ऋषि प्रधान देश भारत के हरे—भरे कर्नाटक प्रांत में कृष्णा नदी के सुरम्य तट पर बसा है एक छोटा—सा गाँव ‘शेडवाल’। इसी गाँव में रहते थे श्री स्याद्वाद महाविद्यालय काशी के स्नातक जैन दर्शन तथा संस्कृत भाषा के मनीषी जैन श्रावक श्री कलप्पाण्णा उपाध्ये तथा उनकी धर्मपत्नी जिन धर्म उपासिका सरस्वती देवी उपाध्ये। श्री कलप्पाण्णा तथा श्रीमती सरस्वती के यहाँ दिनांक २२ अप्रैल १९२५ को पुण्योदय से अपने ही ग्राम शेडवाल में पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। माता—पिता ने जन्म से ही भव्य तथा प्रतिभासंपन्न दिखने वाले अपने प्यारे बालक का नाम ‘सुरेन्द्र’ रखा ।
बालक सरेन्द्र जन्म से ही तीक्षण बुद्धिसम्पन्न और प्रतिभाशाली थे । १९४६ में आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी ने शेडवाल में भव्य चातुर्मास किया। वैरागी चित्त वाले सुरेन्द्र को मानो अमृत सिंधु मिल गया। एक प्रसिद्ध सूक्ति है—‘भवितव्यानां द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र’। सुरेन्द्र जीवन का लक्ष्य समझ गए। वे आचार्य श्री महावीर कीर्ति जी के साथ हो लिए। माता—पिता के लाख रोकने पर भी दीक्षा हेतु निवेदन किया और फाल्गुन सुदी तेरस १५ अप्रैल १९४६ ई. को तमड्डी में आचार्यश्री ने आपको वर्णी दीक्षा दे दी। दीक्षोपरांत सुरेन्द्र क्षुल्लक पार्श्वकीर्ति हो गए ।
क्षुल्लक पार्श्वकीर्ति साधना के पथ पर आगे बढ़ते रहे। २५ जुलाई १९६३ को दिल्ली में परम पूज्य आचार्य श्री देशभूषण जी मुनिराज द्वारा क्षुल्लक पार्श्वकीर्ति जी को मुनि दीक्षा प्रदान की गई और क्षुल्लक पार्श्वकीर्ति मुनि श्री विद्यानंद हो गए। आपकी प्रखर प्रज्ञा व वैराग्य के बढ़ते चरणों से प्रभावित होकर आचार्य श्री देशभूषण जी मुनिराज ने १७ नवम्बर १९७४ को दिल्ली में ही ‘उपाध्याय’ पदवी से विभूषित किया।
इस प्रकार मुनि विद्यानंद मुनि हो गए। १७ नवंबर १९७८ को दिल्ली में आपकी ऐलाचार्य दीक्षा सम्पन्न हुई। आप ऐलाचार्य श्री विद्यानंद बीसवीं शती के प्रथम उपाध्याय श्री विद्यानंद मुनि हो गए। ६ नवम्बर १९७९ को चतुर्विध संघ द्वारा इंदौर में आपकी प्रकांड शास्त्रज्ञता और प्रखर प्रज्ञा से प्रभावित होकर आपको सिद्धान्त चक्रवर्ती की उपाधि प्रदान की गई और २८ जून १९८७ को दिल्ली में परम पूज्य आचार्य श्री देशभूषण जी मुनिराज के आदेशानुसार आपका आचार्य पदारोहण हुआ। आप सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज के रूप में प्रसिद्धि को प्राप्त हैं ।