निरभिमानी मनुष्य जन और स्वजन, सभी को सदा प्रिय लगता है। वह ज्ञान, यश और संपत्ति प्राप्त करता है तथा अपना प्रत्येक कार्य सिद्ध कर सकता है। अनाशातना बहुमानकरणं च विनय;।
आशातना नहीं करना एवं योग्य व्यक्तियों का बहुमान करना विनय है। व्रत—विद्या—वयोऽधिकेषु नीचैराचरणं विनय:।
व्रत विद्या एवं उम्र में बड़ों के सामने नम्र आचरण करना विनय है। तस्मात् सर्वप्रयत्नेन, विनीतत्वं मा कदाचित् छर्दयेत्। अल्पश्रुतोऽपि च पुरुष:, क्षपयति कर्माणि विनयेन।।
इसलिए सब प्रकार का प्रयत्न करके विनय को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। अल्पश्रुत का अभ्यासी पुरुष भी विनय के द्वारा कर्मों का नाश करता है। शत्रु: अपि मित्रभावम् यस्माद् उपयाति विनयशीलस्य। विनय: त्रिविधेन तत: कर्त्तव्य: देशविरतेन।।
विनयशील होने पर मनुष्य का शत्रु भी मित्र हो जाता है। अत: अणुव्रती श्रावक का कत्र्तव्य है कि वह मन, वचन और काया, तीनों विधियों से गुण—संपन्नों व गुणों की विनय करें। अभ्युत्थानमंजलिकरणं, तथैवासनदानम्। गुरुभक्तिभावशुश्रूषा, विनय एष व्याख्यात:।।
गुरु तथा गुरुवत् जनों के सम्मान में उठने, हाथ जोड़ने, उपयुक्त आसन देने और भावों से उनकी सेवा—भक्ति करने को विनय कहा गया है। विनयो मोक्षद्वारं, विनयात् संयमस्तपो ज्ञानम्। विनयेनाराध्यते, आचार्य: सर्वसंघश्च।।
विनय मुक्ति का द्वार है। विनय से संयम, तप और ज्ञान होता है। विनय की आराधना से आचार्य तथा संपूर्ण संघ की आराधना हुआ करती है।