विधार्थी को अपना जीवन चरित्रवान बनाना अत्यंत आवश्यक है। जीवन की श्रेष्ठता आदर्श और चरित्र से होती है । वह विद्याध्ययन से प्राप्त होती है, यदि विद्याध्ययन में शिथिलता आ जाये तो विद्या उन्नत नहीं होती है। अध्ययन चाहे वकील, इन्जीनियर, विद्वान, डॉक्टर या अन्य किसी सर्विस के लिये हो, जितना हमारा अध्ययन गंभीर होगा, उतना ही अनुभव होगा । विद्या अध्ययन के द्वारा ही हम उस विषय का अनुभव कर सकते हैं। विद्यार्थी के लिये आठ बातें अत्यन्त आवश्यक हैं कहा है—
‘‘कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादं श्रंगार कौतुके। अतिनिद्रा अति सेवे च विद्यार्थी हाष्ट वर्जयेत् ।।’’
कामुकता, विषय भोग की इच्छा, क्रोध, आलस्य, बिना परिश्रम पदार्थों की प्राप्ति की इच्छा, फैशन, खेल तमाशे मन बदलाव के लिये ताश चोपड शतरंज आदि खेलना, बहुत अधिक सोना तथा अत्यधिक सेवन करना इन आठ बातों को विद्यार्थी को छोड़ देना चाहिए। कामुकता— विद्यार्थी जीवन में १६ वर्ष तक भावों में पवित्रता रहती है, और यदि भावों को बिगाडने के साधन मिल जायें तो १६ वर्ष के पूर्व मन के भाव बिगड सकते है। यदि विद्यार्थी का मन पूर्णत: पढ़ने में लगा है और व्यर्थ की बातों से वह दूर रहता है । टी.वी. फिल्म या उपन्यास आदि से दूर है तो उसका ब्रह्मचर्य ठीक रहता है । जिससे उसकी स्मृति बढ़ती रहती है । अन्यथा कमजोर हो जाती है। विषय—भोग— भोग दो प्रकार के होते है भोग—उपभोग। भोजन वस्त्र आदि के पाँचों इन्द्रिय संबधित विषय —भोग करके छोड़ दिये जाते हैं वह भोग है और भोग करके फिर भोगने योग्य वस्तु उपभोग है । हर विद्यार्थी चाहता है मैं अच्छे वस्त्र पहनूँ अच्छे से अच्छा भोजन करूँ, सुगंधित तेल केशों में डालू आदि । इन बातों की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए, यदि इस प्रकार की इच्छा होती है तो वह पढ़ने में विघ्न उत्पन्न करती है। इसलिये विद्यार्थी को भोग त्यागने योग्य है। क्रोध— घर में लडाई—झगडे के समय विद्यार्थी को क्रोध नहीं करना चाहिये, क्योंकि क्रोधी के पास विद्या नहीं रहती और वह अध्ययन से वंचित रह जाता है जिससे पतन हो जाता है। लालच— बिना परिश्रम के ही पदार्थों की प्राप्ति की इच्छा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह पुरूषार्थ हीन हो जाता है। खाने की इच्छा— अत्यन्त गरिष्ठ स्वादिष्ट पदार्थों की भी खाने की इच्छा विद्यार्थी को नहीं करनी चाहिये क्यों कि उससे निद्रा आने के कारण अध्ययन में बाधा आती है । मन बहलाने के लिये सिनेमा, ताश, शतंरज आदि के द्वारा भी अध्ययन नहीं कर सकेगा। इसके अतिरिक्त विद्यार्थी को अधिक सोना नहीं चाहिये और अधिक समय शरीर की सेवा में नहीं लगाना चाहिये।
‘‘सुखार्थी चेत् व्यजेद्विद्यो विद्यार्थी च त्यजेत् सुखं। सुखार्चिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम् ।।
यदि सुख की अभिलाषा हो तो मनुष्य को चाहिये कि वह विद्या को त्याग दे और यदि विद्या प्राप्ति की इच्छा हो तो सुख को त्याग दे और क्योंकि सुख चाहने वाले को विद्या की प्राप्ति कैसे हो सकती है और विद्यार्थी को सुख कैसे मिल सकता है, इसलिये प्राचीन समय मे विद्याध्ययन करने के लिये गुरुकुल में भेजा जाता था, जहाँ एकान्त होता था, सुख सामग्री प्राप्त नहीं होती थी। २५ वर्ष की उम्र तक गुरूओं के पास रहकर विद्या अध्ययन करते थे, विद्वान होने पर इच्छा होने पर ग्रहस्थ आश्रम में रहते थे या दीक्षा लेकर आत्म कल्याण पथ पर बढ़ जाते थे। इसलिये पुराने समय में अधिक विद्वता पायी जाती थी। सुख सामग्री मिलने के कारण विद्यार्थी विद्वान नहीं बन पाते हैं, घर संबधी मोह त्यागने पर ही विद्वान बन पाता है । यही कारण है कि वर्तमान में विद्यालयों में सुख सामग्री अधिक मिलने के कारण पढ़ नहीं पाते हैं। अत: उपयुक्त आठों नियमों को पूर्णत: पालन करने वाला ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति करता है।
‘‘गृह आसक्तस्थ कुतो विद्या’’
घर में आसक्त विद्यार्थी को विद्या प्राप्त नहीं हो सकती है।