जैन-वि-विविध स्व और अपूर्व अर्थ को विषय करने वाला, ज्ञान अवबोध है जिसका वह ‘विज्ञान’ है। इस प्रकार से व्याख्या की गई है।
बाह्य अर्थ से शून्य ज्ञान प्रमाण नहीं है कि जिससे बाह्य अर्थ शून्यता उस ज्ञान के सिद्ध हो सके, क्योंकि उस बाह्य अर्थ की शून्यता को सिद्ध करने वाला अनुमान बाह्य अर्थ के अवलंबनपूर्वक ही होता है अन्यथा साध्य और साधन दोनों समान हो जावेंगे। दूसरी बात यह है कि आप बौद्ध ज्ञान के अस्तित्व को अंतर्मुख अनुभव के बल से स्वीकार करते हुए बहिर्मुख अनुभव के बल से ज्ञेय के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं। यह तो कोई एक महान आश्चर्य है। एक को समीचीन और दूसरे को मिथ्या कहना भी स्वच्छंंद मान्यता ही है किन्तु विचारशीलता नहीं है, क्योंकि दोनोें जगह कोई अंतर नहीं है। इसलिए ज्ञान बाह्य अर्थ से शून्य नहीं है।
प्रमाणान्तर से निश्चित भी संशय आदि से सहित अपूर्वार्थ है। ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि उसी में ही प्रमाण की सफलता है।