मैंने बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज, उनके प्रथम शिष्य एवं प्रथम पट्टाचार्य गुरुवर्य श्री वीरसागर जी महाराज, आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज एवं आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज के संघ सानिध्य में वर्षायोग-चातुर्मास स्थापना देखी है एवं उनके साथ स्थापना की है।इनमें से किन्हीं भी आचार्यों ने एवं आचार्य देशभूषण जी आदि आचार्यों ने चातुर्मास स्थापना के समय मंगलकलश स्थापित नहीं कराया था।मुझे आश्चर्य होता है कि कोई साधु एक मंगल कलश स्थापना करते हैं तो कोई-कोई तीन, सात, नौ, इक्कीस तथा कोई साधु एक सौ आठ मंगल कलश स्थापित करने लगे हैं। उनकी ऊँची-ऊँची बोलियों से ही साधुओं की महानता को आंका जाने लगा है।सबसे अधिक आश्चर्य तो तब हुआ, जब मैंने स्वयं देखा-एक ग्राम के मंदिर में एक काँचकेस में मंगल कलश रखा था। चातुर्मास के बाद साधु वहाँ से विहार कर चुके थे, फिर भी प्रतिदिन लोग भगवान के दर्शन के बाद उस कलश के आगे चावल चढ़ाकर घुटने टेककर पंचांग नमस्कार कर रहे थे। मैंने पूछा-ऐसा क्यों? तब भक्तों ने कहा-मुझे गुरुदेव की आज्ञा है आदि……।
पोस्टर एवं कुंकुम पत्रिका में भी ‘‘चातुर्मास स्थापना समारोह’’ या ‘‘वर्षायोग स्थापना समारोह’’ न छपाकर ‘‘मंगल कलश स्थापना समारोह’’ छपने लगा है।
यह ‘‘मंगल कलश स्थापना’’ न तो कहीं आचारसार, मूलाचार, भगवती आराधना आदि मुनियों के आचार ग्रंथों में है और न कहीं उमास्वामी श्रावकाचार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, वसुनंदिश्रावकाचार, सागारधर्मामृत आदि श्रावकाचार ग्रंथों में ही है।अतः मुझे ‘‘वर्षायोग स्थापना’’ के दिन यह मंगल कलश स्थापना करना इष्ट नहीं है। यह परम्परा कब, वैâसे एवं किसके द्वारा प्रारंभ की गई तथा अनेक साधुसंघ उसका अनुसरण क्यों करने लग गये ? यह समझ में नहीं आता है।