वर्ण व्यवस्था में निहित आध्यात्मिक विकास के प्रतिमान
डॉ. दीपा जैन
भूमिका
वर्ण व्यवस्था भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। यह समन्वित विकास की दिशा में मानव समुदाय की वह निधि है जिसके द्वारा मानव अपने जीवन की सार्थकता सिद्ध कर समयसार अपनी सफलता की मंजिलों के पायदान चढ़ता चला जाता है। इसमें मानव जीवन के सम्पूर्ण आयुष्य का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आयोजनबद्ध विभाजन को दर्शाया गया है। आयु के किस हिस्से का मकसद क्या होना चाहिए और क्यों। अपनी व्यवहारिक जिम्मेदारियां निभाते हुए कैसे निश्चयनय के आधार को उत्तरोत्तर सुदृढ़ किया जा सकता है। यह मानव समुदाय को व्यक्तिगत रूप से गुणों से युक्त करने की व्यवस्था है जिसमें अग्रिम अवस्था में परिवर्तन के साथ गुणों के विकास की अवस्था में वृद्धि होती है। जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास की यही दशा गुणस्थान सिद्धान्त के रूप में जानी जाती है। गुणस्थान का सीधा सम्बन्ध यूं तो जैन दर्शन से माना जाता है किन्तु भारत के प्राय: सभी प्रमुख दर्शनों में अध्यात्मिक विकास की बात अपने अपने तरीके से की गई है। इसमें कितनी समानता देखने को मिलती है और कितनी विविधता— यह जानना भी अभ्यास की दृष्टि से तर्वâसंगत लगता है। इससे गुणस्थान की अवधारणा की लोक या सार्वभौमिक स्वीकार्यता की झलक मिलती है और वहीं दूसरी ओर इस धार्मिक अवयव को वैज्ञानिक आधार मिलता है। वैदिक संस्कृति में जीवन की चार अवस्थाओं के माध्यम से नैतिक व आत्मिक स्थितियों की बात कही गई है जिन्हें यहाँ वर्ण व्यवस्था को चार आश्रम कहा गया है। (१) ब्रह्मचर्य (२) गृहस्थ (३) वानप्रस्थ एवं (४) संन्यास। गुण धारण के लक्षणों के आधार पर इन चार वर्णाश्रम की व्यवस्था में जिन ध्येयों को प्रधानता दी जाती है वे निम्न लिखित हैं—
१. सीखना, जानना सम्यक ज्ञान व दर्शन की अनुभूति
२.निष्काम पुरुषार्थ व सांसारिक दायित्वों का नैतिकता के साथ निर्वाह
३. आसक्ति रहित जीवन व्यवहार का अभ्यास, राग द्वेष आदि विकारी भावों को हटाना, ममत्व व तृष्णा में कमी तथा पंचेन्द्रिय संयम।
४.आत्म साधना हेतु सांसारिकता का त्याग एवं कठोर तपश्चर्या का आचरण आध्यात्मिक किस अवस्था तक पहुँचने के लिए किन गुणों का होना जरूरी है। जो गुण सहित है वही गुणी है। गुण सहित होने की प्रतीति दो रूपों में होती है— द्रव्याचरण और भावाचरण। द्रव्याचरण से हमारा आशय लौकिक व्यवहार या क्रियाओं से है तथा भावाचरण का आन्तरिक विशुद्धता से है जिसकी आत्मिक विकास में अहम् भूमिका होती है। वेश, कर्मकाण्डीय प्रथाएं आदि लौकिक नैतिकता का प्रतिनिधित्व करती हैं इससे ऊपर की अवस्थाओं में आरोहण हेतु दृढ़ भाव की विशुद्धि की अनिवार्यता बढ़ जाती है। आत्म विशुद्धि की यात्रा में विकारी परिणामों पर जय पाने हेतु उपशम व क्षय दो महत्वपूर्ण विधियाँ हैं। उपशम विधि के तहत विकारी भावों का बढ़ना तो रूकता है किन्तु उसका प्रभाव अल्पकालिक रहता है। क्योंकि इस विधि को अपनाने में इन भावों को रोकने की दृढ़ता व आत्मविश्वास का स्तर व्यक्ति में निम्न पाया जाता है। समय के साथ इसकी पकड़ ढ़ीली पड़ते ही विकारी भावों का प्रभुत्व पुन: बढ़ जाता है तथा इसी के चलते वर्तमान अवस्था से पतनोन्मुख हो जाता है। इसके विपरीत आध्यात्मिक उत्थान की अन्य विधि क्षय है जिसमें व्यक्ति का अपने संकल्पों के प्रति आत्मविश्वास व दृढ़ता का स्तर प्रबल पाया जाता है और वह अपनी अर्जित गुण ग्रहण स्थिति से पतित नहीं होता विकास पथ में उसके कदम डगमगाते नहीं हैं। वर्ण व्यवस्था में मानव जीवन की उत्कृष्ट आयु सौ वर्ष मानते हुए प्रत्येक आश्रम का काल पच्चीस वर्ष माना गया है। यहाँ क्रमानुसार व्यक्ति अगले आश्रम में प्रवेश करता चला जाता है। यही नैतिक विकास यात्रा के आधार स्तंभ हैं। वर्ण व्यवस्था के चार आश्रम और गुणस्थान की स्थितयों का विश्लेषण इस प्रकार समझा जा सकता है।
(१) ब्रह्मचर्य आश्रम
आरम्भिक पच्चीस वर्ष संयम व स्व—अनुशासन के साथ ज्ञानार्जन में व्यतीत करना, सच्चे ज्ञान को ग्रहण करना तथा वास्ततिव जीवन का अभ्यासी बनना ही ब्रह्मचर्य आश्रम है। निज पर शासन फिर अनुशासन। चतुर्थ गुणस्थान तक ऊपर की और बढ़ने हेतु सम्यकत्व के ज्ञान की बात पर बल दिया गया है और इस आश्रम व्यवस्था के प्रथम चरण में इसी साधना की बात कही गई है जो इसकी साम्यता प्रकट करती है। ब्रह्मचर्य आश्रम में व्यक्ति को न सिर्फसम्यकत्व का बोध होता है अपितु चतुर्थ गुणस्थान से ऊपर की स्थितियों के समरूप अनुशासनबद्ध व्यवहार का प्रयोगात्मक अनुभव शिक्षण के तहत कराया जाता है जो उसके गृहस्थाश्रम में प्रवेश एवं नीतिमत्तापूर्ण जीवन यापन के दायित्व निर्वाह में सहायक सिद्ध होता है। इस प्रकार से यह पाँचवे देशविरत गुणस्थान की आरम्भिक स्थिति की पूर्व तैयारी से सरोकार रखता है।
(२) गृहस्थ आश्रम
यह आश्रम एक सद् — गृहस्थ के रूप में अपने नियत दायित्वों से जुड़ा है। गृहस्थी का उपयोग करते हुए भगवद भक्ति को न विसराना, उचित—अनुचित के भेद को सदैव अपने व्यवहार में अमली बनाना तथा इस प्रकार से कार्य करना जिससे दूसरों का नुकशान न हो यही गृहस्थाश्रम की विशिष्टताऐं हैं।गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए आत्म चिन्तन को न भूलना और भौतिक सुख सुविधाओं के प्रति ममत्व इतना न बढ़ा लेना कि जिससे उसके न होने पर दुख व होने पर अतिरेक खुशी का अहसास हो। गुणस्थान की स्थितियों के संदर्भ में गृहस्थाश्रम पाँचवे गुणस्थान तक ही श्रावक को ही ले जाता है।
(३) वानप्रस्थ आश्रम
यह आध्यात्मिक विकास यात्रा का पूर्व मुकाम है। गृहस्थाश्रम के पश्चात् व्यक्ति को इच्छा या इन्द्रिय निरोध करना होता है। जिस प्रकार ब्रह्मचर्य आश्रम सद गृहस्थ का जीवन जीने हेतु शिक्षण—प्रशिक्षण का कार्य करता है ठीक उसी प्रकार वानप्रस्थ आश्रम वैराग्य की परिणति की ओर पहला कदम है जिसमें गृहस्थ उत्कृष्ट श्रावक बनकर शुभाचरण के स्थान पर शुद्धाचरण का अभ्यास करने लगता है। अपना ममत्व संसारी वस्तुओं से हटाने लगता है। गृहस्थी में रहते हुए भी गृहस्थ न होने का अहसास ही वानप्रस्थ आश्रम की दशा है। जिस प्रकार छ: खण्ड के चक्रवर्ती महाराज भरत को घर में ही वैरागी कहा जाता था। वे संसार में रहते हुए ब्रह्मज्ञान के साधक थे।
(४) संन्यास आश्रम
संन्यास का सामान्य शब्दार्थ है प्रकट और अप्रकट वस्तुओं में मोह या ममत्व रहित न्यास भाव। लाभ—हानि, राग—द्वेष जैसे विकारों से परे होकर अपनी आत्मा के चिन्तन में मगन होता है। वह मानव जीवन का अंतिम एवं सर्वोत्कृष्ट आश्रम है संन्यास। सांसारिक वृत्तियों के पूर्ण निरोध की साधना इस आश्रम में रहकर की जाती है। मोह—माया व राग—द्बेषादि से दूर वह परमात्म प्राप्ति का पुरूषार्थ एकाग्र होकर करता है तथा परम सिद्धि को प्राप्त करता है। मनु ने मानव जीवन को नीतिमय व धर्माचरण के अनुरूप बनाने हेतु निम्नलिखित दस गुणों को आवश्यक माना है।धृत्ति: क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय—निग्रह:। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।धृति का अर्थ है धैर्य, सन्तोष, दृढ़ता, आत्मनिर्भरता स्वावलम्बन। क्षमा का अर्थ है समर्थ होकर भी दूसरों के अपकार को सहन करना। दम—मन का नियमन या नियन्त्रण करना दम कहलाता है। मनो संयम के अभाव में मनुष्य काम—क्रोध आदि के वश होकर पथ भ्रष्ट हो सकता है। अस्तेय —अस्तेय का अर्थ है अन्याय से, छल—कपट या चोरी से दूसरों की वस्तु का अपहरण करना। शौच का अर्थ पवित्रता से लिया जाता है। यह दो प्रकार से होती है—मृतिका और जल आदि से शुचि जो बाह्य शौच है जबकि दया, परोपकार, तितिक्षा आदि गुणों से आभ्यन्तर शौच माना जाता है। इन्द्रिय निग्रह—शब्दादि विषयों की ओर जाने वाली चक्षुरादि इन्द्रियों को अपने वश में रखना इन्द्रिय निग्रह है। तत्त्वज्ञान को ही धी कहते हैं। विद्या का अर्थ है आत्मज्ञान । यथार्थ बात को कहना हि सत्य है। क्रोध का कारण उपस्थित होने पर भी क्रोध का उत्पन्न न होना अक्रोध है।
उपसंहार
जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से यदि इन आश्रमों की सोपान स्थितियों का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि जैन दर्शन में मूलत: दो स्थितियाँ ही हैं— गृहस्थ और संन्यास। हालाँकि गृहस्थ स्थिति के उपभेद हो जाने से गृहस्थ व वानप्रस्थ आश्रम का संयुक्त रूप जैन दर्शन युत इस अवस्था में देखा जा सकता है यथा चतुर्थ व पंचम गुणस्थानधारी सम्यक्त्वी गृहस्थ इस आश्रम का अधिकारी है किन्तु उसकी क्रियाएें पंचम गुणस्थान में अति उत्कृष्ट श्रावक की हो जाती है जो वानप्रस्थ आश्रम की अवस्था से कमोवेश मेल खाती प्रतीत होती है। वैदिक परम्परा में संन्यास की एक अवस्था को ही देखा जाता है जबकि गुणस्थानक परम्परा में आन्तरिक एवं बाह्य आचरण के आधार पर कई भेद—प्रभेद किये हैं। इसमें उत्थान पतन दोनों के ही विधान हैं जबकि आश्रम व्यवस्था में इस तरह की व्यवस्थाओं का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। गुणस्थान पथ में हार तो है ही नहीं , है तो सिर्फजीत का परिमाण। यहाँ कोई किसी का मार्ग अवरोधक नहीं बनता अपितु जीत के मार्ग पर अग्रसर होने के समय सहधर्मी साधक वात्सल्यता का भाव लिए अभिप्रेरक बनता है। इसमें न राग होता है और न ही द्वेष, सिर्फहोता है सहपथानुगामी के प्रति निश्कांछित प्रेम’। इस प्रकार का अनोखा प्रगति पथ गुणस्थान ही है जो अपने सहअभ्यासी साधक जीवों को प्रेम व सहकार की भावना के साथ प्रेरणात्मक संवेग प्रदान करता है इस लौकिक दुनिया के मान्य प्रतिमानों के विपरीत समर्पित श्रद्धानुगामी साधक गुणस्थानक आवश्यकताओं की जरूरतों के अनुरूप स्वयं को ढालते हुए परम—सिद्ध पद में लीन होकर चिर आनन्द की अनुभूति करता है। अंत में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि गुणस्थान अवधारणा के तार एक सुखमय मानव जीवन व मानवीय मूल्यों से जुड़े हुए हैं। इसमें निहित हैं जियो और जीने दो, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय जैसे मूल्य जो न सिर्फ मानव जाति की अपितु समग्र जीव सृष्टि उद्धार करने में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।