अब अन्य मेरुपर्वतों पर स्थित वनों के अन्तराल निरूपण के बहाने से उन मन्दर मेरुओं की उँचाई का प्रमाण कहते हैं—
गाथार्थ – अन्य चार मेरु पर्वतों पर भी मेरु के मूल अर्थात् पृथ्वी पर भद्रशाल वन है, इसके ऊपर क्रम से पाँच सौ योजन, पचपन हजार पाँच सौ और अट्ठाईस हजार योजन जा-जाकर अन्य वनों की अवस्थिति है। इन्हीं अन्तरालों के योग का प्रमाण मेरु पर्वतों की उँचाई का प्रमाण है। पाँचों मेरु पर्वतों का गाध-नींव का प्रमाण एक हजार योजन है।।६०९।।
विशेषार्थ – जम्बूद्वीप सम्बन्धी विदेह स्थित मेरु के अतिरिक्त दो मेरु धातकीखण्ड में और दो मेरु अर्धपुष्कर द्वीप में स्थित हैं। चारों मेरु पर्वतों के मूल में भद्रशाल वन है; इस वन से ५०० योजन ऊपर नन्दनवन, ५५,५०० योजन ऊपर जाकर सौमनसवन और २८००० योजन ऊपर जाकर पाण्डुक वन की अवस्थिति है। इन चारों वनों के अन्तराल का योग (५०० ± ५५५०० ± २८०००) · ८४००० योजन है। यही ८४००० योजन प्रत्येक मेरु पर्वत की उँचाई का प्रमाण है। पाँचों मेरु पर्वतों का गाध अर्थात् नींव १००० योजन ही है। उन वनों के विस्तार का वर्णन करते हैं— गाथार्थ – सुदर्शन मेरु के भद्रशाल वन की (पूर्व पश्चिम दिशा की) चौड़ाई २२००० योजन, नन्दन वन की ५०० योजन, सौमनस वन की ५०० योजन और पाण्डुक वन की ४९४ योजन है। सुदर्शन मेरु के भद्रशाल वन को छोड़कर सभी मेरु पर्वतों के नन्दनादि तीनों वनों की चौड़ाई का प्रमाण सदृश ही है।।६१०।।
विशेषार्थ –सुदर्शन मेरु के भद्रशाल वन की चौड़ाई पूर्व दिशा में २२००० योजन, पश्चिम दिशा में २२००० योजन (दक्षिण में २५० और उत्तर में भी २५० योजन) है। पाँचों मेरु पर्वतों के नन्दन वनों की चारों दिशा की चौड़ाई का प्रमाण ५०० योजन है। पाँचों सौमनस वनों की चारों दिशा की चौड़ाई का प्रमाण भी ५०० योजन ही है तथा पाँचों पाण्डुक वनों की चारों दिशा की चौड़ाई का प्रमाण ४९४ योजन है। तात्पर्य यह हुआ कि सुदर्शन मेरु के भद्रशाल वन को छोड़कर पाँचों मेरु पर्वतों के नन्दनादि वनों का प्रमाण सदृश ही है। उन चारों वनों में स्थित चैत्यालयों की संख्या कहते हैं—
गाथार्थ –प्रत्येक मेरु पवर्त के ऊपर प्रत्येक वन की प्रत्येक दिशा में एक-एक जिनालय शोभायमान हैं, जिनका वर्णन मैं (श्री नेमिचन्द्राचार्य) आगे करूँगा।।६११।। विशेषार्थ – प्रत्येक मेरु पर्वत पर भद्रशाल आदि चार-चार वन हैं और प्रत्येक वन की चारों दिशाओं में एक-एक जिनचैत्यालय है। इस प्रकार पञ्चमेरु सम्बन्धी १६ वनों के ८० जिनचैत्यालय शोभायमान हैं; जिनका वर्णन अन्य चैत्यालयों के वर्णन के बाद नन्दीश्वर द्वीप के वर्णन के अवसर पर ग्रन्थकर्ता करेंगे। धातकीखण्डद्वीप और पुष्करार्धद्वीप में दो-दो इष्वाकार पर्वत के जिनमंदिर धातकीखण्ड और पुष्करार्ध में क्षेत्र व पर्वतादि एक प्रकार के हैं। इनमें क्षेत्रों का विभाग करने वाले दोनों पाश्र्व भागों में स्थित इष्वाकार पर्वतों को कहते हैं—
गाथार्थ —दोनों द्वीपों के दक्षिणोत्तर दिशा में चार इष्वाकार पर्वत हैं जो स्वर्णमय और चार-चार कूटों से संयुक्त हैं। जिनका एक हजार योजन व्यास, निषध कुलाचल सदृश उदय और अपने-अपने द्वीपों के व्यास प्रमाण लम्बाई है तथा जो दक्षिण और उत्तर दिशा में एक-एक स्थित हैं एवं दक्षिणोत्तर लम्बे हैं।।९२५।।
विशेषार्थ — धातकीखण्ड और पुष्करार्ध द्वीपों की दक्षिणोत्तर दिशा में स्वर्णमय चार इष्वाकार पर्वत हैं। ये चारों पर्वत चार-चार कूटों से संयुक्त हैं, उनकी पूर्व पश्चिम चौड़ाई १००० योजन प्रमाण है। निषध कुलाचल सदृश ४०० योजन उँचे हैं तथा अपने-अपने द्वीपों के व्यास सदृश चार और आठ लाख योजन प्रमाण लम्बे हैं। ये दक्षिण और उत्तर दिशा में एक-एक स्थित हैं तथा दक्षिणोत्तर लम्बे हैं।