इस लोकाकाश को चारों तरफ से वेष्टित करके तीन वातवलय हैं। ये वायुकायिक जीवों के शरीर स्वरूप हैं। यद्यपि वायु अस्थिर स्वभाव वाली है फिर भी ये तीनों वातवलय स्थिर स्वभाव वाले वायुमण्डल हैं। इनके (१) घनोदधिवातवलय (२) घनवातवलय एवं (३) तनुवातवलय ये तीन भेद हैं।
घनोदधिवात गोमूत्र वर्ण वाला है, घनवात मूंग के समान वर्ण वाला एवं तनुवात अनेक वर्ण वाला है। चारों तरफ से लोक को वेष्टित करके सर्व प्रथम घनोदधिवातवलय स्थित है, इस घनोदधि को वेष्टित करके घनवात एवं घनवात को वेष्टित करके तनुवातवलय स्थित हैं। तनुवातवलय के चारों तरफ अनंत अलोकाकाश है।
आठ पृथ्वियों के नीचे तलभाग में १ राजू की ऊँचाई तक इन तीनों वायुमण्डलों में से प्रत्येक की मोटाई बीस हजार योजन प्रमाण है। सातवें नरक में पृथ्वी के पार्श्व भाग में क्रम से इन तीनों वातवलयों की मोटाई सात, पाँच और चार योजन है। इसके ऊपर मध्यलोक के पार्श्व भाग में पाँच, चार और तीन योजन प्रमाण है।
इसके आगे तीनों वायु की मोटाई ब्रह्मस्वर्ग के पार्श्व भाग में क्रम से ७, ५ और ४ योजन है तथा ऊर्ध्व लोक के अंत में-पार्श्व भाग में ५, ४ व ३ योजन प्रमाण है। लोक शिखर के ऊपर तीनों वातवलयों की मोटाई क्रमश: २ कोस, १ कोस और कुछ कम १ कोस प्रमाण है अर्थात्-लोक के तल भाग से १ राजू तक तीनों वातवलय बीस-बीस हजार योजन २००००± २००००±२००००·६०००० योजन हैं।
सातवें नरक के पास-७±५±४·१६ योजन
मध्यलोक के पार्श्व भाग में-५±४±३·१२ योजन
ब्रह्म स्वर्ग के पार्श्व भाग में-७±५±४·१६ योजन
लोक के पार्श्व भाग में-५±४±३·१२ योजन
लोक के शिखर पर-२ कोस, १ कोस, ४२५ धनुष कम १ कोस (१५७५ धनुष)