नारायण श्री कृष्ण ने अपने मुखारविन्द से वास्तु शास्त्र में भूखण्ड, फ्लैट, बंगला, कोठी आदि में उत्तर पश्चिम की जहाँ संधि होती है उस कोण को वायव्य कोण कहा है। वायव्य कोण की जानकारी देते हुए बताया गया है कि वायव्य कोण का अधिपत्य वायुदेव और ग्रह चंद्र हैं। इनका प्रभाव उस कक्ष में रहने वाले को अतिशीघ्र बाहर निकलने का मानस बनाने में सहायक होता है।
वायव्य कोण एवं अतिथि कक्ष
अतिथि देवो भव:। अतिथि शब्द की गूँज कर्ण इंद्रिय को अति प्रिय लगती है। अतिथि का मतलब जिनके आने और जाने की तिथि निश्चित न हो। सही मायने में अतिथि ऋषिगण एवं मुनिवर ही हैं । निग्र्रन्थ मुनियों के लिए अतिथि शब्द उपर्युक्त है। अतिथि कक्ष आंतरिक सज्जा बनाते समय कुछ विशेष बातें ध्यान रखनी चाहिए। अतिथि कक्ष दूसरे सब कक्षों से सुन्दर एवं साज—सज्जा से परिपूर्ण होना चाहिए। अतिथि को यथाशक्ति आदर व सम्मान दिया जाता है। सद्गृहस्थ अपने बेड़रूम को खाली कर देता है एवं अतिथि को सम्मान से उसमें सोने के लिए निवेदन करता है। कहने का मुख्य उद्देश्य है कि अतिथि को पूर्णरुपेण सम्मान एवं सुविधा प्रदान करना । आज भी भारत वर्ष की संस्कृति में पुत्री को पराया धन माना जाता है। उसका लालन—फालन करते हुए सांसारिक लौकिक शिक्षा देकर धन धान्य के साथ किसी श्रेष्ठी परिवार के यहाँ वंश वृद्धि हेतु समाज के साक्षी में तात के द्वारा कन्या दान देकर उसे पराये घर में विदा कर दिया जाता है। वायव्य कोण के कक्ष जिसे व्यवहार में अतिथि कक्ष कहा गया है पुत्रियों के लिए उत्तम शयनकक्ष है।
वायव्य कोण की विशेषता—
वायव्य कोण के देवता वायुदेव हैं वह हमेशा चलायमान रहते हैं। डॉक्टर, वैद्य, वकील, वास्तुशास्त्री, ज्योतिष, इंशोरेंस एजेन्ट, मेडिकल रिप्रजेंटीटीव, राजनेता, अभिनेता, संगीतकार, पत्रकार, गायक एवं जिनका काम बाहर ज्यादा घूमने का है उनको भूखण्ड के वायव्य कोण के कक्ष में अपना शयनकक्ष बनाना चाहिए। क्योंकि वे जितना भ्रमण करेंगें उतना ही उनकी पहचान बढ़ती जायेगी। वे जनमानस के करीब आते जायेंगे। कामयाबी के शिखर तक पहुँचाने में यह दिशा सहयोगी बनेगी।
वायव्य कोण की नृत्यशाला
प्राचीन काल के लोग वाक्य पटुता, चतुरता, व्यवहार कुशलता, नम्रता, बातों से दिल जीत लेना इन सब लौकिक एवं व्यवहारिक शिक्षाओं के लिए नगरवधू के यहाँ जाते था । नृत्यशाला, नगरवधू एवं गणिका का घर—मकान—महल शहर एवं गाँव के वायव्य कोण में होता था ताकि वहाँ आने जाने वाले आते—जाते रहें स्थिरता को प्राप्त न करें ।
व्यापार में वायव्य कोण का महत्च
कल—कारखाने, दुकान—गोदाम से निकले हुए माल का आदान प्रदान करते हुए जो अर्थ लाभ होता है उसे ही व्यापार या वाणिज्य कहा गया है ।अगर व्यापारी वर्ग तैयार माल को वायव्य कोण में रखें या जो माल काफी दिन से डेड स्टॉक की श्रेणी में आ गया है उसको भी यह स्थान प्रदान करें । ताकि माल अपना स्थान बहुत जल्द ही खाली कर देता है । कहने का तात्पर्य माल जल्दी बिक जाता है । व्यापारिक वर्ग को इस संधि कोण के गुणों की जानकारी रखते हुए इससे लाभान्वित होने का प्रयास करें ।
वायव्य कोण एवं धान्य भण्डार गृह
आर्यिका १०५ विशुद्धमती माताजी ने वत्थुविज्जा के प्रथम पृष्ठ में भण्डार गृह को दक्षिणी अग्नि में लिया है। और पेज नं. ८८ में वायव्य कोण में लिया है। श्रद्धेय माताजी ने दोनों मतों की जानकारी प्रदान की हैं। कुछ विद्वानों ने पूर्वी अग्नि को भी धान्य भण्डार माना है। प्राचीन काल में ही विद्वानों का अलग—अलग मत है। ज्यादातर विद्वानों का मत वायव्य कोण ही मिलता है। भूखण्ड के वायव्य कोण में ही धान्य भण्डार बनाना चाहिए। स्थान का अभाव होने से रसोई घर के वायव्य कोण में भी धान्य भण्डार बनाया जा सकता है।
वायव्य कोण में किचन
अग्नि कोण के सम्मुख कोण होने के कारण इसे अग्नि कोण से प्रभावित माना गया है एवं अग्नि कोण में किचन नहीं बना पाने से इस स्थान पर किचन बनाया जा सकता है। मगर वायव्य कोण में किचन बनाने से घर में अकस्मात् खर्चे बढ़ जाते हैं । यह व्यवहार में मैंने पाया है।
वायव्य कोण एवं मुख्य द्वार
वायव्य कोण को तीन भागों में बाँटा गया है। उत्तरी वायव्य, वायव्य एवं पश्चिमी वायव्य । सद्गृहस्थ को उत्तरी वायव्य, वायव्य में अपना मुख्य द्वार कभी नहीं बनाना चाहिए।ये दोनों द्वार गृहपति के सम्मान, धन सम्पत्ति इत्यादि को क्षतिग्रस्त करने में सहायक है। विद्वानों ने पश्चिमी वायव्य के द्वार को उत्तम द्वार माना है। वायव्य कोण में सेप्टिक टैंक एवं लेट्रीन इस कोण कि विशेषता है कि यहाँ पर खारकुई (सेप्टिक टैंक) शौचालय (लेट्रीन) बनायी जा सकती है। गन्दे पानी के नाले (सेवरेज) का भी प्रावधान है।
वायव्य कोण एवं पशु
गाय व भैंस को वायव्य कोण में रखना चाहिए । बैल, घोड़े, ऊँट का अपने घर से बाहर स्थान बनाकर रखना चाहिए । वास्तु प्रकरण के रचयिता श्रीमान ठक्कुर फेरू के मतानुसार गौ, बैल को दक्षिण में, घोड़े व ऊँट को घर के बाहर स्थान देना चाहिए । प्राचीन समय से ही विद्वानों ने अपने मतों को तर्वâ संगत बनाते हुए अपनी बात कही है । विद्वानों में मतान्तर होना स्वभाविक है। मतान्तर होने से ही साहित्य का सृजन होता है समाज के उपकार के लिए एक नया नवनीत निकल कर बाहर आता है । सुजान पुरुषों को इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए। विद्वत् गण त्रुटि बताकर हमारा ज्ञानवर्द्धन करें ।