१. सुप्रसिद्ध संस्कृतज्ञ प्रोपेसर डॉ. हर्मन जेकोबी एम. ए., पी. एच, डी. बोन जर्मनी लिखते हैं— जैन धर्म सर्वथा स्वतंत्र धर्म है। मेरा विश्वास है कि वह किसी का अनुकरण नहीं है और इसीलिए प्राचीन भारतवर्ष के तत्वज्ञान का और धर्म प्रद्धति का अध्ययन करने वालों के लिए वह बड़े महत्व की वस्तु है।
२. पेरिस (प्रस की राजधानी) के डा. ए. गिरनाट ने अपने पत्र ता. ३-१२-११ में लिखा है—‘‘कि मनुष्य की तरक्की के लिये जैन धर्म का चरित्र बहुत लाभकारी है यह धर्म बहुत ही असली, स्वतंत्र, सादा, बहुत मूल्यवान तथा ब्राह्मणों के मतों से भिन्न है तथा यह बौद्ध के समान नास्तिक नहीं है।
३. जर्मनी के डा. जोहन्नेस हर्टल ता. १७-६-१९०८ के पत्र में कहते हैंकि मैं अपने देशवासिओं को दिखाऊँगा कि कैसे उत्तम नियम और ऊँचे विचार जैन धर्म और जैन आचार्यों में है। जैन का साहित्य बौद्धों से बहुत बढ़कर है और ज्यों—ज्यों मैं जैन—धर्म और उसके साहित्य को समझता हूँ त्यों—त्यों मैं उनको अधिक पसंद करता हूँ।
४. मि. आवे जे. ए. डबाई मिशनरी की सम्मति—(Description of the character Manners and customs of the people of India and of their institution and civil) इस नाम की पुस्तक में जो सन् १८१७ में लंदन में छपी है। अपने बहुत बड़े व्याख्यान में लिखा है कि—नि:सन्देह जैन धर्म ही पृथ्वी पर एक सच्चा धर्म है और यही मनुष्य मात्र का आदिधर्म है। आदिश्वर को जैनियों में बहुत प्राचीन और प्रसिद्ध पुरुष जैनियों के २४ तीर्थंकरों में सबसे पहले हुए हैं ऐसा कहा है।
५. पाश्चात्य विद्वान रेवरेन्ड जे. स्टीवेन्सन साहब लिखते हैं कि—साफ प्रगट है कि भारत वर्ष का अध:पतन जैन धर्म के अिंहसा सिद्धान्त के कारण नहीं हुआ था, बल्कि जब तक भारत—वर्ष में जैन धर्म की प्रधानता रही थी, तब तक उसका इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है,और भारत वर्ष के ह्रास के मुख्य कारण आपसी प्रतिस्पर्धामय अनैक्य है। जिसकी नींव शंकराचार्य के जमाने से जमा दी गई थी।
६. विद्वान प्रोपेसर मैक्समुलर साहब का मत है कि—‘‘विशेषत: प्राचीन भारत में किसी धर्मान्तर से कुछ ग्रहण करके एक नूतन धर्म प्रचार करने की प्रथा ही नहीं थी, जैन धर्म हिन्दु धर्म से सर्वथा स्वतंत्र है। उसकी शाखा या रूपान्तर नहीं।
७. डॉ. फहरर स्पीग्रेफिका इंडिका ब्हाल्यूम के पृष्ठ ३८९ व्हाल्यूम २ पृष्ठ २०६, २०७ में लिखते हैं कि जैनियों के बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ ऐतिहासिक पुरुष माने गये हैं। भगवद् गीता के परिशिष्ट में श्रीयुत बरवे स्वीकार करते हैं कि नेमिनाथ श्रीकृष्ण के भाई थे, जबकि जैनों के बाइसवें तीर्थंकर श्रीकृष्ण के समकालीन थे जो शेष इक्कीस तीर्थंकर श्रीकृष्ण से कितने वर्ष पहिले होने चाहिए यह पाठक स्वयं अनुमान कर सकते हैं।
८. मेजर जनरल जे. सी. आर फरलांग एफ आर ए सी ई आदि सन् १८८७ में अपनी पुस्तके के १३वें १५वें पृष्ठ पर लिखते हैं— It is impossible to find a beginning for Jainism. (Intro P. 13) Jainism thus appears an earliest faith of India. अर्थात्—‘‘जैनधर्म के प्रारंभ का पाना असंभव है। इस तरह से यह भारतवर्ष का सबसे पुराना धर्म मालूम होता है।’’
तीर्थंकर
मोहनजोदरों में खुदाई करने से जो ५००० वर्ष पुरानी सीलें मिली हैं। उन सीलों पर भी बैल के चिन्हवाली भगवान ऋषभदेव की मूर्ति बनी हुई है। कुछ सीलों पर ‘नमो जिनेश्वराय’ लिखा हुआ है जिससे सिद्ध होता है कि आज से पाँच हजार वर्ष पहले भी भगवान ऋषभदेव की पूज्यता जन—साधारण में ही नहीं, किन्तु राजघरानों में भी थी। इन्दौर के समीप बड़वानी में पहाड़ पर एक पूर हाथ ऊँची भगवान ऋषभदेव की मूर्ति (पत्थर की) है। यह ३—४ हजार वर्ष पुरानी अनुमान की जाती है। भगवान महावीर स्वामी के बाद अनेक महान ऋषियों ने जैन धर्म का प्रचार किया। जैन साधु कितने उद्भट विद्वान थे यह बात प्राकृत, संस्कृत, कन्नड़ी भाषा में बनाये हुये उनके ग्रंथों का अवलोकन करने से ज्ञात होती है। संस्कृत भाषा में जैन ग्रंथ न्याय, व्याकरण, साहित्य, वैद्यक ज्योतिष, दर्शन आदि सभी विषयों पर मिलते हैं। वे ग्रंथ अपने—अपने विषय के जगमगाते रत्न हैं। क्षत्रिय राजा भी जैन धर्म के अनुयायी होते रहे हैं। भारत वर्ष की स्वतंत्रता का आदर्श रक्षक, सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस को हराने वाला सम्राट चन्द्रगुप्त जैन धर्मानुयायी ही था। उसका पुत्र और पोता सम्राट अशोक भी २९ वर्ष की उम्र तक जैनधार्मनुयायी रहा। खारवेल, कुमारपाल आदि इतिहास प्रसिद्ध वीर राजा जैनधर्म के भक्त हुये हैं। गंगवंश, नंदवंश आदि अनेक राजवंशों में जैनधर्म की मान्यता रहती आई हैं। ग्वालियर, बेलगांव आदि के किलों में जैन मूर्तिया मौजूद है। इन सब बातों से साबित होता है कि जैन धर्म पुराने जमाने से राजधर्म के तौर पर मान्य रहता चला आया है। यह संक्षेप में जैनधर्म का इतिहास है। धार्मिक दृष्टि से इस संसार में जैनधर्म के समान विश्व—कल्याण करने वाला अन्य कोई नहीं है। जो अहिंसा प्रत्येक छोटे—बड़े, चर—अचर जीव को अपने लिये प्रिय है उस अहिंसा का पूरा रूप जैनधर्म के सिवाय किसी अन्य धर्म में नहीं पाया जाता।