आचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागर जी महाराज ( समाधिस्थ )
पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के दुष्प्रभाव तथा केवली-कथित पुनीत वाणी की अनभिज्ञता अथवा अवमानना से गत कुछ वर्षों में स्वच्छन्दाचार का पोषण करने वाला साहित्य भी प्रकाश में आया है । इस साहित्य ने आर्य जाति की मूल संस्कृति वर्ण व्यवस्था को ही छिन्न-भिन्न करने का दुष्प्रयास किया है । वर्ण व्यवस्था जाति, समाज, देश, धर्म सबकी उन्नति के लिए हितकारी साधन है । प्रसीसी पादरी दुव्वाय ने कहा है कि जाति की व्यवस्था ने ही भारत को बर्बरता में गिरने से बचाया है । यह तो सर्वथा अविवादास्पद तथ्य है और मनोवैज्ञानिकों ने भी इसे स्वीकार किया है कि जीवन में संस्कार और संगति का बहुत महत्त्व है । अध्यात्मप्रधान भारत देश में जड़ भौतिक संस्कृति का संसर्ग कितने चमत्कार दिखा रहा है, यह सबके अनुभव की बात है । आज का शिक्षित युवा वर्ग आचार-विचारों को रूढ़िवाद मानकर उनका उल्लंघन करने में अपना गौरव समझता है और दिनानुदिन स्वेच्छाचार व उच्छृंखलतापूर्ण प्रवृत्ति करता है । यों तो मनुष्य की अपेक्षा से मनुष्य मात्र एक ही है परन्तु उपाधिधारी बन जाने के बाद भी व्यक्ति के कुल व जातिगत संस्कार समय पर जाग्रत होकर अपना रंग दिखाते ही हैं, यह भी अनुभव सिद्ध बात है । ‘वर्ण व्यवस्था’ पर गंभीरतापूर्वक विचार करें तो ज्ञात होगा कि यह व्यवस्था अनादिकाल से चली आ रही है । यह अनादिनिधन है । किसी ने इसका सर्वथा काल्पनिक ढंग से नवीन निर्माण नहीं किया है क्योंकि जैनदर्शन कभी भी किसी क्षेत्र में या किसी भी काल में सत् का सर्वथा विनाश और सर्वथा असत् की उत्पत्ति नहीं मानता। हाँ, कालचक्र के परिवर्तन के कारण जब यहाँ भोगभूमि की प्रवृत्ति हुई तब यह व्यवस्था तिरोभूत हो गई थी । इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे में जब पल्य का ८वाँ भाग शेष रहा तब क्षत्रिय वर्ण में चौदह कुलकरों की क्रमश: उत्पत्ति हुई थी ।
सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य ‘त्रिलोकसार’ में कहते हैं कि
इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान आदिनाथ के बहुत काल पूर्व भी जब क्षत्रिय वर्ण था तब अन्य भी दो वर्ण अवश्य थे किन्तु उस समय वहाँ सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था के अभाव में वे तिरोभूत थे । भोगभूमि की समाप्ति पर कर्मभूमि की रचना से एवं उत्पन्न होने वाले पदार्थों से अनभिज्ञ और आकुलित जनता आदिनाथ के निकट पहुँची। आदि प्रभु जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी थे, उन्होंने अपने अवधिनेत्र की सहायता से पूर्वापर विदेहों की व्यवस्था जानकर उसी प्रकार की व्यवस्था का विधान किया-
देखें आदिपुराण की पंक्ति
पूर्वापर विदेहेषु या स्थिति: समवस्थिता। साद्य प्रवर्तनीयात्र ततो जीवन्त्यमू: प्रजा:।।१४३।। पर्व १६ (आदिपुराण)
(भगवान आदिनाथ अपने मन में विचार करते हैं कि पूर्व और पश्चिम विदेहक्षेत्र में जो स्थिति विद्यमान है, वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है ।) इससे यह सिद्ध होता है कि वर्ण व्यवस्था अनादि की है कारण कि पूर्वापर विदेहों में शाश्वत कर्मभूमियाँ हैं अर्थात् अनाद्यनन्त काल तक वहाँ की व्यवस्था सदृश ही रही है और रहेगी अत: वर्ण व्यवस्था भी अनाद्यनन्त है । भरतक्षेत्र में यह व्यवस्था तिरोभूत हो गई थी अत: आदिप्रभु ने अपने अवधिज्ञान के बल से ‘क्षतत्राणादि’ गुणों के अनुसार तीन वर्णों की व्यवस्था की किन्तु भगवान ने स्वेच्छा से किसी को उँच-नीच नहीं बनाया अपितु वे अपने-अपने गुणों के कारण ही भिन्न-भिन्न संज्ञा को प्राप्त हुए थे । भगवान ने किसी भी मानव में गुणों एवं अवगुणों का आरोपण नहीं किया था। उनके गुणावगुण उनके स्वयं के थे । बिना कारण कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। जहाँ निरन्तर सदृश प्रवृत्ति होती थी ऐसी भोगभूमि की परिसमाप्ति के तत्काल बाद ही इस प्रकार के गुणों एवं अवगुणों की प्रगटता में बीज और वृक्ष की भांति अनादि सन्तति से चले आए अपने-अपने वर्ण के संस्कार ही कारण थे ।
(अर्थ – वह क्षत्रियों की सृष्टि किस प्रकार प्रवृत्त हुई थी ? समाधान यह है कि आज कर्मभूमि होने से प्रजा दो प्रकार की है-एक रक्षक और दूसरी रक्षा किए जाने योग्य। जो प्रजा की रक्षा करने में तत्पर हैं उनकी वंश परम्परा को क्षत्रिय कहते हैं । यद्यपि यह वंश अनादिकाल की सन्तति से बीजवृक्ष के सदृश अनादिकाल का है तथापि क्षेत्रकाल की अपेक्षा से उसकी सृष्टि अर्थात् उत्पत्ति होती है । यहाँ उत्पत्ति से अभिप्राय प्रगटपना है नवीन उत्पन्न होना नहीं, कारण कि सर्वथा असत् की उत्पत्ति नहीं होती।) उपर्युक्त प्रमाणों से यह बात सिद्ध होती है कि यह वर्ण व्यवस्था अविच्छिन्न धारा से आने वाले पिण्ड का ही परिणाम है जिसका उद्योतन गुणनिबन्धना है । वर्ण व्यवस्था कर्मनिबन्धना नहीं है, यदि कर्मनिबन्धना होती तत् कर्म का अभाव होने पर वर्ण का भी अभाव हो जाना चाहिए। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इन चतुर्वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के अन्तर्गत प्रत्येक वर्ण में क्रिया की अपेक्षा चारों वर्णों की क्रियाएँ पाई जाती हैं, यथा-जो शक्ति विशेष से संयुक्त होते हुए रक्षा हेतु हथियार आदि धारण करते हैं, वे क्षत्रिय, जो भगवत्-भजन आदि विशेष करते हुए मद्य, मांस आदि का त्याग कर देते हैं वे ब्राह्मण, जो क्रय-विक्रय आदि में निपुण हैं वे वैश्य और जो सदा नीच कर्मों में ही रत रहते हैं वे शूद्र हैं । इसी भांति उच्च वर्णी के द्वारा यदि तेल की मिल खोल ली गई हो तो उसे तेली, शराब का व्यापार करने वाले को कलाल अथवा क्षत्रिय और शूद्र होते हुए भी वह यदि कपड़े का व्यापार करता है तो वणिक्, परचूनी के व्यापारी को मोदी आदि कहा जाता है । इस प्रकार प्रत्येक वर्ण में क्रियाओं की अपेक्षा चारों वर्णों के सदृश कार्य दिखाई देते हैं । इन क्रियात्मक वर्णों में परिवर्तन भी हो जाता है जैसे कपड़े का व्यापार करने वाला वैश्य जब कपड़े का व्यापार बंद करके सोने-चांदी के जेवर आदि बनाने का कार्य करने लगता है तब वह सुनार कहा जाता है । ऐसा परिवर्तन केवल क्रिया-व्यवसाय, आजीविका, आचरण के कारण होता है, मूल में तो वह जिस वर्ण में उत्पन्न हुआ है वही वर्ण रहेगा अर्थात् उनके सामाजिक सभी कार्य अपने-अपने वर्ण में होंगे। शराब का ठेका लेने वाले ब्राह्मण की कन्या का विवाह कलाल के लड़के से और भगवत् भक्ति करने वाले चांडाल की पुत्री का विवाह क्षत्रिय पुत्र से नहीं होता। कर्म परिवर्तन से पिण्ड परिवर्तन या वर्ण परिवर्तन नहीं हो सकता। यह बात तो केवल बाह्य प्रवृत्तियों की है किन्तु अन्तरंग में यदि सम्यग्दर्शन आदि गुण भी प्रगट हो जाए तो भी उस भव में उसके पिण्ड या वर्ण में परिवर्तन नहीं होता।
श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में समन्तभद्र स्वामी लिखते हैं-
सम्यग्दर्शनसम्पन्न-मपि मातंड देहजम्।
देवादेवं विदुर्भस्म-गूढ़ांगारान्तरौजसम्।।२८।।
अर्थात् सम्यग्दर्शन संयुक्त मार्तंड को दिया गया यह विशेषण-‘भस्म गूढांगारा……’ इस बात का अभिव्यंजक है कि सम्यग्दर्शन हो जाने पर उसके वर्ण का परिवर्तन नहीं होता। यहाँ उपमान और उपमेय भाव के द्वारा यह दर्शाया गया है कि चांडाल और चाण्डाली के रजवीर्य से बना हुआ मातंडदेह अनुत्तम होने से भस्म स्थानीय है, जीव अंगारस्थानीय है और सम्यक्त्व ओजस्थानीय है । जब तक अंगार भस्म से नहीं निकलता तब तक उसका प्रकाश आदि कार्यकारी नहीं है, इसी प्रकार जब तक चाण्डाल का जीव देह में रहेगा तब तक वह कार्यकारी नहीं होगा, वह चाण्डाल ही कहलायेगा। आज के भौतिकताप्रधान वातावरण में कुछ लोगों को यह भ्रान्ति हो गई है कि वर्णों का निर्माण क्रिया की अपेक्षा से हुआ है अत: क्रिया के परिवर्तन से वर्ण में परिवर्तन आ जाता है । यदि सर्वथा क्रिया से ही वर्ण मान लिया जाए तो पूज्यपाद स्वामी के ‘वर्णेनार्हद्रूपायोग्यानाम्’ अर्थात् वर्ण से जो अर्हतलिंग के अयोग्य है-इन वचनों का तथा गुणभद्र स्वामी के-‘सोऽन्वयोऽनादिसन्तत्या बीज-वृक्ष-वदिष्यते’ अर्थात् वह अन्वय बीज और वृक्ष की तरह अनादि सन्तति से चलता रहता है एवं ‘अच्छेद्योमुक्तियोग्यायाविदेहजाति सन्तते:’ अर्थात् अविच्छिन्न उत्पत्ति के कारण विदेह क्षेत्र में मुक्ति योग्य जाति सन्तान का विच्छेद नहीं है, इन वचनों का निरसन होता है और दूसरी बात यह भी है कि क्रिया के परिवर्तन से वर्ण-परिवर्तन की यह व्यवस्था सम्पूर्ण जीवों पर लागू नहीं होती, जैसे- (१) गर्भस्थ बालक तथा ५-६ वर्ष तक का बालक कोई क्रिया नहीं करता, तब उसके किसी वर्ण की सिद्धि नहीं होगी। (२) नीच गोत्र के उदय से युक्त भोगभूमिज तिर्यंच कभी पाप प्रवृत्ति में रत नहीं होते अत: आचरण भेद से उन्हें उच्चगोत्री मानना पड़ेगा। (३) उच्चगोत्र के उदय से युक्त कितने ही देव क्रीडानिमित्त अशुचि आदि पदार्थों में प्रवृत्ति करते देखे जाते हैं अत: उस दुराचारवश उन्हें नीचगोत्र का उदय मानना पड़ेगा। (४) नीचे गोत्री जिन नारकियों के तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता है, उनकी आयु जब छह माह शेष रह जाती है तब उनके आचरण में भिन्नता आ जाती है अर्थात् वे मार-काट आदि हिंसा-रूप हीनाचरण नहीं करते अत: उन्हें भी उच्चगोत्री मानना पड़ेगा।
उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में वर्ण उत्पत्ति की अपेक्षा और कर्म-क्रिया की अपेक्षा से दो प्रकार के होते हैं-(१) जिस वर्ण के माता-पिता के रजवीर्य से पौद्गलिक शरीर की रचना (उत्पत्ति) होती है वह उत्पत्ति वर्ण कहलाता है और यह वर्ण पर्याय के अन्त तक रहता है, इसमें परिवर्तन नहीं होता। जैसे-मृत्तिकापिण्ड से बना घड़ा मिट्टी का, ताम्रपिण्ड से बना तांबे का, रजतपिण्ड से बना चांदी का और स्वर्णपिण्ड से बना हुआ घड़ा अपनी पर्याय पर्यन्त उसी-उसी पिण्ड का कहा जाता है । (२) दूसरे, यह प्राणी चारों वर्णों के कार्यों में से जब जिस वर्ण के अनुकूल कार्य (व्यवसाय) करने लगता है तब उसकी उसी वर्ण के नाम से प्रख्याति हो जाती है, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है । मिट्टी, तांबा, चांदी या स्वर्ण से बने घटों में जब घी भर देते हैं तब वे घी के, दूध से भर देने पर दूध के और जल से भर देने पर जल के कहे जाते हैं किन्तु मूल में तो मिट्टी, तांबा, चांदी या स्वर्ण के ही रहते हैं, उसमें परिवर्तन नहीं होता। इसी प्रकार प्रत्येक वर्ण के अन्तर्गत क्रिया के निमित्त से वर्ण परिवर्तनशील होते हैं परन्तु उत्पत्ति वर्ण का परिवर्तन प्राप्त हुई पर्याय के अन्त तक नहीं होता।
पारलौकिक या आध्यात्मिक दृष्टान्त से भी यही बात सिद्ध होती है- (१) आगम में उपयोग दो प्रकार का कहा है-१. शुद्धोपयोग २. अशुद्धोपयोग। इसमें अशुभोपयोग और शुभोपयोग के भेद से शुद्धोपयोग दो प्रकार का है । इनमें से अशुभोपयोग अधोगति का और शुद्धोपयोग मोक्ष का कारण है । अब रहा शुभोपयोग यह सम्यग्दृष्टि जीव के धर्मध्यानपूर्वक होता है और इसे आगम में परम्परा मोक्ष का कारण कहा है, फिर भी श्रेणी में इसे हेयरूप ही कहा है क्योंकि उसकी उत्पत्ति अशुद्धोपयोग से हुई थी अर्थात् जिस प्रकार अशुद्धोपयोग से उत्पन्न होने वाला शुभोपयोग मोक्षमार्ग में सहयोगी होते हुए भी अन्त में अशुद्धोपयोग ही रहा, प्रशस्त कार्य करते हुए भी शुद्धोपयोग की संज्ञा को नहीं प्राप्त कर सका, उसी प्रकार प्रशस्त आचरण करते हुए भी उत्पत्ति वर्ण वहीं का वहीं रहता है, उसमें परिवर्तन नहीं आता। (२) समयसार के पाप पुण्य अधिकार के प्रारंभ में आचार्यश्री ने कहा है कि एक शूद्री के दो पुत्र उत्पन्न हुए, उनमें से एक का पोषण तो ब्राह्मण के घर हुआ अत: वह ‘उपनयनवशात् ब्राह्मणोजात:’ यज्ञोपवीत के कारण ब्राह्मण कहलाया और दूसरा ‘उपनयनाभावाच्छूद्र’ उपनयन के अभाव से शूद्र ही है-तथापि दोनों शूद्र ही हैं क्योंकि दोनों की देह रचना शूद्र के रज वीर्य से हुई थी । इस दृष्टान्त से भी यही सिद्ध होता है कि उत्पत्ति वर्ण का परिवर्तन नहीं होता। (३) एक मिथ्यादृष्टि जीव करणलब्धि के अनन्तर उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त कर सम्यक्त्व के प्रभाव से मिथ्यात्व के तीन खण्ड करता है-मान लो मिथ्यात्व का द्रव्य ३२ है, उसमें ४ का भाग देकर बहुभाग (२४) को मिथ्यात्व में दिया, शेष रहे ८ में ४ का भाग देने पर बहुभाग ६ मिश्र को तथा २ भाग सम्यक्त्व प्रकृति को दिया तथा अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि होकर जब भी क्षायिक सम्यक्त्व के सम्मुख होता है तब अनन्तानुबंधी का विसंयोजन करके मिथ्यात्व के द्रव्य को मिश्र एवं सम्यक्त्व प्रकृति में देता है, फिर मिश्र को सम्यक्त्व प्रकृति में देता है, अनन्तर सम्यक्त्व प्रकृति का स्वमुख से नाश करता हुआ कृतकृत्यवेदक होता है । ये सभी क्रियाएं सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में ही होती है उसके बिना क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हो सकता। इस विषय में सम्यक्त्व प्रकृति परमोपकारी है फिर भी आचार्यों ने उसे पाप प्रकृति कहा है क्योंकि मूल में उसकी उत्पत्ति मिथ्यात्व से हुई है अर्थात् वह मिथ्यात्व का ही अंश है । अंशी से अंश भिन्न नहीं हो सकता। इसी प्रकार वर्ण व्यवस्था में जो हम कहते हैं कि क्रिया से जो वर्ण होता है वह परिवर्तनशील है सो होता रहे परन्तु जिस वर्ण के रज वीर्य से जिसकी उत्पत्ति होती है उस वर्ण का उस पर्यायपर्यन्त परिवर्तन नहीं होता क्योंकि सन्तति रूप से अंशी से अंश भिन्न नहीं होता, जैसा ऊपर कह आए हैं । जिस धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति को व्यवस्थित बनाये रखने के लिए इस वर्ण व्यवस्था का विधान भगवान आदिनाथ के द्वारा हुआ था उसमें आज अनेक प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न होने लगी हैं । इसका कारण यह है कि आज न तो अपने वर्ण की निश्चित आजीविका अपने वर्ण में सीमित रही है और न व्यवहार की ही सीमा रही है ।
अर्थात् उस समय भगवान ने यह भी नियम प्रचलित किया था कि जो कोई अपने वर्ण की आजीविका छोड़कर अन्य वर्ण की आजीविका करेगा वह राजा के द्वारा दण्डित किया जायेगा क्योंकि ऐसा न करने से (दण्डविधान के अभाव में) वर्ण संकीर्णता हो जाएगी अर्थात् सब वर्ण एकमेव हो जायेंगे, कोई विभाग रहेगा ही नहीं। इस दृष्टि से आज की स्थिति का अवलोकन करें तो बड़ी विषमता फैलती दिखाई देने लगी है । कुछ धीमान् और श्रीमान् अपनी बुद्धि और लक्ष्मी के बल पर आदिप्रभु की व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने के लिए विवाह और आजीविका के माध्यम से (अन्य-अन्य जातियों में शादी-ब्याह करके एवं नाना प्रकार के अकरणीय उद्योग करके) मात्र संकरता ही उत्पन्न नहीं कर रहे हैं बल्कि आगम और आचार्यों को अप्रमाणिक घोषित करके धर्म को ही दूषित कर रहे हैं । तीन वर्ण अनाद्यनन्त हैं और उन वर्णों में कुल अनेक हो सकते हैं जैसे भरतादि महापुरुषों का जन्म क्षत्रिय वर्ण में और उस क्षत्रिय वर्ण के अन्तर्गत इक्ष्वाकुवंश, सोमवंश, सूर्यवंश आदि अनेक वंश थे । गोत्र एवं जाति भी वर्ण के अन्तर्गत ही होती है जैसे भगवान आदिनाथ ने क्षत्रिय वर्ण के इक्ष्वाकुवंश और काश्यपगोत्र में जन्म लिया था। आठ कर्मों में गोत्र नाम का एक कर्म है, इसके उच्च गोत्र और नीच गोत्र नाम से दो भेद हैं अथवा छह भेद भी हैं-उच्च, उच्च उच्च, उच्चनीच, नीच उच्च, नीच और नीच नीच। ‘गोत्रद्विविधं-उच्चैर्गोत्रं, नीचैर्गोत्रं। यस्योदयाल्लोकपूजितेषुकुलेषु जन्म कारणं तदुच्चैर्गोत्रं, तत् विपरीतगर्हितेषु जन्म कारणं नीचैर्गोत्रं।’ कर्म सन्तति अनाद्यनन्त है अत: ये उच्च और नीचगोत्र भी अनादि हैं । अपने-अपने कर्मानुसार प्रत्येक जीव इन्हीं में जन्म लेकर उच्च एवं नीचगोत्री ही कहलायेंगे। इसका कोई विनाश नहीं कर सकता। हाँ, इनमें संकरता उत्पन्न करके अपने आपको नीचगोत्र का पात्र अवश्य बनाया जा सकता है । वर्ण, वंश एवं गोत्र के समान ही जाति भी अनाद्यनन्त है ।
यशस्तिलकचम्पू के आठवें आश्वास में सोमदेवसूरि ने कहा है कि-
जातयोऽनादय: सर्वास्तत्क्रियापि तथा विधा……।।१८।।
अर्थात् समस्त जातियाँ (बीज और वृक्ष की भांति) अनादि हैं और उनकी क्रियाएं भी अनादि ही हैं । कुल, जाति और सज्जाति की परिभाषा भगवज्जिनसेनाचार्य ने आदिपुराण के ३९वें पर्व में इस प्रकार की है-
अर्थात् पिता के वंश की शुद्धि को कुल और माता के वंश की शुद्धि को जाति कहते हैं तथा कुल और जाति इन दोनों की विशुद्धि को सज्जाति कहते हैं और इस सज्जातिरूप सम्पदा से ही पुण्यवान मनुष्य उत्तरोत्तर उत्तम वंशों को प्राप्त होते हैं ।
शुद्ध कुल और शुद्ध जाति में जो उत्पन्न हुए हैं उन्हें ही सज्जातित्व परमस्थान प्राप्त हुआ है व होगा। सज्जातित्व आदि सात परमस्थानों में अंतिम परमस्थान मोक्ष है । इस प्रकार अनाद्यनन्त वर्ण, वंश और जाति को यथारूप सुरक्षित रखने के लिए उद्योग (व्यापार) एवं विवाह आदि क्रियाएँ आगमानुसार ही होनी चाहिए थीं किन्तु आज ऐसा नहीं देखा जाता, सर्वत्र संकरता उत्पन्न होती जा रही है जिससे मनुष्यों की बुद्धि में विपर्यास उत्पन्न हो रहा है । तीसरे काल की सामाजिक व्यवस्था के आदर्श का निरूपण करते हुए आचार्यदेव आदिपुराण के १६वें पर्व में कहते हैं
कि-यथास्वं स्वोचितं कर्म प्रजा दधुरसंकरम्।
विवाहजातिसंबंधव्यवहारश्च तन्मतम्।।१८७।।
अर्थात् उस समय प्रजा अपने-अपने योग्य कर्मों को यथायोग्य रूप से करती थी । अपने वर्ण की निश्चित आजीविका को छोड़कर कोई दूसरी आजीविका नहीं करते थे इसलिए उनके कार्यों में भी कभी संकरता नहीं होती थी । उनके विवाह, जाति संबंध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य भगवान आदिनाथ की आज्ञानुसार ही होते थे । उपर्युक्त श्लोक में ‘तन्मतम्’ पद विशेष विचारणीय है कि जब आदिनाथ प्रभु गृहस्थावस्था में असंयमी थे तब तो प्रजाजन सामाजिक, धार्मिक लोकव्यवहार से संबंधित सभी कार्य उनकी आज्ञानुसार करते थे और आज हम इतने कुटिल हो गए हैं कि केवलज्ञान ज्योति द्वारा इष्ट एवं तदनुरूप कथित उन्हीं आदि तीर्थंकर की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए स्वयं अनर्गल प्रवृत्तियाँ करते हैं, करने वालों की अनुमोदना करते हैं और नहीं करने वालों को उस आज्ञा का लोप करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं । इतना ही नहीं बल्कि भगवान की आज्ञानुसार शास्त्र रचना करने वाले आचार्यों को ही गलत सिद्ध करते हैं । स्वार्थपूर्ति के लिए मनुष्य का कितना पतन हो रहा है । कतिपय तथाकथित सुधारवादी लोगों का यह तर्व है कि इस पंचमकाल में वर्ण व्यवस्था की आवश्यकता नहीं है, इसकी आवश्यकता उस काल में थी जब मोक्षमार्ग चालू था, इस काल में तो मोक्षमार्ग बन्द है । ऐसी तर्वणा भोले जीवों की श्रद्धा का कारण बन जाती है परन्तु भाई! हम यह तो सोचें कि अपने अवधिज्ञान से पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्रों की स्थिति देखकर भगवान आदिनाथ ने जो मार्ग चलाया था या बतलाया था वह भगवान महावीर के शासनकाल व इन पिछले २५०० वर्षों तक तो अक्षुण्ण रूप से चला आया, अब उसे छिन्न-भिन्न करने की क्यों व किसे आवश्यकता आ पड़ी ? हमारी समझ में तो उत्पत्ति व विचारों से पतित प्राणी ही इस प्रकार की आगमविरुद्ध व्यवस्था की सलाह दे सकते हैं, आदर्श और आदर्श मार्ग पर चलने वाले नहीं। जिनेन्द्र की आज्ञा का तथा पदार्थों के स्वरूप का यथार्थ रूप से श्रद्धान करना ही ज्ञानीपने का द्योतक है । यदि जातिसंकर मनुष्य साधुओं को आहार देता है तो वह कुभोगभूमि में जाता है अत: संकरता से उत्पन्न हुए गृहस्थों के यहाँ साधु आहार नहीं करते। यदि अनजाने आहार हो भी जावे, तो प्रायश्चित्त लेते हैं । जानबूझ कर भी ऐसे श्रावकों के यहाँ आहार करना या करने वालों का समर्थन करना आगम व श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती आदि आचार्यों पर अश्रद्धा व अज्ञान का द्योतक ही है । भगवज्जिनसेन ने कहा है कि लोकव्यवहार में भी अधिकारों के विषय में विजाति-विवाह से आपत्ति आती है । दायक अर्थात् धन सम्पत्ति की अधिकारी भी सज्जाति से उत्पन्न हुई सन्तान ही होती है तथा समाज की ओर (साक्षी) से पगड़ी भी उसी को बंधाई जाती है । कन्या से उत्पन्न हुआ पुत्र, पुनर्विवाह से उत्पन्न हुआ पुत्र, स्वयं दूसरों को गोद दिया हुआ पुत्र, शूद्र स्त्री से उत्पन्न हुआ पुत्र, कानोन, गूढ़ रूप से उत्पन्न हुआ पुत्र, पुत्र अवश्य है पर पिता की सम्पत्ति का वारिस (अधिकारी) नहीं हो सकता। उत्कृष्ट ज्ञान की प्राप्ति निरन्तर ग्रंथों के वाचन करते रहने पर भी उतनी नहीं होती जितनी चारित्र व तप के माध्यम से ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है । वर्तमान काल में तथाकथित सुधारकों द्वारा उपदेशादिक में कहा जाता है कि इस खींचातानी से समाज का ह्रास हो रहा है परन्तु जैनधर्म व समाज जिस बुनियाद पर खड़ा है वह बुनियाद ही जैनधर्म है, इसके विपरीत संसारी जीवों में विषयासक्ति की वृद्धि ही जैनत्व का ह्रास होना है, संख्या का कम होना ह्रास नहीं, संख्या का बढ़ना वृद्धि नहीं, परन्तु जैनधर्म के रक्षक व पोषक गुण जो नष्ट हो रहे हैं या जो करने में लगे हैं, वही वास्तव में ह्रास है । पर संख्यावृद्धि के इच्छुक विद्वानों की विचारधारा है कि अति कठोरता के व्यवहार के कारण अर्थात् पतितों को अपने में न मिलाने के कारण संख्या घटती जा रही है । बंधुओं! पतितों को अपने में न मिलाने के कारण संख्या ज्यादा दिख सकती है । एक कहावत है कि- ‘चार-चार चौरासी वाणिया, क्या करे अकेला वाणिया’ वास्तविक जैनत्व वहाँ है मद्य-मांस-मधु (संकल्पी हिंसा) का त्याग कर परिणामों में कुछ निर्मलता की जागृति की जाती है, इस दशा में सिद्धान्त पर जो आस्था बनती है वही जैनत्व का चिन्ह है । मात्र वैज्ञानिकता व एकान्त से शुद्ध पदार्थों का स्वरूप तो आज समझाया जाता है पर अभक्ष्य (अखाद्य) पदार्थों का त्याग न तो कराया ही जाता है और न स्वयं ही करते हैं, ऐसी स्थिति में वास्तविक श्रद्धा और ज्ञान नहीं कहा जा सकता। कहा भी है कि वह ज्ञान, ज्ञान ही नहीं जहाँ चारित्र नहीं। जहाँ श्रद्धा होगी वहाँ आगमोक्त मार्ग का उल्लंघन नहीं होगा, तदनुरूप ही आचरण होता, जब तक अन्तरंग में अभक्ष्य पदार्थों तक से विरक्ति नहीं तब तक जैन तत्त्वों का आत्मप्रदेशों पर असर ही नहीं हो पाता ऐसी स्थिति में केवल वक्तृत्व के बल पर शिष्टाचार पूरा करना ही रह जाता है । इस विषय में हमारी समझ में तो इतना ही है कि उच्च गोत्री तीन वर्णों को ही मोक्ष का अधिकारी माना है, वह भी तभी तक जब तक वे अपनी-अपनी जातियों की संकरता से रक्षा करते रहे हों। आगम में पशु-पक्षी मात्र को नीच गोत्री कहा है (चाहे वह हंस हो या बगुला, गाय हो या शूकर) इसका मूल कारण है-वीर्य संकरता। जाति और वर्णसंकरता से रहित तो वे हैं परन्तु वीर्य संकरता से वे अपनी रक्षा नहीं कर सकते-‘मात तिया सम भोगी पापी’ शूद्रों में जो कुल परम्परा से चली आई वीर्य संकरता है वह तो विद्यमान है परन्तु उनके जाति-संगठन व सामाजिक बंधन इतने मजबूत हैं कि यदि कोई समाज में अन्य जाति की कन्या व स्त्री से संबंध करता है तो समाज उसे दण्ड देकर बरबस छुड़ा देते है परन्तु परम्परा से चली आ रही वीर्य संकरता को रोकना तो उनके हाथ की भी बात नहीं है । हम उच्चगोत्री कहलाने वालों में संकरता का अभाव था पर वर्तमान में तो सभी संकरता की जाग्रति में ही लगे हैं अत: उन नीच गोत्री पशु-पक्षियों से भी हीन हुए ।