दिशाएँ बदल देती हैं, दशा
वास्तु शास्त्र में दिशाओं को भी सुदृढ़ तर्कों के आधार पर धर्म से जोड़ा गया है। इन सभी दिशाओं की अपनी विशेषता और महत्त्व है। उदाहरणार्थ—पूर्व दिशा से सूर्य उदित होता है अत: सूर्योपासना में पूर्व का महत्त्व है। वास्तु शास्त्र में सूर्य के जीवनदायिनी ऊर्जा के कारण ही पूर्व दिशा को प्रधानता दी गई है। लाखों वर्ष पहले ही ऋषि-मुनियों ने पूर्व दिशा में उपासना करना श्रेष्ठ बताया था, जिस पर वास्तुशास्त्र ने अपने नियम बनाए।
वास्तुशास्त्र पंच तत्वों एवं दिशाओं पर आधारित है, कहते हैं कि दिशाएँ दशा बदल देती हैं। सो वह काफी हद तक ठीक है और इसी सूत्र पर पूरा वास्तु शास्त्र आधारित है। बहुत से लोगों ने जब वास्तु अनुसार अपने घर में परिवर्तन किया तो उनको अपार सफलता मिली, पूर्व में आ रही समस्याओं से मुक्ति भी मिली।
पूर्व—
अरुणोदय या सूर्योदय होने वाली दिशा को पूर्व कहा जाता है। विभिन्न वास्तु ग्रंथों में इसके लिए प्राक््â, प्राची आदि विशेषणों का प्रयोग किया गया है।
पूर्व दिशा पितृ स्थान की सूचक है। ऐसा माना गया है कि पितरों की उपासना इसी दिशा की ओर मुंह करके की जानी चाहिए। अग्नि तत्व भी पूर्व दिशा द्वारा प्रभावित होता है। इस दिशा के स्वामी इंद्र हैं। पूर्व दिशा सूर्य की ओजस्वी किरणों का प्रवेश द्वार है अत: वास्तु निर्माण में इस दिशा को सदैव खाली छोड़कर किरणों को स्वतन्त्र रूप से प्रविष्ट होने का मार्ग दिया जाना चाहिए।
पश्चिम—
पश्चिम वह दिशा है, जहाँ सायंकाल सूर्यास्त होता है। वरुण या वायु को इस दिशा का अधिष्ठाता माना गया है अत: यह दिशा वायु तत्व को प्रभावित करती है। पश्चिम दिशा को सुख एवं समृद्धिदायी कहा गया है। शास्त्रों में कहा गया है कि वायु चंचल और चलायमान है अत: जिस घर का प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा में होता है उस घर के निवासी प्रसन्नचित्त तथा विनोदप्रिय होते हैं। यह दिशा प्राय: अपना सामान्य प्रभाव ही दिखाती है।
उत्तर—
प्रात:काल सूर्य की ओर मुख करके खड़े होने पर ठीक बाएं हाथ की ओर जो दिशा होती है, वह उत्तर है। इसी दिशा में रात्रिकाल ध्रुव तारा दिखाई देता है। यह मातृ भाव को व्यक्त करने वाली आँखें हैं। जल तत्त्व को इसी दिशा में स्थान मिलना चाहिए। उत्तरमुखी भवन में सदा लक्ष्मी की कृपादृष्टि बनी रहती है, जो जीवन को धन-धान्य एवं सुख-सम्पत्ति से भर देती है। उत्तर दिशा में लक्ष्मी का स्थिर है। भवन में सदैव उत्तर दिशा से प्रकाश के आगमन का स्थान रखना चाहिए।
दक्षिण—
दक्षिण वह दिशा है, जो सूर्योदय के समय सूर्य की ओर मुख करने पर दाएं हाथ की ओर हो। यह उत्तर दिशा के ठीक विपरीत होती है। दक्षिण दिशा में पृथ्वी तत्व को व्याप्त माना गया है। यम की स्वामित्व वाली इस दिशा को मुक्तिकारक कहा गया है। दक्षिण मुखी प्रवेश द्वार वाले भवन स्वामी की प्रकृति में धैर्य तथा स्थिरता का विशेष स्थान रहता है। इस दिशा के बारे में अनेक ग्रंथों में कुछ शुभ और अशुभ लक्षणों की बात कही गई है।
ईशान—
ईशान एक विदिशा है अर्थात् दो दिशाओं (उत्तर-पूर्व) से निर्मित कोण है। यह चारों कोणों में सर्वाधिक पवित्र है, अतएव इसे आराधना, साधना, विद्यार्जन, लेखन एवं साहित्यिक गतिविधियों हेतु शुभ माना गया है। यह कोण मनुष्य को बुद्धि, ज्ञान, विवेक, धैर्य तथा साहस प्रदान करके सभी कष्टों से मुक्ति दिलाता है। इतने पूजनीय कोण को सदा पावन एवं स्वच्छ अवस्था में रखा जाना चाहिए।
आग्नेय—
दक्षिण-पूर्व दिशाओं का मिलाने वाला कोण आग्नेय कहलाता है। यह स्वास्थ्यप्रदाता है। इस विदिशा में अग्नि तत्व को स्थिर माना गया है। इसका कारण है कि यह कोण पूर्व एवं दक्षिण के ठीक मध्य में स्थित है। यदि भवन के आग्नेय कोण में गंदगी या दूषित पदार्थों का अस्तित्व हो तो वहाँ के लोगों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
इस कोण में बिजली के उपकरणों तथा लोहे के सामानों को स्थान दिया जाना चाहिए। यदि इन सावधानियों को दृष्टिगत न रखा जाए तो अग्नि द्वारा भीषण हानि होने की संभावना बनी रहती है।
नैऋत्य—
नैऋत्य दक्षिण एवं पश्चिम दिशा को मिलाने वाला कोण है। यह विदिशा शत्रुओं का नाश करती है। इसका स्वामी राक्षस है। कई बार इस दिशा के कारण मनुष्य असमय काल का ग्रास बन जाता है। यदि आवासीय भवन में नैऋत्य कोण को दूषित रखा जाए तो उसमें रहने वाले मनुष्यों का चरित्र दूषित होता है तथा शत्रु पक्ष प्रबल रहता है। इस विदिशा के प्रभाव से ही भवन पर भूत-प्रेत आदि की छाया बनी रहती है। इन सभी दुष्प्रभावों के कारण मनुष्य आकस्मिक संकटों के जाल में फंसा रहता है।
वायव्य—
वायव्य का तात्पर्य उस कोण से है जो उत्तर और पश्चिम दिशा को मिलता है। वायव्य कोण के प्रभाव अत्यन्त शुभ फलदायी होते हैं। यह मनुष्य को दीर्घायु, स्वास्थ्य तथा शक्ति प्रदान करता है। इस विदिशा में हमेशा शुद्धता रहनी चाहिए। यदि यह किसी कारणवश दूषित हो जाए तो अपने विपरीत प्रभावों से भवन के निवासियों को पीड़ा पहुँचाती है। ऐसे में मित्र भी शत्रुवत् व्यवहार करने लगते हैं। शक्ति-सामर्थ्य का असयम ह्रास होता है। यह सब इस कारण होता है क्योंकि घर का मुखिया अहंकारी हो जाता है। उसकी मति भ्रष्ट हो जाती है।
पूर्व एवं उत्तर की दिशा हल्की होती है एवं दक्षिण-पश्चिम की दिशा भारी होती है, जमीन का ढाल एवं निर्माण उत्तर-पूर्व की तरफ नीचा होना चाहिए एवं दक्षिण व पश्चिम की तरफ ऊँचा होना चाहिए।
किसी भी घर में, चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा, एक देवस्थान का होना नितांत अनिवार्य है और यह देवस्थान सदैव उत्तर-पूर्वी कोण पर होना चाहिए। इस कोण को ईशान कोण भी कहते हैं, यह क्षेत्र जल के लिए भी है, अत: इस क्षेत्र में जलाशय, जल संचय इत्यादि इकाइयाँ बनाई जा सकती हैं। ड्राइंग रूम में इसी कोण पर फिश-एक्वेरियम रखे जाने चाहिए।
घर का दक्षिण-पूर्व क्षेत्र आग्नेय कोण कहलाता है। इस क्षेत्र में रसोईघर का निर्माण शुभ है। यदि एक या दो कमरे की ही इकाई हो तो भी रसोई सम्बन्धी कार्य इसी कोण पर होना चाहिए। किसी कारण से यदि इस क्षेत्र में रसोई न रखी जा सके तब उत्तर-पश्चिम कोण पर उसे रखना चाहिए। इसी प्रकार ईशान कोण पर अग्नि सम्बन्धित क्षेत्र नहीं होना चाहिए। कमरों में आग्नेय अथवा उत्तर-पश्चिम कोणों में बिजली के स्विच बोर्ड, टी.वी. आदि का रखा जाना श्रेष्ठ है।
घर का उत्तर-पश्चिम क्षेत्र वायव्य कोण कहलाता है। इसका खुला होना श्रेष्ठ है। अत: खिड़कियों एवं बॉलकनियों के लिए शुभ है। ड्राइंग रूम अथवा अन्य कमरों में इसी क्षेत्र पर पंखे, कूलर आदि लगाना श्रेष्ठ है।
घर का दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र नैऋत्य कोण कहलाता है। यह खुला हुआ न रहे अथवा इस तरफ बहुत ही जरूरी हो तो कम खुला रखें, इस क्षेत्र में जितना अधिक वजन होगा उतना ही शुभ है, पुन: ईशान कोण पर वजन का न होना शुभ है। बहुत जरूरी होने पर मूल ईशान कोण को छोड़ते हुए बहुत ही हल्के सामान/पवित्र पदार्थ ही इस क्षेत्र में रखने चाहिए।
घर का केन्द्र और इसी प्रकार प्रत्येक कमरे का केन्द्र सदैव खाली रहना चाहिए। यह ब्रह्मस्थान कहलाता है, पुन: सम्पूर्ण इकाई का मूल ब्रह्मस्थान दबा हुआ न हो तथा वह सदैव स्वच्छ रहे।
मुख्य कक्ष (गृह के मुखिया का शयन कक्ष) नैऋत्य क्षेत्र में होना चाहिए। चाहे फिर वह इकाई एक कमरे की ही क्यों न हो। बच्चों का शयनकक्ष पूर्व क्षेत्र में और उनका अध्ययन कक्ष ईशान क्षेत्र में होना शुभ है। कुंआरी लड़कियों का शयन वायव्य क्षेत्र में होना शुभ है।
माँ वसुन्धरा के अन्दर निधियों का अनमोल खजाना छिपा है। अनादिकाल से आदिब्रह्मा, (भ.ऋषभदेव) नारायण श्रीकृष्ण, ऋषि—मुनि, आचार्यदेव ने इस विषय पर हमें जानकारियाँ दी हैं।
वैज्ञानिकों ने तूफान, बरसात, जमीन के अन्दर पानी, तेल के कुंए आदि की जानकारी के लिए कई यंत्रों का निर्माण किया । इन यंत्रों से प्राप्त जानकारियाँ पूर्णत: सत्य एवं पूर्णत: असत्य नहीं होतीं। जर्मन और प्रâांस ने यंत्रों का आविष्कार किया है जो हमें ऊर्जाओं की जानकारी देता है। उस यंत्र का नाम बोविस है। इस यंत्र से स्वस्तिक की ऊर्जाओं का अध्ययन किया जा रहा है। वैज्ञानिकों ने उसकी जानकारी विश्व को देने का प्रयास किया है। विधिवत् पूर्ण आकार सहित बनाये गये एक स्वस्तिक में करीब १ लाख बोविस ऊर्जाएँ रहती हैं। जानकारियाँ बड़ी अद्भुत एवं आश्चर्यजनक हैं।
स्वस्तिक का महत्व सभी धर्मों में बताया गया है—
विभिन्न देशों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। ४ हजार साल पहले सिन्धु घाटी की सभ्यताओं में भी स्वस्तिक के निशान मिलते हैं। बौद्ध धर्म में स्वस्तिक का आकार गौतम बुद्ध के हृदयस्थल पर दिखाया गया है। मध्य एशिया देशों में स्वस्तिक का निशान मांगलिक एवं सौभाग्यसूचक माना जाता है। नेपाल में हेरंब के नाम से पूजित होते हैं। वर्मा में महा पियेन्ने के नाम से पूजित है। मसोपोटेमिया में अस्त्र-शस्त्र पर विजय प्राप्त हेतु स्वस्तिक चिन्ह प्रयोग किया जाता है। हिटलर ने भी इस स्वस्तिक चिन्ह को ग्रहण किया था। जर्मन के राष्ट्रीय ध्वज में स्वस्तिक विराजमान है। क्रिस्चियन समुदाय क्रास का प्रयोग करते हैं। वह स्वस्तिक का ही रूप है। जैन समुदाय एवं सनातन समुदाय में स्वस्तिक को मांगलिक स्वरूप माना गया है।
वास्तु शास्त्र में चार दिशाएँ होती हैं—
स्वस्तिक चारों दिशाओं का बोध कराता है। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, चारों दिशाओं के देव पूर्व के इन्द्र, दक्षिण, के यम, पश्चिम के वरुण, उत्तर के कुबेर। स्वस्तिक की भुजाएँ चारों उप दिशाओं का ज्ञान कराती हैं। ईशान, अग्नि, नैऋत्य, वायव्य । स्वस्तिक के आकार में आठों दिशाएँ गर्भित हैं। वैदिक हिन्दू धर्म के अनुकूल स्वस्तिक को गणपति का स्वरूप माना है। स्वस्तिक की चारों दिशाओं से चार युग—सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग की जानकारी मिलती है। चार वर्ण—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। चार आश्रम—ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास। चार पुरुषार्थ—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार वेद इत्यादि अनंत जानकारी का बोधक है।
स्वस्तिक की चार भुजाओं से जिनधर्म के मूल सिद्धांतों का बोध होता है—
समवसरण में भगवान का दर्शन चारों दिशाओं से समान रूप से होता है। चार घातिया कर्म—ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय। चार अनंत चतुष्टय—अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंतवीर्य। उपवन भूमि में चारों दिशाओं में क्रमश: अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र वन होते हैं। चार अनुयोग—प्रथमानुयोग, करणानुयोग,चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग। चार निक्षेप—नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव। चार कषाय—क्रोध, मान, माया, लोभ। मुख्य चार प्राण—इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छ्वास। चार संज्ञा—आहार, निद्रा, मैथुन, परिग्रह। चार दर्शन—चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल। चार आराधना—दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप। चार गतियां—देव, मनुष्य, तिर्यंच, नरक।
स्वस्तिक के बारे में इतनी जानकारी देने का मुख्य उद्देश्य—
स्वस्तिक के आकार में अनगिनत जानकारियाँ अनेक शक्तियों से गर्भित हैं। शरीर की बाहरी शुद्धि करके शुद्ध वस्त्रों को धारण करके ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए (जिस दिन स्वस्तिक बनावें) पवित्र भावनाओं से नौ अंगुल का स्वस्तिक ९० डिग्री के एंगल में सभी भुजाओं को बराबर रखते हुए बनायें। केसर से, कुमकुम से, सिन्दुर और तेल के मिश्रण से अनामिका अंगुलि से ब्रह्म मुहूर्त में विधिवत् बनाने पर उस घर के वातावरण में कुछ समय के लिए अच्छा परिवर्तन महसूस किया जा सकता है। स्वास्तिक के अंदर बोविस यंत्र के द्वारा उâर्जाओं की जो जाँच की गई लगभग १ लाख सकारात्मक ऊर्जाओं का अस्तित्व रहता है। भवन या फ्लैट के मुख्य द्वार पर एवं हर कमरे के द्वार पर अंकित करने से सकारात्मक ऊर्जाओं का आगमन होता है।
घर एक ऐसी जगह होती है जहां हम खुलकर सांस लेना चाहते हैं। जहां मीठी-सी नींद पलक झपकते ही आ जाए। जहां कभी पूरे परिवार के साथ हंसी की खिलखिलाहट सुनाई दे तो कभी कोई कोना हमारे एकांत का साथी बने। इसी घर में जब कलह और तनाव मेहमान बनते हैं तो सारे घर की शांति चली जाती है। हमे नहीं पता होता है कि ऐसा क्यों होता है ?
क्यों छोटी-छोटी बातों पर हम अपने ही परिवार से झगड़ बैठते हैं ? वास्तुशास्त्र बताता है कि जाने-अनजाने घर के निर्माण में कुछ दोष रह जाते हैं। यह उन्हीं का परिणाम होता है। प्रस्तुत हैं आसान से वास्तु टिप्स जो आपके घर को दें सुख, शांति और खुशियों की ठंडी छांव।
दरवाजों के कब्जे में तेल डालते रहें अन्यथा दरवाजा खोलते या बंद करते समय आवाज करते हैं जो वास्तु के अनुसार अत्यन्त अशुभ तथा अनिष्टकारी होता है।
घर में विद्युत संबंधी उपकरण जो कर्कश ध्वनि उत्पन्न करते हों जैसे पंखे, कूलर, आदि की समय-समय पर मरम्मत करवाते रहें।
घर में कम से कम वर्ष में दो बार हवन व यज्ञ करवाएं।
अगर भवन में जल प्रवाह ठीक न हो या पानी की सप्लाई सही दिशा में न हो तो उत्तर-पूर्व दिशा से यानि ईशान कोण से भूमिगत जल की टंकी का निर्माण कर उसी से भवन में जल की सप्लाई करें। ऐसा करने से यह वास्तुदोष समाप्त हो जाएगा तथा जल की गलत दिशा से सप्लाई भी बंद हो जाएगी।
घर में पूजा स्थल का निर्माण ईशान कोण में करवाएं।
घर का अग्र भाग ऊंचा तथा पृष्ठ भाग नीचा हो तो निचले भाग में डिश एंटीना, टी.वी.एंटीना आदि को अगले भाग से ऊंचा कर लगा दें। इस प्रकार यह वास्तुदोष पूर्णरूप से समाप्त हो जायेगा।
यदि घर का पूर्व आग्नेय निचला हो तो प्लाट के स्वामी को लड़ाई-झगड़े, विवाद के कारण यातना सहनी पड़ती है।
घर का वायव्य कोण निचला होने पर भी शत्रुओं की संख्या बढ़ती है। शत्रुओं के कारण गृहस्वामी को मानसिक तनाव मिलता है।
अगर किसी घर का दक्षिण और आग्नेय निचला हो, वायव्य और उत्तर ऊंचे हों तो घर का मालिक कर्ज और बीमारी के कारण मानसिक तनाव में रहता है।
जिस घर में नैऋत्य और दक्षिण निचला होता है और उत्तर और ईशान ऊंचा होता है तो ऐसे घरों के मालिक को अपवित्र कार्य करने और व्यसनों का दास बनने से मानसिक अशांति रहती है और परिवार के लोग भी तनाव में रहते हैं।
यदि आपकी दो मंजिला मकान बनवाने की योजना है तो पूर्व एवं उत्तर दिशा की ओर भवन की ऊंचाई कम रखें।
इस बात का ध्यान रखें कि भवन में उत्तर-पूर्व दिशा में ही दरवाजे व खिड़कियां सर्वाधिक संख्या में होने चाहिए।
वास्तु का सहज शाब्दिक अर्थ एक ऐसे आवास से है जहां के निवासी सुखी, स्वस्थ एवं समृद्ध हों इसलिये वास्तु विज्ञान में हमारे पूर्वजों ने अपने दिव्य ज्ञान से ऐसे अनेक तथ्यों को शामिल किया है जो कि किसी भी भवन के निवासियों को शांतिपूर्वक रहने में परम सहायक होते हैं, इन सभी तथ्यों में क्यों और वैâसे की कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि प्रयोगकर्ता को होने वाले प्रत्यक्ष लाभ भी इसके प्रमाण है। ऐसे ही कुछ अत्यंत सरल, प्रभावी एवं सार्थक प्रयोग प्रस्तुत है।
घर में बनने वाले भोजन में से प्रत्येक प्रकार का थोड़ा-थोड़ा पदार्थ एक अलग प्लेट में भोजन बनाने वाली महिला पहले निकालकर हाथ जोड़कर वास्तुदेव को समर्पित करें और फिर घर के अन्य सदस्यों को भोजन कराएं (फिर चाहे कोई भी सदस्य कभी भी भोजन क्यों न करें) ऐसा करने से वास्तु देवता उस घर पर सदैव प्रसन्न रहते हैं। बाद में प्लेट में निकाला गया पदार्थ गाय को खिला दें।
घर में टूटी-फूटी मशीनों को न रखें । जितनी जल्दी हो सके कोई भी टूटी हुई अथवा विद्युत मशीन को चाहे वह छोटी हो अथवा बड़ी घर से बाहर कर देना चाहिए। इनके घर में रहने से मानसिक तनाव तथा शारीरिक व्याधियां उस घर के निवासियों को घेरती है।
जिस घर में एक पाए का पटिया (पाटा) रहता है वहां आर्थिक हानि एवं मानसिक तनाव दृष्टिगोचर होते हैं अत: घर में ऐसा एक पाए का पाटा न रख्ों।
घर में कहीं भी झाडू को खड़ी करके नहीं रखना चाहिए। इसी प्रकार उसे न तो ऐसी जगह रखनी चाहिए जहां उसे पैर लगे या उसे लांघा जाता हो। ऐसा होने पर घर में बरकत नहीं होती है। धनागम के स्रोतों में कमी आती है।
घर के ईशान क्षेत्र में (उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में) कोई भी पालतू जानवर न बांधें। कुत्ते, मुर्गे एवं भैसों के संबंध में तो और भी सावधान रहें अन्यथा घर में परेशानियों का अंबार लगा रहेगा। प्रत्येक घर में तुलसी का पौधा, सीता, अशोक, आंवला, हरशृंगार, अमलतास, निर्गुण्डी इत्यादि में से कम से कम दो पौधे अवश्य होने चाहिए। ये अमन एवं समृद्धिवर्धक हैं। वैâक्टस का घर में होना अशांति देता है।
घर में नित्य ईश्वर का भजन-पूजन अवश्य होना चाहिए । पूजन करने वाले सदैव पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख होकर पूजन करें। घर में घी का दीपक अवश्य जलाएं।
घर के प्रत्येक कमरे में एक बार प्रकाश जरूर फैलाना चाहिए अर्थात घर के प्रत्येक कमरे को दिन में भले ही कुछ क्षणों के लिये ही किन्तु प्रकाशित अवश्य ही करना चाहिए।
१. अध्ययन कक्ष भवन के पश्चिम-मध्य क्षेत्र में बनाना अति लाभप्रद है, इस दिशा में बुध-गुरु-चन्द्र एवं शुक्र चार ग्रहों से उत्तम प्रभाव प्राप्त होता है। इस दिशा के कक्ष में अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों को बुध ग्रह से बुद्धि-वृद्धि, गुरु ग्रह से महत्वाकांक्षा एवं जिज्ञासु बुद्धि, चन्द्रगृह से नवीन विचारों की वृद्धि और शुक्रग्रह से प्रतिभा वक्तृत्व एवं लेखन कला में निपुणता और धन वृद्धि होती है।
२. अध्ययनकक्ष में विद्यार्थी की टेबल पूर्व, उत्तर-ईशान या पश्चिम में रहना चाहिए। दक्षिण आग्नेय व नैऋत्य या उत्तर-वायव्य में नहीं होना चाहिए।
३.अध्ययन कक्ष में खिड़की या रोशनदान पूर्व—उत्तर या पश्चिम में होना श्रेष्ठ या दक्षिण में सम्भवतया नहीं रखें।
४. अध्ययन कक्ष में शौचालय कदापि नहीं बनाएं।
५. अध्ययन कक्ष की रंग संयोजना—सफेद, बादामी, फीका आसमानी या हल्का फिरोजी रंग दीवालों पर टेबल या फर्नीचर पर श्रेष्ठ है। काला, लाल, गहरा नीला रंग कमरे में नहीं होना चाहिए।
६.अध्ययनकक्ष का प्रवेश द्वार पूर्व-उत्तर—मध्य या पश्चिम में रहना चाहिए। दक्षिण आग्नेय व नैऋत्य या उत्तर—वायव्य में नहीं होना चाहिए।
७. अध्ययन कक्ष में अभ्यास पुस्तकें रखने की रेक एवं टेबल उत्तर दिशा की दीवाल से लगी होनी चाहिए।
८. अध्ययन कक्ष में पेय जल, मन्दिर, घड़ी उत्तर या पूर्व दिशा में रखना चाहिए।
९. अध्ययन कक्ष में टी. वी., मैग्जीन एवं अश्लील साहित्य व सीडी प्लेयर एवं वीडियो गेम, रद्दी अखबार, अनुपयोगी सामान एवं भारी वस्तुएं न रखें।
१०. अध्ययनकक्ष में आदर्शवादी चित्र, सरस्वती माता एवं गुरुजनों के चित्र लगाना चाहिए।
११. युद्ध, लड़ाई-झगड़े, हिंसक पशु—पक्षियों के चित्र व मूर्तियाँ नहीं रखना चाहिए।
१२. अध्ययन कक्ष में शयन नहीं करें।
१३. अध्ययन कक्ष को अन्य कक्षों के जमीनी तल से ऊँचा या नीचा नहीं रखें। तल का ढाल पूर्व या उत्तर की ओर रखा जाए।
१४. अध्ययन कक्ष में केवल ध्यान, अध्यात्म, वाचन, चर्चा एवं अध्ययन ही करना चाहिए। गपशप, भोग-विलास की चर्चा एवं अश्लील हरकतें नहीं करना चाहिए।
१५. अध्ययन कक्ष में जूते, चप्पल, मोजे पहनकर प्रवेश नहीं करना चाहिए।
१६. अध्ययन कक्ष के मन्दिर में सुबह-शाम कपूर या शुद्ध घी का दीपक व हल्की खुशबु की अगरबत्ती अवश्य लगाएं।
१७. कक्ष के तल पर कोटा स्टोन या मार्बल व टाइल्स की रंग संयोजना सफेद, क्रीम, बादामी रंग का उपयोग करें।
१८. अध्ययन कक्ष की उत्तर या पूर्व दीवाल पर सीढ़ियाँ, शौचालय एवं रसोई नहीं हो।
अध्ययन टेबल की संयोजना—
१. टेबल हमेशा आयताकार होना चाहिए, गोलाकार या अण्डाकार नहीं होना चाहिए।
२. टेबल की टाप का रंग सफेद दूधिया या क्रीम श्रेष्ठ है या अन्य रंग फीके हल्के कलर होें तो श्रेष्ठ है। प्लेन ग्लास भी रख सकते हैं।
३. टेबल पर अध्ययन करते समय विषय से सम्बन्धित पुस्तकें व आवश्यक इन्स्ट्रूमेन्ट ही रखें।
४. टेबल पट बन्द घड़ी, टूटे—फूटे व बन्द पेन, धारदार चाकू, हथियार व औजार कदापि नहीं रखे।
५. टेबल पर एक क्रिस्टल ग्लोब, स्टैण्ड, वैâलेन्डर व फ्लावर पॉट रखें।
६. कम्प्यूटर टेबल पूर्व मध्य या उत्तर मध्य में रखें। ईशान में नहीं रखें।
७. अध्ययन टेबल व कुर्सी के ऊपर सीढ़ियाँ, बीम-कॉलम व डक्ट, टांड नहीं हो।
निम्न वास्तु नियमों का ध्यान रखें—
(१) ऑफिस में जब भी टेबल लगायी जाए ऑफिस के नैऋत्य कोण में लगानी चाहिए। आपका मुँह पूर्व या उत्तर में होना चाहिए। आपके सामने विजिटर्स का मुँह पश्चिम या दक्षिण होना चाहिए।
(२) विजिटिंग कुर्सी आपके टेबल के सम्मुख होनी चाहिए एवं घुमावदार (रिवालिंवग) होना चाहिए। मालिक के बैठने की कुर्सी लकड़ी की चार टाँग वाली होनी चाहिए। उस कुर्सी में किसी भी तरह की लोहे की कील न लगायें, लकड़ी की लगायें और जरूरत हो तो पीतल की लगा सकते हैं। विजििंटग की कुर्सी से मालिक की कुर्सी ऊँची एवं बड़ी तथा सुन्दर होनी चाहिए। उस कुर्सी पर बैठने से आत्मविश्वास में वृद्धि होती है।
(३) मुख्य गेट के सामने टेबल नहीं होनी चाहिए। मुख्य गेट से आपकी टेबल कटनी नहीं चाहिए, ऐसा है तो एकाग्रता नष्ट होगी, ऐसा नहीं हो तो एकाग्रता में वृद्धि होगी।
(४) सीिंलग पर बीम का अगर वेध हो उसे अतिशीघ्र पी ओ पी करवा कर उसे एक रूप दे दें। बीम रहने से माथे पर बोझ, सर का भारी होना होता है। बीम नहीं रहने से मस्तिष्क में भार नहीं होता, मन हल्का प्रसन्न रहता है।
(५) ऑफिस के लिए टेबल बनाते समय, साइड टेबल बनाते समय, बैंक टेबल बनाते समय ध्यान रखें कहीं आप यू आकार में तो नहीं हैं। अगर हैं तो आप ऑफिस में अपने को बँधा-बँधा महसूस करेंगे। ऑफिस से बाहर निकलकर काम करने की इच्छा नहीं होगी। बंधनमुक्त होने के लिए एल शेप में टेबल बनवायें।
(६) आपके पीठ के पीछे कोई बड़ी खिड़की या दरवाजा नहीं होना चाहिए। अगर है तो आप में साहस की कमी होगी। साहस को पाने के लिए खिड़की में ग्लास (शीशा) लगाकर बन्द करें। शीशा लगाने से प्राकृतिक रोशनी का आगमन होता रहेगा। नैऋत्य से आने वाली नकारात्मक ऊर्जाओं का आना बन्द हो जायेगा।
(७) आपके ऑफिस के टेबल का टॉप ग्लास का न हो। ग्लास का होने से आपका अक्स (िंबब) जो दिखायी देता है, आपके शरीर की ऊर्जाओं को कम करने में अक्स सहायक बन जाता है। अगर ऐसा है तो आप कमजोरी, थकान महसूस करेंगे, है तो बदल लेवें। कोई भी प्लेन मैट, बेलबेट, बूडेन फिनिसिंग, मेटपॉलिश का टॉप व्यवहार में लायें। ऐसा करने से कमजोरी का पलायन होगा। साहस की वृद्धि होगी।
(८) ऑफिस प्राकृतिक रोशनी, हवा आना अति आवश्यक है। ए. सी. ऑफिस होने के कारण प्राकृतिक हवा ए. सी. के सहयोग से आती है, प्राकृतिक रोशनी आने के लिए इंटीरियर की सलाह लेकर शीशों के द्वारा रोशनी अंदर लायी जाती है। प्राकृतिक रोशनी एवं हवा से मानव की कार्यक्षमता बढ़ जाती है।
(९) ऑफिस में बन्द घड़ी, धीमी चलने वाली घड़ी, खण्डित वस्तुएँ, डस्टबीन ईशान कोण में रखना, ईशान कोण में भारी—भरकम सामान या अलमारी रखना, ईशान कोण की दीवार पर पहाड़ का चित्र होना, ईशान में मेन स्विच होना, दरवाजा खोलने से आवाज होना इनसे बचना चाहिए।
१. रसोईघर का प्रवेशद्वार दक्षिण दिशा में नहीं बनना चाहिए।
२. शेष तीन दिशाओं में बनाया जा सकता है।
३. रसोईघर बनाने वालों का मुख पूर्व में होना चाहिए।
४. रसोईघर की उत्तर दिशा में धान्य के वजनदार डिब्बे आदि नहीं रखने चाहिए।
५. हाथ धोने का स्थान ईशान कोण में होना चाहिए।
६. भोजन बनाने वाली महिला को भोजन बनाने वाले वाले स्थान पर ही बैठकर कभी भोजन नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से घर की ऋद्धि-सिद्धि का नाश होता है।
७. रसोईघर के ठीक सामने शौचालय नहीं होना चाहिए।
८. भोजन करते समय पूर्व अथवा उत्तर में मुख करके भोजन करना चाहिए। दक्षिण में मुख करके भोजन नहीं करना चाहिए।
९. पानी पूर्व या पश्चिम दिशा में मुख करके ही पीना चाहिए। खड़े-खड़े ऊपर मुख करके लोटे या ग्लास से मुख में जल डालकर पानी नहीं पीना चाहिए।