मंदिर एवं मकान आदि के विधिवत् निर्माण का नाम है—वास्तु एवं शिल्प। वास्तु एवं शिल्प का अर्थ है, बनाने की कला। मकान या मंदिर को शास्त्रोक्त विधि से बनाने की कला का वर्णन जिनमें हो, वे वास्तु शिल्प संबंधी शास्त्र कहलाते हैं। यूँ तो प्राचीन काल से ही युग की आदि में भगवान ऋषभदेव ने इस धरती पर मानव को कर्मभूमि की जीवन जीने की कला के अन्तर्गत षट् क्रियाएँ (असि–मसि—कृषि—विद्या—वाणिज्य एवं शिल्प) सिखाई थीं। उसमें शिल्पकला के अन्तर्गत मंदिर—मकान आदि सब कुछ बनाने की विधि थी, उसी विधि के अनुसार उनके निर्माण होते चले आ रहे हैं, फिर भी वर्तमान में वास्तु शिल्प का प्रचलन कुछ अधिक ही हो गया है।
जैनधर्म के अनुसार वास्तु का महत्त्व—
जैनाचार्यों ने प्रतिष्ठा ग्रंथों में जिनमंदिर के निर्माण का वर्णन करते हुए लिखा है—
जैन चैत्यालयं चैत्यमुतनिर्मापयन् शुभम्।
वांछन् स्वस्य नृपादेश्च, वास्तुशास्त्रं न लंघयेत्।।१०।।
(प्रतिष्ठा सारोद्धार)
अर्थात् अपना स्वयं का हित चाहने वाले को तथा साथ में राजा का कल्याण चाहने वाले को जिनमंदिर, जिनप्रतिमा और उनके उपकरण आदि वास्तुशास्त्रों के अनुसार ही बनाने चाहिए। वास्तुशास्त्र के नियमों का किंचित् भी उल्लंघन नहीं करना चाहिए। जैसा कि कहा भी है—
प्रासादो मण्डपश्चैव, विना शास्त्रेण य: कृत:।
विपरीतं विभागेषु, योऽन्यथा विनिवेशयेत्।।
विपरीतं फलं तस्य, अरिष्टं तु प्रजायते।
आयु-र्नाशो मनस्ताप:, पुत्र-नाश: कुलक्षय:।।
शास्त्रप्रमाण के बिना यदि देवालय, मण्डप, गृह, दुकान और तल भाग आदि का विभाग किया जाएगा तो उसका फल विपरीत ही मिलेगा, अरिष्ट होगा, असमय में आयु का नाश होगा, पुत्रनाश, कुल क्षय और मनस्ताप होगा। शिल्पशास्त्रियों ने कहा है कि—
अशास्त्रं मन्दिरं कृत्वा, प्रजा—राजा—गृहं तथा।
तद्गृह—मशुभं ज्ञेयं, श्रेयस्तत्र न विद्यते।।
अर्थात् शास्त्रविधि से रहित देवमन्दिर, राजा एवं प्रजा आदि किसी के भी घर बनाये जायेंगे तो वे गृह अशुभ ही जानना। उस घर में निवास करना श्रेयस्कर नहीं हो सकता।
वसुनन्दी जैसे महान् आचार्यों ने और पं. आशाधरजी जैसे विद्वानों ने भी प्रतिष्ठाशास्त्र लिखे हैं, जिनमें यथाशक्य शिल्पविज्ञान, प्रतिमा विज्ञान एवं मुहूर्त आदि का विषय भी दिया गया है, आचारसारग्रंथ के कर्ता श्री वीरनन्दी स्वामी ने तो शिल्प संहिता नाम का पूरा ग्रंथ ही लिखा है।
मनुष्य द्वारा सुख-शांति एवं आत्मकल्याणार्थ जिनमंदिर का निर्माण—
मनुष्य अपनी सुख—शान्ति के प्रयोजन के लिए गृहों का और आत्मकल्याण की सिद्धि के लिए मन्दिरों का निर्माण कराते हैं।
शिल्पविज्ञों ने कहा भी है कि—
आलयं सर्व—भूतानां, विजयाय जितात्मनाम्।
धर्मार्थ—काम—मोक्षाणां, प्राप्ति—हेतुश्च कामद:।।
जिनालय प्राणी के आश्रय के स्थान हैं। जितेन्द्रिय महापुरुषों की कीर्ति तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के कारणभूत और सर्व कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। आत्मशान्ति प्रदान करने में यही आयतन प्रमुख है, अत: इसका निर्माण कार्य और प्रतिष्ठा कार्य शास्त्रानुकूल ही होना चाहिए।
‘वत्थुविज्जं’ अर्थात् वास्तु विद्या का लेखन, पठन—पाठन एवं प्रकाशन अनेक विद्वानों ने और शिल्पज्ञों ने अनेक प्रकार से किया है। भवन के लिए भूमिचयन, शल्यशोधन, भवन निर्माण के दिशागत निर्देश, भवन निर्माण मुहूर्त, भवनों के प्रकार, अशुभ गृहों के लक्षण और फल, चौदह प्रकार के वेधों के लक्षण, गृहों का द्वार विवेचन, घर में कौन सा स्थान कहाँ है ? अर्थात् पानी, रसोई, बैठक, पूजास्थान, अध्ययन स्थान, तिजोरी स्थान कहाँ तथा किस दिशा में होने चाहिए, आदि विषय अनेक वास्तुशास्त्रों में बहुत अच्छे ढंग से समझाये गये हैं। घर ही नहीं व्यवसाय स्थल, दुकान तथा विद्यालय आदि को भी इसमें सम्मिलित किया जाता है। साथ ही अशुभ ग्रहों के दोष के निवारण हेतु परिहार बताकर पीड़ित लोगों को एक नई आशा प्रदान की है।
देवपूजा के लिए जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, वीतरागी दिगम्बर गुरुओं के धर्मोपदेश हेतु प्रवचन हाल, स्वाध्याय के निमित्त सरस्वती भवन अपने निवास और मुनिराजों आदि के आहारदान के लिए उत्तम गृह का निर्माण गृहस्थ के कर्त्तव्यों में सम्मिलित है। अपने न्यायोपार्जित अर्थ के सदुपयोग और शुद्ध आहार—विहार के ये उत्कृष्ट साधन हैं।
मंदिर और भवन निर्माण में जो भूमि खनन एवं शिलान्यास की विधि शुभ मुहूर्त में की जाती है, उसका एक उदाहरण स्मरणीय है। अयोध्या तीर्थंकर ऋषभदेव आदि अनेक तीर्थंकरों की जन्मभूमि शाश्वत तीर्थ है। वहाँ मुगलकाल में एक दिगम्बर जैन मंदिर के स्थान में मस्जिद का निर्माण करा दिया गया था। कालान्तर में वहाँ के हाकिम के पास जाकर एक दिगम्बर जैन कार्यकर्ता ने निवेदन किया कि ‘‘इस मस्जिद के स्थान पर पहले दिगम्बर जैन मंदिर था। उसके प्रमाणस्वरूप जमीन के नीचे नींव में पूजा सामग्री विद्यमान है।’’ हाकिम ने भूमि खुदवाकर जब वह पूजा सामग्री देखी तो तत्काल उस स्थान पर जिनमंदिर निर्माण की आज्ञा दे दी। आज भी हम शिलान्यास में ताम्रकलश, दीपक आदि नींव में रखते हैं। प्रशस्तियंत्र भी वहाँ स्थापित करते हैं।
आध्यात्मिक शान्ति के लिए मंदिर एवं भौतिक सुरक्षा हेतु गृह आदि की निर्माण कला ‘वास्तुविद्या’’ है।
आचार्य श्री वीरसेन स्वामी ‘वास्तुविद्या’ के सम्बन्ध में लिखते हैं
‘‘वत्थुविज्जं भूमि संबंधिणमण्णं पि सुहासुहं कारणं वण्णेदि।’’ अर्थात् वास्तुविद्या (जहाँ वास्तु का निर्माण किया जाना है), उस भूमि से सम्बन्धित तथा अन्य (वास्तु निर्माण विधि आदि से सम्बन्धित) शुभ एवं अशुभ का तथा उसके (शुभाशुभ के) कारणों का वर्णन करती है। अन्यत्र कोशग्रंथों में भी इस तथ्य की पुष्टि करते हुए कहा गया है कि—‘‘वास्तुनो गृह—भूमिविद्या वास्तुविद्या। वास्तुशास्त्रप्रसिद्धे गुण—दोष विज्ञान रूपे कलाभेदे।’’ (अभिधान राजेन्द्रकोश) अर्थ—वास्तु अर्थात् भवन और भूमि दोनों से सम्बन्ध रखने वाली विद्या वास्तुविद्या है। इसमें वास्तुशास्त्र के अनुसार वास्तु के गुणों और दोषों का विशेष ज्ञान कराया जाता है। यह बहत्तर कलाओ का भेद मानी गयी है। ‘हलायुधकोश’ में भी कहा गया है कि—‘‘वास्तुं संक्षेपतो वक्ष्यो गृहादौ विघ्ननाशनम्।’’ अर्थात् संक्षेपत: वास्तुविद्या का अर्थ घर आदि में विघ्नों का निवारण करने वाली विद्या या कला विशेष ही है। जैनग्रंथों में मूलत: वास्तुशास्त्रीय नियम-उपनियमों का निर्माण जिनमंदिर की दृष्टि से हुआ है, जिसे नवदेवताओं में परिगणित किया गया है तथा जिसके लिये चैत्यालय, चैत्यगृह आदि संज्ञाओं का प्रयोग भी प्राप्त होता है।
चूँकि गृहस्थजन घर में रहते हैं अत: उनकी सद्बुद्धि बनी रहे, धर्मकार्यों में रुचि—प्रवृत्ति रहे, बाह्य अनुकूलता भी रहे (ताकि परिणाम न बिगड़ें) साथ ही उनका स्वयं का, उनके परिजनों का ग्राम—नगर—राष्ट्र आदि का भी भला हो, इस दृष्टिकोण से घर—मकान आदि सांसारिक प्रयोजन से निर्मित भवनों को भी वास्तुशास्त्र के अनुसार बनवाने की प्रेरणा दी गयी है। सद्गृहस्थ को ‘सागार’ या ‘गृहवासी’ कहा गया है, फिर भी उसे धर्मात्मा माना गया है। ‘‘भरतजी घर में वैरागी’’ जैसे वाक्यों में भी घर में रहकर भी वैराग्यभाव के पोषण का कथन है। अब यदि घर ही अशुभ होगा, गलत ढंग से निर्मित होगा तो उसमें निराकुलतापूर्वक धर्मध्यान एवं संयम—वैराग्य आदि के प्रशस्त कार्य वैâसे संभव हो सकेंगे ? संभवत: इसी दृष्टि से र्‘घर’ को भी शास्त्र की मर्यादा के अनुसार शुभकारक बनाने के लिये वास्तुशास्त्र में सांसारिक उपयोग के भवनों की भूमि एवं निर्माण कार्य संबंधी नियमावली भी बतायी गयी है।
संभवत: इसीलिये आचार्य श्री उग्रादित्य ने ‘कल्याण कारक ग्रंथ’ (७/१८) में कहा—‘‘तत्रादितो वैश्मविधानमेव, निगद्यते वास्तु विचारयुक्तम्।’’ अर्थ—मकान आदि के निर्माण में (अन्य समस्त सामग्री—सहायकों—साधनों आदि के विचार से पूर्व) सर्वप्रथम वास्तुशास्त्रीय दृष्टि से (भूमिपरीक्षण, भवन निर्माण योजना आदि का) विचार करने का विधान किया गया है। आचार्यदेव पुन: कहते हैं—‘‘प्रशस्त दिग्देशकृतं प्रधानमाशागतायां प्रविभक्तभागम्।’’ अर्थ—प्रशस्त (शुभ) दिशा एवं प्रशस्त क्षेत्र में वास्तुशास्त्रीय विधि से भवन निर्माण करना चाहिये। उसमें भी जो प्रधान दिशा का श्रेष्ठ भाग है, उसी में विधिवत् निर्माण कार्य होना चाहिये।
धवला में भी कहा है—
‘धवला’ जैसे विशाल ‘जैनतत्वज्ञान कोश’ ग्रंथ में भी ‘वास्तु’ अथवा वास्तु विद्या को पर्याप्त महत्त्व दिया गया है तथा वास्तु के विभिन्न अंगों के बारे में अनेक प्रकरणवशात् उल्लेख वहाँ प्राप्त होता है। यथा (१) ‘‘जिणगिहादीणं रक्खणट्ठप्पासेसु ठविद ओलित्तीओ ‘पागार’ णाम’’ अर्थात् जिनमंदिर आदि भवनों की रक्षा के लिए उनके चारों पार्श्वों में जो भीत (दीवार) बनायी जाती है, उसे ‘प्राकार’ या ‘परकोटा कहते हैं। (२) ‘‘वंदणमालबंधण्ट्ठं पुरदोट्ठविद-रुक्खविसेसा ‘तोरण’ णाम।’’ अर्थात् वंदनवार बाँधने के लिए द्वार के आगे (दोनों ओर) जो वृक्ष विशेष लगाये जाते हैं, उन्हें ‘तोरण’ कहा गया है। इन दो उल्लेखों से स्पष्ट है कि जिनमंदिर आदि भवनों के चारों ओर परकोटा होना चाहिए तथा इनके द्वारों पर मंगलस्वरूप ‘तोरण’ एवं ‘वंदनवार’ आदि की व्यवस्था होनी चाहिये। ज्ञातव्य है कि ये सभी वास्तुशास्त्रीय दृष्टि से शुभकारक वस्तुयें मानी गयी हैं। ‘वास्तुविद्या के इतने व्यापक महत्व एवं लोकोपयोगित्व को दृष्टिगत रखते हुये पंडितप्रवर श्री आशाधरसूरि ने प्रतिष्ठाचार्य को अनेक विषयों के साथ ‘वास्तुशास्त्र’ का विशेषज्ञ होना भी अनिवार्य बतलाया है—‘‘श्रावकाध्ययन—ज्योति—वास्तुशास्त्र पुराणवित्’’ अर्थात् प्रतिष्ठाचार्य को श्रावकाचार, ज्योतिषशास्त्र, वास्तुशास्त्र और पुराणग्रंथों का जानकार विशेषज्ञ होना चाहिये। आचार्य भद्रबाहुकृत ‘भद्रबाहुसंहिता’ में तो ‘वास्तुशास्त्र’ के ज्ञान को ज्योतिष से भी महनीय प्रतिपादित किया है—‘‘ज्योतिषं केवलं कालं, वास्तु दिव्येन्द्रसम्पदा।’’ अर्थात् ज्योतिष शास्त्र तो मात्र काल सम्बन्धी ही कथन करता है किन्तु वास्तुशास्त्र के अनुपालन से इन्द्र सदृश दिव्य सुख—साधन को प्राप्त होते हैं।
विद्या का अर्थ है ‘‘भवन निर्माण की कला।’’ इसी को प्राकृतभाषा में ‘वत्थु विज्जा’, कहते हैं। धर्म, ज्योतिष, पूजापाठ आदि ने मिलकर वास्तुविद्या को अध्यात्म से जोड़ दिया, जिससे उसका प्रचार एक आचार संहिता की भाँति हुआ है। उससे समाज की आस्था जुड़ी है। यही कारण है कि वास्तुविद्या अतीत की वस्तु होते हुये भी वर्तमान की वस्तु उससे कहीं अधिक हो गई है। वास्तु विद्या के प्रति आकर्षण प्राचीनकाल से अब तक बढ़ता ही रहा है। वर्तमान गगनचुंबी भवनों, समुद्राकार बाँधों आदि के निर्माण के वर्तमान सिद्धान्त मूलरूप में वे ही हैं, जो आरम्भ से प्रचलित रहे हैं। लगता है, वास्तु—विद्या के प्राचीन सिद्धान्तों पर प्राचीनकाल में उतना व्यापक निर्माण नहीं हो सका, जितना आज हो रहा है। आज यह विद्या ‘साइंस ऑफ आर्किटेक्चर’ के रूप में एक स्वतन्त्र विषय बन चुकी है। कई विश्वविद्यालयों में इस विद्या के अध्यापन के लिए स्वतन्त्र विभाग और महाविद्यालय स्थापित किए गए हैं। इस विषय पर उच्चतम स्तर पर शोधकार्य भी हो रहे हैं। वैज्ञानिक सुविधाओं और औद्योगिक आवश्यकताओं ने वास्तुविद्या का एक अत्याधुनिक रूप विकसित किया है। इस विद्या के अप्रत्याशित चमत्कारों की प्रतीक्षा सहजभाव से की जाने लगी है, यही वास्तु विद्या के महत्व का प्रमाण है।
निर्माण कार्य—
प्राचीन और आधुनिक मानव जीवन के अन्य क्षेत्रों की भाँति इस क्षेत्र में भी प्रबल क्रान्ति हुई है। प्राचीन परम्पराओं का स्थान अब नई—नई शैलियाँ और निर्माण विधियाँ ले चुकी हैंं। निर्माण की सामग्री भी अब आधुनिकतम आविष्कारों से पूरी तरह प्रभावित है। पत्थर का प्रयोग अब सजावट तक सीमित रह गया है। लकड़ी का स्थान प्लास्टिक आदि कृत्रिम पदार्थ लेते जा रहे हैं। सुन्दरता और सुविधा-सम्पन्नता के नए कीर्तिमान स्थापित हो चुके हैं। ज्योतिष, मंत्र, तंत्र आदि पर आधारित वास्तुविद्या के बदले रेखागणित, मौसम विज्ञान, समाज विज्ञान आदि को मान्यता मिल रही है। जनसंख्या के दबाव ने निर्माताओं को कम से कम भूमि पर अधिक से अधिक आवास गृह जुटाने को विवश कर दिया है इसलिए गगनचुंबी भवन खड़े किए जा रहे हैं। विशाल—विस्तृत कॉलोनियां और नगर बसाए जा रहे हैं। उद्योग नगरियों का विकास सर्वत्र हो रहा है, आधुनिकतम कारखाने लगाए जा रहे हैं। सार्वजनिक सुविधाओं के साधन जुटाए जा रहे हैं। धार्मिक और सांस्कृतिक स्थानों के निर्माण की भी यही स्थिति है। पर्यावरण को सन्तुलित बनाए रखने के लिए वृक्षारोपण और उद्यान निर्माण को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। आकर्षक पर्यटन स्थल अस्तित्व में आ रहे हैं। पशु—पक्षियों के लिए अभयारण्यों का विकास हो रहा है।
परन्तु परम संतोष का विषय है कि भवन निर्माण कला के इस प्रबल परिवर्तन के युग में भी प्राचीन वास्तु विद्या का स्मरण किया जाता है। धर्म और वास्तु विद्या के भूले-बिसरे सम्बन्ध पुन: स्थापित किए जाने लगे हैं। अनेक निर्माता, आर्किटेक्ट और वास्तुविज्ञ प्राचीन वास्तुशास्त्रीय सिद्धान्तों का सहारा ले रहे हैं। अनेकानेक गृहस्थ और उद्योगपति अपने भवनों और मकानों का वास्तु विद्या के अनुरूप सुधार कराते देखे जा सकते हैं। इस मान्यता पर लोगों का विश्वास आज भी है कि दिशा बदलने से दशा बदल सकती है।
‘वास्तु’ शब्द संस्कृत की ‘वस्’ क्रिया से बना है, जिसका अर्थ है ‘रहना। मनुष्यों, देवों और पशु—पक्षियों के उपयोग के लिए मिट्टी, लकड़ी, पत्थर आदि से बनाया स्थान वास्तु है। संस्कृत का वसति और कन्नड़ का ‘बसदि’शब्द भी वास्तु के अर्थ में ही है। हिन्दी का ‘बस्ती’ शब्द भी वास्तु से सम्बद्ध है परन्तु वह ग्राम, नगर आदि के अर्थ में प्रचलित हो गया है। तत्त्वार्थ सूत्र में आचार्य श्री उमास्वामी ने सोना—चाँदी, धन—धान्य, दासी-दास, कुप्य—भाण्ड से भी पहले क्षेत्र और वास्तु को स्थान देकर वास्तु विद्या को दो हजार वर्ष पहले जो दिया था, वह आज भी विद्यमान है। ‘वास्तु’ और ‘स्थापत्य’ शब्दों की एकरूपता ‘वास्तु’ का ही अर्थ देने वाला संस्कृत शब्द है ‘स्थापत्य’। वह ‘स्था’ क्रिया से बना है, जिसका अर्थ है—रहना, ठहरना, टिकना आदि। इसके लिए अंग्रेजी में ‘आर्किटेक्चर’ और उर्दू में ‘इमारत’ शब्द हैं। चार उपवेदों में से एक का नाम है—‘स्थापत्य—वेद, ‘हिन्दी शब्दसागर’ के अनुसार इसे विश्वकर्मा ने ‘अथर्ववेद’ से निकाला था।
वास्तु विद्या और ‘कला’ की समानता—
द्वादशांग जिनवाणी के बारहवें अंग ‘दृष्टिवाद’ के अन्तर्गत चौदह पूर्वों में क्रियाविशाल नामक तेरहवें पूर्व में विविध कलाओं और विधाओं का समावेश है, जिनमें ‘वास्तु विद्या’ भी एक है। समवायांग सूत्र के अनुसार चौंसठ कलाओं में छप्पनवीं से इकसठवीं तक की छह कलाएँ वास्तव में वास्तुविद्या की ही विभिन्न शाखाएँ हैं। उनके नाम हैं स्कंधावारमान (सैन्य शिविरों की लंबाई—चौड़ाई), नगर मान, स्कंधावार निवेश, वास्तु निवेश और नगर निवेश। कालान्तर में वास्तुविद्या एक स्वतंत्र विषय बन गई, तब भी ये छहों रूप कलाओं में सम्मिलित बने रहे। विद्याओं और कलाओं में कई दृष्टियों से समानता है, दोनों की अधिष्ठात्री देवी ‘सरस्वती’ है, जिसका एक नाम है ‘ब्राह्मी’ तीर्थंकर ऋषभनाथ की ज्येष्ठ पुत्री का नाम भी ब्राह्मी था, उसने लिपि विद्या का प्रवर्तन किया था। उस सरस्वती और इस ब्राह्मी में और भी कई बातों में एकरूपता है अत: कहा जा सकता है कि वास्तु विद्या का प्रवर्तन ब्राह्मी से हुआ था।’
वास्तु विद्या अतीत पर विहंगम दृष्टि—
मनुष्य की तीन मौलिक आवश्यकताएँ हैं : रोटी, कपड़ा और मकान। यह कथन इतिहास, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान की दृष्टि से है। मनोविज्ञान की दृष्टि से पाँचवीं शताब्दी में आचार्य श्री पूज्यपाद ने ‘इष्टोपदेश’ में लिखा था ‘‘जो जहाँ रह रहा हो, वह वहीं रम जाता है, वह जहाँ रम जाता है, वहाँ से कहीं और नहीं जाना चाहता।
उनसे भी पूर्व प्रथम शती ई. में आचार्य श्री समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ में दान के जो चार प्रकार बताए थे, उनमें एक आवास भी है, यह धार्मिक दृष्टि है। प्राकृतिक गुफाओं को काट—छाँटकर वनवासी साधुओं के रहने योग्य बनाने की परम्परा इसीलिए चली। दक्षिण भारत में, विशेषत: कर्नाटक में मंदिरों के साथ मुनि—वास बनाने की प्रथा आज भी है इसीलिए वहाँ मन्दिर को ‘बसदि (बसति)’ कहते हैं। आवास के धार्मिक महत्व से मन्दिर स्थापत्य का विकास हुआ होगा। दसवीं शताब्दी में आचार्य श्री वीरसेन ने ‘षट्खण्डागम’ की अपनी ‘धवला’ नामक टीका में संकेत किया था कि ‘‘वास्तु विद्या में भूमि के सन्दर्भ में शुभाशुभ फलों का विधान होता है। पौराणिक आख्यानों से स्थापत्य के आकार—प्रकार में विविधता आई। इसमें सहायता की ‘लोक—विद्या (कॉस्मोलाजी) ने, जिसमें मध्यलोक, नन्दीश्वर- द्वीप जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, विदेह क्षेत्र, मेरु पर्वत आदि की अद्भुत अपूर्व रचनाओं के विस्तृत वर्णन हैं।
वास्तु के सम्बन्ध में श्री उमास्वामी श्रावकाचार में उल्लेख—
श्री उमास्वामी आचार्य ने अपने श्रावकाचार में अनेकानेक विषयों के अन्तर्गत वास्तु के सम्बन्ध में श्लोक नं. ११२—११३ में कहा है—
पूर्वस्यां श्रीगृहं कार्यं आग्नेया तु महानसम्।
शयनं दक्षिणस्या तु नैऋत्यामायुधादिकम्।।११२।।
भुक्तिक्रिया पश्चिमस्यां वायव्ये धनसंग्रह:।
उत्तरस्यां जलस्थानमैशान्यां दैवसद्गृहम्।।११३।।
अर्थ—श्रावक को अपने घर के विभाग इस प्रकार बनाने चाहिए—‘‘पूर्व दिशा की ओर शोभागृह (बैठक का कमरा), आग्नेय दिशा में रसोईघर, दक्षिण दिशा में शयन करने का स्थान, नैऋत्य दिशा में आयुधशाला, पश्चिम दिशा में भोजनगृह, वायव्य दिशा में धन संग्रह करने का घर, उत्तर दिशा में जल स्थान (परण्डा) और ईशान दिशा में देवस्थान बनाना चाहिये।’’ इसी प्रकार इसमें गृहचैत्यालय बनाने का पूरा नियम बताया है—
गृहे प्रविशता वामभागे शल्यविवर्जिते।
देवतावसरं कुर्यात्सार्द्धहस्तोर्द्ध भूमिके।।९८।।
नीचैर्भूमिस्थितं कुर्याद्देवतावासं यदि।
नीचैर्नीचैस्तोवश्यं संतत्यापि समं भवेत्।।९९।।
अर्थात् गृह में प्रवेश करते समय जिस दिशा में अपना बायां अंग हो, घर के उसी भाग में चैत्यालय बनवाना चाहिये। चैत्यालय शल्य रहित उत्तम भूमि में बनवाना चाहिये अर्थात् जिस भूमि में हड्डी आदि किसी मलिन पदार्थ के रहने का संदेह न हो ऐसे स्थान में चैत्यालय बनना चाहिये। उस चैत्यालय में वेदी की ऊँचाई डेढ़ हाथ होनी चाहिये। यदि वेदी की ऊँचाई डेढ़ हाथ से कम होती है तो वह बनवाने वाला अपनी संतति के साथ ही नीचता को प्राप्त होगा। अर्थात् वेदी की ऊँचाई डेढ़ हाथ होनी चाहिये। इससे न तो ऊँची होनी चाहिये और न नीची होनी चाहिये। आजकल कुछ स्थानों पर वास्तुशिल्प के नाम पर अनेक प्राचीन शिखरबन्द मंदिरों को पूरा तोड़कर धराशायी किया जा रहा है जो पापबंध का कारण है।
आज के इस भागदौड़ की जिन्दगी में इन्सान का सबसे बड़ा और सबसे सुन्दर सपना होता है कि उसका एक छोटा सा, प्यारा सा अपना एक घर। बहुत बार ऐसा होता है कि अपनी जिन्दगी की पूरी कमाई लगाने के बावजूद उसकी जिन्दगी की शाम होने तक वो दो, तीन कमरे का ही मकान बना पाता है लेकिन उसी छोटे से, प्यारे से अपने घर में अगर उसे सुख, शांति, समृिद्ध मिले तो उसका मन बाग-बाग हो उठता है। इस तरह सोचना ये एक सहज (र्दrस्aत्) बात है। कुछ लोगों को तो ये सुख मिल पाता है पर कुछ लोग इन खुशियों से कोसों दूर दिखाई देते हैं। कोई गलती न होते हुए भी ईमानदारी से पूरी कोशिश करने के बावजूद उन्हें यह खुशी नहीं मिल पाती। ऐसे समय हमारी कहीं कोई गलती हो रही है क्या, हम कहीं पर चूक रहे हैं क्या, ये बात मन में आना भी सहज है। हमें हमारे इन सवालों का जवाब मिल सकता है। हमारे प्यारे से घर में जहाँ हमने सपने देखें, जिस घर को, वास्तु को हमने अपने हाथों से संजोया उस वास्तु में किसी प्रकार की त्रुटी रह गई हो तो जिसके बदलाव से हमारा जीवन एक नई मंजिल की ओर अपने कदम बढ़ा सकता है। हमारी एक छोटी सी कोशिश, एक छोटा सा बदलाव हमारी पूरी जिन्दगी का रूप पलटकर रख सकता है। वास्तु नियमों के परिपालन से परिवार में सुख, शान्ति एवं समृद्धि होगी।
मनुष्य के जीवन पर कार्य करने वाले तीन घटक बातें—
दैनिक जीवन में हम भाग्य को गाड़ी, पुरुषार्थ को ड्राइवर तथा वास्तु को सड़क की संज्ञा दे सकते हैं। इसमें से गाड़ी (भाग्य) खराब हो तो कितना भी बढ़िया ड्राइवर हो और कितनी भी बढ़िया सड़क हो, सब बेकार है। यदि गाड़ी बढ़िया हो (भाग्य) सड़क भी अच्छी हो (वास्तु), ड्राइवर (पुरुषार्थ) दोनों बढ़िया हों और सड़क (वास्तु) खराब हो तो यात्रा जैसे-तैसे सम्पन्न हो जावेगी परन्तु विपरीत हवा, खराब मार्ग, गड्ढे, कीचड़ आदि के कारण यात्रा के समय व तकलीफों में बढ़ोत्तरी होगी और कभी-कभी व्यक्ति गंतव्य तक पहुँच नहीं पाता और यदि पहुँच भी गया तो यात्रा के कटु अनुभव उसके आनन्द को समाप्त कर देंगे इसलिए तो हमारे जीवन पर सबसे ज्यादा परिणाम हमारे भाग्य और पुरुषार्थ से होते हैं। उसके बाद नंबर आता है निसर्ग मतलब वास्तु का। गणितीय भाषा में सोचे तो भाग्य—४०³ निसर्ग (वास्तु) २०³ इसमें भी सोचे तो प्रकृति के हाथ में १०³ होते हैं और १०³ वास्तु (हमारे) हाथ में। इन १०³ (प्रतिशत) में तीन भाग होते हैं । (१) ध्ल्ूी ३.३³ बाहरी (२) ण्दहेूrल्म्ूग्दह ३.३³ बांधकाम (३) घ्हही झ्त्aमसहू ३.३³ अंतर्गत रचना। हमारे आसपास की सृष्टि में व्यक्ति को अनेक मुश्किलों से बचाव के लिए हमारे ऋषि, मुनियों ने वास्तुशास्त्र का सृजन करके हम पर बड़ा उपकार किया है। जैन तथा वैदिक ग्रंथों की शृंखला में वास्तुशास्त्र पर अनेक ग्रंथ लिखे गए हैं। प्रत्येक स्थान के वातावरण, पर्यावरण का बढ़ा स्थायी एवं अस्थायी रूप से रहने वाले लोगों का प्रभाव पड़ता है। मनुष्य अपने निवास के लिए, कारोबार के लिए भवन निर्माण करता है तो उसको वास्तुशास्त्र के द्वारा मर्यादित किया गया है। वास्तु शास्त्र का उद्देश्य मनुष्य को कल्याण मार्ग में लगाना है। वास्तु शब्द का अर्थ है—निवास करना, रहना। जिस जगह पर हम निवास करते हैं उसे वास्तु कहते हैं। वास्तुशास्त्र-यह मनुष्य को मिला हुआ एक अनमोल तोहफा है। वास्तु शास्त्र यह पूरी तरह से निसर्ग से बना हुआ है, निसर्ग में स्थित दृश्य-अदृश्य, चेतन-अचेतन, ये सब इस ब्रह्माण्ड को बनाने वाले विश्वनिर्माता के अंग हैं। भवन निर्माण का अपना विज्ञान होता है, जिसे वास्तुशास्त्र कहा जाता है। वास्तु किसी भी भवन निर्माण का आधार है। भवन निर्माण के दौरान प्रत्येक व्यक्ति को प्राथमिक स्तर जैसे कि प्लाट खरीदने से लेकर अंत तक, भवन में प्रवेश तक वास्तुशास्त्र के नियमों का अनुकरण करना चाहिए। प्रत्येक चीज वास्तु के सिद्धान्तों के अनुरूप होना चाहिए क्योंकि वास्तु सिर्फ एक शब्द न होकर एक संपूर्ण विज्ञान है। मानव जीवन प्रकृति के कुछ निश्चित नियमों एवं सिद्धान्तों के अनुरूप संचालित होता है। हम जितना आधुनिक होते जा रहे हैं, उतना ही हम हमारे प्राचीन वेदों एवं शास्त्रों से दूर जा रहे हैं और इसी कारण हमें जीवन में हर दिन नित्य नई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। वास्तु कोई धर्म विशेष या केवल एक शब्द मात्र नहीं है अपितु संपूर्ण विज्ञान है जो हमें यह बताता है कि भवन की दिशा क्या होनी चाहिए, साथ ही और भी आंतरिक बातें बताता है। वास्तु में यह देखा जाता है कि किस तरह भवन पर ब्रह्माण्ड में पैâली चुम्बकीय ऊर्जा का सकारात्मक और लाभदायी प्रभाव रहेगा।
वास्तुशास्त्र पूर्णत: दिशाओं पर आधारित है—
चार दिशा और चार उपदिशा है, उपदिशाओं में प्रबल एनर्जी होने की वजह से वास्तु उपदिशा पर ज्यादा काम करती है। वास्तुशास्त्र एक संपूर्ण सत्य है उसी प्रकार एक सद्भावना भी है। जिस प्रकार किसी विद्युत प्लग का करंट किसी का लगता है तो किसी को सिर्फ चुणचुण होती है, तो किसी को झटका लगकर नीचे गिर जाता है, तो किसी को वह करंट (झटका) लगकर उसकी जान निकल जाती है। इसी प्रकार वास्तु की त्रुटिओं का प्रभाव तो जरूर होता है। वह किस व्यक्ति पर कितना असर होगा ये नहीं जान पात क्योंकि हर इंसान का अपना भाग्य, पुरुषार्थ होता है और उसी प्रकार उसे फल मिलता है इसलिए झटका तो लगेगा, पर उस झटके का प्रभाव किस पर कितना होगा यह उस व्यक्ति के अपने भाग्य और पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। उपरोक्त पूरा ज्ञान हमारे ऋषि, मुनियों ने कई ग्रंथों में लिख रखा है। उसमें मयमतम्, समरा, गण, सूत्र, मनुष्यालय, चंद्रिका, मानसार आदि ग्रंथ संस्कृत में हैं। इनमें से कई ग्रंथों का हिन्दी तथा अंग्रेजी अनुवाद हो चुका है। इन सबमें मयमतम् सर्वतोपरि मानना उचित होगा। वृक्षार्युवेद में कई प्रकार की वनस्पतियों का जिक्र किया गया है, कौन-कौन से वृक्ष हमारे आसपास हो या न हो, इसका पूरा विवेचन इस ग्रंथ में हमें प्राप्त हो सकता है।
यह संसार पंच तत्त्व से बना है—
और प्रत्येक प्राणी के जीवन में भी इन पांच तत्त्वों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें से एक की भी कमी जीवन को कष्टप्रद बना देती है। ये पांच तत्त्व हैं—अग्नि, वायु, पृथ्वी, जल और आकाश। हमारा मतलब एक मनुष्य के शरीर में ये पंच तत्त्व मौजूद हैं इसलिए निसर्ग में किसी भी प्रकार की कोई हलचल होती है तो उसका सीधा असर मनुष्य पर, उसके जीवन पर होता है। वास्तु में भी उसका (पंचतत्त्वों का) उतना ही महत्त्वपूर्ण स्थान है जितना अन्य स्थानों पर।
इस प्रकार ऊपर दिखाए गए तख्ते की वजह से हमें यह पता चलता है कि हमारे वास्तु विज्ञान में इन पंचतत्त्व का स्थान किस दिशा में कहाँ पर हैं। वास्तु विज्ञान पाँचों तत्वों के अत्यन्त सक्षम (झ्दैीfल्त्) प्रभाव पर नियन्त्रण करने का काम करता है। इन पंच तत्वों में से किसी भी तत्व का अपना स्थान (जगह) बदलने से निसर्ग का समतोल या उससे हमारा जो संतुलन है वह बिगड़ने की पूरी संभावना हो सकती है। यह पंचतत्व हमारे प्रकृति के महत्वपूर्ण घटक हैं। वास्तुशास्त्र हमें प्रकृति के साथ तालमेल कर जीवन व्यतीत करना सिखाता है। अगर कहें कि वास्तुशास्त्र एक जीवनशैली है तो गलत नहीं होगा।
सूरज हमारी ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है—
अत: हमारे वास्तु का निर्माण सूरज की परिक्रमा को ध्यान में रखकर होगा तो अत्यंत उपयुक्त रहेगा। सूरज में सात प्रकार के रंग तथा आठ प्रकार की किरणें (Rays) होती हैं। उनमें सात रंग दिखाई देने वाले होते हैं तथा आठ किरणें (Rays) अदृश्य होती हैं। इंद्रधनुष के सात रंग (Vibgyor) यानी जामुनी, (Voilet) गहरा नीला (Indigo), आसमानी (Sky Blue), हरा (Green), पीला (Yellow), नारंगी (Orange), तथा लाल (Red). आठ अदृश्य किरणें होती हैं। (Ultra Voilet Rays, Infra Red Rays Alfa Rays, Bita Rays, X Rays, Gyama Rays & Cosmic Rays.) दृश्य सात रंगो में से लाल रंग में इन्प्रâा रेड किरणें अधिक होती हैं। और जामुनी रंग में अल्ट्रा वॉयलेट किरणें अधिक होती है। दिशाएँ आठ होती हैं सूरज पूरब में उदित होकर पश्चिम में अस्त होता है अत: उसकी परिक्रमा मे ईशान, पूरब, आग्नेय, दक्षिण, नैऋृत्य, पश्चिम दिशाएँ आती है। सूरज की परिक्रमा वर्ष में ६ महीने उत्तरायन, ६ महीने दक्षिणायन होती है । जिससे पूरब दिशा में सूर्योदय की जगह कुछ बदलती है। सूरज की पहली किरण वास्तु के ईशान कोण पर पड़ती है अत: ईशान कोण में कम से कम निर्माण कार्य करना चाहिए ताकि वह सूरज की लाभदायक किरणें हमारी वास्तु में पहुंचने में बाधक ना बने तथा दक्षिण-पश्चिम में निर्माण कार्य अधिक भारी और ऊंचा होना चाहिए ताकि संध्याकालीन प्रखर सूरज की नुकसानदायक किरणों से हम बचते रहें इसलिए ईशान दिशा को अधिक खुला पवित्र रखने का तथा नैऋत्य दिशा को बंद रखने का दिशानिर्देश है । सुबह ३ से ६ बजे तक के समय को ब्रह्ममुहूर्त कहा जाता है। इस समय वातावरण में जब (ओझोन वायु) कार्यान्वित रहता है । यह किरणें हमारे लिए बहुत अच्छी रहती हैं। यह समय अध्ययन के लिए बहुत शुभ होता है। साधु संत इसी समय में साधना करते हैं। हर दिन इस समय ध्यान, पढ़ाई, देवपूजा करने वालों को देवपुरूष के समान दर्जा मिलता है। हर वास्तु के ब्रह्म स्थान में (ण्देस्ग्म् Raब्े) कार्यान्वित रहती है। इस रेंज में बहुत ताकत होती है। सबसे ज्यादा पॉजिटिव एनर्जी प्रदान करने की ताकत इसमें है इसलिए हमारी वास्तु का ब्रह्मस्थान हमेशा खुला एवं साफ-सुथरा होना चाहिए । ब्रह्मस्थान निर्मिती का स्थान है। हर अच्छी बात का, हर कार्य का उदगम इसी पवित्र स्थान से होता है। प्रात: ८ से १०/११ के समय में इन्प्रâा रेड रेज सूर्य से अधिक मात्रा में निकलती है, यह रेज हमारे वास्तु के पूरब तथा आग्नेय भाग में पड़ती है। शास्त्रों के अनुसार हमारा खाना इस समय में बनना चाहिए क्योंकि इस समय में निर्जंतुकीकरण खाना बनता है इसलिए जैन साधु अपना आहार इसी समय में करते हैं। इससे स्वास्थ्य ठीक रहता है। सूरज अपनी परिक्रमा लगाते हुए दोपहर में दक्षिण दिशा में रहता है। दोपहर में सूरज की किरणें ज्यादा तेजपुंज हो जाती है जिसे हमारा शरीर भी कभी कभी सहन नही कर पाता। सूरज शाम होते-होते नैऋत्य से होते हुए पश्चिम में जाकर अस्त हो जाता है इसलिए दक्षिण दिशा में अधिक बांधकाम होना चाहिए।
शयनकक्ष तथा सोने का तरीका—
सामान्यत: मनुष्य का शयनकक्ष नैऋत्य, दक्षिण तथा पश्चिम भाग में हो। अविवाहित पुत्र का कक्ष आग्नेय भाग में उत्तम तथा पुत्रियों का वायव्य दिशा में उत्तम, ईशान भाग में बुजुर्ग लोगों का शयनकक्ष उत्तम, ईशान भाग में नवविवाहितों का कक्ष गलत माना गया है। शयनकक्ष में सोते समय हमेशा सर दीवार से सटाकर सोना चाहिए। सर के पास (Eतम्ूrग्म् झ्दग्हूे) तथा पानी न हो। पैर धोकर और पोछकर ही सोना चाहिए।
पूर्व की ओर पैर करके सोने से नींद कम आती है, ज्ञान की प्राप्ति होती है, हलकी सी चिंता रहती है। बच्चों के लिए उत्तम।
उत्तर दिशा की ओर पैर करके सोने से स्वास्थ्य लाभ तथा आर्थिक लाभ की संभावना रहती है। विवाहित लोगों के लिए उत्तम है।
पश्चिम दिशा की ओर पैर करके सोने से शरीर की थकान निकलती है, नींद अच्छी आती है। बुजुर्ग लोगों के लिए उत्तम तथा दक्षिण की ओर समाधिमरण के समय पैर कर देना चाहिए। अन्य समय दक्षिण की ओर पैर करके सोना निषिद्ध है।
अध्ययन—
अध्ययन कक्ष पूरब, उत्तर, ईशान तथा पश्चिम मध्य उत्तम। इनमें अध्ययन करते समय दक्षिण तथा पश्चिम की दीवार को सटाकर पूरब तथा उत्तरमुखी बैठें। अपनी पीठ के पीछे द्वार अथवा खिड़की न हो मतलब गड्डा न हो। अध्ययन कक्ष का ईशान कोण खाली हो।
भोजन—
पैरों में जूते चप्पल पहनकर अध्ययन तथा भोजन न करें। भोजन करते समय पूर्व तथा उत्तरमुखी भोजन करें, मौनपूर्वक आहार ग्रहण करें। दक्षिणमुखी कभी भोजन न करें। टी.वी. के सामने बैठकर भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। भोजन करने से पहले हाथ-पैर तथा मुंह धोकर फिर भोजन करें ।
गृह चैत्यालय—
जैनों का गृह चैत्यालय मूर्तियाँ होने पर वायव्य में पूर्वमुखी तथा नैऋत्य में उत्तरमुखी माना गया है। गृह चैत्यालय के बारे में निम्न तीन बातों का विशेष ध्यान रखा जाता है।
भगवान का मुख पूरब या उत्तर दिशा में हो। भगवान की दृष्टि घर पर हो तथा भगवान का सीधा हाथ घर की ओर हो।
उपरोक्त नियमों का ध्यान रखते हुए वायव्य में पूरबमुखी और नैऋत्य में उत्तरमुखी ही उत्तम है। दक्षिण मध्य तथा पश्चिम मध्य में भी चैत्यालय बनाया जाता है। चैत्यालय में वेदी छोड़कर तीन कटनी हो और पहली कटनी पर िंसहासन पर श्रीजी विराजमान हों। चैत्यालय में परिक्रमा न हो। चैत्यालय में ध्वजदंड न हो, शिखर न हो, कलश न हो। चैत्यालय में मूर्ति ज्यादातर पद्मासन हो। चैत्यालय की मूर्ति घर के पुरुष के ग्यारह अंगुल प्रमाण से ऊँची न हो। इनमें पाँच, सात, नौ अंगुल प्रमाण मूर्ति उत्तम मानी गई है। ग्यारह अंगुल से ऊँची प्रतिमा मंदिरजी में होती है। चैत्यालय में की दीवार से लगकर संडास-बाथरूम की दीवार न हो या ऊपर या नीचे भी न हो । चैत्यालय में ऊपर बेडरूम, पानी की टंकी न हो। इन सब बातों का ध्यान करने पर ईशान भाग में गृह चैत्यालय नहीं आता है ।
तिजोरी अलमारी—
अलमारी तथा तिजोरी घर के अंदर हमेशा पश्चिम तथा दक्षिण दीवार से लगकर पूरब तथा उत्तरमुखी खुलने वाली होनी चाहिए । घर के (exact) चार कोने में अर्थात् आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ईशान में कभी तिजोरी नहीं होना चाहिए। घर के उत्तर भाग में दक्षिण की दीवार से लगकर तिजोरी तथा उसके सन्मुख पावदान, खिड़की (Ventilator) हो तो उत्तम मानी गई है । अपनी आवश्यकतानुसार धनसंचय ऐसी तिजोरी में रहता है। पूरब दीवार की ओर अलमारी पश्चिममुखी हो तो धन जाता रहता है, नुकसान होता है लेकिन ऐसी तिजोरी बैंक वालों के लिए ज्यादा फायदा करती है, इससे उनका धन लोगों को कर्जा देने पर ज्यादा मात्रा में उपयुक्त होता है जिससे बैंक का लाभ ही होता है । अलमारी पर लक्ष्मी स्वास्तिक निकालना कुंकुम रोली से फायदा होता है । कम से कम साल मे चार बार इसे दोहराना चाहिए (मुहूर्त : दशहरा, दीवाली, चैत सुदी एकम् ( गुडीपाडवा), आखातीज (अक्षयतृतीया)। ऐसी तिजोरी में आइना नहीं होना चाहिए । तिजोरी/अलमारी बेड से सटाकर न रखें / तिजोरी के सामने दरवाजा न हो ।
आइना (Mirror)—
आइना हमेशा परावर्तित करने की क्षमता रखता है ? याने परावर्तन। सामान्यत: पूरब दिशा ज्ञान, उत्तर दिशा धन, पश्चिम दिशा खर्चा, दक्षिण दिशा (हानि) से संबंधित मानी गई है इसलिए पूरब तथा उत्तर दिशा में प्रतिबिम्ब rतिम्ूग्दह नहीं होना चाहिए अतएव आइने हमेशा पूरब तथा उत्तर दीवार को हों जिससे वो दक्षिण-पश्चिम को rतिम्ू करे। यहांपर विशेषत: इस बात को समझें कि अलमारी/तिजोरी हमेशा दक्षिण-पश्चिम की दीवार की ओर होती है और आइने पूरब और उत्तर की दीवार में अतः ये दोनो एक दूसरे से विपरीत हैं। आइना सही दिशा में होने के बावजूद भी पलंग के सन्मुख तथा दरवाजे के सन्मुख न हो ।
ढाल (उतार)—
ढाल अर्थात् झुकाव/जिसकी ओर झुकेंगे उस दिशा के अनुकूल तथा प्रतिकूल परिणाम हमें प्राप्त होते हैं इसलिए पूरब, उत्तर एवं ईशान की ओर जमीन का ढाल होना चाहिए। अन्य किसी भी दिशा में ढाल हो या गड्डे हों तो उसके विपरीत परिणाम यजमान के ऊपर आने की संभावना होती है इसलिए दक्षिण-पश्चिम में पहाड़ी हो, टीला हो, ऊँची इमारतें हों तो फायदा होता है। यही बात पूरब-उत्तर में आने से प्रतिकूलता आती है। पूरब-उत्तर में नदी, तालाब, बावड़ी, खाई, कुआँ आदि होने से तथा खुलापन होने से अनुकूलता की चरमसीमा हो जाती है। यही बात दक्षिण-पश्चिम में घातक-प्रतिकूल बन जाती है। मंदिर वास्तु तथा गृह वास्तु में हल्का सा फर्क होता है बाकी सब नियम एक ही होते हैं।
जीव एवं प्रकृति दोनों ही प्रगतिशील हैं। प्रकृति एवं जीव अपनी पृथकता का अनुभव करते हैं मगर क्रियाएँ प्रकृति एवं जीव के शरीर से अपने आप होती रहती हैं। हर धर्म में सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत पूजन स्थल का निर्माण किया जाता है। स्थान का अभाव होने के कारण व्यक्ति सार्वजनिक पूजा स्थल का निर्माण तो कर रहा है मगर व्यक्तिगत पूजा स्थल अपने निवास स्थान पर ही बना लेता है। पूजा क्या है ? पूजा क्यों करनी चाहिए ? पूजा कैसे करनी चाहिए ? अपने निवासस्थान पर पूजा का स्थान कहाँ होना चाहिए ? विश्व में अलग—अलग पंथ हैं, अलग—अलग विधियाँ हैं। इन सब बातों को सूक्ष्म रूप में बताने का प्रयास किया जा रहा है।
धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण।
धर्म पंथ साधे बिना, नर तिर्यञ्च समान।।
पूजा क्या है—परमपिता परमात्मा अलग-अलग धर्म में अलग-अलग नामों से पूजे जाते हैं। सनातन धर्म वाले परमात्मा को ब्रह्मरुप में मानते हैं। जैन मतावलंबी सिद्ध के रूप में मानते हैं। इस्लाम को मानने वाले अल्लाह के नाम से इबादत करते हैं। क्रिश्चियन गॉड के नाम से याद करते हैं। सभी सम्प्रदाय वालों की मान्यता एक ही है इनका कोई आकार नहीं है निराकार हैं, विश्वव्यापी हैं।
घर में पूजा का स्थान—अपने घर, बंगले, कोठी या फ्लैट में पूजास्थल का उपयुक्त स्थान ईशान कोण माना गया है। ईशान कोण का मतलब ईश्वर का स्थान। सद्बुद्धि का स्थान, शांति का स्थान। सकारात्मक ऊर्जाओं को प्राप्त करने का स्थान। नारद-पुराण में ईशान कोण गुरु बृहस्पति की दिशा मानी गयी है। सुजान पुरुषों को ईशान कोण में परमात्मा के लिए पूजन का स्थान बनाना चाहिए। पूजन का स्थान बनाते समय विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए। उस स्थान का निर्माण भारी—भरकम पत्थरों से न बनायें। अच्छे वृक्ष की लकड़ी से निर्माण करावें। पूजा स्थान के अगल-बगल, ऊपर-नीचे लैट्रीन (बाथरुम) का स्थान न हो। परमात्मा के स्वरूप की प्रतिमा को उत्तर या पूर्व मुखी रखने का निर्देश शास्त्रों में मिलता है एवं प्रचलन में भी यही देखने को मिल रहा है। नारद पुराण में पश्चिम की ओर मुँह करके प्रतिमा रखने को श्रेष्ठ बताया है।
ब्रह्माविष्णुशिवेन्द्रभास्करगुहा: पूर्वापरास्या: शुभा:।
प्रोक्तौ सर्वदिशामुखौ शिवजिनौ विष्णुर्विधाता तथा।
चामुण्डाग्रहमातरो धनतिर्द्धैमातुरो भैरवो व देवो,
दक्षिणदिङ्गमुख: कपिवरा नैर्ऋत्यवक्त्रो भवेत् ।।
(वास्तुराजवल्लभे)
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, सूर्य, कार्तिकेय की पूर्व अथवा पश्चिम मुख स्थापना करें अथवा शिव, जिन, विष्णु, ब्रह्मा इनका मुख किसी भी दिशा में किया जा सकता है। सूर्यादि ग्रह, चामुण्डा, मातृगण, कुबेर, गणेश, भैरव की स्थापना दक्षिण मुख तथा हनुमान जी की नैऋत्य मुख स्थापना करें। पुराणों के कथनानुसार सूर्योदय से ९० मिनट पहले का समय ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है। ऐसी मान्यता है—रात्रि में चाँद और तारों से निकलने वाला अमृत पृथ्वी पर परत के रूप में पैâल जाता है, इस समय शिक्षा, धर्म कार्य, स्वास्थ्य, दान, देव पूजन के लिए अति उत्तम है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उत्तम माना गया है। पूजा करने का श्रेष्ठ समय ब्रह्म मुहूर्त बताया गया है।
पूजन स्थान पर प्रवेश करने के लिए एवं पूजन करने के लिए शरीर और वस्त्र की शुद्धता का विशेष ध्यान रखना चाहिए। शरीर पर धूल लगी हुई हो, कपड़े भी धूल से सने हुए हों तो आध्यात्मिक ऊर्जाओं को ग्रहण करने में बाधा उत्पन्न होगी। पूजन स्थल में प्रवेश करने के लिए शरीर एवं वस्त्र की शुद्धता जरूरी है। पूजन के स्थान पर नंगे पैर खड़े होकर या जमीन पर बैठकर पूजा करने से हमारे शरीर में उत्पन्न आध्यात्मिक तरंगें भूमि के संपर्क से भूमि में समा जाती हैं। आसन पर ही खड़े होकर या बैठकर पूजा करनी चाहिए। पूजन की दो पद्धतियाँ अनादिकाल से प्रचलित हैं—एक द्रव्य पूजन एवं भाव पूजन। भाव पूजन और मानसिक पूजन एक ही शब्द के पर्यायवाची शब्द हैं। पूजन करते समय परमात्मा के समक्ष सम्मानपूर्वक जो द्रव्य चढ़ाया जाता है वह द्रव्य या सामग्री अच्छी होनी चाहिए। सामर्थ्य न होने पर सामग्री कम लायें मगर उत्तम गुण वाली लायें। समय एवं आर्थिक परिस्थितियाँ साथ न दें उस परिस्थिति में भाव पूजन (मानसिक पूजन) भाव सहित कर लेना ही श्रेष्ठ है। परमात्मा के लिए आपके द्वारा चढ़ाये गये नैवेद्य, दीप, धूप, फल, फूल इत्यादि से अधिक आपके भाव, श्रद्धा—समर्पण का अधिक महत्त्व है इसलिए कहा गया है—भाव पावन आचरो। ईशान कोण में पूजन एवं मंत्रों आदि का उच्चारण घंटे की आवाज, शंख ध्वनि, दीपक—कपूर के द्वारा आहुतियाँ इत्यादि क्रियाओं से उस भवन के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जाओं की उत्पत्ति होने लगती है। जहाँ सकारात्मक भाव होते हैं वहाँ शांति और समृद्धि होती है। पूजन करने से आदमी का आत्मबल मजबूत होता है। आत्मबल एवं सकारात्मक सोच आपके जीवन को आगे बढ़ाने में निरन्तर सहायक होता है। आत्मबल धार्मिक शक्ति, सकारात्मक ऊर्जाएँ एवं सकारात्मक सोच आपको मंजिल तक पहुँचाने में सहायक होती है। समय—समय क्या करता है, समय यूँ ही निकल जायेगा कुछ समय निकाल ले परमात्म के लिए, वो तेरे काम आयेगा
वर्तमान युग में जबकि देश में वास्तुशास्त्र का महत्व बढ़ रहा है सभी का ध्यान इस ओर आकृष्ट करना आवश्यक है कि तीर्थंकर ऋषभदेव सर्वप्रथम सबसे प्रमुख वास्तुशास्त्र के प्रणेता थे। भगवान आदिब्रह्मा ने इस पर जानकारी प्रदान कर विश्व को कल्याण के मार्ग दिये हैं। दिशाओं एवं उपदिशाओं के घटने और बढ़ने से क्या लाभ या हानि हो सकती है इसकी जानकारी देने का प्रयास आपको लाभान्वित करेगा।
साउथ ईस्ट (अग्नि कोण)—साउथ ईस्ट बढ़ने से और पूर्व अग्नि में मुख्य द्वार होने से भवन, फ्लैट में रहने वाले सदस्यों के शरीर में अग्नि का प्रभाव बढ़ जाता है। रक्त जाति की बीमारियाँ, ब्लडप्रेशर, शुगर, पेट में अम्ल पित्त, हृदय रोग, लकवा आदि बीमारियाँ आने की संभावना होती है। अग्नि कोण का नीचा, कुआँ, गड्ढा, बोिंरग होने से घर में बीमारियों का आगमन, कोर्ट मुकदमे में पैसा खर्च होना, घर में अशांति, मातृशक्ति का घर से ज्यादा बाहर विचरण करना, पुरुषों में पुरुषत्व की कमी आना, चरित्र दूषित होना इत्यादि। उपचार—अग्नि कोण को ईशान के बराबर करें। मुख्य द्वार पूर्वी अग्नि से हटाकर अन्य स्थान पर ले जायें, कुआं, गड्ढा या सेप्टिक टैंक बंद करवा देवें। भूखण्ड का लेवल ईशान से ऊँचा एवं नैऋत्य से नीचा रखें। अग्नि कोण में किचन ले आवें। खाना बनाते समय मुँह पूर्व की तरफ होना चाहिए।
साउथ वेस्ट (नैऋत्य कोण)—साउथ वेस्ट का घटना और बढ़ना दोनों ही अनुचित है। वास्तु पुरुष के पैर नैऋत्य कोण में रहते हैं। अगर किसी के पैर छोटे कर दिये जाएं या एक छोटा एवं एक बड़ा कर दिया जाय तो उनके जीवनयापन करने में कितनी परेशानी है यह जिसने अनुभव किया वही बता सकता है। मुख्य रूप से कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य का जीवन असंतुलित रहेगा। इसका आकार सदैव ९० डिग्री में होना ही सर्वश्रेष्ठ है। उपचार—भूखण्ड, भवन या फ्लैट के नैऋत्य कोण को ऊँचा रखें। वुँâआ, बोिंरग या सेप्टिक टैंक को बन्द कर स्थान परिवर्तन करें। सबसे पहले मुख्य द्वार का स्थान परिवर्तन करें। संशोधन करने से ही आपको सुख एवं समृद्धि की प्राप्ति होगी।
नार्थ वेस्ट (वायव्य कोण)—नार्थ वेस्ट के बढ़ने या घटने पर, उत्तरी वायव्य कोण को बढ़ाने से ईशान कोण घट जाता है। उस भूखण्ड भवन या फ्लैट में रहने वाले घर से बाहर पलायन करने का प्रयास करते हैं। पैसे की कमी आती है। घर में नये बच्चे पैदा होते हैं वहाँ लड़कियाँ ही ज्यादा होती हैं, अगर लड़का होता है तो उसके पोलियोग्रस्त होने की संभावना रहती है। भूखण्ड को ईशान से ऊँचा और अग्नि से नीचा रखें। सेप्टिक टैंक के लिए वायव्य कोण उपयुक्त स्थान है। इस कोण में कुआं, बोिंरग न करें। बढ़े हुये उत्तरीय वायव्य कोण को घटाकर ईशान के बराबर ले आना चाहिए। कुआं, बोिंरग तत्काल बन्द कर देना चाहिए इत्यादि।
नार्थ ईस्ट (ईशान कोण)—नार्थ ईस्ट का बढ़ना सुख—समृद्धि का द्योतक है। पूर्वी ईशान बढ़ने से यशकीर्ति बढ़ती है। उत्तरी ईशान बढ़ने से चौतरफी धन एवं यश कीर्ति बढ़ती हैं। यह देव स्थान है। ये कोण भूखण्ड का सबसे महत्त्वपूर्ण कोण होता है। इस कोण को स्वच्छ सुन्दर रूप से सजाकर रखना चाहिए। नार्थ ईस्ट का कटना हर तरह की विपत्तियों को निमंत्रण देने का संकेत है। भूखण्ड के इस अंग में वास्तु पुरुष का सिर होता है। किसी मनुष्य का सिर निकाल दिया जाय या उसका छेदन—भेदन कर दिया जाए तो वह शरीर मृत समान हो जाता है। उपचार—ईशान कोण को ९० डिग्री या बढ़ा हुआ कर लें। इन सब बातों को ध्यान में रख करके संशोधन कर ऐश्वर्य—सुख—समृद्धि अपने घर में आने की दावत दें। नार्थ ईस्ट की दिशाएँ अगर वास्तु अनुकूल मिल जाती हैं तो अन्य दिशाओं के उत्पात को अपने बल से शीतलता लाने में सहायक हो जाती हैं।
जैन वास्तु शास्त्र में ‘ईशान दिशा’ (उत्तर पूर्व) को अत्यधिक महत्व दिया गया है—
पं. श्री आशाधर सूरि लिखते हैं—‘‘पूर्वैशान विदिग्भागे शान्त्यर्थ जगतामिहं’’ अन्यत्र भी कहा गया है—‘‘उत्तर—पुव्वा पुज्जा।’’ इसकी टीका में स्पष्ट किया गया है कि ‘‘उत्तर पूर्वा च लोके पूज्या।’’ अर्थात् लोकदृष्टि से उत्तरपूर्व दिशा—ईशानकोण को पूज्य माना गया है।