अर्हंत आदि पंच परम गुरुओं की पूजा करने में कुशल, ज्ञान आदिकों में यथायोग्य भक्ति से युक्त, गुरु के प्रति सर्वत्र अनुकूल-प्रवृत्ति, प्रश्न, स्वाध्याय, वाचना, कथा और विज्ञप्ति आदि में कुशल, देश, काल और भाव के स्वरूप को समझने में तत्पर तथा आचार्य के अभिप्राय के अनुरूप आचरण विनय है। विनय सर्व सम्पत्तियों का मूल है। यही मानव जीवन का आभूषण है और संसार समुद्र से पार करने के लिए नौका के समान है।
मूलाचार में विनयकर्म का लक्षण करते हुए कहा है कि ‘‘विनीयंते निराक्रियंते संक्रमणेद्योदीरणादि भावेन प्राप्यंते येन कर्माणि तद्विनयकर्म शुश्रूषणं।’’ जिसके द्वारा कर्म दूर किये जाते हैं-निराकृति किये जाते हैं, संक्रमण, उदय, उदीरणा आदि भावों को प्राप्त करा दिये जाते हैं, वह विनय कर्म है अर्थात् शुश्रूषा करना। तथा विनय का विस्तृत विवेचन करते हुए मूलाचार में विनय के पाँच भेद बताये हैं-दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तप विनय और औपचारिक विनय।
उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना आदि गुणों को धारण करना, पंच परमेष्ठी में अनुराग करना, उनकी पूजा करना, उनके प्रति असत्य आरोपों का निराकरण करना, उनके गुणों का कीर्तन करना, उनकी अवज्ञा नहीं करना। शंका, कांक्षा आदि अतिचारों को नहीं लगाना तथा जिनेन्द्र कथित तत्त्वों का दृढ़ श्रद्धान करना आदि दर्शन विनय है।
काल की शुद्धि में सूत्र ग्रंथों का पढ़ना-पढ़ाना, हाथ-पैर आदि धोकर पर्यंकासन से अध्ययन करना, नियम विशेष लेकर पढ़ना, बहुमान से पढ़ना, गुरु और ग्रंथ का नाम नहीं छिपाना, शब्द, अर्थ और उभय की शुद्धिपूर्वक पढ़ना। इस तरह काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिन्हव तथा व्यंजनशुद्धि, अर्थशुद्धि और उभयशुद्धि इन आठ के भेद से ज्ञान विनय के भी आठ भेद हो जाते हैं। इन्द्रियों को जीतना, कषायों को दूर करना, मन-वचन-काय की शुभ प्रवृत्तिरूप तीन गुप्तियों को पालना और पाँच समितिरूप प्रवृत्ति करना यह सब चारित्र विनय है।
आतापन आदि उत्तर गुणों में, अनशन आदि तपश्चरण में उत्साह रखना, तप में अधिक साधुओं की भक्ति करना और जो तप में हीन हैं, उनकी अवहेलना नहीं करना यह सब तप विनय है। पाँचवें औपचारिक विनय के मन-वचन-काय की अपेक्षा से तीन भेद हैं तथा इनके भी प्रत्यक्ष-परोक्ष की अपेक्षा दो-दो भेद हो जाते हैं।
गुरुओं को आते हुए देखकर आसन से उठकर खड़े होना, सिद्ध, श्रुत, आचार्यभक्तिपूर्वक उनकी वंदना करना, शिर से नमस्कार करना, उनको हाथ जोड़कर प्रणाम करना, जाते समय उनके पीछे-पीछे जाना, उनका आदर करना। उनसे नीचे बैठना, चलते समय उनके पीछे या उनसे बायें तरफ चलना, उनके सामने आप आसन पर न बैठकर नीचे बैठना, गुरु के लिए आसन-पाटा आदि देना, उन्हें पुस्तक-पीछी-कमण्डलु आदि देना, उन्हें वसतिका, गुफा आदि प्रासुक स्थान देखकर ठहराना और उनके सामने नम्र प्रवृत्ति से बैठना।
उनके शरीर तथा समय के योग्य मालिश वगैरह करना, उष्ण काल में शीत क्रिया-उपचार तथा शीत काल में उष्ण क्रिया आदि करना, उनकी आज्ञा के अनुसार उनके काम करना। गुरु के लिए चटाई, पाटा आदि संस्तर लगाना। उनके पुस्तक-कमण्डलु आदि उपकरणों का पिच्छिका से प्रतिशोधन करना।
इत्यादि रूप से जो भी गुरुओं का या अन्य साधु वर्गों का काय से कार्य किया जाता है वह सब कायिक विनय है। गुरुओं के प्रति आदरसूचक वचन बोलना जैसे कि हे भट्टारक! हे भगवन्! इत्यादि। उनके समक्ष हितरूप, मितरूप, मधुर, सूत्र के अनुकूल, अनिष्ठुर, कर्कशता रहित वचन बोलना, गृहस्थ के योग्य, असभ्य या अश्लील वचन मुुख से नहीं निकालना, अवहेलना, निंदा व पाप क्रियाकारक वचन भी नहीं बोलना यह सब वाचनिक विनय है।
राग, द्वेष, हिंसा आदि पाप भावों से मन को हटाकर धर्म व सम्यग्ज्ञान आदि में मन को लगाना, यह सब मानसिक विनय है। गुरु, आचार्य, उपाध्याय आदि के रहते हुए जो उनकी विनय की जाती है वह सब प्रत्यक्ष विनय है तथा उनकी अनुपस्थिति में जो उनका विनय किया जाता है और उनकी आज्ञा का पालन किया जाता है वह सब परोक्ष औपचारिक विनय है।
यहाँ विचार करने की बात यह है कि जब साधु दिगम्बर होकर भी स्वयं अपने गुरु व सहधर्मी साधुओं को, जो कि दीक्षा में एक रात्रि भी बड़े हैं, उनकी इस तरह विनय करते हैं, उन्हें आसन-उपकरण, वसतिका आदि देते हैं, उनके हाथ-पैर दबाना, तैल मर्दन आदि करना करते हैं, तब श्रावकों को तो विनय करना अतीव उपयोगी है ही।
इसलिए श्री कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि ‘‘विनय से हीन की सर्व शिक्षा निरर्थक है। शिक्षा का फल विनय है और विनय का फल सर्वकल्याण है। यह विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से ही तप, संयम और ज्ञान की सिद्धि होती है और विनय के द्वारा ही आचार्य तथा सर्वसंघ आराधित प्रसन्न हो जाता है।’’ जो गुरुओं की विनय नहीं करते हैं या अभिमान में आकर उनका अनादर-अपमान कर देते हैं उन्हें कितना कटु फल मिलता है- विजयार्ध पर्वत की श्रेणी पर रथनूपुर नाम का एक नगर है।
रावण के जमाने में सहस्रार नाम के राजा इस रथनूपुर के स्वामी थे। उसकी मानसुन्दरी रानी जब गर्भवती हुई तो उसे इन्द्र के वैभव को भोगने का दोहला हुआ। राजा सहस्रार ने विद्या के बल से इन्द्र जैसे वैभव तैयार किये और रानी के दोहले को पूर्ण किया। नव महीने बाद पुत्र रत्न के उत्पन्न होने पर राजा ने उसका नाम इन्द्र रख दिया। वह पुत्र जब यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ तब उसने विजयार्ध पर्वत के समस्त विद्याधर राजाओं को अपने वश में कर लिया और अपना विशाल वैभव इन्द्र जैसा बनाया।
उसके अड़तालीस हजार रानियाँ थीं, मुख्य रानी का नाम शची था, पुत्र का नाम जयन्त था तथा उसने अपने श्वेतवर्ण के उत्तम हाथी का नाम ऐरावत रखा। उसने चारों दिशाओं में सोम, यम, वरुण आदि नाम रखे, अपनी सभा का नाम सुधर्मा सभा रखा इत्यादि प्रकार से वह इन्द्र ‘इन्द्र’ के सदृश वैभव का अनुभव कर रहा था।
उस समय लंकापुरी का स्वामी माली नाम का विद्याधर था, यह लंका में ही रहकर समस्त विजयार्ध पर्वत के विद्याधरों पर अनुशासन कर रहा था। इन्द्र के प्रभाव से जब राजाओं ने उसकी आज्ञा उल्लंघन करना शुरू कर दिया तब माली राजा और इन्द्र राजा का आपस में भयंकर युद्ध हुआ।
उसमें इन्द्र ने माली को मार डाला। तब उस माली का भाई सुमाली अपनी रक्षा करता हुआ पाताल लंका में निवास करने लगा। वहाँ उसके रत्नश्रवा पुत्र हुआ। इस रत्नश्रवा विद्याधर की केकसी रानी ने ही रावण, विभीषण और कुंभकर्ण को जन्म दिया। जब रावण तरुण हुआ और उसे यह पता चला कि अपनी राज्य भूमि लंका को जीतकर इन्द्र विद्याधर ने मेरे बाबा को पराजित किया है तब उसके हृदय में प्रतिशोध का भाव उत्पन्न हो गया अत: उसने नाना विद्याएँ सिद्ध कीं।
कालांतर में चक्ररत्न को प्राप्तकर रावण दिग्विजय के लिए निकलता है। क्रमश: वह विजयार्ध पर्वत की भूमि में पहुँचता है तब इन्द्र अपने सभासद देव विद्याधरों को आदेश देता है कि युद्ध की तैयारी करो। पिता सहस्रार के मना करने पर भी इन्द्र रावण के साथ घनघोर युद्ध करता है। उस युद्ध में उभय पक्ष में तमाम सैनिकों का क्षय हो जाता है। अनंतर रावण और इन्द्र विद्याधर का परस्पर युद्ध शुरू हो जाता है।
उस युद्ध में शक्तिशाली रावण ने उछल कर अपना पैर इन्द्र के हाथी के मस्तक पर रखा और पैर की ठोकर से सारथी को नीचे गिरा दिया तथा इन्द्र को वस्त्र से बांधकर अपने हाथी पर चढ़ा दिया। इस तरह रावण इन्द्र को जीतकर अपनी लंकापुरी में ले आया। उस प्रसंग में राजा सहस्रार अपने सामंतों को साथ लेकर रावण के दरबार में आये।
रावण ने उनका यथायोग्य विनय किया। पुन: सहस्रार विद्याधर स्वामी ने कहा कि हे रावण! तुम अब मेरे पुत्र को छोड़ दो। रावण बोला-पूज्यवर! मैं उसे इस शर्त पर छोड़ सकता हूँ कि आज से लेकर तुम सभी लोग मेरे नगर में बुहारी देने का काम करो। धूलि, अशुचि पदार्थ, कंटक आदि को साफ करो। इन्द्र भी सुगंधित जल से पृथ्वी का सिंचन करें और उसकी शची आदि इन्द्राणियाँ पंचवर्ण चूर्ण से मंगल चौक पूरें।
यदि आप लोग यह शर्त मंजूर करते हो तो मैं इन्द्र को अभी ही छोड़ देता हूँ। इतना कहकर रावण बार-बार हँसने लगा। पुन: सहस्रार से विनयावनत होकर रावण ने कहा कि पूज्यवर! आप जैसे इन्द्र के पिता हैं वैसे ही मेरे भी पितातुल्य पूज्य हैं। मैं आपकी आज्ञा को सहर्ष पालूँगा। आज से इन्द्र मेरा चौथा भाई है, मैं उसके साथ इस पृथ्वी तल का राज्य निष्कंटक होकर अनुभव करूँगा। इत्यादि नाना प्रकार के विनय वचनों से सहस्रार को संतुष्ट कर इन्द्र को छोड़ दिया।
इन्द्र भी अपने पिता के साथ रथनूपुर नगर को वापस आ गया किन्तु उसके मन में शांति नहीं हो रही थी। उसे बंधन से छूटने का सुख नहीं था किन्तु अपने पराजय का महान दु:ख हो रहा था। एक दिन राजा इन्द्र अपने राजमहल में विद्यमान विशाल जिनालय में बैठे हुए पराजय की चिंता से अतिशय चिंतित हो रहे थे। इसी बीच में निर्वाणसंगम नाम के चारण ऋद्धिधारी महामुनि आकाश मार्ग से जाते हुए वहाँ जिनमंदिर के दर्शनार्थ आ गये।
राजा इन्द्र ने उनका अतिशय विनय करके उनके चरणों के निकट बैठकर अपने पराभव का कारण पूछा। उस समय मुनिराज कहते हैं- हे इन्द्र! इसी भव में तुमने लीलामात्र में कुछ पाप संचित कर लिया था उसके फलस्वरूप इस पराजय को प्राप्त हुए हो। सो सुनो! अरिंजयपुर नगर में वन्हिवेग विद्याधर ने अपनी ‘अहिल्या’ पुत्री का स्वयंवर किया था।
उस समय वहाँ तुम भी गये थे, किन्तु कर्म संयोग से कन्या ने चंद्रावर्त नगर के राजा आनन्दमाल के गले में वरमाला डालकर उसका वरण कर लिया। ईष्र्याजन्य बहुत भारी क्रोध के कारण तुम उसी समय से आनंदमाल से द्वेष करने लगे। कुछ ही दिन बाद आनंदमाल ने अपने भाई के साथ जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और उत्कृष्ट तप करने लगे। एक समय वे महामुनि रथावर्त पर्वत पर प्रतिमायोग से विराजमान थे।
उस समय तुम अपने विमान में बैठे हुए उधर से निकले, उन्हें पहचान लिया और उन्हें देखते ही क्रोध से सहित होकर अनेक प्रकार से उनकी हँसी की। तुम बोले-अरे! काम भोग में अतिशय लंपट तू अहिल्या पति है, इस समय तू यहाँ क्यों बैठा है? इत्यादि कहते हुए तुमने उन मुनिराज को रस्सी से कस कर लपेट दिया। फिर भी वे मुनिराज पर्वतसम निश्चल ध्यानमग्न बने रहे। यद्यपि आनन्दमाल मुनि किंचित् भी विकार को प्राप्त नहीं हुए थे किन्तु उन्हीं के समीप उनके छोटे भाई कल्याणमल मुनि प्रतिमायोग से विराजमान थे।
सो तुम्हारे इस कुकृत्य से दु:खी होकर उन्होंने प्रतिमायोग का संकोच कर तथा लम्बी और गरम श्वास भरकर तुम्हारे लिए इस प्रकार कहा कि तुमने इन निरपराध मुनिराज का तिरस्कार किया है इसलिए तुम भी बहुत भारी तिरस्कार को प्राप्त होवोगे। वे मुनि अपनी अपरिमित श्वास से तुम्हें भस्म ही कर देना चाहते थे परन्तु तुम्हारी सर्वश्री नामक भार्या ने उन्हें शांत कर लिया।
तुम्हारी सर्वश्री रानी सम्यग्दर्शन से युक्त तथा मुनिजनों की पूजा करने वाली थी इसलिए उत्तम हृदय के धारक मुनि भी उसकी बात मानते थे। यदि वह साध्वी उन मुनिराज को शांत नहीं करती तो उनकी क्रोधाग्नि कौन रोक सकता था? ‘‘जो मनुष्य साधुजनों का तिरस्कार करते हैं वे तिर्यंच गति और नरक गति में महान् दु:ख पाते हैं। जो मनुष्य मन में साधुओं का पराभव करते हैं वे इस लोक और परलोक में परम दु:ख को प्राप्त होते हैं’’ जो दुष्ट चित्त मनुष्य, तिर्यंच मुनियों को गाली देते हैं
अथवा मारते हैं, उन पापी मनुष्यों के विषय में क्या कहा जावे? मनुष्यों के मन-वचन-काय से किये गये अशुभ कर्म छूटते नहीं हैं, समय पाकर वे निकाचित कर्म अवश्य ही फल देते हैं। इस प्रकार से मुनिराज के द्वारा कहने पर तथा अनेक पूर्वभवों की घटना को भी सुनाने पर राजा इन्द्र को तत्क्षण ही अपने पूर्वजन्मों का स्मरण हो आया। इस भव में अपने द्वारा किये गये मुनिराज के तिरस्कार को भी स्मरण करता हुआ वह इन्द्र महान् दु:ख को प्राप्त हुआ।
गुरुदेव की बार-बार स्तुति करके अपने पुत्र को राज्य लक्ष्मी का भार सौंप दिया, अनन्तर अपने अनेक पुत्रों और लोकपालों के समूह के साथ जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। यद्यपि उनका शरीर इन्द्र के समान लोकोत्तर भोगों से ललित हुआ था तो भी उन्होंने असाधारण तप का भार धारण कर लिया।
तदनन्तर बहुत काल तक घोर तपश्चरण करके अन्त में शुक्लध्यान से कर्मों का क्षय कर निर्वाण को प्राप्त हो गये। आज भी ऐसे उदाहरण देखने में आते रहते हैं कि जो अपने धन या विद्या के मद से गर्विष्ठ हो मुनि अथवा आर्यिका आदि त्यागी वर्गों की निंदा करते हैं, उनका झूठा अप-प्रचार करते हैं वे निश्चित ही अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करते हैं। जो पापभीरु हैं वे तो उस पाप के फल को भोगकर पुन: त्यागियों की निंदा करना छोड़ देते हैं किन्तु यदि वे दीर्घकर्मी हैं तो न केवल अधिक-अधिक ही मुनि निंदा करते रहते हैं बल्कि निंदा करने का अपना एक धंधा ही बना लेते हैं।
शास्त्रों में तो ऐसा बतलाया गया है कि देव, धर्म या गुरु की निंदा से निकाचित कर्मों का बंध हो जाता है जिसका फल बिना भोगे नहीं छूटता है। इस जन्म में, अगले जन्म में अथवा अनेकों जन्म के अनंतर भी वह बंधा हुआ कर्म अपना फल देता ही देता है। इसलिए सदा गुरुओं की भक्ति और विनय करना चाहिए। गुरुओं की विनय के बल पर ही अर्जुन विशेष धनुर्धारी प्रसिद्ध हुए हैं। अनेकों मुनि व श्रावकों ने भी विनय के बल से मोक्षमार्ग को प्रशस्त किया है।
एक उदाहरण देखिए- एक तापसी जलस्तंभिनी विद्या के बल से यमुना के मध्य ध्यान करता था। किसी समय एक विद्याधर की पत्नी अपने पति से उसकी प्रशंसा करने लगी। विद्याधर ने कहा कि यह मिथ्यातपस्वी है। देखो! इसकी अज्ञानता मैं तुम्हें दिखाता हूँ। विद्याधर युगल ने चांडाल का वेष बनाकर नदी के किनारे बड़ा सा महल बनाया और भी अनेकों चमत्कार करने लगे। साधु ईश्वर आदि छोड़कर आकर बोला-महाशय! यह विद्या हमें भी दे दीजिए।
विद्याधर ने कहा-मैं चांडाल हूँ और तुम ब्राह्मण हो पुन: कैसे गुरु-शिष्य संबंध बन सकेगा?…….खैर, उसके अनुनय-विनय पर विद्याधर ने उसे वह विद्या दे दी। उस तापसी ने राजा के पास अपना चमत्कार दिखाना चाहा। इसी बीच में ये विद्याधर युगल चांडाल वेष में उसके सामने पहुँचे। साधु ने मन में सोचा कि ये नीच इस समय मेरा चमत्कार घटाने के लिए क्यों आ गये? उसी समय उसकी विद्या समाप्त हो गई।
तब लज्जित होकर तापसी ने सारी बातें बता दीं। राजा ने उन चांडाल दम्पत्ती को नमस्कार कर विद्या मांगी। चांडाल ने कहा- यदि आप कहीं भी मुझे देखें तो ऐसा कहें कि ‘‘मैं आपकी ही चरण कृपा से जीता हूँ’’ तब तो मैं आपको विद्या दे सकता हूँ। राजा ने स्वीकार कर लिया, चांडाल ने उसे विद्या दे दी। एक दिन राजा सिंहासन पर बैठे थे, उनके पास बहुत मंत्रीगण व सभासद बैठे हुए थे। उसी समय ये चांडाल युगल आये, राजा ने सिंहासन से उठकर नमस्कार करके विनय से कहा-
‘‘प्रभो! मैं आपके चरणों की कृपा से ही जीता हूँ।’’ इतना कहते ही वह सम्यग्दृष्टी विद्याधर बहुत प्रसन्न हुआ। राजा की विनय से प्रभावित होकर उन्होंने अपने विद्याधर दम्पत्ती के असली रूप को प्रगट किया और सम्यक्त्व के माहात्म्य को तथा विनय गुण के माहात्म्य को बतलाकर राजा को अनेकों और भी विद्याओं को देकर वे अपने विजयार्ध पर्वत पर चले गये।
इस उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जब लौकिक कार्य भी बिना गुरु की विनय के सिद्ध नहीं हो सकते थे तो परमार्थ कार्य की सिद्धि होना असंभव ही है अत: जो मनुष्य दर्शन, ज्ञान आदि की विनय करते हुए अपने गुरुओं की अतिशय विनय करते हैं, वे ही परम्परा से मोक्ष प्राप्त को प्राप्त करते हैं।