महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण ग्रन्थ प्रथमानुयोग का सर्वश्रेष्ठ और अतिप्राचीन ग्रन्थ माना जाता है। इसे आर्ष ग्रन्थ कहते हैं, महान् ऋषि प्रणीत आर्ष ग्रन्थ होने से इसकी सर्वतोमुखी मान्यता है। संसार में उत्पन्न हुए महापुरुषों के चारित्र को बतलाने वाला ग्रन्थ वर्तमान में तीन भागों में विभक्त है-आदिपुराण भाग-१, आदिपुराण भाग-२ एवं उत्तरपुराण। इनमें से आदिपुराण भाग-१ में प्रमुख रूप से आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव के पूर्ववर्ती १० भवों का एवं तीर्थंकर ऋषभदेव की अवस्था में पंचकल्याणकों का, कर्मभूमि के शुभारम्भ आदि का विशद विवेचन है। आदिपुराण के द्वितीय भाग में सम्राट् भरत का चक्रवर्ती बनना, उनका अपने ही लघु भ्राता बाहुबली से युद्ध एवं दोनों भाइयों की दीक्षा आदि का रोमांचक वर्णन है। इसमें सबसे विशेष बात यह है कि भगवान ऋषभदेव के सभी १०१ पुत्रों के द्वारा दीक्षा लेकर उसी भव से मोक्ष जाने का वर्णन है। हरिवंशपुराण में वर्णन आया है कि उस इक्ष्वाकुवंश में १४ लाख राजाओं द्वारा अपने-अपने पुत्रों को राज्य सौंपकर दीक्षा लेने की अखण्ड परम्परा रही है।
आगे उत्तरपुराण नामक तृतीय ग्रन्थ में द्वितीय तीर्थंकर भगवान अजितनाथ से लेकर कृतयुग के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर तक २३ तीर्थंकरों का जीवन दर्शन है। इन तीनों पुराणों में से आदिपुराण भाग-१ को जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशन करने की प्रेरणा देने के पीछे विशेष उद्देश्य यह है कि इसके १६वें पर्व में वर्णित वर्णव्यवस्था का जो शास्त्रसम्मत अर्थ प्राचीन परम्परा से चला आ रहा था उसमें आगमविरुद्ध परिवर्तन के साथ उसका प्रकाशन हो रहा है जो कि आर्ष परम्परा पर कुठाराघात के रूप में है।
मेरी अनेक वर्षों से इच्छा थी कि इस आदिपुराण ग्रन्थ का मैं पुन: अनुवाद करके इसे प्रकाशित कराऊँ किन्तु पिछले १३-१४ वर्षों से षट्खण्डागम सूत्र ग्रन्थों पर संस्कृत टीका लेखन की व्यस्तता में मेरे द्वारा वह कार्य संभव नहीं हो पाया। पुनश्च एक संयोग बना २००९ में, जब मुझे पुरानी स्मृति हो आई कि पं. लालाराम जी शास्त्री ने शायद इसका अर्थ सही किया है अत: एक दिन जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर पुस्तकालय से पं. लालाराम जी शास्त्री द्वारा लगभग १०० वर्ष पूर्व अनुवादित आदिपुराण ग्रन्थ मैंने मंगाया और उसका अवलोकन किया तो मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि मेरी स्मृति सत्य साकार हुई, अत: मैंने तुरन्त ही निर्णय लिया कि वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला से इसका प्रकाशन होगा।
यहाँ आदिपुराण के उस १६वें पर्व में वर्णित वर्णव्यवस्था के सही और गलत दोनों अर्थ प्रस्तुत किये जा रहे हैं-
अथाधिराज्यमासाद्य नाभिराजस्य संनिधौ।
प्रजानां पालने यत्नमकरोदिति विश्वसृट्१।।२४१।।
कृत्वादित: प्रजासर्गं तद् वृत्तिनियमं पुन:।
स्वधर्मानतिवृत्त्यैव नियच्छन्नन्वशात् प्रजा:।।२४२।।
स्वदोर्भ्यां धारयन् शस्त्रं क्षत्रियानसृजद् विभु:।
क्षतत्राणे नियुक्ता हि क्षत्रिया: शस्त्रपाणय:।।२४३।।
उरुभ्यां दर्शयन् यात्रामस्राक्षीद् वणिज: प्रभु:।
जनस्थलादियात्राभिस्तद् वृत्तिर्वार्त्तया यत:।।२४४।।
न्यग्वृत्तिनियतां शूद्रां पद्भ्यामेवासृजत् सुधी:।
वर्णोत्तमेषु शुश्रूषा तद्वृत्तिर्नैकधा स्मृता।।२४५।।
मुखतोऽध्यापयन् शास्त्रं भरत: स्रक्ष्यति द्विजान्।
अधीत्यध्यापने दानं प्रतिच्छेज्येति तत्क्रिया:।।२४६।।
अथानन्तर कर्मभूमि की रचना करने वाले भगवान ऋषभदेव ने राज्य पाकर महाराज नाभिराज के समीप ही प्रजा का पालन करने के लिये नीचे लिखे अनुसार प्रयत्न किया।।२४१।।
भगवान ने सबसे पहले प्रजा की सृष्टि (विभाग आदि) की, फिर उसकी आजीविका के नियम बनाये और फिर वह अपनी-अपनी मर्यादा का उल्लंघन न कर सकें, इस प्रकार के नियम बनाये। इस तरह वे प्रजा पर शासन करने लगे।।२४२।।
उस समय भगवान ने अपनी दोनों भुजाओं में शस्त्र धारण कर क्षत्रियों की सृष्टि की थी अर्थात् उन्हें शस्त्र विद्या का उपदेश दिया था। सो ठीक ही है, क्योंकि जो हाथों में हथियार लेकर सबल शत्रुओं के प्रहार से निर्बलों की रक्षा करते हैं, वे ही क्षत्रिय कहलाते हैं।।२४३।।
तदनन्तर भगवान ने अपने उरुओं से यात्रा दिखलाकर अर्थात् परदेश जाना सिखलाकर वैश्यों की रचना की सो ठीक ही है, क्योंकि जल, स्थल आदि प्रदेशों में यात्रा कर व्यापार करना ही उनकी मुख्य आजीविका है।।२४४।।
हमेशा नीच (दैन्य) वृत्ति में तत्पर रहने वाले शूद्रों की रचना बुद्धिमान ऋषभदेव ने पैरों से ही की थी क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन उत्तम वर्णों की सेवा-सुश्रूषा आदि करना ही उनकी अनेक प्रकार की आजीविका है।।२४५।।
इस प्रकार तीन वर्णों की सृष्टि तो स्वयं भगवान ऋषभदेव ने की थी, उनके बाद भगवान ऋषभदेव के बड़े पुत्र महाराज भरत अपने मुख से शास्त्रों का अध्ययन कराते हुए ब्राह्मणों की रचना करेंगे, स्वयं पढ़ना, दूसरों को पढ़ाना, दान लेना तथा पूजा, यज्ञ आदि करना उनके कार्य होंगे।।२४६।।
शूद्रा शूद्रेण वोढव्या, नान्या तां स्वां च नैगम:।
वहेत् स्वां ते च राजन्य: स्वां द्विजन्मा क्वचिच्च ता:१।।२४७।।
स्वामिमां वृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्यां वृत्तिमाचरेत्।
स पार्थिवैर्नियन्तव्यो वर्णसंकीर्णिरन्यथा।।२४८।।
शूद्र को शूद्र की वृत्ति (आजीविका) का पालन करना चाहिए, अन्य कार्य नहीं करना चाहिए। नैगम अर्थात् वैश्य को वाणिज्य-व्यापारादि रूप वृत्ति करना चाहिए, क्वचित् शुश्रूषा रूप वृत्ति भी कर सकता है। राजन्य अर्थात् क्षत्रियवर्ण को शस्त्रधारी हो प्रजा का संरक्षण करना चाहिए क्वचित् व्यापार अथवा सेवावृत्ति भी कर सकता है। ब्राह्मणों को अध्ययन, अध्यापनादि कार्य करना चाहिए, क्वचित् अन्य वर्ण संबंधीवृत्ति का आश्रय कर सकता है।।२४७।।
इस प्रकार वर्णित अपनी वृत्ति अर्थात् आजीविका के क्रम का उल्लंघन कर जो अन्य प्रकार की वृत्ति को अपनायेगा वह राजाओं के द्वारा दण्डनीय होगा। ऐसा न होने पर वर्णसंकीर्णता होगी।।२४८।।
विशेषार्थ-यहाँ प्रजा की आजीविका का प्रकरण है अत: अन्य अर्थ ग्रहण करना संगत नहीं होगा। वृत्ति शब्द का आजीविका के अर्थ में अन्य महान आचार्यों ने प्रयोग किया है। समयसार गाथा २२४-२२५ देखें-
पुरिसो जह को वि इह वित्ति णिमित्तं तु सेवए रायं।
तो सो वि देदि राया विविहे भोये सुहप्पाए।।२२४।।
जह पुण सो वि पुरिसो वित्ति णिमित्तं ण सेवए रायं।
तो सो ण देइ रायो विविहे भोये सुहप्पाए।।२२५।।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार में समन्तभद्रस्वामी ने आजीविका के अर्थ रूप में वृत्ति को लिया है-
रागद्वेष निवृत्ते हिंसादि निवर्तना कृता भवति।
अनप्रेक्षितार्थ वृत्ति: क: पुरुष: सेवते नृपतीन्।।४८।।
इस शताब्दी के प्रथम आचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शान्तिसागर जी गुरुदेव के प्रथम शिष्य एवं उन्हीं के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज ने इस श्लोक का अर्थ इसी प्रकार से बताया था कि-(शूद्रेण शूद्रा वोढव्या नान्या) शूद्र के द्वारा शूद्र की ही आजीविका की जानी चाहिये, अन्य की आजीविका नहीं करनी चाहिये। (नैगम: तां स्वां च वहेत्) वैश्य अपनी व्यापार की आजीविका को करे और शूद्र की भी कर सकता है। (राजन्य: स्वां ते च) क्षत्रिय अपनी आजीविका करें कदाचित् उन वैश्य और शूद्र की आजीविका भी कर सकते हैं। (द्विजन्मा स्वां क्वचित् च ता:) ब्राह्मण अपनी आजीविका करें और कदाचित् कभी क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीनों की भी आजीविका कर सकते हैं।
यहाँ श्लोक में जो ‘क्वचित्’ पद है वह वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण तीनों के लिये आया है।
यहाँ ‘वोढव्या’ और ‘वहेत्’ का अर्थ विवाह नहीं है ऐसा अर्थ मैंने अपने दीक्षागुरु आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के मुखकमल से सुना है। पुन: पं. श्रीखूबचंद्रजी, पं. श्रीपन्नालालजी सोनी (ब्यावर), पं. श्री इंद्रलालजी शास्त्री (जयपुर), पं. श्री सुमेरचंद्रजी दिवाकर (सिवनी) व व्याकरण में निष्णात् विद्वान् पं. श्रीमोतीलाल कोठारी (फल्टण वालों) ने भी यही अर्थ संगत बताया था।
यहाँ ‘वोढव्या’ और ‘वहेत्’ में ‘वह्’ धातु है। उसका सामान्य अर्थ ‘भार ढोना’ होता है और ‘धारण करना’ अर्थ भी माने गये हैं। जब इस धातु में ‘उत्’ और ‘वि’ उपसर्ग लगाये जाते हैं तब ‘विवाह’ अर्थ हो जाता है।
यथा-‘विवहत्युद्वहति चोद्वाहे’१।
‘‘दधते दधाति धरति च, धारयति ‘वहति’ कलयति च।
आलम्बते विभर्त्ति च मलते चेत्यधिकृता धरणे’’२।।१६।।
यहाँ ‘वहति’ का अर्थ धारण करना है तथा ‘शूद्रस्य इयं शूद्रा’ के अनुसार ‘शूद्रा’ पद से शूद्र की ‘वृत्ति’ आजीविका अर्थ ही लेना चाहिये तथा ‘च’ इस २४७वें श्लोक के बाद जो २४८वाँ श्लोक अनन्तर में ही आया है उसमें देखिये-स्वयं श्रीजिनसेनाचार्य ‘शूद्रा’ का अर्थ शूद्र की वृत्ति कर रहे हैं—
‘‘स्वामिमां वृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्यां वृत्तिमाचरेत्।
स पार्थिवैर्नियन्तव्यो वर्णसंकीर्णिरन्यथा१।।२४८।।
स्वां इमां वृत्तिं अर्थात् जो उपर्युक्त अपनी-अपनी वृत्ति-आजीविका का उल्लंघन करके अन्य की आजीविका करे, राजाओं के द्वारा उसे दण्डित किया जाना चाहिये अन्यथा ‘वर्णसंकर’ दोष हो जायेगा।
इस श्लोक से भी यहाँ ऊपर के श्लोक का अर्थ जुड़ा हुआ है और वृत्ति का अर्थ आजीविका ही है न कि विवाह, क्योंकि इस श्लोक में ‘स्वां के साथ वृत्तिं’ और ‘अन्यां के साथ वृत्तिं’ पद जुड़ा हुआ है।
एक विद्वान् (डॉ. पं. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य) ने उपर्युक्त दोनों श्लोकों के संदर्भ को न जोड़कर २४७वें श्लोक ‘शूद्रा शूद्रेण वोढव्या’ का अर्थ विवाह कर दिया है, वह गलत है। जैसा कि भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित आदिपुराण में अर्थ किया गया है। यथा-वर्णों की व्यवस्था तब तक सुरक्षित नहीं रह सकती जब तक कि विवाह सम्बन्धी व्यवस्था न की जाये, इसलिये भगवान ऋषभदेव ने विवाह व्यवस्था इस प्रकार बनाई थी कि-‘‘शूद्र शूद्रकन्या के साथ ही विवाह करे वह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की कन्या के साथ विवाह नहीं कर सकता। वैश्य वैश्यकन्या तथा शूद्रकन्या के साथ विवाह करे, क्षत्रिय क्षत्रियकन्या, वैश्यकन्या और शूद्रकन्या के साथ विवाह करे तथा ब्राह्मण ब्राह्मणकन्या के साथ ही विवाह करे, परन्तु कभी किसी देश में वह क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कन्याओं के साथ भी विवाह कर सकता है।२’’।।२४७।।
यहीं पर इन विद्वान् ने २४५वें श्लोक में जो न्यग्वृत्तिनियतां ‘शूद्रां’ पद में भी स्त्रीलिंग ‘शूद्रां’ का अर्थ शूद्रा स्त्री न करके शूद्र की वृत्ति अर्थ में किया है फिर पता नहीं क्यों २४७वें श्लोक में ‘शूद्रा’ पद स्त्रीलिंग का शूद्र स्त्री अर्थ वैâसे कर दिया जबकि सर्वथा यहाँ प्रकरण ‘वृत्ति’-आजीविका का ही है।
वास्तव में ग्रन्थों के अनुवाद में आद्योपांत प्रसंग जोड़कर ही अर्थ करना श्रेयस्कर होता है जैसे कि ‘सैंधव’ शब्द के कोश में दो अर्थ माने हैं-नमक और घोड़ा। यदि किसी ने भोजन करते समय कहा ‘सैंधवमानय्ा’ तो यदि कोई घोड़ा लाकर खड़ा कर दे तो अनुचित होगा और युद्ध में जाते समय यदि राजा कहे ‘सैंधवमानय’ तो कोई बुद्धिमान मनुष्य नमक लेकर नहीं आयेगा।
जैसे कि तत्त्वार्थसूत्र में आये ‘न देवा:’ सूत्र का अर्थ संदर्भ जोड़े बिना यदि किया जायेगा तो अनर्थ हो जावेगा अत: ‘नारकसम्मूचरछिनो नपुंसकानि।’ सूत्र से संबन्ध जोड़कर अर्थ करना होगा कि देव नपुंसक नहीं होते हैं।
ऐसे ही वर्तमान में इन विद्वानों द्वारा ‘शूद्रा शूद्रेण वोढव्या’ इत्यादि में शूद्र कन्या का विवाह अर्थ कर देने से अन्तर्जातीय, विजातीय विवाह का पोषण आगम के परिप्रेक्ष्य में होने लग गया है, जिससे कि महान अनर्थ हो रहा है।
इस प्रकार आगमसम्मत अर्थ को जानकर सुधी पाठकगण महापुराण के अन्तर्गत इस पं. लालाराम जी शास्त्री द्वारा अनुवादित आदिपुराण ग्रन्थ के प्रथम भाग का स्वाध्याय करके अपनी बुद्धि को आगमानुसार बनावें और वर्णव्यवस्था के प्रति अपनी श्रद्धा को दृढ़ करें क्योंकि शुद्ध जाति और कुल में ही महापुरुषों के जन्म होते हैं। आप भी अपनी कुल-परम्परा को शुद्ध रखें और भगवान ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का सम्यक्तया पालन करके स्वाध्याय का समीचीन फल प्राप्त करें यही मंगल प्रेरणा है।
कृति का नाम—‘‘विजातीय विवाह आगम और युक्ति दोनों से विरुद्ध है’’
लेखक—श्री धर्मवीर पण्डित श्रीलालजी पाटनी-अलीगढ़ (उ.प्र.)
प्रकाशक —इन्द्रलाल शास्त्री, मन्त्री—भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद् कार्यालय-जयपुर
वीर निर्वाण संवत्—२४५४, विक्रम संवत्—१९८५,
ईसवी सन्—१९२८
(इस पुस्तक के पृष्ठ २९-३३ पर आदिपुराण के सोलहवें पर्व का उक्त प्रकरण सम्मिलित है, उसे यहाँ ज्यों का त्यों उद्धृत किया जा रहा है।)
इसके अनन्तर भगवान् कहते हैं कि मैं तो विदेहों के अनुसार तीन वर्ण नियत करता हूँ और एक ब्राह्मण वर्ण भरत नियत करेगा। इस प्रकार चार वर्ण होंगे और जो जिस व्यापार को करे वह उसी को करे। देखो प्रमाण में-
शूद्राः शूद्रेण वोढव्या नान्यां तां स्वां च नैगमः।
वहेत्स्वां तां च राजन्यः स्वां द्विजन्मा क्वचिच्च ताः।।
स्वामिनां वृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्यां वृत्तिमाचरेत्।
स पार्थिवैर्नियन्तव्यो वर्णसंकीर्णिरन्यथा।।
(श्री आदिपुराण पर्व १६, श्लोक २४७/२४८)
अर्थ—शूद्र का कर्म शूद्र ही करे और न करे। वैश्य अपना कर्म करे और कभी आपत्ति समय हो तो शूद्रकर्म भी करे और क्षत्रिय अपना करे और कभी आपत्ति समय हो तो वैश्य और शूद्र का भी कर्म कर ले तथा ब्राह्मण अपना कर्म करे और कभी आपत्ति समय हो तो वैश्य-क्षत्रिय-शूद्र का भी कर्म कर ले। जो इस क्रम को छोड़कर दूसरे रूप से आजीविका करेगा वह राजाओं से दंडनीय होगा और वर्णसंकरता होगी।
पाठक महाशय विचार करें कि जो कर्म (व्यापार) मुख्य आजीविका का साधक था, वह आजीविका से संबंध रखता है, विवाह से नहीं। आज हमारी वर्णव्यवस्था व्यापार की गड़बड़ से जो नष्ट हो गई है, उसका विवाह संबंध में कोई प्रयोजन नहीं, न कोई इस बात का विचार करता है कि जब जौहरी जवाहरात का व्यापार करता है इसलिए यह वैश्य है, हम विद्या पढ़ाने की नौकरी करते हैं इसलिए हम ब्राह्मण हैं अतः हमको संबंध नहीं करना चाहिए किन्तु जो विवाह संबंध निज जाति और अन्य गोत्र में होना चाहिए (यह शास्त्र की आज्ञा है) उससे ही विवाह संबंध होता है। वर्णव्यवस्था का वर्तमान में जो अभाव हो रहा है उसका कारण राज्य का परिवर्तन और समय का प्रभाव है।
जो व्यापार अपनी कुलपरंपरा से होता आ रहा है उसी को करें, यह शक्ति नहीं रही और न इसके रहने से हमारा जातिसंबंध कुछ नष्ट हो सकता है क्योंकि जातिसंबंध जन्म से संबंध रखने वाला है और वहां संबंध गोत्र कर्म की अविच्छिन्न धारा से संबंध रखता है।
यहां पर हमको यह प्रकट कर देना भी आवश्यक है कि-‘‘शूद्राः शूद्रेण’’ यह श्लोक आदिपुराण का पर्व १६ का २४७ वां है। जिसका कि अर्थ हमने पूर्व में लिखा है, वह छः प्रकार के असि-मसि आदि कर्म करने वालों के लिए कहा गया है परन्तु विजाति विवाह को कर्ता इसका ऐसा अर्थ लगाते हैं कि ब्राह्मण, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र की कन्या से विवाह कर ले, क्षत्रिय-क्षत्रिय से, वैश्य, शूद्र से विवाह कर ले आदि। यह अर्थ सरासर मिथ्या है यहां विवाह संबंध का कोई कथन नहीं है किन्तु असि-मसि आदि षट् कर्मों के करने का प्रसङ्ग है। केवल मायाजाल से शास्त्र के अर्थ का अनर्थ करना है।
यहां कोई यह शज्र करे कि ‘‘शूद्रा शूद्रेण वोढव्या’’ इसमें आये हुए शूद्रा शब्द का अर्थ-व्यापार के किसी नियम के अनुसार शूद्रवृत्ति नहीं हो सकता। जब शूद्रवृत्ति अर्थ करेंगे तब शूद्रा शब्द बन ही नहीं सकता किन्तु ‘‘शौद्रीया, शूद्रीया’’ बनेगा और श्लोक में जब ‘‘शूद्रा’’ शब्द है तब उसका अर्थ केवल शूद्र जाति की कन्या होगा, शूद्र-वृत्ति नहीं हो सकता।
इसके उत्तर में कहना पड़ता है कि शज्रकार व्याकरण का ज्ञान नहीं रखता। शूद्रा शब्द का अर्थ शूद्रकन्या और शूद्रक्रिया यह दोनों हैं। प्रकरण यहाँ आजीविका का है अतः शूद्रा का अर्थ-शूद्र कन्या करना तो अनर्थ करना है जैसा कि ‘‘सैन्धवमानय’’ ऐसा भोजन समय में कहा हुआ सैंधव नाम नमक का बोधक ही हो सकता है, न कि घोड़े का। इसी प्रकार यहां जब भगवान् ने आजीविका के अर्थ षट्कर्मों की शिक्षा दी तब शूद्र का अर्थ-शूद्रक्रिया ही होगा। जिसकी पुष्टि अगले श्लोक में ‘‘इमां’’ शब्द कर रहा है। जो इदम् शब्द हस्त अंगुलि निर्देश से निकट का बोध करा रहा है, जिससे ‘‘शूद्रा’’ शब्द का अर्थ शूद्रवृत्ति को छोड़कर अन्य नहीं हो सकता। शूुद्र शब्द का अर्थ शूद्रवृत्ति,पाणनीय व्याकरण के अनुसार इस प्रकार है-‘‘तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप्’’ यह मतु पूजा अधिकार संबंध और अधिकरण अर्थ में होता है।
जैसे-गावः सन्ति, अस्य स गोमान नरः, अथवा गावः सन्ति अस्मिन्निति गोमान्-देशः, तथैव शूद्रशब्द से ‘‘अर्शआदिअच्’’ इस सूत्र से टाप् प्रत्यय करने पर और ‘‘अजाद्यन्तष्टाप्’’ इस सूत्र से टाप् प्रत्यय करने पर ‘‘शूद्रा’’ शब्द सिद्ध हुआ जिसका अर्थ हुआ शूद्र वृत्ति। जैसा कि ‘‘शूद्रो नियुक्तोऽस्यां सा शूद्रा’’ इसी प्रकार जैनेंद्र व्याकरण से ‘‘शूद्राः संति यस्यां वृत्तौ सा शूद्रा’’ इस व्युत्पत्ति में ओभ्रादिभ्यः ४।१।६८’’ सूत्र से ‘‘अ’’ प्रत्यय होता है और ‘‘अजाद्यतां टाप्’’ इस सूत्र से ‘‘टाप्’’ होता है तब शूद्रा शब्द का अर्थ शूद्रवृत्ति होता है। इसी प्रकार शाक्टायन व्याकरण से ‘‘शूद्रा’’ शब्द सिद्ध होता है ‘‘अभ्रादिभ्यः’’ ३।३।१४२ सूत्र से ‘‘अ’’ प्रत्यय् होता है और ‘‘अजाद्यन्ताङ्’’ सूत्र से ‘‘आङ्’’ होकर शूद्रा शब्द बनता है, जिसका अर्थ शूद्रवृत्ति होता है। कोई यहाँ यह शज्र करे कि यहां भगवान् ने धर्म, अर्थ, काम तीनों ही वर्गों का उपदेश दिया है अतः शूद्रा शूद्रेण वोढव्या’ यह आज्ञा व्यापारविषयक नहीं है किन्तु कामसंबंध से विवाह विषय की है।
इसका ऐसा उत्तर जानना कि धर्म के उपदेश को तो गृहस्थावस्था में तीर्थंकर करते नहीं। दूसरे धर्म का उपदेश दिया भी क्या ? कोई धर्म का स्वरूप या भेद दिखाया नहीं अतः ऐसा मानना मिथ्या है। यहां जो ‘‘स्वधर्मानतिवृत्यैव’’ ऐसा कहा है उसका अर्थ ऐसा है कि धर्म किसी अवस्था में भी त्यागा न जाये। व्यापार किया जाये परन्तु धर्म मुख्य रहे, एतावता इस व्यापार के विषय के नियम को जो आदिब्रह्मा वर्ण नियत कर रहे हैं, उसको पालन करने की आज्ञा है। यदि अनुलोम रूप से वर्णों में विवाह करने का उपदेश ही आवश्यक था तो ‘‘क्वचित्’’ ऐसा विशेषण क्यों देते ?
ब्राह्मण तो क्षत्रियादिकों की कन्या ले ही सकता था, क्षत्रिय ब्राह्मणों की नहीं ले सकता फिर क्वचित् का क्या प्रयोजन ? अतः इस श्लोक का प्रसंग से शूद्रक्रिया ही अर्थ जानना जिसकी पुष्टि ‘‘इमां’’ यह शब्द कर रहा है जो हस्तअंगुलिनिर्देश से व्यापार की सूचना दे रहा है।
पाठकगण! जब भगवान ने नगर, पुर, पट्टन आदिकों की रचना रच दी और प्रजा की आजीविका के लिए छह कर्मों का उपदेश दे चुके और उसकी पुष्टि के लिए वर्णव्यवस्था भी नियत कर दी और अन्यथा करने वालों को दंड भी नियत कर दिया और राजाओं को कर (टैक्स) लेकर राज्य करना भी बताया परन्तु राजाओं को बड़े राजाओं की आज्ञा में चलाना आवश्यक समझा अतः मंडलीक, महामण्डलीक आदि पदों की स्थापना के लिए राजाओं को बुलाकर उनको महामण्डलीक आदि पद देते गये। देखो प्रमाण में—
समाहूय महाभागान् हर्यकम्पनकाश्यपान्।
सोमप्रभं च सम्मान्य सत्कृत्य च यथोचितं।।२५६।।
कृताभिषेचनानेतान् महामण्डलिकान् नृपान्।
चतुःसहस्रभूनाथपरिवारान् व्यधाद् विभुः।।२५६।।
सोमप्रभः प्रभोराप्तकुरुराजसमाह्वयः।
कुरूणामधिराजोभूत् कुरुवंशशिखामणिः।।२५७।।
हरिश्च हरिकान्ताख्यां दधानस्तदनुज्ञया।
हरिवंशमलंचक्रे श्रीमान् हरिपराक्रमः।।।२५८।।
अकम्पनोऽपि सृष्टीशात् प्राप्तश्रीधरनामकः।
नाथवंशस्य नेताभूत् प्रसन्ने भुवनेशिनि।। ।२६०।।
(आदिपुराण, पर्व १६, श्लोक नं. २५६ से २६० तक)
भगवान ने हरि, अकम्पन, काश्यप और सोमप्रभ इन चार महाभाग्यशाली क्षत्रियों को बुलाकर उनका यथोचित सम्मान और सत्कार किया। तदनन्तर राज्याभिषेक कर उन्हें महामाण्डलिक राजा बनाया। ये राजा चार हजार अन्य छोटे-छोटे राजाओं के अधिपति थे।।।२५६-२५७।।
सोमप्रभ, भगवान से कुरुराज नाम पाकर कुरुदेश का राजा हुआ और कुरुवंश का शिखामणि कहलाया।।२५८।।
हरि, भगवान् की आज्ञा से हरिकान्त नाम को धारण करता हुआ हरिवंश को अलंकृत करने लगा क्योंकि वह श्रीमान् हरिपराक्रम अर्थात् इन्द्र अथवा िंसह के समान पराक्रमी था।।२५९।।
अकम्पन भी भगवान् से श्रीधर नाम पाकर उनकी प्रसन्नता से नाशवंश का नायक हुआ।।२६०।।