(आदिपुराण ग्रंथ से)
आरूह्याराधनानावं तितीर्षुर्भवसागरम्।
निर्यापकं स्वयंबुद्धं बहु मेने महाबल:।।२३१।।
अर्थ–वह महाबल आराधना रूपी नाव पर आरूढ़ होकर संसार रूपी सागर को तैरना चाहता था इसलिए उसने स्वयंबुद्ध मंत्री को निर्यापकाचार (सल्लेखना की विधि करने वाले आचार्य, पक्ष में-नाव चलाने वाला खेवटिया) बनाकर उसका बहुत ही सम्मान किया।
मूर्ध्नि लोकोत्तमान् सिद्धान् स्थापयन् हृदयेऽर्हत:।
शिर:कवचमस्त्रं च स चक्रे साधुभिस्त्रिभि:।।२४५।।
अर्थ–उसने अपने मस्तक पर लोकोत्तम परमेष्ठी को तथा हृदय में अरहंत परमेष्ठी को विराजमान किया था और आचार्य, उपाध्याय तथा साधु इन तीन परमेष्ठियों के ध्यानरुपी टोप-कवच और अस्त्र धारण किये थे।
चक्षुषी परमात्मानमद्राष्टामस्य योगत:।
अश्रौष्टां परमं मंत्रं श्रोत्रे जिह्वा तमापठत्।।२४६।।
अर्थ–ध्यान के द्वारा उसके दोनों नेत्र मात्र परमात्मा को ही देखते थे, कान परम मंत्र (णमोकार मंत्र) को ही सुनते थे और जिह्वा उसी का पाठ करती थी।।२४६।।
मनोगर्भगृहेऽर्हन्तं विधायासौ निरञ्जनम्।
प्रदीपमिव निर्धूतध्वान्तोऽभूद् ध्यानतेजसा।।२४७।।
अर्थ–वह राजा महाबल अपने मनरूपी गर्भगृह में निर्धूम दीपक के समान कर्ममलकलंक से रहित अरहंत परमेष्ठी को विराजमान कर ध्यानरूपी तेज के द्वारा मोह अथवा अज्ञानरूपी अंधकार से रहित हो गया था।।२४७।।
द्वाविंशतिदिनान्येष कृतसल्लेखनाविधि:।
जीवितान्ते समाधाय मन: स्वं परमेष्ठिषु।।२४८।।
नमस्कारपदान्यन्तर्जल्पेन निभृतं जपन्।
ललाटपटविन्यस्तहस्तपंकजकुड्मल:।।२४९।।
कोशादसेरिवान्यत्वं देहाज्जीवस्य भावयन्।
भावितात्मा सुखं प्राणानौज्झत् सन्मन्त्रिसाक्षिकम्।।२५०।।
अर्थ–इस प्रकार महाराज महाबल निरंतर बाईस दिन तक सल्लेखना की विधि करते रहे। जब आयु का अंतिम समय आया तब उन्होंने अपना मन विशेष रूप से पञ्च परमेष्ठियों में लगाया। उसने हस्तकमल जोड़कर ललाट पर स्थापित किये और मन ही मन निश्छल रूप से नमस्कार मंत्र का जप करते हुए, म्यान से तलवार के स्वरूप की भावना करते हुए, शरीर से जीव को पृथक चिंतवन करते हुए और अपने शुद्ध आत्मस्वरूप की भावना करते हुए, स्वयंबुद्ध मंत्री के समक्ष सुखपूर्वक प्राण छोड़े।।२४८–२५०।।
भावार्थ–णमोकार महामंत्र अनादि है। भगवान ऋषभदेव ने दशवें भव पूर्व महाबल पर्याय में इसे जपा था।