पं. श्री पन्नालाल साहित्याचार्य, सागरविश्ववन्द्य आचार्य शांतिसागर जी अपने विशाल संघ के साथ सन् १९२९ में सागर पधारे थे। तब मैं विद्यालय का एक छोटा छात्र था। आचार्य संघ में आचार्यश्री के अतिरिक्त मुनि श्री वीरसागर जी तथा चन्द्रसागर जी का नाम अधिक प्रख्यात था।
उस समय मुनियों के दर्शन दुर्लभ थे अत: सागर के समीपवर्ती नगरों तथा गाँवों से बहुत जनसमूह आया था। मोरा जी के प्रांगण में मण्डप लगाया गया था, उसी में सबके भाषण आदि होते थे। पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी भी उस समय सागर में ही थे। श्री मुनि वीरसागर जी गुरु जी के नाम से तथा चन्द्रसागर जी वैरिष्टर के नाम से जाने जाते थे। इन दोनों के भाषण सुनने के लिए जनता उत्सुक रहती थी।
सागर के बाहर मुझे इस संघ के दर्शन करने का सौभाग्य नहीं मिला। जब दिवंगत आचार्य शिवसागर जी के संघ में आने-जाने का अवसर मिला, तब विदित हुआ कि इस संघ के सब साधु तथा माताएं, आचार्यश्री वीरसागर जी की शिष्य परम्परा के हैं। आचार्य शांतिसागर जी महाराज के आदेशानुसार मुनि वीरसागर जी को आचार्य पद प्रदान करने का समारोह खानिया (जयपुर) राज. में हुआ था। वे बड़े गंभीर प्रवृत्ति के सुने जाते हैं। उनके चरणों में मेरी विनम्र विनयांजलि है।
आचार्य वीरसागर
-पंडितरत्न, विद्वत्तिलक श्री मक्खनलाल शास्त्री, मोरेना
परमपूज्य आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज ही एक ऐसे साधुरत्न आचार्य थे, जिन्हें चारित्रचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने स्वयं आचार्य पद दिया था। उस समय मैं आचार्य शांतिसागर जी महाराज की स्तुत्य समाधि के समय एक माह उन्हीं के चरण सान्निध्य में रहा था। वहाँ विचार होने पर मेरे समक्ष में महाराज ने आचार्य पद आचार्य वीरसागर जी महाराज के लिए भिजवाया था। साक्षात् आचार्य पट्टाधीश वीतराग महर्षि वीरसागर जी महाराज ही थे। वे अत्यन्त अनुभवी एवं सामाजिक गतिविधियों के पूर्ण जानकार थे।
संघ संचालन उन्होंने बड़ी दूरदर्शिता एवं प्रभावपूर्ण प्रभावना के साथ किया था, वे आगम के जानकार और उसके दृढ़ अनुगामी थे। वे कहा करते थे कि-ये तेरापंथी अधूरे तेरापंथी हैं, सच्चे तेरापंथी तो हम मुनिगण हैं, जो तेरह प्रकार का चारित्र पालते हैं। जब कोई विवाद उनके सामने आता था, तो वे आगम का उत्तर देकर कह देते थे कि ‘‘आगे तुम्हारी तुम जानो’’-यह उनका शांतिपूर्ण शास्त्रीय पद्धति का उत्तर था। वे यह भी कहते थे कि-भगवान के दर्शन तो उनकी शान्त मुद्रा मुखच्छवि के होते हैं और उनके चरण कमलों की पूजा होती है। उनके मार्ग दर्शन से समाज का बहुत कल्याण हुआ है। उनके प्रति समाज की दृढ़ श्रद्धा एवं परम भक्ति थी। उनके पूत चरणों में मैं त्रियोग से नमस्कृति करता हूँ। प्राप्त जनवरी १९७६
रत्नपरीक्षक वीरसागर
-पं. श्री जवाहरलाल जैन सिद्धान्तशास्त्री, भीण्डर (राज.)
परमपूज्य महान् चारित्रधर आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज शांतिसागराचार्य के प्रथम पट्टाधीश आचार्य थे। पूज्य स्व. आचार्यश्री धर्मसागर जी सदृश निर्भीक वक्ता एवं सहज वैरागी सत्पुरुष ने आप ही से कार्तिक शुक्ला १४ सन् १९५७ को दीक्षा ली थी। जिन्होंने प्राप्त आचार्य पद भी त्याग दिया, ऐसे अत्यन्त निर्लिप्त एवं मनीषी साधु आ. कल्प स्व. श्रुतसागर जी महाराज को भी भा. शु. ३, सन् १९५७ में खानिया (जयपुर) में आप (आ. वीरसागर जी) ने ही दीक्षा प्रदान की थी। प्राचीन स्व. आ. कुन्थुमती जी ने १९५४ में पुâलेरा में आ. श्री से ही दीक्षा ली थी।
सबसे बड़ी विशेष बात यह है कि महागणिनी आर्यिकारत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी-सैकड़ों ग्रंथोें की लेखिका आर्यिका को भी आपने ही सन् १९५६ में माधोराजपुरा में वैशाख कृष्णा २ को आर्यिका दीक्षा प्रदान की थी और नाम रखा-‘ज्ञानमती’। बस, आपके शिष्यों में आपके चिरस्मारक इतने सत्पुरुषों का नाम लेना ही पर्याप्त है। ये धर्मसागराचार्य तथा महाप्राज्ञा ज्ञानमती आप (आ. वीरसागर) की उन्नत गरिमा को सर्वकाल जो स्तंभ की तरह निश्चय रखे रखेंगे-इसमें शंका निरवकाश है। अहा हा! एक ज्ञानमती ने कमाल कर दिखा दिया।
अष्टसहस्री जैसे कठिन ग्रंथ को अनुवादित कर दुनिया के सामने रख दिया। जिस ग्रंथ को जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश जैसे महाकाय ग्रंथ में भी ‘‘कष्टसहस्री’’ (जै. सि. को. भाग-१, पृ. २१४, कॉलम-१) कहा गया है। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने आपके नाम को स्थायित्व कर दिखाने एवं गुरुभक्तिवश ही अपनी ग्रंथमाला का नाम भी ‘‘वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला’’ रखा है, जहाँ से शताधिक पुस्तवेंâ प्रकाशित हो चुकी हैं। ऐसे रत्नों के दीक्षागुरु रत्नदीक्षक पूज्य वीरसागराचार्य समस्त आचार्य के मूलगुणों के पालने में अत्यन्त तत्पर, सरलमना, गंभीर व सहिष्णु थे।
प्रत्यक्ष दर्शन का मुझे सौभाग्य प्राप्त न हो सका। इस बात को सोचकर मैं अपने आपको अभागा अनुभव करता हूँ और मन मशोस कर रह जाता हूँ। आज पूज्य स्व. आ. श्री वीरसागर जी देहत: तो न रहे हैं, परन्तु उनकी शिष्य प्रशिष्यावली तथा यश:काय, पूत नाम एवं उपदेश सदा-सदा अमर रहेंगे। मैं ऐसे महासाधु को सविनय त्रिकाय त्रिधा सदा ’‘नमन’’ करता हूँ।