यह सर्वविदित है कि ‘जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन। जैसा पीवे पानी वैसी बोले वाणी’’ आध्यात्मिक जीवन-निर्माण के लिए मन की शुद्धि में जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि का अनुकूल सहयोग वांछित है उसी प्रकार शुद्ध पवित्र आहार भी अत्यावश्यक है। आहार की महत्ता के कारण ही ‘मूलाचार’ आदि चरणानुयोग के प्रमुख ग्रंथों में ‘पिण्डशुद्धि’ नामक स्वतंत्र अधिकार रचा गया है। इस अधिकार में भोजन संबंधी इन सब दोषों का विस्तार से वर्णन किया गया है, जिनका परिहार करना साधु के लिए परमावश्यक है। उद्गम, उत्पादन और एषणा के भेद से दोष तीन प्रकार के हैं। एषणा दोषों के अवान्तर भेदों में से एक दायक नामक दोष भी है। इनमें कौन-कौन स्त्री एवं पुरुष आहार देने के अधिकारी नहीं है, इसका स्पष्ट उल्लेख है तथा यह भी दर्शाया गया है कि साधु जाने-अनजाने भी शूद्रादि के घर में आहार हेतु प्रवेश न करें। यदि प्रवेश कर जावे या उनसे स्पर्शित अथवा उनके घर का भोजन ग्रहण कर लें, तो प्रायश्चित्त लेकर शुद्धि करें-
जातिवर्णकुलोनेषु भुंक्तेऽजानन् प्रमादत:।
सोपस्थानं चतुर्थस्यान्मासोऽनाभोगतो मुहु:।।९३।।
जो जाति, वर्ण और कुल से हीन पुरुष के घर बिना जाने प्रमाद से आहार ग्रहण करता है उसे प्रतिक्रमणपूर्वक उपवास करना चाहिए। जो बार-बार भोजन करता है, वह साधु अनाभोग के साथ एक माह के प्रायश्चित्त का पात्र है।
उपर्युक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि कुल एवं जाति आदि की व्यवस्था पहले से ही चली आ रही है। शूद्र, वर्ण, वर्णसंकर और जातिसंकर के घर का या हाथ का आहार भी निषिद्ध रहा है तभी तो ऐसा हो जाने पर उसके प्रायश्चित्त का विधान बनाया गया है।
समवसरण-
भगवान् जिनेन्द्र के समवसरण में धर्म श्रवण की इच्छा से देव मनुष्य और तिर्यंच जाते हैं। वहाँ बाहर ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती कि कौन-कौन व्यक्ति भीतर जा सकते हैं और कौन-कौन नहीं किन्तु जैसे सूर्य को नेत्रधारी सभी मनुष्य एवं पशु देख सकते हैं परन्तु नेत्र होते हुए भी उल्लू स्वभावत: नहीं देख सकता, उसी प्रकार शूद्रादि भी वहाँ प्रविष्ट नहीं हो पाते-
मिच्छाइट्ठि-अभव्वा तेसुमसण्णी ण होंति कइआइं।
तह य अणज्झवसाया संदिद्धा विविह-विवरीदा।।९३२।। ति. प.
इन सभाओं में मिथ्यादृष्टि, अभव्य और असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते तथा अनध्यवसित चित्त वाले, संशयालु और विपरीत बुद्धि अथवा विपरीत श्रद्धा वाले जीव समवसरण में नहीं होते।
श्री जिनसेनाचार्य ‘हरिवंशपुराण’ में स्पष्ट कहते हैं कि शूद्र एवं पाखण्डी जीव बाहर ही घूमते रहते हैं, भीतर प्रवेश नहीं कर पाते-
पापशीला विकुर्माणा: शूद्रा पाखण्डपाण्डवा:।
विकलांगेन्द्रियोद्भ्रान्ता परियन्ति बहिस्तत:।।५७।१७३। हरि. पु.
पापशील, विकारयुक्त, शूद्र, पाखण्डपटु, विकलांगी, विकलेन्द्रिय और उद्भ्रान्त जीव समवसरण के बाहर ही घूमते रहते हैं, भीतर प्रवेश नहीं कर पाते।
यहाँ विशेष विचारणीय यह है कि उपर्युक्त शूद्र एवं विकलांग आदि जीव किसी न किसी पर्याय में शुक्लध्यान के हेतु-भूत कुल में जन्म लेकर समवसरण में प्रवेश तो क्या, मोक्ष प्राप्ति भी कर सकते हैं किन्तु वर्तमान (पर्याय) में समवसरण में प्रवेश भी नहीं करते। वहाँ मोक्षप्राप्ति की योग्यता से सर्वथा रहित अभव्य जीव सप्तम भूमि में स्थित सर्वार्थसिद्धि नाम के स्तूपों पर्यन्त प्रवेश पा सकते हैं परन्तु उसके आगे स्थित भव्यकूट नामक स्तूप के प्रभाव से वे नेत्रहीन हो जाते हैं-
भव्यकूटाख्यया स्तूप:, भास्वत्कूटास्ततोऽपरे।
यानभव्या न पश्यन्ति, प्रभावान्धी कृतेक्षणा:।।५७-१०४।। हरि.पु.
सप्तम भूमि में अनेक स्तूप हैं, उनमें सर्वार्थसिद्धि नाम के भी अनेक स्तूप हैं। उनके आगे देदीप्यमान शिखरों से युक्त भव्यकूट नामक स्तूप हैं जिन्हें अभव्य जीव नहीं देख पाते, क्योंकि उनके प्रभाव से उन जीवों के नेत्र अन्धे हो जाते हैं।
अभव्य जीव तो सप्तम भूमि तक जा भी सकते हैं परन्तु शूद्रादि तो समवसरण के बाहर ही रहते हैं, अन्दर प्रविष्ट नहीं होते।
समवसरण के सदृश जिनमंदिर में भी दर्शन और पूजन के अधिकारी शूद्रादि नहीं है। क्योंकि जब इनके प्रवेश करने से मंदिर की शुद्धि का विधान मिलता है, तब पूजन आदि का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यथा-
स्नापयेत्कलशैरष्टशतेन त्रिजगद्गुरुम्।
दूषितेऽस्थ्यादिभिर्देव-धाम्न्यस्पृश्यजनैरपि।।
संशोध्य सकलं धाम हुत्वा धूमध्वजाकरै:।
सिक्त्वा च सुधया देवं तैरेव स्नापयेद् घटै:।।
यदि जिनमंदिर हड्डी आदि से अथवा अस्पृश्य-शूद्रादि से दूषित हो जावे, तो जिनेन्द्र भगवान का १०८ कलशों से अभिषेक करना चाहिए और मंदिर जी को धोकर तथा चूने से दिवालों को पोत कर हवन कराना चाहिए।
आधुनिक ऊहापोह-
वर्तमान तथाकथित सुधारकों की धारणा यह बनती जा रही है कि अन्य वर्ण वालों के समान शूद्र, वर्णसंकर और जातिसंकर आदि भी पूर्ण धर्म ध्यान करने के अर्थात् दर्शन, पूजन, आहारदान एवं मुनिव्रत धारण करने के अधिकारी हैं क्योंकि सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक ही है। परन्तु वह धारणा न आगमसम्मत कही जा सकती है और न व्यवहार से ही उपयुक्त अथवा तर्कसंगत। क्योंकि जैसे मनुष्य जाति एक है वैसे ही स्त्री, पशु, पक्षी, वृक्ष, फल, फूल, दुग्ध आदि सबकी अपनी-अपनी जाति एक है किन्तु सर्वत्र भेदाभेद विवक्षा को ग्रहण कर ही उनकी हेयता और उपादेयता पर विचार किया जाता है। जाति की अपेक्षा सब मनुष्य एक हैं तो फिर स्वामी-सेवक, न्यायाधीश-अपराधी, गुरु-शिष्य आदि का भेद क्यों? रिक्शा पर बैठने वाला भी मनुष्य ही है और उसे खींचने वाला भी मनुष्य ही है ऐसा क्यों ? फांसी का आदेश देने वाला भी मनुष्य है और फांसी पर चढ़ने वाला भी मनुष्य है तथा फांसी लगाने वाला भी मनुष्य ही है, इतना विभेद क्यों? इस प्रकार के सहस्रों प्रश्न उठते हैं, जिनका एकमात्र उत्तर यही है कि मनुष्य जाति एक होते हुए भी प्रत्येक के स्वोपार्जित कर्म और उनके फल भिन्न-भिन्न हैं।
कुएं में स्थित जल एक है किन्तु जब वही जल भिन्न-भिन्न शुद्ध, अशुद्ध, पवित्र, अपवित्र पात्रों में भर दिया जाता है तो ग्राह्य-अग्राह्य हो जाता है। क्यों? जाति की अपेक्षा सभी स्त्रियाँ एक होते हुए भी यह स्त्री भोग्या (पत्नी) है। यह रक्षासूत्र बंधवाने योग्य (बहिन) है, यह माता है आदि भेद-विभेद क्यों ? जाति से एक होते हुए भी मासिक धर्म एवं प्रसूतिकाल में वह गृहकार्य के लिए भी अस्पृश्य अथवा अपवित्र क्यों ?शूद्र वर्ण, वर्णसंकर एवं जातिसंकर आदि के दर्शन पूजन आदि के अधिकारों का समर्थन करने वाले सुधारकों के घर एवं प्रान्त की महिलाओं पर जिनेन्द्र-अभिषेक करने का प्रतिबंध क्यों ? क्या उनकी माँ-बहनें उन शूद्रों से भी अधिक अपवित्र हैं ?
जाति की अपेक्षा सभी पशु एक हैं तो फिर गाय, भैंस एवं बकरी आदि का ही दूध उपादेय क्यों, शूकरी, कुत्ती एवं गर्दभी का क्यों नहीं ? गाय आदि के गोबर से घर-आंगन लीप कर जैसे शुद्ध किये जाते हैं वैसे शूकर एवं कुत्ते आदि के मल से क्यों नहीं ? कुत्ते के मल से अपवित्र होने वाला स्थान गाय-भैंस के गोबर से पवित्र किया जाता है-ऐसा क्यों ?जाति की अपेक्षा सभी पक्षी समान हैं तब जैसे तोता स्वर्ण पिंजर में वैâद हो घर की शोभा बढ़ाता है, वैसे कौवा क्यों नहीं ? चिड़िया रसोई घर में प्रविष्ट हो भोजन खोज लाती हैं, कबूतर घर के भीतर बच्चे पैदा कर लेते हैं वैसे कौवा आदि नहीं कर सकते-क्यों ?
आज प्राय: यह भी कहा जाने लगा है कि जब पशु-पक्षी भी व्रती बन सकते हैं तब अस्पृश्य शूद्र आदि धर्म धारण कर धर्माधिकारी क्यों नहीं बन सकते ?
देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी इन सभी जीवों की अपनी-अपनी व्यवस्थाएँ अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों के अनुसार भिन्न-भिन्न पाई जाती हैं। आज केवल मनुष्य उस व्यवस्था को नष्ट करना चाहता है। सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्थाओं का उल्लंघन करना ही तो अपराध है। इस तर्क के आधार पर कि ‘जब पशु कर सकते हैं, तब मनुष्य क्यों नहीं कर सकते’ यदि मानव जाति की व्यवस्था भंग की जाएगी तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा, फिर तो मनुष्य भी पशुओं के सदृश अपनी माँ को भोग्य बना लेगा।
पशु जाति प्रकृति से बंधी है अत: वह अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती। राज्य, समाज, विवाह एवं धर्म व्यवस्था के बिना भी पशु कभी अन्य जाति के पशु से सन्तान उत्पन्न नहीं करते। कौवा-कोयल, शूकर-कुत्ती और बैल-भैंस से सन्तान उत्पन्न होते न देखी गई है न सुनी गई है।आधुनिक भौतिक युग में भौतिकता की चकाचौंधी से ग्रस्त मनुष्यों को आगमिक व्यवस्था अनुकूल नहीं लगती। उनका अहं इतना बढ़ गया है कि वे उसके आगे किसी भी व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते, सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु में भी उनकी अटल आस्था नहीं रही, सर्वथा स्वच्छन्दता घर करती जा रही है। आज समाज में अन्तर्जातीय विवाहों का बड़ा शोर है, तथाकथित समाज सुधारक भोली जनता को यह कहकर गुमराह कर रहे हैं कि सब दिगम्बर जैन हैं, कोई भेद नहीं, जबकि धर्म, वर्ण और जाति भिन्न-भिन्न हैं। धर्म का संबंध आत्मिक गुणों से है, कुल, जाति और वर्ण का संबंध रज और वीर्य से है।देवों के शरीर सप्त धातुओं से रहित हैं अत: वहाँ विवाह व्यवस्था नहीं है। भोगभूमि में जुगलिया उत्पन्न होते हैं, वे ही युवा होकर पति-पत्नी होते हैं अत: वहाँ भी विवाह व्यवस्था की आवश्यकता नहीं है क्योंकि किसी अन्य आर्य का किसी अन्य आर्या से संबंध होता ही नहीं, जिससे रज-वीर्य विकारी अर्थात् मिश्रित हो सके। कर्मभूमि के प्रारंभ में जब युगल उत्पत्ति का नियम नहीं रहा तब रक्त को शुद्ध बनाये रखने के लिए ही वर्ण व्यवस्था बनी और विवाह के लिए अपना-अपना वर्ण और जाति ही उपर्युक्त निश्चित किये गये। इससे विपरीत प्रवृत्ति को जातिसंकरता या वर्णसंकरता कहा गया।
जहाँ-जहाँ यह पवित्र विवाह-व्यवस्था नहीं है वहाँ न तो शलाका पुरुष उत्पन्न हुए हैं और न होंगे। यही कारण है कि विवाह-व्यवस्था भी धर्म-व्यवस्था का ही एक अंग मानी गयी है। क्या भरतक्षेत्र में कभी किसी काल में त्रेसठ शलाका पुरुष शूद्र वर्ण में अथवा गर्हित कुलों में उत्पन्न हुए हैं ? कभी नहीं! तो क्या कभी होंगे ? नहीं! जो मात्र सम्यग्दर्शन से विभूषित हैं, उसके लिए भी समन्तभद्राचार्य कहते हैं-
‘‘माहाकुला-महार्था-मानवतिलका भविन्त दर्शनपूता:’’
तथा– सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यंग् नपुंसक स्त्रीत्वानि।
दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिका:।।३५।।
अर्थात् जब सम्यग्दृष्टि जीव नीचकुल, विकृत अंग और दरिद्री आदि नहीं होते, वे उच्चकुलों में मनुष्य के तिलक (प्रधान) होते हैं तब क्या तीर्थंकर और चक्रवर्ती आदि महापुरुष शूद्रादि नीच कुलों में या अशुद्ध मिश्रित रज वीर्य रूप बीज से उत्पन्न हो सकते हैं ? कदापि नहीं।
पंचम काल के अंत में राज्य, धर्म, समाज, विवाह आदि सभी व्यवस्थाओं का अभाव होने पर सम्पूर्ण मनुष्य २१००० वर्ष पर्यन्त छठे काल में पशुवत् जीवन व्यतीत करेंगे तब जातिसंकर और वर्णसंकर जीवों का ही बाहुल्य होगा (जिसका श्रीगणेश हमारे तथाकथित समाज सुधारक आज कर रहे हैं) फिर भी शुद्ध वर्ण और शुद्ध जाति एवं कुल का सर्वथा अभाव नहीं होगा क्योंकि सत् का कभी नाश नहीं होता। छठे काल के अन्त में, प्रलय काल में देव एवं विद्याधर अपनी विद्या एवं अवधिनेत्र के बल से उन शुद्ध बीज स्वरूप जीवों को गंगा-सिंधु और विजयार्ध की गुफाओं में रखकर उनकी रक्षा करेंगे। उसी बीज से उत्सर्पिणी काल का प्रादुर्भाव होगा और उसी बीज से तीर्थंकर आदि शलाका पुरुष उत्पन्न होंगे। यही अनाद्यनन्त परम्परा है, इसके विच्छेद करने का दुस्साहस करने वाला अपनी ही आत्मा का अहित करेगा।