जैनदर्शन में वर्णित विग्रहगति की अन्य दर्शनों से तुलना
– प्रा. डॉ० शीतल चन्द जैन
भारतीय दर्शन में जैनदर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है। इसका मुख्य कारण जैन दार्शनिकों का चिंतन युक्तिपूर्ण तो है ही और पूर्वपक्ष को प्रमाणों के साथ प्रस्तुत करना भी है। ऐसे महान् दार्शनिक चिंतकों में तार्किक चूडामणि आचार्य विद्यानंद ने अपने प्रखर पाण्डित्य से वैशेषिक आदि वैदिक दर्शनों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म तर्कों से अनेकानेक सिद्धान्तों का निरसन किया। उन सिद्धांतों में आचार्य उमास्वामी द्वारा विरचित तत्त्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याय के २५वें सूत्र विग्रहगतौ कर्मयोगः’ को अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार में विस्तार से व्याख्यायित किया है कि संसारी जीव के मर जाने पर यानी भुज्यमान आयु के समाप्त होने पर तथा पूर्व जन्म सम्बन्धी शरीर के नष्ट होने पर और द्रव्यमान का भी विनाश हो चुकने पर आत्मा असहाय हो जाती है, तब अगले भव में जीव का जहाँ जन्म होना है, उस योग्य क्षेत्र में जीव कैसे प्रवृत्ति करेगा ? इस प्रश्न का समाधान भारतीय दार्शनिकों ने अपने-अपने मत से दिया है, परन्तु आचार्य विद्यानंद ने उन मतों का निरसन भी किया है। सर्वप्रथम विग्रहगतौ कर्मयोगः इस सूत्र के प्रत्येक पद को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि विग्रहो देहः गतिगमनक्रिया विग्रहाय गतिः विग्रहगतिः । यद्यपि विग्रह शब्द के अनेक अर्थ हैं, परन्तु यहाँ पर विग्रह शब्द का अर्थ ‘शरीर’ अभिप्रेत है। अर्थात् विग्रह यानी शरीर के लिये जो गति यानी गमन होता है, वह विग्रहगति है। तथा कर्म का अर्थ आत्मा में प्रवाहरूप से उपचित हो रहा कार्मण शरीर है। कर्मस्वरूप ही जो योग है, वह कर्मयोग है। अर्थात् कार्माण शरीर का अवलम्बन लेकर आत्मप्रदेशों में कम्पनस्वरूप क्रिया कर्मयोग कहलाता है। पूर्व उपात्त शरीर को छोड़कर उत्तर शरीर के प्रतिगमन के समय अंतराल में जो गति, गमन क्रिया होती है, उसमें कर्मयोग होता है।
अतः इसको इस प्रकार कह सकते हैं कि पूर्व शरीर को छोड़कर उत्तर शरीर के अभिमुख हो, जाते हुए जीव के अंतराल में कर्मादान यानी कर्मग्रहण करने की सिद्धि होती है, अर्थात् विग्रहगति में भी कर्म आते रहते हैं।
आचार्य विद्यानन्द महाराज ने जो उक्त सूत्र को व्याख्या लिखी है पूर्ववर्ती आचार्य पूज्यपाद, अकलंक’ स्वामी एवं वीरसेन’ आचार्य के अनुर ही लिखी है, परन्तु कर्मादान की युक्तिपूर्वक सिद्धि आचार्य विद्यानंद ने ही क है। लिखते हैं –
गमन के समय विग्रहगति कार्माण काययोग होता है अन्यच्या विग्रहगति में कर्मों के सम्बन्ध से रहित हो जाने से आकाश के समान सर्वथा कर्मशून्य हो जायेगा अर्थात् मुक्तात्मा के समान कर्मलेप से रहित थी जायेगा। ऐसी दशा में मरण के अनन्तर मुक्ति हो जायेगी।
आचार्य विद्यानंद स्वामी ने उक्त कारिका में प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण के द्वारा यह बतलाया है कि जो प्रतिवादी शरीर के निमित्त हो रही जीव की गति में कर्मयोग को कारण नहीं मानता है, उनके यहाँ आकाश के समान दृष्टान्त देकर अत्यन्ताभाव और मुक्तात्मा के समान दृष्टान्त द्वारा कर्मों के सद्भावपूर्वक रिक्तता को सिद्ध करता है। और साथ में विपर्यय हो जाने का प्रसंग आयेगा अर्थात् वह मुक्तात्मा पुनः कर्मों से लिप्त हो जायेगी।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार आत्मा व्यापक है। अतः उत्तरभाव के जन्मस्थानों में पहले से ही ठहरा हुआ है। एतदर्थ उत्तर शरीर को ग्रहण करने के लिए गमन की कोई आवश्यकता नहीं है। पहले के योग और कर्मबंध सब वैसे के वैसे ही बने रह सकते हैं। फिर हमारे ऊपर आकाश या मुक्तात्मा के समान कर्मरहितपने का प्रसंग या विपर्यय हो जाने का दोष नहीं आयेगा।
आचार्य विद्यानंद स्वामी आत्मा के व्यापकपने का निषेध और उसका गतिपना सिद्ध करने के लिए दो हेतुओं का प्रयोग करते हुए कहते हैं कि क्रिया के हेतु, गुणयुक्त होने से आत्मा के गतिपना है अर्थात् आत्मा व्यापक नहीं है, अपितु क्रियावाला है। जैसे कि फेंके जा रहे ढेले में क्रिया का हेतु प्रयत्न या जीव विपाकी गतिकर्म के उदय से होने वाला गतिभाव नामक गुण (पर्याय) विद्यमान है, क्योंकि शरीर में उसके द्वारा की गई क्रिया देखी जाती है। इसको इस प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं कि जिस समय देवदत्त हाथ को ऊँचा उठा रहा या चला रहा है, उस आत्मा में क्रिया का उत्पादक प्रयत्न गुण अवश्य है अन्यथा शरीर के अवयवों में उठाना या पाँवों का चलाना आदि क्रियाएँ नहीं देखी जा सकती थी। अतः संपूर्ण शरीर में ओतप्रोत आत्मा हो उठती, चलती, फिरती है। इस प्रकार दो हेतुओं से आत्मा में गति सिद्ध होती है।
वैशेषिक दार्शनिकों का मानना है कि आत्मा के देश से देशान्तर होना रूप गति नहीं है, क्योंकि जगत् के सभी स्थानों में प्राप्त होती है। जैसे विभु आकाश। इसका निरसन करते हुए आचार्य विद्यानन्द ने उत्तर दिया है कि” सर्वगत्व हेतु असिद्ध है। पक्ष में नहीं रहने से क्योंकि आत्मा स्वदेह प्रमाण है जिसका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष सभी जीवों को स्व-स्व शरीर में हो रहा है अर्थात् किसी भी जीव को अपनी आत्मा का संवेदन बाहर नहीं होता। अतः आत्मा अणुपरिमाण या महापरिमाण वाला नहीं है। यदि ऐसा माना जायेगा तो व्यवहार सांकर्य हो जायेगा।
न्याय-वैशेषिक दर्शन में आत्मा व्यापक मान्य है। आत्मा को व्यापक सिद्ध करने के समर्थन में अनेक हेतु दिये गये हैं, जो दृष्टव्य हैं
आत्मा व्यापक है क्योंकि पृथ्वी, जल, तेज, वायु और मन इन पाँच मूतों से भिन्न होने से, देवदत्त के सैकड़ों, हजारों कोस दूर बन रहे वस्त्र अलंकार देवदत्त की आत्मा के गुणों द्वारा संपादित किये जाते हैं क्योंकि उसके उपकारक होने से, आत्मा सर्वत्र जाने जा रहे गुणों के आधार होने से, आत्मा हम सभी के जानने योग्य गुणों का अधिष्ठान होने से, आत्मा द्रव्य होते हुए अमूर्त होने से, आत्मा मन से भिन्न होता हुआ स्पर्शरहित द्रव्य होने से। इन छह हेतुओं के द्वारा आत्मा को व्यापक सिद्ध करने का प्रयास किया गया, परन्तु आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने विस्तार से निरसन करते हुए कहा कि उक्त सभी हेतु प्रत्यक्षबाधित हैं, जैसे कि मिश्री का मीठापन प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा गृहीत हो रहा है, ऐसी दशा में दो चार तो क्या सहस्रों हेतु भी मिश्री को कड़वी सिद्ध करने में समर्थ नहीं है। उसी प्रकार शरीर में ही आत्मा का स्वसंवेदन हो रहा है। अतः आत्मा के व्यापकत्व को साधने वाले सभी हेतु अकिंचित्कर हैं।
इसी प्रकार वैशेषिकों को द्वारा प्रयुक्त किया गया नित्यत्व, अमूर्तत्व और विभुत्व हेतु ईश्वरज्ञान के द्वारा व्यभिचारी सिद्ध होता है, क्योंकि ईश्वरज्ञान के अमूर्तत्व और नित्यत्व होते हुए भी व्यापक नहीं है। ईश्वरज्ञान को अनित्य कहेंगे तो, ग्रहीतग्राही होने से धारावाहिक ज्ञान के समान ईश्वरज्ञान प्रामाणिक नहीं हो सकता है। यदि गृहीत ग्राही और अनित्य होने पर भी ईश्वरज्ञान में अप्रमाणता नहीं स्वीकारोगे तो स्मृति, प्रत्यभिज्ञान को भी वैशेषिकों को स्वीकार करना पड़ेगा, सो उनको इष्ट नहीं है।
उपर्युक्त सूक्ष्मातिसूक्ष्म तों से यह सिद्ध हुआ कि न्याय-वैशेषिक दर्शन में आत्मा में गति क्रिया सिद्ध होना संभव नहीं है। अतः जैनदर्शन में पूर्वाचार्यों ने जैसा स्वीकार किया है, वैसा ही आचार्य विद्यानंद स्वामी ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार में “विग्रहगतौ कर्मयोगः” को व्याख्यापित कर पञ्चावयवों का प्रयोग कर निम्न प्रकार से आत्मा में गति सिद्ध की है।” कहते हैं कि ‘आत्मा में (पक्ष) क्रिया के हेतुभूत गुणों का सम्बन्ध हो रहा है। (साध्य) शरीर में उन गुणों से की गयी क्रिया प्रत्यक्ष ज्ञान होने से (हेतु) जहाँ जिसके द्वारा की गई क्रिया का उपलब्ध हो रहा है, वहाँ क्रिया के हेतुभूत गण का सम्बन्ध है। (अन्वयदृष्टांत) जैसे कि वृक्षस्वरूप वनस्पति में वायु द्वारा की गयी क्रिया का उपलम्भ होने से वायु में क्रियाहेतु वेग या ईरण (धक्का देना) विद्यमान है। उसी प्रकार काया में आत्मा द्वारा की गयी क्रिया का उपलम्भ हो रहा है। (उपनय) अतः इस कारण से शरीरी आत्मा में क्रिया के हेतुभूत गुणों का संबन्ध है (निगमन) इस प्रकार क्रिया के सम्पादक गुणों का सम्बन्ध हो रहा होने से आत्मा में गतिक्रिया सिद्ध होती है। इस प्रकार परिणमनशील संसारी जीव के अन्य शरीर की प्राप्ति के लिए जो गति की जाती है, वह विग्रहगति है।
आचार्य विद्यानन्द स्वामी द्वारा न्याय-वैशेषिक मत का विस्तार से खण्डन कर बौद्धदर्शन, सांख्ययोगदर्शन का भी संक्षेप में खण्डन किया है।
बौद्धदर्शन का खण्डन करने में मात्र दो कारिकाओं का उल्लेख किया है, जिसमें कहा है कि- १५
क्षणिकं निष्क्रियं चित्तं स्वशरीरप्रदेशतः ।
भिन्नं चित्तातरं नैव प्रारभेत सविग्रहम् ।।
सर्वकारणशून्ये हि देहे कार्यस्य जन्मनि ।
काले वा न क्वचिज्ज्ञातुमस्य जन्मन सिद्धयति ।।
पूर्व क्षण में उत्पन्न होकर दूसरे क्षण में समूल नष्ट हो जाने वाला निष्क्रिय क्षणिक चित्त (आत्मा) स्वशरीर प्रदेश से भिन्न शरीर सहित दूसरे चित्त (आत्मा) को उत्पन्न नहीं कर सकता।
बौद्ध आत्मद्रव्य को क्षणिक, निष्क्रिय अणुविज्ञान स्वरूप मानते हैं। पहले समय का चित्त सर्वथा नष्ट हो जाता है। दूसरे समय में सर्वथा नवीन चित्त उपजता है। उनके यहाँ की यह दशा बालक, युवा, वृद्धावस्थाओं में भी घटना कठिन है, क्षणिक चित्त (आत्मा) जन्मान्तर में जाकर उपज जाय, यह तो असम्भव ही है।
बौद्ध तो बाण का भी देशान्तर में पहुँच जाना नहीं मानते हैं। पूर्व प्रदेशों पर स्थित हो रहा बाणस्वरूप अवयवों की राशि सर्वथा नष्ट हो जाती है। अगले प्रदेशों पर दूसरे समय में अन्य ही बाण उपजता है। यही उत्पाद विनाश का क्रम लक्ष्यदेश की प्राप्ति तक बना रहता है। वही का वही बाण लक्ष्य तक पहुँच पाता है। बौद्धों को असत् के उत्पाद और सत के विनाश जाने का डर नहीं है। घूमते हुए चाक में भी वे क्रिया न मानकर प्रत्येक प्रदेश पर नवीन-नवीन चाक का उत्पाद-विनाश स्वीकार करते हैं। ऐसा सिद्धान्त मानने पर निष्क्रिय चित्त भला जन्मान्तर में जाकर दूसरे चित्त को नहीं उत्पन्न करा सकता है। अतः बौद्धों के यहाँ विग्रहगति सम्भव नहीं है।
इसी प्रकार सांख्य दर्शन जो कूटस्थ नित्यवादी हैं। उसके सिद्धान्त में भी विग्रहगति संभव नहीं है, क्योंकि सर्वथा कूटस्थ नित्य आत्मा भी पूर्व शरीर को छोड़ नहीं सकता और उत्तम शरीर को ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि पूर्व शरीर को छोड़कर उत्तर शरीर को ग्रहण करने पर आत्मा के अनित्यत्व का प्रसंग आयेगा। आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने दो कारिकाओं में कूटस्थ नित्यवादी का खण्डन किया है, जो इस प्रकार दृष्टव्य है
विग्रहगति को व्याख्यायित करने में आचार्य विद्यानन्द स्वामी है। परन्तु विग्रह गति के सम्बन्ध में उक्त दार्शनिकों के अतिरिक्त ज प्रमुख रूप से नैयायिक-वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध दार्शनिकों का खण्डन कि चार्वाक दर्शन तो मरणोपरान्त आत्मा विचार करते हैं, तो ज्ञात होता है कि का अस्तित्व ही नहीं मानता और मीमांसा एवं वेदान्तदर्शन में मीमांसा तो ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य आत्माओं का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार ही नहीं करता है। इसलिए विग्रहगति का कोई प्रश्न ही नहीं और वेदान्तदर्शन है अद्वैतवादियों के भी आत्मा पृथक् नहीं और द्वैतवादी कहते हैं कि
अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ।।
महाभारत / वनपर्व/३०/२८
अर्थात् यह यज्ञ और शक्तिहीन प्राणी अपने सुख-दुःख के अनुसार ईश्वर प्रेरित होकर स्वर्ग अथवा नरक को जाता है।
इस प्रकार द्वैतवादियों के भी विग्रहगति की व्यवस्था ईश्वर और यमराज एवं यमदूत के अधीन हैं। अतः स्पष्ट है कि आचार्य विद्यानन्द स्वामी नै तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार में उन्हीं दार्शनिकों से विचार-विमर्श करना चाहा जी आत्मा के पृथक् अस्तित्व स्वीकार करते हैं। क्योंकि जो आत्मा का पृथक अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं, उनके मत में विग्रहगति सम्भव नहीं है। अतः आचार्य विद्यानन्द महाराज ने पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित विग्रहगतौ कर्मयोगः इस सूत्र के अनुसार ही अपने मन्तव्य को अनेक तकों के माध्यम से स्पष्ट किया है, जो उत्तरवर्ती आचार्यों के लिए अनुकरणीय रहा।
जैनदर्शन में विग्रहगति तो स्वीकार की है, उसके आगे भी विचार किया है कि वह विग्रहगति कितने प्रकार की है। उस विषय में आचार्य उत्तर देते हैं कि वह विग्रहगति चार प्रकार की है – इषुगति, पाणिमुक्ता, लांगलिका और भीत्रिका। इषुगति विग्रहरहित और शेष विग्रहसहित होती है। धनुष से छूटे हुए बाण के समान मोडरहित गति को इषुगति कहते हैं। इस गति में एक समय लगता है। जैसे हाथ से तिरछे फेंके गये द्रव्य की एक मोड़े वाली गति होती है, उसी प्रकार संसारी जीवों के एक मोड़े वाली गति को पाणिमुक्ता गति कहते हैं। यह गति दो समय वाली होती है। जैसे हल में दो मोड़े होते है, उसी प्रकार दो मोड़े वाली गति को लांगलिका गति कहते हैं। यह गति तीन समय वाली होती है। जैसे गाय का चलते समय मूत्र का करना अनेक मोड़ों वाला होता है, उसी प्रकार तीन मोड़ों वाली गति को गोमूत्रिका गति कहते हैं। यह गति चार समय वाली होती है। यहाँ तक सशरीरी आत्मा के गमन पर विचार किया जो विग्रह गति कहलाती है।
यहाँ यह भी विचारणीय है कि मुक्त जीव और संसारी जीव का गमन कैसे होता है ? इस सम्बन्ध में आचार्य उमास्वामी महाराज ने क्रमशः दो सूत्र दिये हैं, जिसमें अविग्रहा जीवस्य इस सूत्र से समाधान दिया गया है कि मुक्त जीव का गमन बिना मोड़ लिये ही होता है। क्योंकि गति की वक्रता के प्रति होने वाले निमित्त कारणों का अभाव होने से और दूसरी युक्ति दी गयी कि मुक्त जीव के ऊर्ध्वागमन का स्वभाव है।
दूसरा सूत्र दिया गया है कि विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्थ्यः अर्थात् संसारी जीव के चार समय वाली यानी मोड़ वाली भी गति होती है, जो पूर्व में बता दिया गया है। ‘एक समया विग्रहा’ इस सूत्र के अनसार बिना मोड़ वाली ऋजुगति एक समय वाली होती है। प्रश्न होता है कि एक समय बाली अविग्रह गति किस की होती है। उत्तर दिया गया कि मुक्त और संसारी होनें की होती है परन्तु यह ध्यातव्य है कि ‘एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः’ अर्थात् विग्रहगति में यह जीव एक, दो, तीन समय तक अनाहारक रहता है परन्तु इषुगति वाला संसारी जीव एक समय पूर्व ही अहारक हो जाता है। इस प्रकार छह सूत्रों के माध्यम से विग्रहगति का विस्तार से विवेचन है।
संदर्भ :
१. तत्त्वार्थसूत्र अ. २/२५
२. तत्त्वार्थसूत्र पृ. १७१
३. वही,पृ. संख्या १७२
४. स.नि. २/२५/१८२/७
५. राजवार्तिक २/२५/१/१३६/३0 छ. १/१/६०/११४
६. छ. १/१/११ ६०/२९९/९
७. तत्त्वार्थश्लोक १७२, पृ. मा. १
८. वही, पृ. १७२
९. वही, पृ. १७४/अ. २ का
१०. सर्वगत्वाप्रतिः पुसः…. कार्यमात्रत्ववेदनात्/ पृ. १७४/ का ३
११. वही
१२. विभुपुमानमूर्तत्वे…।। श्लोकवाति. पृ. १७५/का.४
१३. हेतुरीश्वर बोधेन …. शास्त्रबाधिता/ पृ. १७६/का. ५
१४. गतिमानात्मा क्रियाहेतु …./ पृ. १७६
१५. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिका / पृ.१९७/का.३०/५
१६. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिका/पृ.१९८/का.६, ७/सू. ५
१७. महाभारत/वनपर्व/३९/२८
अनेकांत पत्रिका जनवरी -मार्च, २०१५
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