वर्तमान में विद्वानों के लिए मैं कुछ दिशा निर्देश देना चाहती हूँ जैसा कि मैंने अपनी गुरुपरम्परा में देखा है, सुना है। बात यह है कि विद्वानों को आगम के परिप्रेक्ष्य में अपनी चर्या बनानी चाहिए और उसी के अनुकूल सभा में प्रवचन करना चाहिए। वर्तमान में दिगम्बर परम्परा में दो भेद चले आ रहे हैं-तेरहपंथ और बीसपंथ। तेरहपंथ लगभग ४०० वर्ष पुराना है।
उसका उल्लेख पं. श्री बनारसीदास जी ने अपनी आत्मकथा में किया है जिसे मैंने पढ़ा है। इस विषय में मैं आपको नहीं ले जाऊँगी। मैं तो इतना कहूँगी कि आगम के परिप्रेक्ष्य में हर एक विषय को समझना और समझाना चाहिए। विद्वानों को प्रान्तीय परम्परा का दुराग्रह नहीं रखना चाहिए। सबसे पहला उदाहरण पं. श्री सुमेरचंद जी दिवाकर का मैं आपको बताती हूँ। इन्होंने इसे अपने ‘चारित्र चक्रवर्ती’ और ‘आध्यात्मिक ज्योति’ ग्रंथ में लिखा है।
ये चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के परमभक्त, अनन्यतम शिष्य रहे हैं। इन्होंने अपने मुख से स्वयं कई बातें बताई थीं। आचार्य शांतिसागर जी महाराज प्रतिदिन पंचामृत अभिषेक देखकर आहार के लिए उठते थे। मैंने स्वयं भी देखा है कि कुंथलगिरि में अंतिम दिन तक भी उन्होंने पंचामृत अभिषेक देखा है। उनकी समाधि के समय मैं एक महीना कुंथलगिरि रही। मैंने देखा प्रतिदिन पंचामृत अभिषेक की बोली होती थी।
उत्तरप्रदेश के भी लोग बोली लेते थे, सेठ भागचंद जी सोनी-अजमेर ने भी एक दिन बोली ली थी और उन्होंने अपनी पत्नी के साथ बड़ी भक्ति और श्रद्धा से भगवान का पंचामृत अभिषेक किया था। एक दिन आचार्यश्री ने पं. श्री सुमेरचंद जी से कहा-आप पंचामृत अभिषेक को प्रमाणिक मानते हैं कि नहीं, तब पं. जी ने कहा-हाँ, आगम में लिखा है, मैं इसको प्रमाणिक मानता हूँ।
तो आचार्यश्री ने कहा-फिर आप पंचामृत अभिषेक क्यों नहीं करते हैं? पं. जी ने कहा-मेरे प्रान्त में बुजुर्गों में परम्परा नहीं है, इसलिए मैं नहीं करता हूँ। एक दिन पंचामृत अभिषेक हो रहा था, आचार्यश्री देख रहे थे। पं. श्री सुमेरचंद जी जल का अभिषेक करके पीछे सरके, तो आचार्यश्री ने उनका हाथ पकड़ लिया और दूध के कलश से अभिषेक हो रहा था, उसमें उनका हाथ लगा दिया, यह लोगों के लिए कौतुक का विषय था।
पं. श्री सुमेरचंद जी जब इस संस्मरण को सुनाने लगते थे, तो उनकी आँखों में अश्रु आ जाते थे, वे हर्ष-विभोर हो जाते थे और गुरु के उपकार को स्मरण करते और कहते कि आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज किस तरह से विद्वानों को आगमनिष्ठ बनाते थे और आगम के अनुरूप प्रवृत्ति करने की शिक्षा देते, आदेश देते और जबरदस्ती प्रेरित भी करते थे। मैं आपको आर्यिका विशुद्धमती जी के बारे में बताती हूँ जो सतना की थीं।
उन्होंने मुझे बताया कि मेरी दीक्षा के समय आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज ने कह दिया कि तुम्हें सभा में पंचामृत अभिषेक करना होगा। तो मेरे सामने समस्या थी क्योंकि मैं बुंदेलखण्ड की थी और जहाँ कट्टर तेरहपंथी लोग रहते हैं, जहाँ पंचामृत अभिषेक नहीं करते हैं और न स्त्रियाँ अभिषेक करती हैं। तब मैंने पं. श्री पन्नालाल जी साहित्याचार्य, पं. श्री जगन्मोहनलाल शास्त्री और पं. श्री कैलाशचंद जी आदि से पूछा कि क्या आगम में प्रमाण है और मुझे अभिषेक करना उचित है?
तब विद्वानों ने कहा-हाँ, आगम में प्रमाण है और जब आप आचार्यश्री शिवसागर जी को अपना गुरु बना रही हैं तो आपको उनकी बात मानकर अभिषेक करना चाहिए। उन्होंने बताया कि जब मैंने सभा में पंचामृत अभिषेक किया, उसके अनंतर मेरी दीक्षा हुई है। पं. श्री पन्नालाल जी साहित्याचार्य को मैंने देखा कि वे दुराग्रही नहीं थे। दिल्ली में और हस्तिनापुर में मैंने उन्हें दो बार अपने प्रशिक्षण शिविर में कुलपति के पद पर आसीन कराया।
दिल्ली दरियागंज की घटना है जब वे अष्टमी, चतुर्दशी को हरी नहीं लेते थे। यह एक प्रान्तीय परम्परा है मैं तो समझती हूँ सारे भारत की जैन समाज में ऐसा है लेकिन ऐसा कहीं अपने दिगम्बर परम्परा के जैन ग्रंथों में देखने को नहीं मिलता है।
आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज कहते थे अगर आप अष्टमी, चौदस को हरी नहीं खायेंगे, दोष मानेंगे तो नवमी, दशमी को भी नहीं खा सकते। फल वृक्ष से अलग होने के बाद निर्जीव है। उसे प्रासुक करके खाने में कोई दोष नहीं है।
हम वनस्पति के कण-कण में जीव नहीं मानते।
आचार्य वीरसागर जी महाराज ऐसा नहीं मानते थे कि फल को गरम करो, बिना गर्म किए फल सचित्त हैं, अचित्त नहीं। आचार्य शांतिसागर जी महाराज आदि सभी बिना गरम किए फल लेते थे। आचार्य संघ में हरे फल को, हरे फल के रस को लेने की परम्परा बराबर चली आई है।
आचार्यश्री ने मेरी माँ मोहिनी से भी कहा था कि अष्टमी-चतुर्दशी को अगर आपका गृहस्थाश्रम में हरी का त्याग भी है तो यहाँ संघ में आकर लेना पड़ेगा। उनके आग्रह से, आदेश से मेरी माँ मोहिनी ने भी अष्टमी, चतुर्दशी को हरी लेना शुरू किया था और मैंने भी आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज के कहने से ही अष्टमी-चतुर्दशी को हरी लेना शुरू कर दिया था।
यह परम्परा किसी श्वेताम्बर मान्यता से आई है, अपने किसी दिगम्बर ग्रंथ में नहीं है। एक बार पं. पन्नालाल जी से हरी के विषय में चर्चा हुई।
ब्र. माधुरी (वर्तमान में आर्यिका चंदनामती) ने सूखे चने, मटर आदि लाकर उसमें जीव दिखा दिए। सूखे चने, मटर आदि में जीव पड़ जाते हैं। जब इन्हें पानी में भिगोया जाता है तो फूलने के बाद जीव दिखते हैं। तब पं. श्री पन्नालाल जी ने स्वीकार किया कि अष्टमी को सूखे चने, मटर आदि की सब्जी खाना यह आगम परम्परा नहीं है।
मैं एक उदाहरण और आपको बताती हूँ
ब्र. श्री फागूलाल जी का। इन्होंने आचार्यश्री वीरसागर जी से मुनिदीक्षा ली थी। सन् १९५६ में जब मैं संघ में पहुँची, तब ये क्षुल्लक श्री चिदानंद सागर जी थे। इन्होंने अपनी एक घटना सुनाई थी। इन्होंने बताया कि मैं कट्टर तेरहपंथी था, कलकत्ते में रहता था। दिगम्बर धर्म से प्रभावित होकर मैं ओसवाल श्वेताम्बर से दिगम्बर बन गया, मैंने दिगम्बर धर्म को अपनाया। संघ में ब्र.श्री प्यारेलाल भगतजी की संगति से मैं पूर्णरूपेण सुधारक विचारधारा का हो गया था।
जब आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज का चातुर्मास ईसरी में हो रहा था, तब पंचामृत अभिषेक को देखकर मैंने प्यारेलाल जी से चर्चा की कि संघ में ऐसा क्यों होता है? महिलाएँ भी अभिषेक करती हैं यह सब क्या है? तब श्री प्यारेलाल जी ने कहा-यह सब आगमसम्मत है। आगम में दूध, दही वगैरह से अभिषेक का विधान है, यह कोई दोष नहीं है।
आज जो यह तेरहपंथ की परम्परा चली है इसका कारण, कुछ लोगों ने दूध, दही से अभिषेक करके, गंधोदक विसर्जित नहीं किया होगा, उसमें जीव-जन्तु मरे होंगे, मक्खियाँ गिर गई होंगी, जिसे देखकर लोगों ने दूध, दही से अभिषेक करने को मना कर दिया होगा और एक कारण यह भी हो सकता है कि बाजार का दूध, दही लाकर अभिषेक कर दिया होगा जबकि शुद्ध दूध, दही जैसा कि श्रावक साधुओं को आहार में देते हैं, वैसा लाकर अभिषेक करना चाहिए था।
कुछ इन्हीं कारणों से तेरहपंथ की परम्परा चली है। क्षुल्लक श्री चिदानंद जी ने बताया कि तब मैंने ब्रह्मचारी अवस्था में उनसे पूछा कि अगर मैं अपने हाथ से गाय का दूध निकाल कर लाऊँ तो बेलगछिया के मंदिर में दूध, दही का अभिषेक कर सकता हूँ? तब प्यारेलाल जी ने कहा-हाँ, कर सकते हो, तब मैंने ऐसा किया
लेकिन प्रान्तीय परम्परा से मंदिर में ऐसा अभिषेक न होने से कहीं बहुत ज्यादा विवाद का विषय न बन जाये अत: मैंने प्रतिदिन दूध का अभिषेक नहीं किया। पुरानी बाड़ी के मंदिर में पंचामृत अभिषेक की परम्परा थी अत: वहाँ जाकर मैं कभी-कभी दूध का अभिषेक कर आता था। मेरे कलकत्ता चातुर्मास में ब्र. श्री प्यारेलाल जी ने बीसपंथ परम्परा को आगमसम्मत कहकर समर्थन दिया था। जब मैंने सन् १९६३ में कलकत्ता में बेलगछिया में चातुर्मास किया, उस समय ब्र. प्यारेलाल जी मुझसे अत्यधिक प्रभावित थे। वे मेरी प्रात:४ बजे से रात्रि १० बजे तक की चर्या अपनी आँखों से देखा करते थे
और सभी बातों में रुचि लेते एवं मेरे पास अत्यधिक समय देते थे। आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज की आज्ञा थी कि संघ में चैत्यालय रखना। उनका कहना था कि संघ में ब्रह्मचारिणी बहनें प्रतिमा जी रखें और प्रतिदिन पंचामृत अभिषेक-पूजन करें क्योंकि कहीं भी समाज में जाकर झगड़ा करना ठीक नहीं है, कहीं पर पंचामृत अभिषेक होता है कहीं नहीं, कहीं स्त्रियों को अभिषेक करने देते हैं कहीं नही।
अत: संघ में प्रतिमा जी रखना जरूरी है। दूसरी बात यह भी है कि जब साधु एक स्थान से दूसरे स्थान के लिए विहार करते हैं तो रास्ते में जगह-जगह पड़ाव डालना पड़ता है, जहाँ मंदिर नहीं होते तो साधु बिना दर्शन किए, बिना अभिषेक देखे आहार पर नहीं उठ सकते, अत: संघ में प्रतिमा जी रखना बहुत आवश्यक है।
भगवान के दर्शन किए बगैर आहार नहीं
मैंने प्रारंभ से लेकर आज तक सीरियस स्थिति में भी भगवान के दर्शन किए बगैर आहार नहीं किया है और न मैंने संघ में साधुओं को देखा है। आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा से पूर्णरूपेण बंधे हुए साधुओं के संघ में चैत्यालय रहता है, संघ के ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणियाँ अभिषेक करते हैं और प्रतिदिन साधु दर्शन करते हैं, अभिषेक देखते हैं, दर्शन करके ही आहार पर उठते हैं। आज कुछ संघों में परम्परा चल गई है
कि जब साधु शहर से विहार करते हैं तब यदि ५०-६० किमी. तक जैन के गाँव नहीं आते हैं, जैन मंदिर नहीं हैं तो उनके साथ के श्रावक कहते हैं कि मैंने तो गुरु के दर्शन कर लिए, मेरे देवदर्शन का नियम पूरा हो गया है लेकिन ऐसा नहीं है, अभी साधु देव नहीं हैं यह बात ध्यान में रखना चाहिए, उनके दर्शन से देवदर्शन का नियम पूरा नहीं हो सकता। आचार्यश्री शांतिसागर जी एवं आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के अनुसार भगवान के बिना दर्शन किए साधु को आहार पर नहीं उठना चाहिए,
यह एक स्वस्थ परम्परा है। आज जो साधु अपने संघ में चैत्यालय रखते हैं, तो कुछ लोग उनकी टीका टिप्पणी करते हैं। आज विपरीत हो रहा है, बड़ा आश्चर्य हो रहा है और वैसा ही लगता है जैसा कि एक बार हम लोग विहार करके मेरठ से हस्तिनापुर आ रहे थे, तो बीच में एक इंचौली गाँव में ठहरे, वहाँ पर मंदिर नहीं है, उस दिन वहाँ पर कुछ श्वेताम्बर साध्वियाँ ठहरी हुई थीं। होता क्या है?
उन साध्वियों ने वहाँ पर अपने कपड़े वगैरह धोए। मेरठ के कुछ सज्जन बहुत सी पूड़ी, सब्जी, नुक्ती, पकवान वगैरह सब बाजार की बनी हुई वस्तुएँ अपने खाने के लिए लेकर आये थे, जब उन्होंने अपने खाने के लिए सामान खोला, तो वे सभी श्वेताम्बरी साध्वियाँ वहाँ अपने पात्र लेकर पहुँच गर्इं और माँगकर उनका खाना ले लिया और खा लिया।
जब जाने लग गर्इं तब हम लोगों से बोलीं-आप लोग उद्दिष्ट आहार लेंगी क्योंकि आपके निमित्त से यहाँ चौका बन रहा है। इस प्रकार कहकर वे हम पर दोषारोपण थोप गर्इं। हम हँसते रहे, आश्चर्य किया, उनको क्या समाधान करना, क्या बात करना और वे सब तो ऐसा कहकर चल पड़ीं।
तो ऐसे ही लगता है जो स्वयं आगम परम्परा को न निभायें, गुरु परम्परा से अतिरिक्त रहें और दूसरों की निंदा करने लग जाएँ, यह तो उल्टा हो रहा है। मैं कलकत्ता चातुर्मास के समय की बात बताऊँ, एक दिन ब्र. प्यारेलाल भगत जी के सामने चर्चा आई कि संघ में प्रतिदिन चैत्यालय में पंचामृत अभिषेक होता है।
५ किलो दूध आता है, दूध से शांतिधारा होती है। वहाँ पर कुछ श्रावक लोग जो चौके के लिए शुद्ध दूध लेने जाते थे, वे शुद्ध दूध लाकर भक्ति से भगवान का अभिषेक करते थे। टीकमचंद जी और कई एक श्रावक भक्तिमान थे। उन्होंने अपना रोज का नियम बना रखा था कि जब तक माताजी यहाँ रहेंगी, तब तक हम रोज चैत्यालय में दूध से अभिषेक एवं शांतिधारा करेंगे।
एक दिन किसी ने यह चर्चा उठाई कि प्रतिदिन इतना-इतना दूध आता है जो कि बेकार ही जाता है, किसी के पेट में नहीं जाता है। तब भगतजी ने समाधान दिया कि जो भगवान का दूध से अभिषेक और शांतिधारा कर रहे हैं वे तो महान पुण्य का संचय कर रहे हैं, तुम उसे गलत कहकर क्यों पाप बांध रहे हो?
अरे! लोगों ने तो भगवान की भक्ति में हीरे-मोती चढ़ाए हैं, रत्न चढ़ाएँ हैं, सोने की गिन्नी, मोहरें चढ़ाई हैं। चढ़ा हुआ द्रव्य माली को जाता है, तो जाने दो, दूध भी जाता है जाने दो, तुम्हारा क्या बिगड़ता है, यह सब तो आगमसम्मत क्रियाएँ हैं।
मैं वहाँ मंदिर में भगवान के चरण का स्पर्श कर लेती थी,
मैं वहाँ मंदिर में भगवान के चरण का स्पर्श कर लेती थी, उस पर भी समाज में कुछ विवाद उठा था। तब भी ब्र. प्यारेलाल भगत जी ने उन लोगों से कहा कि देखिए, आप तेरहपंथी हैं तो भी आर्यिका को पड़गाहन करके चौके में उनका चरण प्रक्षाल करते हैं। नवधाभक्ति में चरण प्रक्षालकर चरण छूते हैं कि नहीं, तो वे बोले-छूते हैं, तो आर्यिकाएं सामान्य महिलाओं की कोटि में आपके लिए नहीं हैैं? बोले-नहीं, वे तो पूज्य हैं, महान हैं।
तब भगत जी बोले-जब वे महान हैं, पूज्य हैं तो भगवान के चरण का स्पर्श कर लिया तो इसमें आप तेरहपंथी को भी ऐतराज नहीं करना चाहिए। इस प्रकार उन्होंने समाधान दिया। कलकत्ता में एक ब्र. चमेलीबाई जी भी कट्टर तेरहपंथी थीं लेकिन भगतजी के अनुशासन में चलती थीं, हमारे पास बैठती थीं, पंचसंग्रह का खूब स्वाध्याय चलता था, गोम्मटसारकर्मकाण्ड आदि ऊँचे-ऊँचे ग्रंथों के स्वाध्याय चलते थे, वे २-३ घंटे स्वाध्याय में भाग लेती थीं। कई बार स्त्री अभिषेक के बारे में चर्चा होती थी।
मैंने उन्हें प्रमाण भी दिखाए और कहा कि अगर स्त्री अपवित्र है तो वह पंचकल्याणक में क्यों भाग लेती है?, इन्द्राणी क्यों बनती है?, जिनबालक को लेकर क्यों जाती हैं?, हवन में क्यों शामिल होती हैं?, स्त्रियाँ साधुओं को आहार देती हैं तो उन्हें शुद्ध मानेंगे कि नहीं? तब उनके गले मेरी बात उतर गई।
उन्होंने एक दिन कहा-माताजी! मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मैं भी अभिषेक जरूर करूँगी लेकिन यहाँ परम्परा नहीं है अत: मैं आपके संघ के चैत्यालय में अभिषेक करूँगी। कई बार वे चैत्यालय में आकर दूध से अभिषेक कर जातीं लेकिन जरा जल्दी आकर कर जाती थीं कि ज्यादा समाज में चर्चा का विषय न बने लेकिन उन्हें इस बात पर पूर्ण श्रद्धा हो गई थी।
वर्तमान में कई बातें ऐसी हैं, मेरा तो विद्वानों से यही कहना रहता है कि आप जिन-जिन साधुओं से बंधे हुए हैं, बंधे रहें लेकिन आप लोगों को अन्य साधुओं की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और न कभी वर्गभेद करना चाहिए। वर्तमान में साधुओं के निमित्त से आज वर्गोदय हो रहा है।
कहा जाता है यह उस परम्परा के साधु के भक्त हैं, यह उस परम्परा के पण्डित हैं, ऐसा साधुओं के निमित्त से वर्गोदय होना बहुत गलत है, भगवान का शासन सर्वोदयी शासन है।
सर्वोदय पाठशाला का प्रचार
आगरा के एक सज्जन फिरोजाबाद में मंच पर खड़े होकर सर्वोदय पाठशाला का खूब प्रचार कर रहे थे कि हम सर्वोदय पाठशाला खोल रहे हैं और स्वयं वर्गोदय से बंधे हुए थे, वर्गोदय का प्रचार कर रहे थे। एक वर्ग से जुड़े थे, दूसरे वर्ग के साधु तक को नमस्कार नहीं करते थे।
मुनि भक्त तो थे, लेकिन केवल अपने वर्ग की आर्यिकाओं, मुनियों को नमस्कार करते थे, दूसरे वर्ग के साधु-साध्वियों को नमस्कार नहीं करते थे अत: लोग उन्हें अच्छा नहीं कहते थे। स्वयं में भले ही वे अपने को राजा समझें लेकिन ऐसी बात अच्छी नहीं है। देखा जाये तो साधुओं के निमित्त से, विद्वानों के निमित्त से या संस्थाओं के निमित्त से वर्गभेद नहीं होना चाहिए क्योंकि अपनी दिगम्बर जैन समाज मुट्ठी भर ही तो है।
भगवान ऋषभदेव, भगवान महावीर का शासन, शाश्वत जैनधर्म, तीर्थंकर परम्परा यह सब हमारा और आपका बनाया हुआ नहीं है। हम और आप इसमें संशोधन, परिवर्तन, परिवर्धन नहीं कर सकते हैं। हमारा और आपका यही कर्तव्य है कि उस सर्वोदयी शासन में वर्गोदय न करें, विद्वान अगर दूसरे साधुओं का भी सम्मान और आगम का सम्मान सामने रख करके अपनी चर्या बनाते हैं और आगम के आधार को लेकर ही सभा में प्रवचन करते हैं, तो ठीक है।
आप सभा में तेरहपंथ, बीसपंथ विषय को न लें लेकिन अलग से जब आपके सामने चर्चा आवे तो बीसपंथ का खण्डन, जिनशासन देवी-देवताओं का खण्डन नहीं करना चाहिए। आगम में शासन देव-देवियों की पूजन का, भक्ति का विधान है। मैं इसके अनेकों प्रमाण आपको दिखा सकती हूँ।
श्री पूज्यपाद स्वामी का पंचामृत अभिषेक पाठ में है, शिलालेखों में यह बात स्पष्ट है। इस अभिषेक पाठ में दिक्पालों का आह्वान, उनको अर्घ्य चढ़ाना, शासन देव-देवियों का आह्वान, उनको अर्घ्य चढ़ाना स्पष्ट लिखा हुआ है।
मेरे द्वारा रचित विधान
आज यह देखा जाता है कि मेरे द्वारा रचित कल्पद्रुम विधान विद्वान कराने के लिए ले जाते हैं, तेरहपंथ से करते हैं तो उसमें जो शासन देव-देवियों के अर्घ्य हैं, भगवान के माता-पिता के अर्घ्य हैं, उसको छोड़ देते हैं।
उसके मंत्रों को भी बदल देते हैं, जबकि यह बहुत गलत है, किसी की कृति को कांट-छांट करना, घटाना-बढ़ाना, परिवर्तन करना आदि सब दोषास्पद है। देखा जाये तो यह विद्वानों के लिए उचित नहीं है। उन्हें हमेशा अपने प्राचीन ग्रंथों के आलोक में हर एक बात को समझना चाहिए और प्रान्त का, परम्परा का दुराग्रह छोड़ करके आगम के पक्ष का समर्थन करना चाहिए। और भी कई एक विषय ऐसे हैं, सज्जातियत्व का विषय भी ऐसा है।
वर्तमान में सूरिमंत्र के बारे में बड़ी चर्चा उठती है कि जहाँ पर आचार्य, मुनि न हों, वहाँ प्रतिष्ठा में कौन सूरिमंत्र दे जबकि यह बात निराधार है। आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज कहते थे कि किसी भी प्रतिष्ठा ग्रंथ में यह नहीं है कि मुनि ही सूरिमंत्र दे, सूरि का अर्थ है आचार्य, लेकिन यहाँ पर जो सूरिमंत्र है वह प्रतिष्ठाचार्य से संबंधित है। प्रतिष्ठाचार्य का अर्थ है जो प्रतिष्ठा कराने में सूरि हैं-प्रधान हैं अर्थात् उस विषय के आचार्य हैं।
प्रतिष्ठाचार्य, पंडिताचार्य, विधानाचार्य ये सभी अपने-अपने विषय के आचार्य हैं, अत: प्रतिष्ठाचार्य को सूरिमंत्र देने के लिए पूर्ण अधिकार है। इस प्रकार मैंने विद्वानों के लिए कुछ दिशा निर्देश दिए हैं, जिन्हें आप सभी विद्वान आगम के परिप्रेक्ष्य में प्रयोग में लाएंगे, ऐसा मेरा कथन है।