अमेरिका, फिनलैण्ड, सोवियत गणराज्य, चीन एवं मंगोलिया, तिब्बत, जापान, ईरान, तुर्किस्तान, इटली, एबीसिनिया, इथोपिया, अफगानिस्तान, नेपाल, पाकिस्तान आदि विभिन्न देशों में किसी न किसी रूप में वर्तमानकाल में जैनधर्म के सिद्धान्तों का पालन देखा जा सकता है। उनकी संस्कृति एवं सभ्यता पर इस धर्म का प्रभाव परिलक्षित होता है। इन देशों में मध्यकाल में आवागमन के साधनों का अभाव एक-दूसरे की भाषा से अपरिचित रहने के कारण, रहन-सहन, खान-पान में कुछ-कुछ भिन्नता आने के कारण हम एक-दूसरे से दूर हटते ही गये और अपने प्राचीन संबंधों को सब भूल गये।
अमेरिका में लगभग २००० ईसा पूर्व में संघपति जैन आचार्य ‘क्वाजन कोटल’ के नेतृत्व में श्रमण साधु अमेरिका पहुँचे और तत्पश्चात् सैकड़ों वर्षों तक श्रमण अमेरिका में जाकर बसते रहे। अमेरिका में आज भी अनेक स्थलों पर जैनधर्म श्रमण-संस्कृति जितना स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। वहाँ जैन-मंदिरों के खण्डहर, प्रचुरता में पाये जाते हैं।
कतिपय हस्तलिखित ग्रंथों में महत्वपूर्ण प्रमाण मिले हैं कि अफगानिस्तान, ईरान, ईराक, टर्की आदि देशों तथा सोवियत संघ के जीवन-सागर एवं ओब की खाड़ी से भी उत्तर तक तथा जाटविया से उल्लई के पश्चिमी छोर तक किसी काल में जैनधर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार था। इन प्रदेशों में अनेक जैन-मंदिरों, जैन-तीर्थंकरों की विशाल मूर्तियों, धर्मशास्त्रों तथा जैन-मुनियों की विद्यमानता का उल्लेख मिलता है।
चीन की संस्कृति पर जैन-संस्कृति का व्यापक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। चीन में भगवान् ऋषभदेव के एक पुत्र का शासन था। जैन-संघों ने चीन में अहिंसा का व्यापक प्रचार-प्रसार किया था, अति प्राचीनकाल में भी श्रमण-सन्यासी यहाँ विहार करते थे-हिमालय क्षेत्र आविस्थान को दिया और कैस्पियाना तक पहले ही श्रमण-संस्कृति का प्रचार-प्रसार हो चुका था।
चीन और मंगोलिया में एक समय जैनधर्म का व्यापक प्रचार था। मंगोलिया के भूगर्भ से अनेक जैन-स्मारक निकले हैं तथा कर्मखण्डित जैन-मूर्तियाँ और जैन-मंदिरों के तोरण मिले हैं, जिनका आँखों देखा पुरातात्त्विक विवरण ‘मुम्बई समाचार’ (गुजराती) के ४ अगस्त सन् १९३४ के अंक में निकला था।
यात्रा-विवरणों के अनुसार सिरगम देश और ढाकुल की प्रजा और राजा सब जैन धर्मानुयायी हैं। तातार-तिब्बत, कोरिया, महाचीन, खासचीन आदि में सैकड़ों विद्या-मंदिर हैं। इस क्षेत्र में आठ तरह के जैनी हैं। चीन में ‘तलावारे’ जाति के जैनी हैं। महाचीन में ‘जांगडा’ जाति के जैनी थे।
चीन के जिगरम देश ढाकुल नगर में राजा और प्रजा सब जैन-धर्मानुयायी हैं।
पीकिंग नगर में ‘तुबाबारे’ जाति के जैनियों के ३०० मंदिर हैं, ये सब मंदिर शिखरबंद हैं। इनमें जैन-प्रतिमाएँ खड्गासन व पद्मासन मुद्रा में विराजमान हैं। यहाँ जैनियों के पास जो आगम हैं, वे ‘चीन्डी लिपि’ में हैं। कोरिया में भी जैनधर्म का प्रचार रहा है। यहाँ ‘सोवावारे’ जाति के जैनी हैं।
‘तातार’ देश में ‘जैनधर्मसागर नगर’ में जैन-मंदिर ‘यातके’ तथा ‘घघेरवाल’ जातियों के जैनी हैं। इनकी प्रतिमाओं का आकार साढ़े तीन गज ऊँचा और डेढ़ गज चौड़ा है।
‘मुंगार’ देश में जैनधर्म (Jain Religion in Mungar Country)- यहाँ ‘बाधामा’ जाति के जैनी हैं। इस नगर में जैनियों के ८००० घर हैं तथा २००० बहुत सुन्दर जैन मंदिर हैं।
तिब्बत और जैनधर्म (Jain Religion in Tibbet)- तिब्बत में जैनी ‘आवरे’ जाति के हैं। एरूल नगर में एक नदी के किनारे बीस हजार जैन-मंदिर हैं। तिब्बत में सोहना-जाति के जैनी भी हैं। खिलवन नगर में १०४ शिखरबंद जैनमंदिर हैं। वे सब मंदिर रत्नजटित और मनोरम हैं। यहाँ के वनों में तीस हजार जैन-मंदिर हैं।
दक्षिण तिब्बत के हनुवर देश में दस-पन्द्रह कोस पर जैनियों के अनेक नगर हैं, जिनमें बहुत से जैन मंदिर हैं। हनुवर देश के राजा-प्रजा सब जैनी हैं।
यूनान और भारत में समुद्र सम्पर्क था। यूनानी लेखकों के अनुसार जब सिकन्दर भारत से यूनान लौटा था, तब तक्षशिला के एक जैन-मुनि ‘कोलानस’ या ‘कल्याण-मुनि’ उनके साथ यूनान गये और अनेक वर्षों तक वे एथेन्स नगर में रहे। उन्होंने एथेन्स में सल्लेखना ली। उनका समाधि-स्थान यहीं पर है।
जापान और जैनधर्म (Japan and Jain Religion)- जापान में भी प्राचीनकाल में जैन-संस्कृति का व्यापक प्रचार था तथा स्थान-स्थान पर श्रमण-संघ स्थापित थे। उनका भारत के साथ निरंतर संपर्क बना रहता था। बाद में भारत से संपर्क दूर हो जाने पर इन जैन-श्रमण साधुओं ने बौद्धधर्म से संबंध स्थापित कर लिया। चीन और जापान में ये लोग आज भी जैन-बौद्ध कहलाते हैं।
ब्रह्मदेश (बर्मा) में जैनधर्म (Jain Religion in Burma)- शास्त्रों में ब्रह्मदेश को स्वर्णद्वीप कहा गया है। जनमत प्रसिद्ध जैनाचार्य कालकाचार्य और उनके शिष्य गया स्वर्णद्वीप में निवास करते थे, वहाँ से उन्होंने आसपास के दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों में जैनधर्म का प्रचार किया था। थाईलैण्ड-स्थित नागबुद्ध की नागफण वाली प्रतिमाएँ पार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ हैं।
श्रीलंका में जैनधर्म (Jain Religion in Shree Lanka)- भारत और लंका (सिंहलद्वीप) के युगों पुराने सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। सिंहलद्वीप में प्राचीनकाल में जैनधर्म का प्रचार था। मंदिर, मठ, स्मारक विद्यमान थे जो बाद में बौद्ध संघाराम बना लिये गये।
अफगानिस्तान में जैनधर्म (Jain Religion in Afganistan)-अफगानिस्तान प्राचीनकाल में भारत का भाग था तथा अफगानिस्तान में सर्वत्र जैन-साधु निवास करते थे। भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग के भूतपूर्व संयुक्त महानिदेशक श्री टी.एन. रामचन्द्रन अफगानिस्तान गये एक शिष्टमंडल के नेता के रूप में यह मत व्यक्त किया था, कि ‘मैंने ई. छठी, सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध चीनी-यात्री ह्वेनसांग के इस कथन का सत्यापन किया है कि यहाँ जैन-तीर्थंकरों के अनुयायी बड़ी संख्या में हैं। उस समय एलेग्जेन्ड्रा में जैनधर्म और बौद्धधर्म का व्यापक प्रचार था।
चीनी-यात्री ह्वेनसांग ६८६-७१२ ईसवी के यात्रा के विवरण के अनुसार कपिश देश में १० जैन मंदिर हैं। यहाँ निर्र्ग्रन्थ जैन-मुनि भी धर्म-प्रचारार्थ विहार करते थे। ‘काबुल’ में भी जैनधर्म का प्रसार था। वहाँ जैन-प्रतिमाएँ उत्खनन में निकलती रहती हैं।
हिन्द्रेशिया, जावा, मलाया, कम्बोडिया आदि देशों में जैनधर्म (Jain Religion in Hindresia, Jawa, Malaya, Combodia etc. Countries)- इन द्वीपों के सांस्कृतिक इतिहास और विकास में भारतीयो का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इन द्वीपों के प्रारंभिक अप्रवासियों का अधिपति सुप्रसिद्ध जैन-महापुरुष ‘कौटिल्य’ था, जिसका कि जैनधर्म-कथाओं में विस्तार से उल्लेख हुआ है। इन द्वीपों के भारतीय आदिवासी विशुद्ध शाकाहारी थे। उन देशों से प्राप्त मूर्तियाँ तीर्थंकर-मूर्तियों से मिलती-जुलती हैं। यहाँ पर चैत्यालय भी मिलते हैं, जिनका जैन-परम्परा में बड़ा महत्व है।
नेपाल देश में जैनधर्म (Jain Religion in Nepal)- नेपाल का जैनधर्म के साथ प्राचीनकाल से ही बड़ा संबंध रहा है। आचार्य भद्रबाहु महावीर निर्वाण-संवत् १७० में नेपाल गये थे और नेपाल की कन्दराओं में उन्होंने तपस्या की थी, जिससे सम्पूर्ण हिमालय-क्षेत्र में जैनधर्म की बड़ी प्रभावना हुई थी।
भूटान देश में जैनधर्म (Jain Religion in Bhutan)- भूटान में जैनधर्म का खूब प्रसार था तथा जैन मंदिर और जैन साधु-साध्वियाँ विद्यमान थे। विक्रम-संवत् १८०६ में दिगम्बर जैन तीर्थयात्री लामचीदास गोलालारे ब्रह्मचारी भूटान देश में जैन-तीर्थयात्रा के लिये गया था, जिसके विस्तृत यात्रा-विवरण (जैन शास्त्र-भण्डार, तिजारा, राजस्थान) की १०८ प्रतियां भिन्न-भिन्न जैन शास्त्र-भण्डारों में सुरक्षित हैं।
पाकिस्तान के परवर्ती-क्षेत्रों में जैनधर्म (Jain Religion in Pakistan and Nearby Areas)- आदिनाथ स्वामी ने भरत को अयोध्या, बाहुबली को पोदनपुर तथा शेष ९८ पुत्रों को अन्य देश प्रदान किये थे। बाहुबलि ने बाद में अपने पुत्र महाबलि को पोदनपुर का राज्य सौंपकर मुनि-दीक्षा ली थी। पोदनपुर वर्तमान पाकिस्तान क्षेत्र में विन्ध्यार्थ पर्वत के निकट सिंधु नदी के सुरम्य एवं रम्यक के देश उत्तरार्ध में था और जैन-संस्कृति का आदित्य जगत-विख्यात विश्वकेन्द्र था। कालान्तर में पोदनपुर अज्ञात कारणों से नष्ट हो गया।
लंदन-स्थित अनेक पुस्तकालयों में भारतीय ग्रंथ विद्यमान हैं, जिनमें से एक पुस्तकालय में तो लगभग १५०० हस्तलिखित भारतीय ग्रंथ हैं और अधिकतर ग्रंथ प्राकृत, संस्कृत, भाषाओं में हैं और जैनधर्म से संबंधित हैं।
जर्मनी में भी बर्लिन-स्थित एक पुस्तकालय में बड़ी संख्या में जैन-ग्रंथ विद्यमान हैं, अमेरिका के वाशिंगटन और बोस्टन नगर में ५०० से अधिक पुस्तकालय हैं, इनमें से एक पुस्तकालय में ४० लाख हस्तलिखित पुस्तके हैं, जिनमें भी २०००० पुस्तकें प्राकृत, संस्कृत, भाषाओं में हैं, जो भारत से गई हुई हैं।
फ्रांस में ११०० से अधिक बड़े पुस्तकालय हैं, जिनमें पेरिस स्थित बिब्लियोथिक नामक पुस्तकालय में ४० लाख पुस्तकें हैं। उनमें १२ हजार पुस्तकें प्राकृत, संस्कृत भाषा की हैं, जिनमें जैन-ग्रंथों की अच्छी संख्या है।
रूस में एक राष्ट्रीय पुस्तकालय है, जिसमें ५ लाख पुस्तकें हैं। उनमें २२ हजार पुस्तकें प्राकृत, संस्कृत की हैं। इसमें जैन-ग्रंथों की भी बड़ी संख्या है।
इटली के पुस्तकालयों में ६० हजार पुस्तकें तो प्राकृत, संस्कृत की हैं और इसमें जैन-पुस्तकें बड़ी संख्या में हैं।
नेपाल के काठमाण्डु स्थित पुस्तकालयों में हजारों की संख्या में जैन प्राकृत और संस्कृत-ग्रंथ-विद्यमान हैं।
इसी प्रकार चीन, तिब्बत, वर्मा, इंडोनेशिया, जापान, मंगोलिया, कोरिया, तुर्की, ईरान, अल्जीरिया, काबुल आदि के पुस्तकालयों में भी जैन-भारतीय-ग्रंथ बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं।
भारत से विदेशों में ग्रंथ ले जाने की प्रवृत्ति केवल अंग्रेजी काल से ही प्रारंभ नहीं हुई अपितु इससे हजारों वर्ष पूर्व भी भारत की इस अमूल्य निधि को विदेशी लोग अपने-अपने देशों में ले जाते रहे हैं।
वे लोग भारत से कितने ग्रंथ ले गये, उनकी संख्या का सही अनुमान लगाना कठिन है। इसके अतिरिक्त म्लेच्छों, आततायियों, धर्मद्वेषियों ने हजारों, लाखों की संख्या में हमारे साहित्य-रत्नों को जला दिया।
इसी प्रकार जैन-मंदिरों, मूर्तियों, स्मारकों, स्तूपों आदि पर भी अत्यधिक अत्याचार हुए हैं। बड़े-बड़े जैन तीर्थ, मंदिर, स्मारक आदि मूर्ति-भंजकों ने धराशायी किये। अफगानिस्तान, काश्यपक्षेत्र, सिंधु, सोवीर, बलूचिस्तान, बेबीलोन, सुमेरिया, पंजाब, लक्षशिला तथा कामरूप-प्रदेश बांग्लादेश आदि प्राचीन जैन-संस्कृति-बहुल क्षेत्रों में यह विनाशलीला चलती रही। अनेक जैन-मंदिरों को हिन्दू और बौद्ध मंदिरों में परिवर्तित कर लिया गया था उनमें मस्जिदें बना ली गईं। अनेक जैन-मंदिर, मूर्तियाँ आदि अन्यधर्मियों के हाथों में चले जाने से आज अन्य देवी-देवताओं के रूप में पूजे जाने से जैन-इतिहास और पुरातत्त्व एवं कला-सामग्री को भारी क्षति पहुँची है।
विदेशों में स्थित जैन सम्पर्क केन्द्र (Jain Contact Centres situated in Foreign Countries)-विश्व के लगभग सभी देशों में भारतीय परिवार निवास कर रहे हैं। इनमें से बहुत से जैन परिवार हैं, जो आर्थिक-उन्नति के साथ जैनधर्म में अपनी आस्था बनाये हुए हैं। आज अनेक देशों में इनके द्वारा जैन-मंदिर, पुस्तकालय, केन्द्र, सोसायटी, पत्र-पत्रिकाओं की स्थापना की जा रही है।