इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में हेमांगद नाम का देश है। इस में राजपुरी नाम की राजधानी थी। उसमें सत्यंधर राजा राज्य करते थे। पट्टरानी का नाम विजया था। राजा सत्यंधर को विजया रानी के प्रति अत्यधिक स्नेह होने से उन्होंने अपने मंत्रियों के मना करने पर भी मंत्री काष्ठांगार को अपना राज्यभार संभला दिया और आप महल में रहने लगे। एक बार रात्रि के पिछले भाग में रानी ने तीन स्वप्न देखे, उसने पति से कहा- हे आर्यपुत्र! मैंने पहले स्वप्न में अशोक वृृक्ष देखा है पुन: देखा वज्र के गिरने से वह वृक्ष गिर गया और उसी के निकट एक दूसरा अशोक वृक्ष निकल आया तथा उस वृक्ष के अग्रभाग पर स्वर्ण मुकुट है और उसमें आठ मालायें लटक रही हैं।
राजा ने कहा-अशोक वृक्ष और उसमें आठ मालाओं से तुम पुत्र को प्राप्त करोगी, उसके आठ रानियां होंगी और प्रथम वृक्ष का पतन मेरे अमंगल को सूचित कर रहा है। इतना सुनकर रानी शोक से मुर्छित हो गई। राजा ने अनेक प्रकार से समझाकर रानी को सान्त्वना दी। कुछ दिनों बाद रानी ने गर्भ धारण किया। राजा ने एक मयूर यंत्र बनवाया और रानी को उसमें बिठाकर मनोहर वनों में क्रीड़ा किया करते थे। इसी मध्य काष्ठांगार ने राज्य को हड़पने के भाव से राजा पर चढ़ाई कर दी। तब राजा सत्यंधर ने जैसे-तैसे विजया रानी को समझाकर मयूरयंत्र में बिठाकर उड़ा दिया और आप युद्ध के लिए निकला। युद्ध करते हुए राजा ने अपना मरण देख वहीं पर परिग्रह का त्याग कर सखना धारण कर ली जिससे स्वर्ग में देव हो गया। मयूर यंत्र ने रानी को नगर के निकट श्मशान में गिरा दिया था।
राजा के मरते क्षण ही रानी ने श्मशान में ही पुत्ररत्न को जन्म दिया। रानी पुत्र को गोद में लेकर विलाप कर रही थी कि उसी समय वहाँ एक देवी ने आकर रानी को सांत्वना देकर पुत्र को वहीं रखकर छिप जाने को कहा और समझाया-हे मात! एक वैश्यपति इसे पालन करेगा। उसी क्षण राजपुरी नगरी का ही सेठ गंधोत्कट अपने मृतक पुत्र को वहाँ छोड़कर निमित्तज्ञानी के कहे अनुसार वहाँ पुत्र को खोज रहा था। उसने इसे उठा लिया। इधर रानी ने ‘‘जीव’’ ऐसा आशीर्वाद दिया।
गंधोत्कट ने घर लाकर ‘‘जीवन्धर’’ ऐसा नामकरण कर दिया पुत्र जन्म का उत्सव मनाया। कुछ दिन बाद गंधोत्कट की पत्नी सुनंदा ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नंदाढ्य नाम रखा गया। उधर वह देवी विजया को पास के तपोवन में ले गई, वहाँ वह अपने प्रच्छन्न वेष में रहने लगी। एक बार एक तापसी को भस्मक व्याधि थी। जीवंधर से उसे अपने हाथ से एक ग्रास दे दिया जिससे उसकी क्षुधाव्याधि शांत हो गई। इससे उस तापसी आर्यनन्दी ने उस बालक को ले जाकर सभी शास्त्रों में और विद्याओं में निष्णात बना दिया एवं ‘‘तुम राजा सत्यंधर के पुत्र हो’’ यह बता दिया।
किसी समय जीवंधर ने कुत्ते को मरणासन्न स्थिति में णमोकार मन्त्र सुनाया था जिससे वह सुदर्शन नाम का यक्षेन्द्र हो गया था। उसने आकर जीवंधर को नमस्कार कर कृतज्ञता ज्ञापन किया और किसी भी संकट आदि के समय स्मरण करने को कहकर चला गया। इधर जीवंधर ने सोलह वर्ष तक अनेक सुख-दु:खों का अनुभव किया और इनका आठ कन्याओं के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। अनंतर तपोवन में माता विजया से मिलकर उन्हें राजपुरी ले आये। अपने मामा गोविन्द महाराज के साथ मिलकर काष्ठांगार से युद्ध करके उसे मार कर विजयी हुए। उसी समय वहाँ घोषणा कर दी गई कि ये जीवंधर कुमार राजा सत्यंधर के पुत्र हैं। तभी वहाँ पर बड़े ही महोत्सव के साथ जीवंधर का राज्याभिषेक हुआ। जब विजयारानी ने पुत्र को पिता के पद पर प्रतिष्ठित हुआ देख लिया तब वे बहुत ही सन्तुष्ट हुईं।
लालन-पालन करने वाले पिता गंधोत्कट और माता सुनन्दा भी यहीं जीवन्धर के पास रहते थे। अब विजया को पूर्ण वैराग्य हो चुका था। उसने पुत्र जीवंधर से अनुमति लेकर सुनन्दा के साथ गणिनी आर्यिका के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। दोनों माताओं के दीक्षा ले लेने से जीवंधर बहुत दु:खी हुए। वहाँ पहुँच कर दोनों आर्यिका माताओं का दर्शन किया, पुन: विषाद करने लगे। तब गणिनी आर्यिका ने इन्हें बहुत कुछ धर्मोपदेश दिया और समझाया। जिससे कुछ-कुछ सांत्वना को प्राप्त होकर उन्होंने दोनों आर्यिकाओं के बार-बार चरण स्पर्श किए, पुन: यह प्रार्थना की कि ‘‘हे मात:, आपको इसी नगरी में रहना चाहिए अन्यत्र विहार करने का स्मरण भी नहीं करना चाहिए१।’’
इस बात का अत्यधिक आग्रह करके वे वहीं पर बैठे रहे। जब दोनों आर्यिकाओं ने तथास्तु कहकर जीवंधर कुमार की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली, तभी वे वहाँ से वापस चलकर अपने घर आये। अनंतर तीस वर्ष तक राज्य सुख का अनुभव कर जीवंधरस्वामी ने भी अपने पुत्र को राज्य देकर भगवान महावीर के समवशरण में दीक्षा ले ली। उनकी आठोें रानियों ने भी आर्यिका दीक्षा ले ली। घोर तपश्चरण के द्वारा घातिया कर्मों का नाश करके जीवंधरस्वामी ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। अन्त में सर्व कर्मों को नष्ट कर मोक्ष पद को प्राप्त हो गए। महारानी विजया, सुनन्दा आदि आर्यिकाओं ने भी स्त्रीपर्याय को छेदकर स्वर्ग में देवपद प्राप्त कर लिया है।