शब्द की संरचना के मूल में वस्तु शब्द है। यह संस्कृत के ‘वास’ शब्द से बना है जिसका अर्थ है‘ निवास करना’। यह किसी के स्थिर होने की सूचना देता है। वास्तु के मूल में भूमि और उसके ऊपर मिट्टी सीमेन्ट, चूना, ईंट, पत्थर, लोहा, लकड़ी आदि से निर्मित भवन होता है। सामाजिक दृष्टि से जब मनुष्य समाज के बीच में संस्कारित होकर रहता है तब उसे वास्तु की आवश्यकता होती है जहाँ वह रहकर धूप, पानी (वर्षा), शीत से बच सके। वह प्रकृति के प्रकोप से भी बचा रह सके और प्रकृति को अपने अनुकूल ढाल भी सके। इसके लिए आवश्यक है कि वास्तु की संरचना शास्त्र सम्मत हो। कहा भी है कि—
शास्त्र प्रमाण के बिना यदि देवालय, मण्डप गृह, दुकान और तल भाग आदि का विभाग किया जाएगा तो उसका फल विपरीत ही मिलेगा, अनिष्ट होगा, असमय में आयु का नाश, पुत्र नाश, कुल—क्षय और स्ताप होगा। मानव जीवन के चार पुरुषार्थ माने गये हैं— धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनमें से प्रथम तीन पुरुषार्थ—धर्म (धार्मिक आचरण पुण्योपार्जन), अर्थ (धन कमाना), काम (भौतिक जीवन का आनंद उठाना) घर में रहकर ही मनुष्य करता है। अत: मानव जीवन में वास्तु का विशेष महत्व है। संसार को बढ़ाने का कार्य संतति का हैं, संतति के संरक्षण का कार्य भी संसार संसारियों का है। अत: उनके निवास के लिए उनके स्वास्थ्य रक्षण के लिए, उनके पारिवारिक वातावरण के लिए, उपार्जित वस्तुओं के रख—रखाव एवं संरक्षण के लिए उत्तम वास्तु होना आवश्यक है। अत: हम कह सकते हैं कि एक सामाजिक मनुष्य के लिए वास्तु आवश्यक है। अत: वास्तु संरचना के बाद उसमें प्रवेश करने से पहले वास्तुशांति कर / करा लेना आवश्यक है ताकि आपके वैयक्तिक, भौतिक एवं सांसारिक विकास में आपका वास्तु आपका सहायक बन सके। वास्तु निर्माण में सद् एवं असद् विचारों का मेल— जब कोई व्यक्ति वास्तु निर्माण करता है तो उसके विचार सद् होते हैं। उसमें अत्यन्त उत्साह होता है और वह चाहता है कि निर्माण कार्य में जितनी भी सामग्री लगे सब अच्छी से अच्छी होना चाहिए। उस समय वह सस्ती या हल्की वस्तुओं के स्थान पर मँहगी और सुन्दर वस्तुओं का उपयोग करता है। वह वास्तु में प्रकाश एवं हवा हेतु यथेष्ट झरोखे, दरवाजे आदि निर्मित करता है। जब निर्माण कार्य प्रांरभ करता है तो सर्वप्रथम भूमि की शांति कराता है और अपने इष्ट देवता का स्मरण कर उस पर निवास करने वाले देवादिक को संतुष्ट करने का प्रयास करता है। जल, चंदन, शक्कर, घृत, नारियल आदि समर्पित करता है। किन्तु भवन निर्माता की भावना, सोच एवं कार्य के विपरीत वास्तु इंजीनियर, ठेकेदार, कारीगर और मजदूर आदि की सोच, भावना एवं कार्य पद्धति वैसी नही होती । उनमें अपने वास्तु निर्माता की भावना, सोच, भावना एवं कार्य पद्धति वैसी नहीं होती। उनमें अपने वास्तु निर्माता के प्रति ईष्र्या, डाह की भावना उत्पन्न हो सकती है। मजदूर वर्ग के विचार भी असद् होते हैं। वे वास्तु निर्माण के समय आपस में गाली—गलौज, मारपीट एवं विसंवाद करते हैं। यत्र तत्र मल— मूत्र प्रक्षेपण करते हैं। ऐसी स्थिति में वास्तु का अशुद्ध होना और विपरीत प्रभावकारी होना स्वाभाविक है। वास्तु के निर्माण में जिस सामग्री का निर्माण होता है उस सामग्री के निर्माण में भी अनेक दूषित पदार्थ उपयोग में लाये जाते हैं। हिंसज पदार्थों का भी उनमें उपयोग होता है। उन वस्तुओं के रखने के स्थान भी प्राय: शुद्ध नहीं होते। दूसरे उन पर कुत्ता—बिल्ली आदि जानवर बैठकर उन्हें अपवित्र करते रहते हैं।
काला टीका— वास्तु निर्माता वास्तु निर्र्माण करते समय वास्तु को कुदृष्टि से बचाने के लिए निर्माण कार्य के प्रांरभ से लेकर अन्त तक काला घड़ा भवन पर टांग कर रखते हैं या काली लाइन कोयला से बना देते थे। पहले लोग अशुद्ध पदार्थों के उपयोग से बचने के लिए निम्नलिखित उपाय करते थे।
१. भवन निर्माण के लिए पानी छानकर उपयोग करते थे। इम्फाल निवासी एक व्यक्ति ने बताया कि उनके पिता बड़े धार्मिक थे और उन्होंने राजस्थान स्थित मकान का निर्माण स्वयं पानी छानकर करवाया था।
२. र्इंट और रेत पानी में धुलकर निर्माण कार्य में उपयोग करते थे।
३. प्राय: मांसाहारी कारीगरोें , मजदूरों को काम पर नहीं लगाते थे ताकि वैचारिक शुद्धि बनी रहे।
४. वास्तु निर्माण में सहायक सामग्री भी ऐसे दुकानदारों से नहीं खरीदते थे जो प्रत्यक्ष—अप्रत्यक्ष हिंसा करते हों या हिंसा में विश्वास रखते हों। एक और भी कारण वास्तुशांति के लिए बनता है और वह यह है कि वास्तुनिर्माण से पूर्व खाली भूमि पर लोग कचरा आदि डालते हैं। वहाँ व्यन्तरादिक भी अपना निवास स्थान बना लेते हैं। इसलिए वास्तु निर्माण के बाद गृह प्रवेश से पूर्व उसके शुद्धिकरण हेतु वास्तु शांति आवश्यक है। वास्तु शांति— गृहस्थाचार के अनुसार व्यक्तियों के निवास के लिए घर होना चाहिए। यह घर विकृतियों से और सुख शांति देने वाला होना चाहिए। उसमें रहने वाले निवासियों में परस्पर सौजन्य, आदर, सम्मान, प्रेम, अतिथि सत्कार की भावना, वात्सल्य तथा कार्य करने में उत्साह होना चाहिए। यह स्थिति बनाने के लिए गृह—प्रवेश से पूर्व वास्तु शांति आवश्यक होती है। यह पद्धति प्राचीनकाल से चली आ रही है। महाभारत के एक प्रसंग से ज्ञात होता है कि जब दुर्योधन ने इन्द्रप्रस्थ में अपना भवन बनाया तो गृहा प्रवेश के अवसर पर पाण्डवों को आमंत्रित किया। इससे वास्तु शांति कराने की प्राचीन परम्परा का पता चलता है। वास्तु शास्त्र देव, शास्त्र, गुरु एवं गृहस्थाचार्य की सन्निधि में एवं परिवारी तथा सामाजिकजनों की उपस्थिति में मंगल वातावरण में करना चाहिए। वास्तुशांति के दिन श्री शांतिनाथ मण्डल विधान तथा भक्तामर पाठ, मंत्र जाप, हवन करना चाहिए तथा उक्त क्रियाओं के पश्चात् गाजे बाजे के साथ गृह दंपति को श्री जिन मंदिर से मंगल कलश लाकर स्वस्ति वाचन के साथ अक्षत—पुष्पादि क्षेपण करते हुए प्रमुख द्वार पर ॐ, स्वस्तिक, शुभ—लाभ लिखकर गृहप्रवेश करना चाहिए तथा श्री जिन मंदिर से लाया हुआ मंगल कलश ईशान कोण में स्थापित करना चाहिए तथा सभी परिवारजनों को भोज करना चाहिए। शांति विधान कहाँ किया जाये; इस विषय में दो मत है— ‘प्रतिष्ठा पराग’ (पृ. २०४) में गृहप्रवेश के सम्बन्ध में लिखा है कि—गृहप्रवेश अनुष्ठान के एक दिन पूर्व मंदिर जी मेें ही शांति विधान करें। जिस नवीन ताम्र कलश को घर में स्थापित करना है उसे पूर्ण सामग्री के साथ विधान मण्डल पर विधिपूर्वक स्थापित करें, जिसे गृहप्रवेश के दिन मंदिर से लेकर आयेंगे। वर्तमान में प्राय: नवनिर्मित घर में ही कहीं—कहीं जिन मंदिर से मूर्ति लाकर, कहीं विनायक यंत्र लाकर और कहीं केवल जिनवाणी की स्थापना कर श्री शांतिनाथ महामण्डल विधान कर आयोजन किया जाता है। श्री शांतिनाथ महामण्डल विधान के पूर्व अभिषेक, पूजन, देव, शास्त्र, गुरु नवदेवता एवं विनायक यंत्र पूजन के उपरांत सिद्धभक्ति कायोत्सर्गपूर्वक शांतिदायक मंत्र का जाप करना चाहिए तथा गंधोदक सभी दीवालों पर प्रक्षेपित करना चाहिए। मंत्र जाप से वास्तु का वातावरण भावनात्मक रूप से शुद्ध होता है। इसके पश्चात् णमोकार मंत्र पाठ, श्री शांतिनाथ मण्डल विधान अथवा भक्तामर मण्डल विधान सर्वशांति की भावना करना चाहिए। विधान के उपरांत जपे हुए मंत्र की दशांश आहुतिपूर्वक शांति हवन करना चाहिए। हवन करने से वास्तु में उष्मा और सकरात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है जिस तरह बिना अग्नि में जलाए धातु आदि की खोट नहीं मिटती वैसे ही बिना हवन के वास्तुदोषों का शमन नहीं होता। हवन के पश्चात् दानादि एवं जिनवाणी भेंट करना चाहिए। गृहस्थाचार्य का सम्मान करना चाहिए। नवीन गृह के मुख्य द्वार पर रंगोली बनाना चाहिए। गृहप्रवेश से पूर्व मुख्य द्वार पहुँचकर दिग्वंधन करें तथा द्वार के ऊपर ट:ट (स्वास्तिक, ओइम स्वास्तिक) की संरचना कर श्री महावीराय नम: तथा दरवाजे के बायें—दायें शुभ—लाभ लिखना चाहिए। दरवाजे के बाये—दायें सुहागिन महिला के हस्त छाप (क्रमश: दो एवं तीन) लगवाकर मंगल,कलश दीपक एवं मंगल द्रव्य के साथ णमोकार मंत्र पढ़ते हुए वास्तु निर्माता दंपति को गृह प्रवेश करना चाहिए। वास्तु शांति के लिए मांगलिक चिन्हों की स्थापना— वास्तु (गृह) में रहने वाले और वास्तु में प्रवेश करने वाले (अतिथि) की प्रवृत्ति सकारात्मक बनी रहे इसलिए वास्तु में मांगलिक चिन्हों की संरचना एवं मांगलिक वस्तुओं की स्थापना की जाती है।
ऐसे कुछ मांगलिक चिन्ह इस प्रकार हैं।—
१. ट (स्वस्तिक)— स्वस्तिक का आकर संसार की संरचना, संसार का नाश, चारगति चार दिशा और चार अनुयोग का सूचक है। अत: इसका दीवारों पर मकान के सर्वोच्च स्थान पर बनाए जाय; जहाँ से सभी को मकान की ओर प्रथम दृष्टि डालते ही दिखाई दे; शुभ होता है। इसे प्रमुख द्वार पर प्रमुखता से चित्रित करना चाहिए। खाता—बही, धर्म ग्रंथ तिजोरी, अलमारी या जो भी नयी वस्तु घर में आती है। सर्वप्रथम उन पर स्वस्तिक बनाना चाहिए। यह ऋद्धि—सिद्धि दायक भी माना जाता है। देखने में सुखद प्रतीत होता है। इसे किसी भी समय, किसी भी स्थान पर उल्टा नहीं बनाना चाहिए।
२. ग् (नन्द्यावर्त स्वस्तिक)— नन्द्यावर्त स्वस्तिक की संरचना भी गृह में शांति एवं सुखदायक होती है। जैन धर्मानुयायी नन्द्यावर्त स्वस्तिक का उपयोग करते हैं। यह दसों दिशाओं का भी सूचक होता है। इससे अहिंसक भावना का संचार होता है।
३. छ (ऊँ) — ओइम् गृह के मुख्य द्वार की चौकट के बीच में लगाना चाहिए। यह पंचपरमेष्ठी का सूचक है। संसार के आधे से अधिक धर्म और दर्शनों में इसे ब्रह्म का वाचक माना गया है। यह प्रथम बीजाक्षर मंत्र है। इसके देखने से शक्ति का संचय होता है तथा मन में शांति की तृप्ति होती है। इससे पंचपरमेष्ठी के प्रति आस्था प्रकट होती है और आस्तिकता का संचार होता है।
४.(मंगल कलश)— वास्तु के ईशानकोण में नारियल युक्त धातु यामृत्तिका कलश की स्थापना करनी चाहिए। यह कलश पंचरंग सूतवेष्टित, हल्दी गांठ, सुपारी, पीली सरसों, अक्षत—पुष्प, रजत स्वस्तिक, पंचरत्न, रजत सिक्का, जल आदि से पूरित होना चाहिए तथा कलश के ऊपर केसर से चारों ओर स्वस्तिक बने होना चाहिए। गृह प्रवेश के समय जिनमंदिर में दर्शन पूजन के उपरांत वास्तुनिर्माता दंपति मंगल कलश को लाकर ही गृह प्रवेश करते हैं। यह धन धान्य से भरे होने की सूचना देता है।
५. फ (त्रिलोक जैन चिन्ह)— तीन लोक की आकृति जिसके नीचे ‘‘परस्परोपग्रहो जीवानाम् ’’ लिखा रहता है। यह कमर पर दोनों हाथ रखे पुुरुष का चिन्ह: जिस पर सिद्धसिला का आकार, रत्नत्रय के सूचक तीन बिन्दु, स्वस्तिक तथा अहिंसा एवं अभय का सूचक हाथ बना रहता है ऐसा चिन्ह वास्तु की दीवाल पर बनाने से मंगल में वृद्धि होती है, समृद्धि आती है। आजकल कुछ लोग मुख्य दरवाजे पर चरण पादुकाएं बना देते हैं यह उचित नहीं है। वैसे भी मुख्य दरवाजे पर या मुख्य दरवाजे के सामने जूता—चप्पल आदि नहीं रखना चाहिए। इससे नकारात्मक ऊर्जा संचरित होती है। इसी तरह चौखट पर ऐसे कोई वस्तु नहीं लटकाना चाहिए जो आते—आते समय सिर को लगे। यह अनावश्यक भय का कारण बनती है। अपने घर में हिंसक जानवरों का रखना पालना भी उचित नहीं है।
गृहप्रवेश मुहूर्त—
गृहप्रवेश के लिए चित्रा, अनुराध उत्तरा फाल्गुनी, उत्तरा भाद्रपद, उषा, रेवती मृगशिर, रोहिणी नक्षत्र उत्तम माने जाते हैं। वार की दृष्टि से गृहप्रवेश के लिए सोमवार, बुधवार, गुरुवार और शुक्रवार अच्छे माने गये हैं। लग्न की दृष्टि से २, ५, ८,११, उत्तम तथा ३, ६ , ९, १२ मध्यम गृहप्रवेश के लिए माने गये हैं। लग्न से १, २, ३, ५, ७, ९, १०,११ इन स्थानों में शुभग्रह शुभ एवं ३, ६, ११, स्थानों में पापग्रह शुभ होते हैं। ४, ८, स्थानों में कोई ग्रह नहीं होना चाहिए। घर में प्रवेश के अधिकार— प्रश्न उठता है कि घर में प्रवेश के अधिकारी कौन हैं? जो वास्तु निर्माता है वह घर में प्रवेश का अधिकारी है। किन्तु ‘‘न धर्मो धार्मिकै -र्बिना‘‘ की नीति के अनुसार धर्म धार्मिकों के बिना नहीं होता। अत: जिनेन्द्र देव, जिनवाणी और जिन गुरु को भी नवनिर्मित वास्तु में प्रवेश का अधिकार होना चाहिए, होता ही है। यहाँ ध्यान रहे कि गृह चैत्यालय के अभाव में घर में जिनेन्द्र देव (अरहन्त मूर्ति) की स्थापना कदापि नहीं करना चाहिए। उनके स्थान पर नियम से उच्च स्थान पर जिनवाणी की स्थापना करना चाहिए ताकि यदि वास्तु संबन्धी कोई दोष रह भी गया है तो वह जिनवाणी के कारण अपना प्रभाव नहीं दिखा पायेगा। जिन गुरु दो ही स्थितियों में गृहस्थ के घर प्रवेश करते हैं—— १. आहार के निमित्त, २. किसी के द्वारा सल्लेखना व्रत लेने पर उसके सम्बोधनार्थ। अत: जब भी आचार्य, उपाध्याय या मुनि अपने घर की सीमा में आयें तब उनके लिए आहार हेतु अवश्य पड़गाहन करना चाहिए। बिना अतिथि सत्कार, गुरु को आहार (अतिथि संविभाग व्रत की संयोजना) कराये बिना घर पवित्र नहीं होता। तथा गृहवाषियों को सल्लेखना की भावना बनाए रखना चाहिए। इसी तरह साधर्मी भाई—बहिनों के लिए भी अतिथि के तुल्य प्रवेश देना चाहिए। अपने कुटुम्बीजनों, नाते—रिश्तेदारों को भी घर में प्रवेश देना चाहिए। जो घर के स्वामी हैं उन सभी को भी परस्पर मिलजुल कर घर में रहना चाहिए। घर में ऐसे कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे घर का वातावरण दूषित होता हो। मद्यपान, मांस भक्षण, जुआ आदि दुष्कृत्य कभी नहीं करना चाहिए। अाकुलीन एवं व्यभिचारी, व्यसनीजनों का प्रवेश सदैव वर्जित होना चाहिए। रात्रि भोजन का त्याग होना चाहिए। धार्मिक एवं पारिवारिक वातावरण निर्मित होना चाहिए। ऐसा करने पर ही वास्तु में रहने वाले नर—नाारियों को शांति प्राप्त होगी तथा सुख एवं समृद्धि में वृद्धि होगी।
डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन -‘भारती’ —
प्रधान संपादक, ‘‘पार्श्र्व ज्योति (मासिक) एल—६५, न्यू इन्दिरानगर, बुरहानपुर (म.प्र.)