मंदिर एवं मकान आदि के विधिवत् निर्माण का नाम है-वास्तु एवं शिल्प। वास्तु एवं शिल्प का अर्थ बनाने की कला अर्थात् मकान या मंदिर को शास्त्रोक्त विधि से बनाने की कला वास्तु शिल्प संबंधी शास्त्र बतलाते हैं । यूँ तो प्राचीन काल से ही युग की आदि में भगवान [[ऋषभदेव]] ने इस धरती पर मानव को कर्मभूमि की जीवन जीने की कला के अन्तर्गत षट् क्रियाएँ (असि-मसि-कृषि-विद्या-वाणिज्य एवं शिल्प) सिखाई थी। उसमें शिल्पकला के अन्तर्गत मंदिर-मकान आदि सब कुछ बनाने की विधि थी, उसी विधि के अनुसार उनके निर्माण होते चले आ रहे हैं, फिर भी वर्तमान में वास्तु शिल्प का प्रचलन कुछ अधिक ही हो गया है । वास्तुविद्या जहाँ मनुष्य के लिए सुख-शान्ति का आधार मानी गई है, वहीं कभी-कभी कुछ अधकचरे शिल्पज्ञों के द्वारा उसका दुरूपयोग किये जाने के कारण आज अनेक परिवार एवं समाज बड़े दुखी और अशान्त देखे जाते हैं ।
जैनधर्म के अनुसार वास्तु का महत्व
जैनाचार्यों ने प्रतिष्ठा ग्रन्थों में जिनमंदिर के निर्माण का वर्णन करते हुए लिखा है-
जैन चैत्यालय चैत्यमुतनिर्मापयन् शुभम् । वांछन् स्वस्य नृपादेश्च, वास्तुशास्त्रं न लंघयेत् ।।10।।( प्रतिष्ठा सारोद्धार)
अर्थात् अपना स्वयं का हित चाहने वाले को तथा साथ में राजा और प्रजा का कल्याण चाहने वाले को जिनमंदिर, जिनप्रतिमा और उनके उपकरण आदि वास्तुशास्त्रों के अनुसार ही बनाने चाहिए। वास्तुशास्त्र के नियमों का कि´चित् भी उल्लंघन नहीं करना चाहिए। जैसा कि कहा भी है-
शास्त्रप्रमाण के बिना यदि देवालय, मण्डप, गृह, दूकान और तल भाग आदि का विभाग किया जाएगा तो उसका फल विपरीत ही मिलेगा, अरिष्ट होगा, असमय में आयु का नाश होगा, पुत्रनाश, कुल-क्षय और मनस्ताप होगा । शिल्पशास्त्रियों ने कहा है कि-
अशास्त्रं मन्दिरं कृत्वा, प्रजा-राजा-गृहं तथा । तद्गृह-मशुभं ज्ञेयं, श्रेयस्तत्र न विद्यते ।।
अर्थात् शास्त्रविधि से रहित देवमन्दिर, राजा एवं प्रजा आदि किसी के भी घर बनाये जायेंगे तो वे गृह अशुभ की जानना। उस घर में निवास करना श्रेयस्कर नहीं हो सकता । समाज तो शिल्पज्ञान से और प्रतिष्ठा आदि के मुहूर्तज्ञान से प्रायः अनभिज्ञ है, किन्तु जो इस विषय के विद्वान् हैं वे भी (दीक्ष्ये विघ्नं प्रतिष्ठिते सिंहस्थिते सर्व-विसर्जनीयम् । रवौ सौम्यायने कुर्याद् देवानां स्थापनादिकम्, एवं शुभे मासे सिते पक्षे वर्तिते चोत्तरायणे) इन मूहूर्त विधानों की उपेक्षा कर अपनी-अपनी सुविधानुसार कार्य करने में संलग्न हैं । इसी का फल है कि आज के अधिकतम मानव दुखी देखे जाते हैं। वसुनन्दी जैसे महान् आचार्यों ने और पं. आशाधरजी जैसे विद्वानों ने भी प्रतिष्ठाशास्त्र लिखे हैं जिनमें यथाशक्य शिल्पविज्ञान, प्रतिमा विज्ञान एवं मुहूर्त आदि का विषय भी दिया गया है, आचारसारग्रन्थ के कर्ता वीरनन्दी स्वामी ने तो शिल्प संहिता नाम का पूरा ग्रन्थ ही लिखा है वह भी क्या आज के विद्वानों को पढ़ना चाहिए। मनुष्य अपनी सुख-शान्ति के प्रयोजन के लिए गृहों का और आत्मकल्याण की सिद्धि के लिए मन्दिरों का निर्माण कराते हैं । शिल्पविज्ञों ने कहा भी है कि-
जिनालय प्राणी के आश्रय के स्थान हैं । जितेन्द्रिय महापुरुषों की कीर्ति तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के कारणभूत और सर्व कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं । ‘डूबते को तिनके का सहारा’ इस नीति के अनुसार इस कलिकाल में आत्मशान्ति प्रदान करने में यही आयतन प्रमुख है, अतः इसका निर्माण-कार्य और प्रतिष्ठा-कार्य शास्त्रानुकूल ही होना चाहिए। जैसे अनेक व्यक्ति फूल के पौधों से अपनी इच्छा एवं रुचि के अनुसार फूल चुन-चुन कर अनेक प्रकार के पुष्पपात्रों की संरचना करते हैं, उसी प्रकार जिनेन्द्रमुखोद्भूत ‘वत्थुविज्जं’ अर्थात् वास्तु-विद्या का लेखन, पठन-पाठन एवं प्रकाशन अनेक विद्वानों ने और शिल्पज्ञों ने अनेक प्रकार से किया है । भवन के लिए भूमिचयन, शल्यशोधन, भवन-निर्माण के दिशागत निर्देश, भवन-निर्माण मुहूर्त, भवनों के प्रकार, अशुभ गृहों के लक्षण और फल, चौदह प्रकार के वेधों के लक्षण, गृहों का द्वार विवेचन, घर में कौन सा स्थान कहाँ है । अर्थात् पानी, रसोई, बैठक, पूजास्थान, अध्ययन स्थान, तिजोरीस्थान कहाँ तथा किस दिशा में होने चाहिए, आदि विषय अनेक वास्तुशास्त्रों में बहुत अच्छे ढंग से समझाये गये हैं । घर ही नहीं व्यवसाय-स्थल, दुकान तथा विद्यालय आदि को भी इसमें सम्मिलित किया जाता है । साथ ही अशुभ ग्रहों के दोष के निवारण हेतु परिहार बताकर पीडित लोगों को एक नई आशा मिलती है । देवपूजा के लिए जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, वीतरागी दिगम्बर गुरुओं के धर्मोपदेश-हेतु प्रवचन-हाल, स्वाध्याय के निमित्त सरस्वती-भवन एवं अपने निवास और मुनिराजों आदि के आहार-दान के लिए उम-गृह का निर्माण और मुनिराजों आदि के आहार-दान के लिए उत्तम-गृह का निर्माण गृहस्थ के कर्तव्यों में सम्मिलित है । अपने न्यायोपार्जित अर्थ के सदुपयोग और शुद्ध आहार-विहार के ये उत्कृष्ट साधन हैं । मंदिर और भवन-निर्माण में जो भूमि-खनन एवं शिलान्यास की विधि शुभ मुहूर्त में की जाती है, उसका एक उदाहरण स्मरणीय हैं । ‘अयोध्या’ तीर्थंकर ऋषभदेव आदि अनेक तीर्थंकरों की जन्म-भूमि शाश्वततीर्थ है । वहाँ मुगलकाल में एक दिगम्बर जैन-मंदिर के स्थान में मस्जिद का निर्माण करा दिया गया था । कालान्तर में वहाँ के हाकिम के पास जाकर एक दिगम्बर जैन कार्यकर्ता ने निवेदन किया कि ‘‘इस मस्जिद के स्थान पर पहले दिगम्बर जैन-मंदिर था । उसके प्रमाणस्वरूप जमीन के नीचे नींव में पूजा-सामग्री विद्यमान है ।’’ हाकिम ने भूमि खुदवाकर जब वह पूजा-सामग्री देखी, तो तत्काल उस स्थान पर जिनमंदिर-निर्माण की आज्ञा दे दी। आज भी हम शिलान्यास में ताम्रकलश, दीपक आदि नींव में रखते हैं । प्रशस्तियंत्र भी वहाँ स्थापित करते हैं । आध्यात्मिक शान्ति के लिए मंदिर एवं भौतिक सुरक्षा हेतु गृह आदि की निर्माण कला ‘‘वास्तुविद्या’’ है ।
आचार्य वीरसेन स्वामी ‘वास्तुविद्या’ के सम्बन्ध में लिखते हैं
‘‘वत्थुविज्जं भूमिसंबंधिणमण्णं पि सुहासुहं कारणं वण्णेदि।’’ अर्थ-वास्तुविद्या (जहाँ वास्तु का निर्माण किया जाना है, उस) भूमि से सम्बन्धित तथा अन्य (वास्तुनिर्माण-विधि आदि से सम्बन्धि) शुभ एवं अशुभ का तथा उसके (शुभाशुभ के) कारणों का वर्णन करती है । अन्यत्र कोशग्रन्थों में भी इस तथ्य की पुष्टि करते हुए कहा गया है कि-‘‘वास्तुनो गृह-भूमेर्विद्या वास्तुविद्या। वास्तुशास्त्रप्रसिद्धे गुण-दोष-विज्ञानरूपे कलाभेदे।’’ -(अभिधान राजेन्द्रकोश) अर्थ-‘वास्तु’ अर्थात् भवन और भूमि-दोनों से सम्बन्ध रखने वाली विद्या ‘वास्तुविद्या’ है । इसमें वास्तुशास्त्र के अनुसार वास्तु के गुणों और दोषों का विशेषज्ञान कराया जाता है । यह बहत्तर कलाओं का एक भेद मानी गयी है । ‘हलायुधकोश’ में भी कहा गया है कि- ‘‘वास्तुं संक्षेपतो वक्ष्ये गृहादौ विघ्ननाशनम् ।’’ अर्थात् संक्षेपतः ‘वास्तुविद्या’ का अर्थ घर आदि में विघ्नों का निवारण करने वाली विद्या या कला-विशेष ही ‘वास्तुविद्या’ है । जैनग्रन्थों में मूलतः वास्तुशास्त्रीय नियम-उपनियमों का निर्माण ‘जिनमंदिर’ की दृष्टि से हुआ है, जिसे नवदेवताओं में परिगणित किया गया है तथा जिसके लिये चैत्यालय चैत्यगृह आदि संज्ञाओं का प्रयोग भी प्राप्त होता है । चूंकि गृहस्थजन ‘घर’ में रहते हैं, अतः उनकी सद्बु़िद्ध रहे, धर्मकार्यों में रुचि-प्रवृत्ति रहे, बाह्य अनुकूलता भी रहे (ताकि परिणाम न बिगड़े) साथ ही उनका स्वयं का, उनके परिजनों का, ग्राम-नगर-राष्ट्र आदि का भी भला हो-इस दृष्टिकोण से घर-मकान आदि सांसारिक प्रयोजन से निर्मित भवनों को भी वास्तुशास्त्र के अनुसार बनवाने की प्रेरणा दी गयी है । सद्गृहस्थ को ‘सागार’ या ‘गृहवासी’ कहा गया है, फिर भी उसे धर्मात्मा माना गया है । ‘‘भरतजी घर में ‘वैरागी’’ जैसे वाक्यों में भी घर में रहकर भी वैराग्यभाव के पोषण का कथन है । अब यदि घर ही अशुभ होगा, गलत ढंग से निर्मित होगा तो उसमें निराकुलतापूर्वक धर्मध्यान एवं संयम-वैराग्य आदि के प्रशस्तकार्य कैसे संभव हो सकेंगे ? संभवतः इसी दृष्टि से ‘घर’ को भी शास्त्र की मर्यादा के अनुसार शुभकारक बनाने के लिये वास्तुशास्त्र में सांसारिक उपयोग के भवनों की भूमि एवं निर्माण कार्य-संबधी नियमावली भी बतायी गयी है । संभवतः इसीलिये आचार्य उग्रादित्य ने ‘कल्याणकारक’ (7/18) में कहा है-‘‘तत्रादितो वेश्मविधानमेव, निगद्यते वास्तु-विचारयुक्तम् ।’’ अर्थ-मकान आदि के निर्माण में (अन्य समस्त सामग्री-सहायकों-साधनों आदि के विचार से पूर्व) सर्वप्रथम वास्तुशास्त्रीय दृष्टि से (भूमिपरीक्षण, भवननिर्माण-योजना आदि का) विचार करने का विधान किया गया है । आचार्यदेव पुनः कहते हैं- ‘‘प्रशस्त दिग्देशकृतं प्रधानमाशागतायां प्रविभक्तभागम् ।’’ अर्थ-प्रशस्त (शुभ) दिशा एवं प्रशस्त क्षेत्र में वास्तुशास्त्रीय विधि से भवन-निर्माण करना चाहिये । उसमें भी जो प्रधान दिशा का श्रेष्ठ भाग है, उसी में विधिवत् निर्माणकार्य होना चाहिये ।
धवला में भी कहा है
‘धवला’ जैसे विशाल ‘जैनतत्वज्ञान-कोश’ ग्रन्थ में भी ‘वास्तुशास्त्र’ अथवा ‘वास्तु विद्या’ को पर्याप्त महत्व दिया गया है तथा ‘वास्तु’ के विभिन्न अंगों के बारे में अनेकत्र प्रकरणवशात् उल्लेख वहाँ प्राप्त होता है । यथा-
(1) ‘‘जिणगिहादीणं रक्खणट्ठप्पासेसु ठविद ओलित्तीओ ‘पागार’ णाम ।’’ अर्थ-जिनमंदिर आदि भवनों की रक्षा के लिए उनके चारों पार्श्वों में जो भीत (दीवार) बनायी जाती है, उसे ‘प्राकार’ या ‘परकोटा’ कहते हैं ।
(2) ‘‘वंदणमालबंधणट्ठं पुरदो ट्ठविद-रुक्खविसेसा ‘तोरण’ णाम ।’’ अर्थ-[[वंदनवार]] बाँधने के लिए द्वार के आगे (दोनों ओर) जो वृक्ष-विशेष लगाये जाते हैं, उन्हें ‘तोरण’ कहा गया है । इन दो उल्लेखों से स्पष्ट है कि जिनमंदिर आदि भवनों के चारों ओर परकोटा होना चाहिये, तथा इनके द्वारों पर मंगलस्वरूप ‘तोरण’ एवं ‘वंदनवार’ आदि की व्यवस्था होनी चाहिये । ज्ञातव्य है कि ये सभी वास्तुशास्त्रीय दृष्टि से शुभकारक वस्तुयें मानीं गयी हैं । ‘वास्तुविद्या’ के इतने व्यापक महत्व एवं लोकोपयोगित्व को दृष्टिगत रखते हुये पंडितप्रवर आशाधरसूरि ने प्रतिष्ठाचार्य को अनेक विषयों के साथ ‘वास्तुशास्त्र का विशेषज्ञ’ होना भी अनिवार्य बतलाया है- ‘‘श्रावकाध्ययन-ज्योति-र्वास्तुशास्त्र-पुराणवित् ।’’ अर्थात् प्रतिष्ठाचार्य को श्रावकाचार, ज्योतिषशास्त्र, वास्तुशास्त्र और पुराणग्रन्थों का जानकार विशेषज्ञ होना चाहिये । आचार्य भद्रबाहुकृत ‘भद्रबाहुसंहिता’ में तो ‘वास्तुशास्त्र’ के ज्ञान को ज्योतिष से भी महनीय प्रतिपादित किया है- ‘‘ज्योतिषं केवलं कालं, वास्तु-दिव्येन्द्रसम्पदा ।’’ अर्थ-‘‘ज्योतिष शास्त्र तो मात्र काल-सम्बन्धी ही कथन करता है, किन्तु वास्तुशास्त्र के अनुपालन से इन्द्र सदृश दिव्य सुख-साधन को प्राप्त होते हैं । जैनवास्तु-शास्त्र में ‘ईशान दिशा’ (उत्तर-पूर्व) का अत्यधिक महत्व दिया गया है
पं0 आशाधर सूरि लिखते हैं- ‘‘पूर्वैशान ;विदिग्भागे शान्त्यर्थं जगतामिह।’’ अन्यत्र भी कहा गया है-‘‘उत्तर-पुव्वा पुज्जा।’’ इसकी टीका में स्पष्ट किया गया है कि ‘‘उत्तर-पूर्वा च लोके पूज्या।’’ अर्थात् लोकदृष्टि से उत्तरपूर्व दिशा-ईशानकोण को पूज्य माना गया है । वास्तु-विद्या का महत्व वास्तु-विद्या का अर्थ है ‘भवन-निर्माण की कला’। इसी को प्राकृतभाषा में ‘वत्थु-विज्जा’,कहते हैं । धर्म, ज्योतिष, पूजापाठ आदि ने मिलकर वास्तुविद्या को अध्यात्म से जोड़ दिया, जिससे उसका प्रचार एक आचार-संहिता की भाँति हुआ है । उससे समाज की आस्था जुड़ी है । यही कारण है कि वास्तु-विद्या अतीत की वस्तु होते हुये भी वर्तमान की वस्तु उससे कहीं अधिक हो गई है । वास्तु-विद्या के प्रति आकर्षण प्राचीनकाल से अब तक बढ़ता ही रहा है । वर्तमान गगनचुंबी भवनों, समुद्राकार बाँधों आदि के निर्माण के वर्तमान सिद्धान्त मूलरूप में वे ही हैं, जो आरम्भ से प्रचलित रहे हैं । लगता है, वास्तु-विद्या के प्राचीन सिद्धान्तों पर प्राचीनकाल में उतना व्यापक निर्माण नहीं हो सका, जितना आज हो रहा है । आज यह विद्या ‘साईंस आफ आर्किटेक्चर’ के रूप में एक स्वतन्त्र विषय बन चुकी है । कई विश्वविद्यालयों में इस विद्या के अध्यापन के लिए स्वतन्त्र विभाग और महाविद्यालय स्थापित किए गए हैं । इस विषय पर उच्चतम स्तर पर शोधकार्य भी हो रहे हैं । वैज्ञानिक सुविधाओं और औद्योगिक आवश्यकताओं ने वास्तु-विद्या का एक अत्याधुनिकरूप विकसित किया है । इस विद्या के अप्रत्याशित चमत्कारों की प्रतीक्षा सहजभाव से की जाने लगी है, यही वास्तु-विद्या के महत्व का प्रमाण है । निर्माण-कार्य: प्राचीन और आधुनिक मानव-जीवन के अन्य क्षेत्रों की भाँति इस क्षेत्र में भी प्रबल क्रान्ति हुई है । प्राचीन परम्पराओं का स्थान अब नई-नई शैलियाँ और निर्माण-विधियाँ ले चुकी हैं । निर्माण की सामग्री भी अब आधुनिकतम आविष्कारों से पूरी तरह प्रभावित है । पत्थर का प्रयोग अब सजावट तक सीमित रह गया है । लकड़ी का स्थान प्लास्टिक आदि कृत्रिम पदार्थ लेते जा रहे हैं । सुन्दरता और सुविधा-सम्पन्नता के नए कीर्तिमान स्थापित हो चुके हैं । ज्योतिष, मंत्र तंत्र आदि पर आधारित वास्तु-विद्या के बदले रेखागणित, मौसम-विज्ञान, समाज-विज्ञान आदि को मान्यता मिल रही है । जनसंख्या के दबाव ने निर्माताओं को कम से कम भूमि पर अधिक से अधिक आवास-गृह जुटाने को विवश कर दिया है, इसलिए गगनचुंबी भवन खड़े किए जा रहे हैं, विशाल-विस्तृत काॅलोनियाँ और नगर बसाए जा रहे हैं । उद्योग-नगरियों का विकास सर्वत्र हो रहा है, आधुनिकतम कारखाने लगाए जा रहे हैं । सार्वजनिक सुविधाओं के साधन जुटाए जा रहे हैं । धार्मिक और सांस्कृतिक स्थानों के निर्माण की भी यही स्थिति है । पर्यावरण को सन्तुलित बनाए रखने के लिए वृक्षारोपण और उद्यान निर्माण को प्रोत्साहन दिया जा रहा है । आकर्षक पर्यटन स्थल अस्तित्व में आ रहे हैं । पशु-पक्षियों के लिए अभयारण्यों का विकास हो रहा है । परन्तु परम संतोष का विषय है कि भवन-निर्माण कला के इस प्रबल परिवर्तन के युग में भी प्राचीन वास्तु-विद्या का स्मरण किया जाता है । धर्म और वास्तु-विद्या के भूले-बिसरे सम्बन्ध पुनः स्थापित किए जाने लगे हैं । अनेक निर्माता, स्थपति (आर्किटेक्ट) और वास्तुविद् प्राचीन वास्तुशास्त्रीय सिद्धान्तों का सहारा ले रहे हैं । अनेकानेक गृहस्थ और उद्योगपति अपने भवनों और मकानों के वास्तु-विद्या के अनुरूप सुधार कराते देख जा सकते हैं । इस मान्यता पर लोगों का विश्वास आज भी है कि दिशा बदलने से दशा बदल सकती है ।
वास्तु’ शब्द का अर्थ
‘वास्तु’’ शब्द संस्कृत की ‘वस्’ क्रिया से बना है, जिसका अर्थ है ‘रहना’। मनुष्यों, देवों और पशु-पक्षियों के उपयोग के लिए मिट्टी, लकडी, पत्थर आदि से बनाया गया स्थान ‘वास्तु’ है । संस्कृत का ‘वसति’ और कन्नड़ का ‘बसदि’ शब्द भी वास्तु के अर्थ में ही हैं । हिन्दी का ‘बस्ती’ शब्द भी वास्तु से सम्बद्ध है, परन्तु वह ग्राम, नगर आदि के अर्थ में प्रचलित हो गया है । ‘तत्वार्थ-सूत्र’ में आचार्य उमास्वामी ने सोना-चाँदी, धन-धान्य, दासी-दास, कुप्य-भाण्ड से भी पहले क्षेत्र और वास्तु को स्थान देकर वास्तु-विद्या को दो हजार वर्ष पहले जो दिया था, वह आज भी विद्यमान है । ‘वास्तु’ और ‘स्थापत्य’ शब्दों की एकरूपता ‘वास्तु’का ही अर्थ देने वाला संस्कृत शब्द है ‘स्थापत्य’। वह ‘स्था’ क्रिया से बना है, जिसका अर्थ है: रहना, ठहरना, टिकना आदि। इसके लिए अंग्रेजी में ‘आर्किटेक्चर’ और उर्दू में ‘इमारत’ शब्द हैं । चार उपवेदों में से एक का नाम है ‘स्थापत्य-वेद’, ‘हिन्दी-शब्दसागर’ के अनुसार इसे विश्वकर्मा ने ‘अथर्ववेद’ से निकाला था ।
वास्तु-विद्या और ‘कला’ की समानता
द्वादशांग जिनवाणी के बारहवें अंग ‘दृष्टिवाद’ के अन्तर्गत चौदह पूर्वों में क्रिया-विशाल नामक तेरहवें पूर्व में विविध कलाओं और विधाओं का समावेश है, जिनमें ‘वास्तु विद्या’ भी एक है । समवायांग सूत्र’ के अनुसार चौंसठ कलाओं में छप्पनवीं से इकसठवीं तक की छह कलाएँ वास्तव में वास्तुविद्या की ही विभिन्न शाखाएँ हैं । उनके नाम हैं: स्कंधावार-मान (सैन्य शिविरों की लंबाई-चैड़ाई), नगर-मान, स्कंधावार-निवेश वास्तु निवेश और नगर-निवेश। कालान्तर में वास्तु-विद्या एक स्वतंत्र विषय बन गई, तब भी ये छहों रूप कलाओं में सम्मिलित बने रहे । विद्याओं और कलाओं में कई दृष्टियों से समानता है, दोनों की अधिष्ठात्री देवी ‘सरस्वती’ है, जिसका एक नाम है ‘ब्राह्मी। तीर्थकर ऋषभनाथ की ज्येष्ठ पुत्री का नाम भी ब्राह्मी था, उसने लिपि-विद्या का प्रवर्तन किया था । उस सरस्वती और इस ब्राह्मी में और भी कई बातों में एकरूपता है । अतः कहा जा सकता है कि ‘‘वास्तु-विद्या का प्रवर्तन ब्राह्मी से हुआ था ।’’
वास्तु-विद्या: अतीत पर विहंगम दृष्टि
मनुष्य की तीन मौलिक आवश्यकताएँ हैं: रोटी, कपड़ा और मकान-यह कथन इतिहास, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान की दृष्टि से है । मनोविज्ञान की दृष्टि से पाँचवीं शताब्दी में आचार्य पूज्यपाद ने ‘इष्टोपदेश’ में लिखा था ‘‘जो जहाँ रह रहा हो, वह वहीं रम जाता है, वह जहाँ रम जाता है, वहाँ से कहीं और नहीं जाना चाहता ।’’ उनसे भी पूर्व प्रथम शती ई0 में आचार्य समन्तभद्र ने ‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ में दान के जो चार प्रकार बताए थे, उनमें एक आवास भी है, यह धार्मिक दृष्टि है । प्राकृतिक गुफाओं को काट-छाँटकर वनवासी साधुओं के रहने योग्य बनाने की परम्परा इसीलिए चली। दक्षिण भारत में, विशेषतः कर्णाटक में मंदिरों के साथ ‘मुनि-वास’ बनाने की प्रथा आज भी है, इसीलिए वहाँ मन्दिर को ‘बंसदि (बसति)’ कहते हैं । आवास के धार्मिक महत्व से मंदिर स्थापत्य का विकास हुआ होगा। दसवीं शताब्दी में आचार्य वीरसेन ने ‘षट्खण्डागम’ की अपनी ‘धवला’ नामक टीका में संकेत किया था कि ‘‘वास्तु-विद्या में भूमि के सन्दर्भ में शुभाशुभ फलों का विधान होता है ।’’ पौराणिक आख्यानों से स्थापत्य के आकार-प्रकार में विविधता आई। इसमें सहायता की ‘लोक-विद्या’ (काॅस्मोलाॅजी) ने, जिसमें मध्यलोक नन्दीश्वरद्वीप जम्बूद्वीप, भरत क्षेत्र, विदेह क्षेत्र, मेरु पर्वत आदि की अद्भुत अपूर्व रचनाओं के विस्तृत वर्णन हैं ।
उमास्वामी श्रावकाचार में क्या कहा है ?
श्री उमास्वामी आचार्य ने अपने श्रावकाचार में अनेकानेक विषयों के अन्तर्गत वास्तु के सम्बन्ध में श्लोक नं. 112-113 में कहा है-
अर्थ-श्रावक को अपने घर के विभाग इस प्रकार बनाने चाहिये-‘‘पूर्व दिशा की ओर शोभागृह (बैठक का कमरा), आग्नेय दिशा में रसोईघर, दक्षिण दिशा में शयन करने का स्थान, नैऋत्य दिशा में आयुधशाला, पश्चिम दिशा में भोजनगृह, वायव्य दिशा में धन संग्रह करने का घर, उत्तर दिशा में जल स्थान (परण्डा) और ईशान दिशा में देवस्थान बनाना चाहिये ।’’ इसी प्रकार इसमें गृह[[चैत्यालय]] बनाने का पूरा नियम बताया है-
अर्थात् गृह में प्रवेश करते समय जिस दिशा में अपना बायां अंग हो, घर के उसी भाग में चैत्यालय बनवाना चाहिये । चैत्यालय शल्य रहित उत्तम भूमि में बनवाना चाहिये अर्थात जिस भूमि में हड्डी आदि किसी मलिन पदार्थ के रहने का संदेह न हो ऐसे स्थान में चैत्यालय नहीं बनना चाहिये । उस चैत्यालय में वेदी की ऊँचाई डेढ़ हाथ होनी चाहिये । यदि वेदी की ऊँचाई डेढ़ हाथ से कम होगी तो वह बनवाने वाला अपनी संतति के साथ ही नीचता को प्राप्त होगा। अर्थात् वेदी की ऊँचाई डेढ़ हाथ होनी चाहिये । इससे न तो ऊँची होनी चाहिये और न नीची होनी चाहिये । यहाँ पर विशेषरूप से जिनमंदिर और अपने रहने के मकान बनाने हेतु वास्तुशिल्प का अतिसंक्षेप में परिचय दिया गया है । विस्तृत वर्णन वास्तुशास्त्रों से पढ़ें अथवा वास्तुशास्त्रियों से सलाह करके ही कोई निर्णय लेवें। आजकल कुछ स्थानों पर वास्तुशिल्प के नाम पर अनेक प्राचीन शिखरबन्द मंदिरों को पूरा तोड़कर धराशायी किया जा रहा है, कई श्रेष्ठियों के मकान-कोठी-बंगला आफिस दुकान आदि वास्तुदोष को शिकार बनकर तोड़े-फोड़े जा रहे हैं…… आदि। किन्तु उसके पीछे वास्तविकता ज्ञात करने पर तथ्य प्राप्त होता है-वास्तुशास्त्रों का अधकचरा ज्ञान । अतः आप सभी से मेरा कहना है कि प्राचीन शिखर बन्द मंदिरों को तोड़ने का अतिसाहस न करके उनके पुरातत्व को सदैव सुरक्षित रखें और पुराने पूर्वतों द्वारा निर्मित मकानों में भी अच्छे अधिकृत वास्तुशास्त्रियों से सलाह करके बिना तोड़फोड़ किये भी उनमें किञ्चित् सुधार के द्वारा धन का अपव्यय बचाया जा सकता है । center”100px]]