राजगृही के राजा श्रेणिक की रानी चेलना के सुपुत्र वारिषेण उत्तम श्रावक थे। एक बार चतुर्दशी को उपवास करके रात्री में श्मशान में नग्नरूप में खड़े होकर ध्यान कर रहे थे। इधर विद्युत चोर रात्री में रत्नहार चुराकर भागा। सिपाहियों ने पीछा किया। तब वह चोर भागते हुए वन में पहुँचा। वहां ध्यानस्थ वारिषेण कुमार के सामने हार डालकर आप छिप गया। नौकरों ने वारिषेण को चोर घोषित कर दिया। राजा ने भी बिना विचारे प्राण दण्ड की आज्ञा दे दी।
किन्तु धर्म का माहात्म्य देखिये। वारिषेण के गले पर चलाई गई तलवार फूलों की माला बन गई। आकाश से देवों ने जय-जयकार करके पुष्प बरसाये। राजा श्रेणिक ने यह सुनकर वहां आकर क्षमा याचना करते हुए अपने पुत्र से घर चलने को कहा। किन्तु वारिषेण कुमार ने पिता को सांत्वना देकर कहा कि अब मैं करपात्र में ही आहार करूंगा। अनन्तर सूरसेन मुनिराज के पास दिगम्बर दीक्षा ले ली। इसलिए अचौर्यव्रत का सदा पालन करना चाहिए।