विश्व में जितने भी धर्म, दर्शन या सम्प्रदाय हैं, सभी ने अहिंसा जैसे महान् धर्म के बारे में अपनी—अपनी तरह से चिन्तन किया है। इस दृष्टि से अहिंसा सार्वभौमिक भी है। हम अहिंसा को किसी एक धर्म की उपज या मान्यता नहीं कह सकते। यह तो आत्मा का धर्म है। जो भी आत्मा को मानता है, वह किसी न किसी रूप में अहिंसा को भी स्वीकृति देता है। यह अवश्य है कि किसी धर्म ने तो अहिंसा की विस्तृत व्याख्या की और किसी ने अपेक्षाकृत संक्षिप्त और अपनी सुविधानुसार, किन्तु अहिंसा के बारे में सोचा सभी ने और अपनी—अपनी शैली में उसे व्याख्यायित भी किया। यही कारण है कि मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म अहिंसा’ मान्य किया गया।
भारत इस विषय में अग्रणी देश है। भारत की आत्मा ‘अहिंसा’ रही है। जो लोग अहिंसा को बिल्कुल जानते तक नहीं थे, उन्होंने भारत आकर अहिंसा को सीखा, उससे प्रभावित हुए और उसे अपनाया। इसलिए भारत का अहिंसा सन्देश, भारत के सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में दिखायी देता है, इसी के बल पर आज भी यह सम्पूर्ण विश्व को शान्ति का पाठ पढ़ा रहा है।
भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में पैâले हुए धर्मों में ‘अहिंसा की गूँज’ किसी न किसी तरह सुनाई देती है। कुछ प्रमुख धर्मों में अहिंसा का विचार किस प्रकार प्रस्फुटित हुआ, उसी का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत है—
१. वैदिक धर्म और अहिंसा—संसार की प्राचीन सभ्यताओं में से एक वैदिक सभ्यता भी है। वैदिक परम्परा का प्रारम्भिक स्रोत वेद है। इसमें वेद को ईश्वर की वाणी माना जाता है तथा इसका रचयिता किसी पुरुष को नहीं माना जाता, इसलिए इसे अपौरुषेय कहा जाता है। यह मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की वाणी का अद्भुत संकलन है, इसमें ऋषियों ने प्रार्थना के रूप में अहिंसा शब्द का प्रयोग किया है—
अहिंसन्ती’ तथा ‘अहिंसन्तीरमानया’
इस परम्परा में वेदों को सबसे अधिक पवित्र ग्रंथ माना जाता है, जिसका एक अर्थ ‘ज्ञान’ है। इसीलिए वेद को ज्ञान का भण्डार माना जाता है। वेदों की संख्या चार है—(१) ऋग्वेद, (२) यजुर्वेद, (३) अथर्ववेद और (४) सामवेद। इनमें ऋग्वेद को विश्व की सबसे पुरानी पुस्तक कहा जाता है।
२. अहिंसक मित्र की कामना से ऋग्वेद में ऋषि कहते हैं—
यन्नूनमश्यां गिंत मित्रस्य यायां पथा।
अस्य प्रियस्य शर्मण्यिंहसानस्य सश्चिरे।।
अर्थात् हम अभिगमन (संगति) प्राप्त करें। मित्रभूत या मित्र के द्वारा दिखाये हुए मार्ग पर हम गमन करें। अिंहसक मित्र का प्रिय सुख हमें घर में प्राप्त हो।
शान्ति की भावना का व्यापक स्वरूप हमें यजुर्वेद के शान्तिमन्त्र में दिखायी देता है, जिसमें कामना की गयी है कि द्युलोक रूप, अन्तरिक्ष लोकरूप, भूलोकरूप, जलरूप, औषधिरूप, वृक्षरूप, सर्वदेशरूप, वेदत्रयीरूप, सर्वगरूप, तथा स्वरूपत: जो शान्ति है, वही शान्ति मेरे लिए हो।
३. यजुर्वेद का मन्त्र इस प्रकार है—
द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति: पृथिवी,
शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्ति: ब्रह्म
शान्ति:, सर्वं शान्ति: शान्तिरेव
शान्ति: सा मा शान्तिरेधि।।
इसी प्रकार वेदों के अनेक मन्त्रों, ऋचाओं में अहिंसादर्शन की भावनायें समाहित मिलती हैं। वेदों के बाद उपनिषद् साहित्य में भी अहिंसा और शान्ति की व्यापक चर्चा हुई है। छान्दोग्योपनिषद् में तप, दान, आर्जव (सरलता) अहिंसा और सत्य को आत्मयज्ञ की दक्षिणा माना है। शाण्डिल्योपनिषद् में दश यम की चर्चा करते हुए अहिंसा को प्रथम स्थान पर रखा है। अन्य उपनिषदों में भी अहिंसा की अनेक व्याख्याएँ हुई हैं।
४. अन्य ग्रंथों में अहिंसा—स्मृति साहित्य में भी अहिंसा सम्बन्धी भावनायें जगह-जगह व्यक्त की गई हैं। इनमें मनुस्मृतिकार ने माँस नहीं खाने वालों को उतना ही पुण्यवान् माना है जितना पुण्य किसी व्यक्ति को सौ वर्षों तक अश्वमेध यज्ञ करने पर प्राप्त होता है—
वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत् शतं समा:।
मांसानि च न खादेद्यस्तयो: पुण्यफलं समम्।।
अहिंसा की व्याख्या में यह भी कहा गया है कि प्राणियों के कल्याण के लिए अहिंसा का पूर्ण अनुशासन जरूरी है। इन्द्रियनिग्रह (संयम), राग—द्वेष परित्याग और अहिंसा के आचरण से सन्यासी मोक्ष प्राप्त करता है।
इसी प्रकार रामायण और महाभारत में भी अहिंसाधर्म की विस्तृत व्याख्या है। महाभारत में अहिंसा की व्यापकता प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि अहिंसा परमतत्त्व, परमधर्म, परमतप, परमसत्य और अन्यधर्मों का उद्गमस्थल है।
इस प्रकार अहिंसा की अनेक स्थलों पर व्यापक व्याख्या की गई है। गीता में श्रीकृष्ण ने अहिंसा को तप तथा मुक्ति का साधन माना है।
अठारह पुराणों में भी अहिंसा का विशद विवेचन है। गरुणपुराण में कहा गया है कि मन, वचन और कर्म से सभी जीवों के प्रति हिंसा के निवृत्त होना परम सुखकारी अहिंसा धर्म है—
कर्मणा मनसा वाचा सर्वभूतेषु सर्वदा।
हिंसाविरामको धर्मो ह्यािंहसा परमं सुखम्।।
मत्स्यपुराण में तो अहिंसा की महिमा बतलाते हुए यहाँ तक लिखा है कि चार वेदों के गम्भीर अध्ययन या सत्य भाषण से जितना पुण्य होता है, उससे कई गुना अधिक पुण्य अहिंसाव्रत के पालन से होता है।
चतुर्वेदेषु यत् पुण्यं पुण्यं सत्यवादिषु।
अहिंसायान्तु यो धर्मो गमनादेव तत्फलम्।।
अहिंसा को परम धर्म मानने वाले वेदाचार्य यज्ञों में पशु बलि का समर्थन वैâसे कर सकते हैं ? फिर भी यज्ञ कार्य में पशु बलियाँ हुयी हैं। तथा ‘वैदिकी िंहसा िंहसा न भवति’ कहकर उसे उचित भी ठहराया गया है। फिर भी वैदिक साहित्य में इस बात पर भी खुलकर चर्चा हुयी है कि कहीं वेदों में जो अज आदि का उल्लेख है उसका कोई और अर्थ (जो कि पशु से इतर हो) तो नहीं ?
महाभारत में कहा है कि मनु ने कभी कार्यों में अहिंसा का प्रतिपादन किया है। यज्ञ में पशुबलि आदि लोगों की मनमानी/स्वच्छन्दता के कारण होती है।
न वध: पूज्यते वेदे, हितं नैव कथंचन।
अर्थात् वेद में हिंसा की प्रशंसा नहीं की गई है। िंहसा से किसी प्रकार का हित/कल्याण भी नहीं हो सकता। इस महत्त्वपूर्ण विषय पर डॉ. कृष्णा आचार्य ने अत्यन्त श्रमपूर्वक अपने शोध ग्रंथ ‘पशु यज्ञ मीमांसा’ पर गहराई से विचार—विमर्श किया है।
योगदर्शन में ‘यम’ के अन्तर्गत अहिंसा की विशद व्याख्या प्राप्त होती है।
बौद्धधर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध ईसापूर्व छठी शताब्दी में जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के समकालीन हुए हैं। इस धर्म का जन्म भले ही भारत में हुआ हो किन्तु यही एक ऐसा भारत का धर्म है, जिसका प्रभाव सम्पूर्ण विश्व के विविध अञ्चलों में सर्वाधिक रहा है। आज भी यह दुनिया के अनेक राष्ट्रों का राष्ट्रीय धर्म है।
बौद्धधर्म में आरम्भ से ही अहिंसा की प्रधानता रही है। यह धर्म भी कोरे क्रियाकाण्ड तथा यज्ञों में पशुबलि इत्यादि का सदा से विरोधी रहा है। बौद्धधर्म के पालि भाषा में रचित पवित्र ग्रंथ ‘त्रिपिटक’ माने जाते हैं। त्रिपिटकों में अहिंसाधर्म की विस्तृत व्याख्या की गई है। संयुक्तनिकाय में स्पष्ट लिखा है कि मन, वचन और कर्म से अन्य प्राणियों को कष्ट न दिया जाए। धम्मपद का वाक्य है कि अहिंसा का पथिक न स्वयं किसी को कष्ट देता है और न अन्य किसी को कष्ट देने के लिए प्रेरित करता है। विनयपिटक के अनुसार अहिंसा का पथिक स्थूल जीवों को ही नहीं बल्कि पेड़—पौधों को भी कष्ट नहीं पहुँचाता है।
महात्मा बुद्ध ने ‘आर्य’ की व्याख्या में अिंहसक व्यक्ति को ही स्वीकार किया है। अहिंसा को आर्य का लक्षण बतलाते हुए वे कहते हैं—
न तेन आरियो होति, येन पाणानि हिंसति।
अहिंसा सव्वपाणानां, आरियो ति पवुच्चति।।
अर्थात् प्राणियों की हिंसा करने से कोई भी व्यक्ति आर्य नहीं कहला सकता बल्कि जो किसी भी प्राणी की िंहसा नहीं करता, वही वस्तुत: आर्य है।
महात्मा बुद्ध ने भिक्षुओं को शील के अन्तर्गत अिंहसक रहना, चोरी नहीं करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, सत्य बोलना तथा नशीले पदार्थों के परित्याग का उपदेश दिया है; ये सभी बातें भिक्षुओं के लिए आवश्यक हैं। भगवान बुद्ध ने मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार भावनाओं पर बहुत बल दिया है—ये भावनाएँ अहिंसा का ही प्रतिफलन हैं।
१. संयुक्त निकाय में अहिंसा का स्वरूप—संयुक्तनिकाय में महात्मा बुद्ध ने राजा से कहा—‘‘राजन् ! अपने मन को सभी दिशाओं में घुमाओ। तुम्हें अपने से प्यारा कोई भी प्राणी नहीं मिलेगा। जैसे, तुम्हें अपना जीवन प्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी अपना जीवन प्रिय है। जो अपनी भलाई चाहते हैं, वे दूसरों को भी कभी नहीं सताते हैं। विश्व के समस्त प्राणियों के साथ असीम—मैत्रीभावना बढ़ाना चाहिए; अत: तुम सदा मन में यही भावना भाओ कि विश्व के सभी प्राणी सुखी हों।’’
बुद्ध ने जन्म से किसी को क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य या शूद्र नहीं माना। उनका कहना था कि जिसके अन्तर्मन में सभी प्राणियों के प्रति दया नहीं है, उसे वृषल अर्थात् शूद्र समझना चाहिए।
वे कहते हैं—जैसा मैं हूँ, वैसे ही विश्व के सभी प्राणी हैं और जैसे वे सभी प्राणी हैं, वैसा ही मैं भी हूँ। इस प्रकार अपने समान सभी प्राणियों को समझकर, न किसी का वध करें, न दूसरों से वध कराएँ—
यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं।
अत्तानं उपमं कत्त्वा, न हनेय्य न घातये।।
संयुक्तनिकाय में पशुवध को लेकर महत्त्वपूर्ण बात कही गई है, वहाँ इस कार्य को ही सभी रोगों का कारण माना है—
तयो रोगा पुरे आसुं, इच्छा अनसनं जरा।
पसूनं च समारंभा, अट्ठानवुतिमागमु।।
अर्थात् पहले विश्व में केवल तीन ही रोग थे—इच्छा, भूख और जरा किन्तु पशुवध प्रारम्भ होने पर अट्ठानवे नये रोग पैदा हो गए।
तथागत बुद्ध ने राजा प्रसेनजित् को यज्ञिंहसा के लिए रोकते हुए कहा था—‘‘राजन् ! यज्ञ में िंहसा करने के फल अच्छे नहीं होते। यदि तुम्हें यज्ञ ही करना है तो ऐसा यज्ञ करो, जिसमें भेड़—बकरे और गायें न कटतीं हों—ऐसा यज्ञ ही सुमार्ग पर ले जाने वाला है।’’
सुत्तनिपात में महात्मा बुद्ध कहते हैं—‘‘जङ्गम या स्थावर, दीर्घ या ह्रस्व, अणु या स्थूल, दृष्ट या अदृष्ट, दूरस्थ या निकटस्थ, उत्पन्न या उत्पद्यमान, जितने भी प्राणी हैं, वे सभी सुखपूर्वक रहें; वे किसी के साथ वञ्चना न करें, न किसी का अपमान करें; वे सभी प्राणियों को उसी प्रकार देखें, जैसे, माता अपने इकलौते पुत्र को देखती है।’’
एक बार कुछ बालक साँप को मार रहे थे, तब बुद्ध ने उन्हें समझाते हुए कहा—‘‘जो अपने सुख के लिए दूसरे प्राणियों को मारते हैं, वे मरने के पश्चात् भी सुखी नहीं होते।’’
तथागत बुद्ध ने मैत्रीभावना पर अधिक बल दिया था, उनका मानना था कि जिसमें मैत्रीभावना का विकास होता है, वह सुरक्षित रहता है। जैसे, किसी कुल में अधिक पुरुष हों और महिलाएँ कम हों, वह कुल हमेशा तस्करों के भय स्ो मुक्त रहता है; वैसे ही जहाँ मैत्रीभावना प्रबल होती है, उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं होता। उनका कहना था कि सभी प्राणी वैर से रहित हों, कोई भी वैर न रखे। सभी प्राणी सुखी हों, कोई दु:ख न पाये। मन ज्यों—ज्यों हिंसा से हटता है, त्यों—त्यों दु:ख शान्त होता है।
महात्मा बुद्ध का जीवन एक महाकारुणिक का जीवन था। दीन—दु:खियों को देखकर उनका हृदय दया से द्रवित हो जाता था। उन्होंने सामाजिक, राजनैतिक जीवन में ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये, जिनमें अहिंसात्मक प्रतिकार रहे हैं। उनके अहिंसात्मक प्रतिकार से हजारों प्राणियों के उबलते खून रुक गये। महात्मा बुद्ध ने िंहसा का विरोध किया और अहिंसा जैसे महान धर्म को अपनाया। सम्राट् अशोक आरम्भ में एक निर्दयी सम्राट था, हृदय—परिवर्तन के बाद उसने मानव—कल्याण के लिए अनेक कार्य किये। वह महात्मा बुद्ध के जीवनदर्शन से प्रभावित होकर बौद्धधर्म का अनुयायी बना। इस प्रकार अहिंसाधर्म की प्रतिष्ठा में महात्मा बुद्ध ने बहुत योगदान दिया था।
सिक्खधर्म का उदय भी भारत में हुआ। भारत के प्राचीन धर्म और दर्शनों की जो प्रमुख विशेषताएँ थीं, उनको श्री गुरु नानकदेव ने समझा तथा उन्हीं विशेषताओं को लेकर सिक्खधर्म का प्रारम्भ हुआ।
गुरु नानकदेव ने देश—विदेश में घूमकर अपने समय के बड़े—बड़े योगियों और साधकों की संगति की। वे बगदाद भी गये, वहाँ उनकी याद में एक मन्दिर भी है।
गुरु नानकदेव ने जो पन्थ चलाया, वह ‘सिक्खपंथ’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। तत्कालीन सन्तधारा में गुरु नानक निराकारवादी थे। वे अवतारवाद, जाति—पाँति और मूर्तिपूजा को नहीं मानते थे। यह धर्म सतीप्रथा, पर्दाप्रथा, शराब और तम्बाकू आदि नशीले पदार्थों का भी निषेध करता है।
गुरु नानकदेव के वचनों को सर्वप्रथम गुरु अंगद ने ‘गुरुमुखी’ लिपि में लिखा। उसी समय से यह लिपि प्रारम्भ हुई। सिक्खों के पवित्र धर्मग्रंथ ‘गुरु—ग्रंथसाहिब’ का संकलन एवं सम्पादन सन् १६०४ ई. में गुरु श्री अर्जुनदेव ने किया था।
१. सिखधर्म में चार मार्गों का प्रतिपादन—सिक्खधर्म में कर्ममार्ग, योगमार्ग, ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग—इन चार मार्गों का प्रतिपादन किया गया है। कर्ममार्ग को दो भागों में विभक्त किया है—बन्धनप्रदकर्म और मोक्षप्रदकर्म। मोक्षप्रदकर्म में हरिकीर्तन, आध्यात्मिक चिन्तन आदि कर्म आते हैं। सिक्खों ने सदैव यज्ञ के नाम पर होने वाली हिंसा का विरोध किया। हिंसा का विरोध करते हुए उन्होंने लिखा है—
जोग न हिंसा जोग न डंडे………
एक दृष्टि कर समसरु जागे, जोगी कहिये सोइ।
अर्थात् हिंसा करने, भस्म लगाने, सिर मुँडा देने से योग नहीं होता है; योग उसी को होता है, जिसकी दृष्टि में समभाव हो। समभाव वाला व्यक्ति ही वास्तविक योगी है।
२. अहिंसा के सिद्धान्त का महत्त्व—अहिंसा के सिद्धान्त को महत्त्व देते हुए गुरु नानकदेव ने कहा—‘‘जो सबकी भलाई करता है, वही महान है। सबकी भलाई करना, बिना अहिंसा सिद्धान्त को अपनाए सम्भव नहीं है।’’
नानक नाम चढ़दी कला। तेरे भाणे सवर्त्त का भला।।
अहिंसा की निर्मल भावना से प्रेमभाव की वृद्धि होती है। गुरु गोविन्द िंसह ने प्रेम की महत्ता बताते हुए कहा कि बिना प्रेम के प्रभु प्राप्त नहीं हो सकता।
साच कहहुँ, सुनि लेहु सबहि।
जिन प्रेम कियो, तिन्ही प्रभु पायो।।
गुरु अर्जुनदेव ने कहा है कि विश्व को अपना समझो। मेरा न कोई शत्रु है, न अपरिचित ही। मेरे लिए सभी समान हैं। मेरी सबसे बनती है।
ना को बैरी, न ही बेगाना।
सकल संगि, हमको बन आई।।
गुरु ग्रंथसाहिब में माँस खाने का निषेध किया गया है—जैसे, रक्त लग जाने से वस्त्र पर दाग लग जाता है, वैसे ही रक्तयुक्त माँस खाने से मन मैला हो जाता है; इसीलिए माँस ग्रहण करना दोषपूर्ण है।
जे रत लागे कपड़े, जामा होय पलीत।
जे रत पीवै मांसा, तिन क्यों निर्मल चीत।।
सिक्खधर्म में भी सात्त्विक भोजन पर बल दिया जाता है। अहिंसा की भावना वहाँ भी पनपी है। सिक्खधर्म ने अन्याय को सहन करना भी िंहसा माना है; इसीलिए उसके प्रतिकार के लिए सतत तैयार रहना चाहिए। उनकी यह भावना अन्याय के प्रतिकार के लिए थी। वे सम्प्रभुता स्थापित करने के उद्देश्य से अथवा युद्ध के लिए युद्ध नहीं करना चाहते थे। प्रत्येक सिक्ख को हाथ में कड़ा पहनने का विधान यम, नियम और संयम का प्रतीक है, इसमें अहिंसादि सभी भावनाएँ गर्भित हैं।
ईसाईधर्म के प्रवर्तक महात्मा ईसा थे, जिन्हें ‘ईसा मसीह’ कहा जाता है। ‘ईसा’ शब्द जीसस से निकला है। ईसा मसीह को ‘ख्रीष्ट’ भी कहा जाता है। ‘ख्रीष्ट’ शब्द यूनानी है और इब्रानी ‘मसीह’ शब्द का अर्थ है—जो अभिषिक्त (Eहूप्rदहा्) है। यहूदी लोगों में पुजारियों और राजाओं का अभिषेक किया जाता था और इसलिए ईसा को ‘मसीह’ कहा गया है क्योंकि ईश्वर ने उसे विशेषरूप से चुनकर अभिषिक्त किया था। वर्तमान युग में विश्व के विविध अञ्चलों में यह धर्म पैâला हुआ है।
ईसा ने कहा—‘‘तुम अपनी तलवार म्यान में रख लो, क्योंकि जो लोग तलवार चलाते हैं, वे सभी तलवार से नष्ट किये जाएँगे। किसी के साथ भी दुर्व्यवहार न करो। तुम्हारे गाल पर कोई तमाचा मारता है तो दूसरा गाल भी उसके सामने कर दो।’
ईसा का स्पष्ट मानना था कि ‘जैसे को तैसा’ सिद्धान्त सर्वथा अनुचित है। ‘आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत और सिर के बदले सिर’—इस सिद्धान्त से समस्या का सही समाधान नहीं हो सकता, इससे शान्ति प्राप्त नहीं होती। उन्होंने आगे चलकर कहा—‘‘पड़ौसी को प्यार करो और शत्रु से घृणा करो—इस नीति पर ध्यान न दो, बल्कि शत्रु से प्यार करो। जो तुम्हें शाप दे, उसे तुम वरदान दो; जो तुम्हारा बुरा करे, उसका तुम भला करो; जो तुमसे ईर्ष्या करता है, तुम पर अभियोग लगाता है, उस पर तुम स्नेह की वर्षा करो और इस प्रकार की प्रशस्त भावना करो कि उसके विचारों में परिवर्तन आ जाए।’’
ईसा ने ईश्वर को प्रेम के रूप में चित्रित किया—‘‘वस्तुत: प्रेम ही ईश्वर है, वही अहिंसा है; प्रेम के अभाव में अहिंसा नहीं हो सकती। जहाँ पर द्वेष का दावानल सुलग रहा हो, प्रतिकार की भावनाएँ पनप रही हों, वहाँ प्रेम और विनम्रता नहीं रह सकती। जहाँ पर विनम्रता और विश्वबन्धुत्व का साम्राज्य है, वह एक प्रकार से ईश्वरीय राज्य है।’’ उन्होंने कहा कि सबसे बड़ी आज्ञा यही है कि ‘तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख’।
१. ईसाई धर्म में सेवा महत्वपूर्ण—ईसाईधर्म में सेवा का बड़ा महत्त्व है क्योंकि यहाँ ईश्वर सेवा का अर्थ है—मानव समाज की सेवा। जिसके हृदय में दया का साम्राज्य नहीं है, उसका ज्ञान, शुष्कज्ञान है। ईसा ने प्रेम, करुणा, सेवा आदि सद्गुणों को जीवन के लिए आवश्यक माना है। बाइबिल के नये धर्म—नियम यूहन्ना में स्पष्ट लिखा है कि ‘यहूदियों ने उससे कहा, हमें अधिकार नहीं कि किसी का प्राण लें।’
इस तरह ईसाईधर्म में अहिंसा की भावनाएँ, मानव—सेवा और प्रेम के रूप में विकसित हुई हैं। बाइबिल आदि अन्य ग्रंथों का अध्ययन करने से पता चलता है कि ईसा अहिंसा के समर्थक थे। बीसवीं एवं इक्कीसवीं शती के वरिष्ठ एवं सुप्रसिद्ध पूज्य दिगम्बर जैन आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने एक पुस्तक सन् १९६६-६७ में लिखी थी जिसका नाम है ‘महात्मा ईसा’। उन्होंने लिखा है कि ‘शोधकों ने इस बात को प्राय: स्वीकार कर लिया है कि मसीह के उपदेशों का मूल उद्गम भारत है।
२. महात्मा ईसा के उपदेश भगवान महावीर की अहिंसा से प्रभावित हैं—भारतीय श्रमण संस्कृति और यहाँ के तत्कालीन साधु विद्वानों के सम्पर्क में आकर ईसा ने जिस अति—भौतिक आत्मतत्त्व का साक्षात्कार किया, उसी का मन्थन उनकी उन उपदेशनाओं में मुखरित हुआ है। महात्मा ईसा के वे उपदेश जो भगवान महावीर के अहिंसा धर्म के अति समीप एवं उससे अत्यन्त प्रभावित हैं, उस काल के पुराणपंथी, अर्थ लोलुप पुजारियों को अपने निहित स्वार्थों के हक में अच्छे नहीं लगे, फलत: ईसा को कुरुढ़ियों के जमे—जमाये मोर्चे से यावज्जीवन लोहा लेना पड़ा।
सुप्रसिद्ध रूसी विद्वान् डॉ. नोतोविच ने चालीस वर्षों के अनुसन्धान के बाद अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक (ळहव्हदैह थ्ग्fा दf वेल्े) में यह प्रमाणित किया है कि ईसा अपने जन्म के तेरहवें वर्ष में चुपचाप घर से निकल गये और कुछ सौदागरों के साथ सिन्ध होते हुय हिन्दुस्तान पहुँच गये, यहाँ उन्होंने जगन्नाथ, वाराणसी, राजगृह और कपिल—वस्तु में भ्रमण किया। बौद्धों से बौद्ध साहित्य का अध्ययन किया और बहुत दिनों तक जैन साधुओं के साथ रहे।
श्री सावरकर द्वारा रचित पुस्तक ‘मराठी—खिस्त परिचय’ में लिखा है कि ‘कांही दिवस तो जैन साधु बरोबर रहिलो।’ प्रसिद्ध यहूदी विद्वान् जाजक्स ने लिखा है कि ‘हजरत ईसा ने पैलस्टाइन में चालीस दिनों का उपवास किया था। यह उपवास की प्रेरणा उन्हें भारतीय जैन क्षेत्र पालीताना में जैन—श्रमणों के साथ रहते समय मिली। नागेन्द्रनाथ बसु ने हिन्दी—विश्वकोश में लिखा है कि ईसा ने जैन श्रमणों के निकट रहकर शिक्षा पायी थी। पं. सुन्दरलाल ने लिखा है कि ‘भारत में आकर हजरत ईसा बहुत समय तक जैन साधुओं के साथ रहे। जैन साधुओं से उन्होंने आध्यात्मिक शिक्षा तथा आचार—विचार की मूल भावना प्राप्त की।
इन सन्दर्भों तथा सूचनाओं से ज्ञात होता है कि हजरत ईसा ने जो अहिंसात्मक उपदेश दिये हैं उस पर भारतीय धर्मों का स्पष्ट प्रभाव रहा है।
यहूदी धर्म एक प्राचीन पैगम्बरी (झ्rदज्पूग्म्) धर्म है। यद्यपि विश्व में यहूदी धर्म मानने वालों की संख्या ज्यादा नहीं है किन्तु ये विश्व के सभी कोने में पाये जाते हैं और जहाँ भी ये रहे हैं, वहाँ इन्होंने उस देश के सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और औद्योगिक विकास में विशेष योगदान दिया है।
यहूदी धर्म में इब्राहिम पैगम्बर कुलपिता कहे जा सकते हैं, उनके बाद हजरत मूसा को यहूदी धर्म का संस्थापक माना जाता है। मूसा के ही द्वारा यहूदियों को तौरेत (ऊदraप्) दिया गया, जिसमें उनके जीवन—सञ्चालन के सभी नियम और आज्ञाएँ दी गयी हैं। मूसा—संहिता को ई. पू. ४४४ में एजरा पुजारी ने वर्तमान रूप दिया था। इस मूसा—संहिता को पञ्चग्रंथ (झहूa ऊाल्म्प्) कहते हैं।
यहूदी तौरेत (ऊदraप्) को अपना पवित्र ग्रंथ समझते हैं, जिसमें लिखित और मौखिक, दो प्रकार की बातें अन्तर्निहित हैं। रूढ़िवादी लिखित तौरेत को ही प्रामाणिक मानते हैं। तौरेत यहूदियों का जीवन है, जिससे वे ओतप्रोत कहे जा सकते हैं। इनके लिए तौरेत, पवित्र तथा धार्मिक परम्परा का सम्पूर्ण ग्रंथ है।
१. यहूदी धर्म का उद्देश्य—यहूदी धर्म का उद्देश्य है कि वह विश्व—शान्ति का और समस्त जातियों में ईश्वरवाद के शुद्ध सन्देश का प्रचार—प्रसार करे। इनके अहिंसावादी सिद्धान्त बहुत लाभकारी हैं। इनका मानना है कि किसी व्यक्ति के आत्मसम्मान को चोट न पहुँचाओ। किसी के सामने किसी को अपमानित न करो। उसका अपमान करना उतना ही बड़ा पाप है, जितना कि किसी व्यक्ति का खून करना। वह व्यक्ति दुष्ट कहलाएगा, जो किसी व्यक्ति को मारने के लिए हाथ उठाता है, शक्ति के अभाव में वह भले ही उसे न मारे। यदि तुम्हारा कोई शत्रु तुम्हें मारने के लिए तुम्हारे घर आये और यदि वह भूखा—प्यासा है तो तुम्हारा प्रथम कर्तव्य है कि तुम उसे भोजन कराओ और पानी पिलाओ।
२. बंधुत्व भाव का विकास—बन्धुत्वभाव को विकसित करने की दृष्टि से इस धर्म में कहा गया है—बन्धुत्व का प्रेम, जाति और धर्म की सीमाओं से ऊपर है, एतदर्थ अपने पड़ोसी को प्यार करो; उसके प्रति तुम्हारे मन में किसी भी प्रकार की घृणा की भावना न रहे, उनसे ईर्ष्या न करो। जब तुम्हारे मानस में एक—दूसरे के प्रति स्नेह सौहार्दपूर्ण भाईचारे का भाव संस्थापित हो जाएगा तो सहज ही घृणा का भाव नष्ट हो जाएगा। सभी लोग एक ही पिता के पुत्र हैं, अत: सभी से स्नेह करो। पड़ोसियों से घृणा करना, ईश्वर से घृणा करने के समान है। यदि तुम्हारे भाई या पड़ोसी निर्धन हैं तो उन्हें तुम सहयोग करो। तुम अपने पड़ोसियों के साथ वैसा ही व्यवहार करो, जैसा तुम उनसे अपने प्रति चाहते हो। अपने साथियों की सेवा करना, यह एक प्रकार का सुकर्म है, सुकृति है।
३. मानवता पर बल—यहूदीधर्म ने मानवता पर बल दिया है। मानवता को विकसित करने के लिए ईमानदारी, ब्रह्मचर्य, सत्य, भक्ति आदि सद्गुणों पर अधिक बल दिया गया है। दया और प्रेम को उन्होंने ईश्वर माना है। क्रोध, विलास, अन्याय आदि दुर्गुणों को नष्ट करने की प्रेरणा दी है। उनका मानना है कि किसी व्यक्ति पर संकट के बादल मँडरा रहे हों, उस पर िंहसक डाकू प्रहार कर रहे हों, शेर—चीते आदि जंगली पशु उस पर आक्रमण कर रहे हों, शेर—चीते आदि उस पर झपट रहे हों तो हमारा कर्तव्य है कि हम उनकी रक्षा करें। यदि हमारा देहबल क्षीण हो, शारीरिक दृष्टि से हम उनका रक्षण करने में असमर्थ हों किन्तु यदि हमारे पास धन है तो हमें चाहिए कि धनबल से उनके प्राणों की रक्षा करें। प्राणीमात्र के प्रति हमारे अन्तर्मन में किसी प्रकार का वैरभाव न हो।
४. मानव जाति के लिए १० आज्ञाएँ—यहूदी पूर्णतया प्रकाशना—धर्म (Rात्ग्ुग्दह दf Rानत्aूग्दह) है इसलिए यहूदियों के अनुसार ईश्वर ने मूसा द्वारा मानव जाति के लिए दश आज्ञाएँ बताई हैं अर्थात् ये ईश्वर के वचन हैं—उनमें अन्तिम पाँच वचन अहिंसा की प्रगाढ़ भावना को अभिव्यक्त करते हैं—
१. ‘तू नर हत्या न करना’। (अहिंसा)
२. ‘तू व्यभिचार न करना’। (ब्रह्मचर्य)
३. ‘ तू चोरी न करना’। (अचौर्य)
४. ‘तू अपने पड़ोसी के विरुद्ध झूठी गवाही मत देना’। (सत्य)
५. ‘तू अपने पड़ोसी की किसी वस्तु का लालच मत करना’ (अपरिग्रह)
इन आज्ञाओं के माध्यम से परिवार और समाज को स्थिर रखने का पवित्र उद्देश्य है। इन अन्तिम पाँच आदेशों में जैनधर्म के पाँच व्रतों की स्पष्टत: प्रतिध्वनि भी परिलक्षित होती है।
यहूदी धर्म में विशेषकर यशायह नवी के लेखों में अिंहसक भावना का उल्लेख प्राप्त हुआ है, उसमें लिखा है कि ‘‘मसीह आएगा और दाऊद के िंसहासन पर फिर से विराजमान होगा। मसीह आकर इस संसार पर राज्य करेगा और समस्त मानव जाति का उद्धार करेगा। इस मसीही राज्य में न पाप होगा और न शोक। शेर िंहसा छोड़कर बकरी के साथ घास खाएगा। भेड़िया और मेमना, दोनों एक साथ एक ही घाट पर पानी पिएँगे।’’
यहूदी इसी शान्ति सन्देश के आधार पर साम्यवादी शोषणविहीन राज्य की कल्पना करते हैं, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी शक्ति भर श्रम करेगा और अपनी आवश्यकता के अनुसार सभी सामग्रियों का उपभोग करेगा। अत: यहूदी किसी न किसी प्रकार से मरणोत्तर जीवन पर विश्वास रखते हैं और प्राय: यही समझते हैं कि न्याय दिवस भी अवश्य आएगा, जहाँ व्यक्ति अपने बुरे कर्मों के अनुसार अनन्त दु:ख—भोग का भागी होगा।
यहूदियों में ईसीन (Eोहा) नाम का संघ था, जो किसी प्रकार की पशुबलि ईश्वर को नहीं चढ़ाते थे। वे अविवाहित रहकर अपनी इन्द्रियों पर संयम रखते थे। ये मुनि पवित्र जीवन यापन करते और मौन रहना अच्छा समझते थे। ये सोना—चाँदी, घर—द्वार नहीं रखते थे और सन्यासियों जैसा जीवन व्यतीत करते थे। ये शाकाहारी होते थे, अपरिग्रही होते थे।
५. यहूदी प्रकृति प्रिय होते हैं—यहूदी प्रकृति से भी बहुत प्यार करते हैं। हरे—भरे पेड़ पौधों के सम्मान में बसन्त की शुरुआत में ‘तू बी शेवात’ नामक त्यौहार मनाते हैं। यह पेड़ों का न्यू ईयर है जिसे पौधे लगाकर मनाया जाता है। यहूदी का यह त्योहार पेड़—पौधों के प्रति अिंहसक भावना तथा प्रकृति के प्रति लगाव का सन्देश देता है जो पर्यावरण के प्रति नित प्रतिदिन बढ़ रहे संकट के लिए एक अिंहसक समाधान है।
समझा जाता है कि यहूदी ईसीन लोग अहिंसा के पुजारी होते थे। याकू मसीह का मानना है कि सम्भवत: इन ईसीनियों पर पाइथागोरस के शाकाहार का और बौद्धों के संघीय जीवन का प्रभाव पड़ा था।
‘इस्लाम’ अरबी भाषा का शब्द है। मुहम्मद अली की पुस्तक (Rात्ग्ुग्दह दf घ्ेत्aस्) में इस शब्द की व्याख्या बताई गई है। इस्लाम शब्द का अर्थ है—‘शान्ति में प्रवेश करना’, अत: मुस्लिम व्यक्ति वह है, जो ‘परमात्मा पर विश्वास और मनुष्यमात्र के साथ पूर्ण शान्ति का सम्बन्ध’ रखता हो। अतएव इस्लाम शब्द का लाक्षणिक अर्थ होगा—‘वह धर्म, जिसके द्वारा मनुष्य भगवान की शरण लेता है और मनुष्यों के प्रति अहिंसा एवं प्रेम का व्यवहार करता है।’ राष्ट्रकवि रामधारी िंसह ‘दिनकर’ ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में इस्लाम धर्म की विशेषताओं पर व्यापक प्रकाश डाला है।
१. इस्लाम के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब—इस्लाम के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब माने जाते हैं, जिनका जन्म अरब देश के मक्का शहर में सन् ५७० ई. में हुआ था और मृत्यु सन् ६३२ ई. में हुई। इस्लाम धर्म के मूल कुरान, सुन्नत और हदीस नामक ग्रंथ हैं। कुरान वह ग्रंथ है, जिसमें मुहम्मद साहब के पास खुदा के द्वारा भेजे गये सन्देश संकलित हैं। सुन्नत वह है, जिसमें मुहम्मद साहब के कार्यों का उल्लेख है और हदीस वह किताब है, जिसमें उनके उपदेश संकलित हैं।
२. कुरान में प्रेम और अहिंसा से सम्बन्धित अनेक सन्देश हैं—इकबाल की पुस्तक (एाम्rाू दf ूप एात्f) की भूमिका में लिखा है—‘‘नबी ने कहा है, ‘तखल्लिक्—बि—इखलाकिल्लाह’ अर्थात् अपने भीतर परमेश्वर के गुणों का विकास कर। खुदा बन्दों को प्यार करता है और वे उसे प्यार करते हैं; इसलिए उसका एक नाम वदूद (प्रेमी) भी है।’’—यह कुरान का ही वचन है।
हदीस का वचन है कि ‘‘ईमान की ७० शाखाएँ हैं। सबसे ऊँची यह कि अल्लाह को छोड़कर किसी की इबादत मत करो और सबसे नीची यह कि जिन बातों से किसी का नुकसान होता हो, उन्हें छोड़ दो।’’
३. कुरान का फातिहा नामक अध्याय बहुत महत्त्वपूर्ण है—एक तरह से यह कर्मफल के विवेचन का अध्याय है, इसमें प्रत्येक मुसलमान का ध्यान हर रोज पाँच बार दिलाया जाता है। उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कर्मफल पर विश्वास दृढ़ होने पर आदमी दुष्कर्मों को छोड़ देता है। कुरान कहता है—‘‘अच्छे और बुरे कर्मों के परिणाम अवश्य मिलेंगे। जिसने भी, कण मात्र भी सुकर्म किया है, वह उसे अपनी आँखों से देखेगा, जिसने भी, कण मात्र भी दुष्कर्म किया है, वह भी उसे अपनी आँखों से देखेगा।’’
इस्लाम दर्शन में ग्यारहवीं शती में एक प्रख्यात चिन्तक हुए ‘अबुल अरा’ (सन् १०५७)। अबुल अरा आवागमन के सिद्धान्त के विश्वासी थे। शाकाहारी तो थे ही, दूध, मधु और चमड़े का व्यवहार भी नहीं करते थे। पशु—पक्षियों के लिए भी उनके मन में दया थी। वे ब्रह्मचर्य और यतिवृत्ति का भी पालन करते थे।
इस्लाम धर्म की मान्यता है कि जगत में जितने भी प्राणी हैं, वे सभी खुदा के ही बन्दे और पुत्र हैं। कुरान शरीफ के प्रारम्भ में अल्लाताला का विशेषण ‘विस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीमि’ है, जिसका अर्थ है ‘खुदा दयामय है अर्थात् खुदा के मन के कोने—कोने में दया का निवास है।’
मुहम्मदसाहब के उत्तराधिकारी हजरत अली ने मानवों को सम्बोधित करते हुए कहा—‘‘हे मानव ! तू पशु—पक्षियों की कब्र अपने पेट में मत बना।’’ अर्थात् तू माँस का भक्षण मत कर। इसी प्रकार ‘दीन ए इलाही’ विचारधारा के प्रवर्तक सम्राट अकबर ने कहा—‘‘मैं अपने पेट को दूसरे जीवों का कब्रिस्तान नहीं बनाना चाहता।’’ यदि किसी की जान बचाई तो मानों उसने सारे इन्सानों को जिन्दगी बख्शी है। कुरान शरीफ का वाक्य है—
‘व मन् अह्या हा फकअन्नम् अह्यन्नास जमी अन:’।
४. कुरआन में अहिंसा सम्बन्धी आयतें—मक्तबा अल हसनात, रामपुर (उ. प्र.) से सन् १९६८ में हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित कुरआन मजीद, जिनके कुछ मूल सन्दर्भों का प्रयोग निम्न प्रकार से हैै। इस ग्रंथ की कुछ आयतें अहिंसा की भावना को व्यक्त करती हैं। प्रस्तुत हैं वे चयनित आयतें—
(१) काबा में लड़ना हराम है। (२ : १९१)
(२) अल्लाह ने काबा को शान्ति का स्थान बनाया है। (२८ : ५७)
(३) नाहक खून न बहाओ और लोगों को घर से बेघर मत करो (२ : ८४)
(४) दूसरे के उपास्यों को बुरा न कहो। (६ : १०८)
(५) निर्धनता के भय से औलाद का कत्ल न करो। (१७ : ३१)
(६) नाहक किसी का कत्ल न करो। मानव प्राण लेना हराम है। (१७ : ३३)
(७) यतीम पर क्रोध न करो। (९३ : ९)
(८) गुस्सा पी जाया करो और लोगों को क्षमा कर दिया करो। (२ : १३४), (२४ : २२)
(९) बुराई का तोड़ भलाई से करो (१३ : २२) (२८ : ५४, ५५) (४१ : ३५)
(१०) कृतज्ञता दिखलाते रहो। (१४ : ७)
(११) लोगों की गल्तियाँ क्षमा कर दिया करो। (२४ : २२)
(१२) क्रोध आये तो क्षमा कर दो। (४२ : ३७)
(१३) सब्र करना और अपराध को क्षमा करना बड़े साहस के काम हैं। (४२ : ४३)
(१४) दो लड़ पड़ें तो उनमें सुलह—सफाई करा दो। (४९ : ९, १०)
(१५) दुश्मन समझौता करना चाहे तो तुम भी समझौते के लिए तैयार हो जाओ।। (८ : ६१)
(१६) जो तुमसे न लड़े और हानि न पहुँचाये उससे, उसके साथ भलाई का व्यवहार करो। (६० : ८)
इस प्रकार अनेक सन्दर्भ और भी हैं जो अहिंसा का सन्देश देते हैं। अहिंसा की भावना के बिना कोई भी धर्म ज्यादा समय तक टिक नहीं सकता।
५. इस्लाम में अहिंसा के प्रायोगिक रूप—मुस्लिम समाज में मांसाहार आम बात है किन्तु ऐसे अनेक उदाहरण भी देखने में आये हैं जहाँ इस्लाम के द्वारा ही इसका निषेध किया गया है। इसका सर्वोत्कृष्ट आदर्शयुक्त उदाहरण हज की यात्रा है। जब कोई व्यक्ति हज करने जाता है तो इहराम (सिर पर बाँधने का सफेद कपड़ा) बाँध कर जाता है। इहराम की स्थिति में वह न तो पशु—पक्षी को मार सकता है, न किसी जीवधारी पर ढेला फेंक सकता है और न्ा ही घास नोंच सकता है। यहाँ तक कि वह किसी हरे—भरे वृक्ष की टहनी पत्ती तक भी नहीं तोड़ सकता। इस प्रकार हज करते समय अहिंसा के पूर्ण पालन का स्पष्ट विधान है। ‘इहराम की हालत में शिकार करना मना है।’
इतना ही नहीं, इस्लाम के पवित्र तीर्थ मक्का स्थित कस्बे के चारों ओर कई मीलों के घेरे में किसी भी पशुपक्षी की हत्या करने का निषेध है। हज—काल में हज करने वालों को मद्य—मांस का भी सर्वथा त्याग जरूरी है। इस्लाम में आध्यात्मिक साधना में मांसाहार पूरी तरह वर्जित है, जिसे तकें हैवानात (जानवर से प्राप्त वस्तु का त्याग) कहते हैं।
डॉ. कामता प्रसाद लिखते हैं कि ‘म. जरदस्त ने ईरान में पशुबलि का विरोध कर अहिंसा की प्राणप्रतिष्ठा की थी। ईरान के शाहदरा ने पाषाणों पर अहिंसा का आदेश अंकित कराया था। तख्तेजमशेद नामक स्थान पर एक ऐसा लेख आज भी मौजूद है। आज भी भारत में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं। कर्नाटक राज्य में गुलबर्गा में अल्लन्द जाने के मार्ग में ८ किमी. चौदहवीं शताब्दी में मशहूर दरवेश हजरत ख्वाजा बन्दानवाज गौसूदराज के समकालीन दरवेश हजरत शारुक्रुद्दीन की मजार के आगे लिखा है—
‘‘यदि तुमने मांस खाया है तो मेहरबानी कर अन्दर मत आओ’’
इसके अलावा कई मुस्लिम सम्राटों ने जैनों के दशलक्षण—पर्यूषण पर्व पर कत्लखानों तथा मांस की दुकानों को बन्द रखने के आदेश भी दिये हैं जिसके साक्षात् प्रमाण अब तक मौजूद हैं।
६. इस्लाम में त्याज्य विषय—इस्लामधर्म में मदिरापान, ईर्ष्या, लालच, असत्य, कृपणता, अभिमान, हिंसा, युद्ध आदि को त्यागने योग्य बताया गया है, ये जीवन को विकृत करने वाले दुर्गुण हैं। कुरान शरीफ में भ्रातृत्व, दान, क्षमा, मैत्री, दया, प्रेम, कृपा, संयम आदि सद्गुणों को ग्रहण करने पर बल दिया गया है। ये सद्गुण जीवन को विकसित करते हैं। इन सद्गुणों को धारण करने पर जीवन का आचरण अिंहसक हो जाता है और सुख—शान्ति की वृद्धि होती है।
इस्लाम में सद्गुण (न्न्ग्rूल) और दुर्गुण (न्न्ग्म) का स्पष्ट विवेचन हुआ है। इस धर्म ने ईश्वर में विश्वास करने, धर्मपथ-प्रदर्शकों के विचारों पर आस्था रखने, निर्धनों और दुर्बलों के प्रति दयाभाव रखने की सीख दी है। इससे स्पष्ट है कि इस्लाम परम्परा में उन तत्त्वों की अवहेलना की गई है, जिनसे िंहसाभाव की उत्पत्ति या वृद्धि होती है और उन तत्त्वों को अपनाया गया है, जिनसे अहिंसाभाव की पुष्टि होती है एवं अहिंसा का विकास होता है। यदि हम वास्तव में विश्व शांति और भाई चारा स्थापित करना चाहते हैं तो हमारा यह कर्त्तव्य होना चाहिए कि मजहबों के उन बिन्दुओं को उजागर करें जिनमें अहिंसा, प्रेम, बन्धुत्व आदि की चर्चा है तथा प्रायोगिक उदाहरण हैं, न कि सिर्फ उन्हें जिनके कारण हमारे कटु अनुभव जुड़े हैं।
इस्लाम में ऐहिक जीवन पर उतना ही बल दिया गया है, जितना पारलौकिक स्वर्ग—प्राप्ति पर; इसलिए इस्लामी नीति—विचार में सामाजिक आचार पर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया है। यहूदीधर्म में भी भक्ष्य और अभक्ष्य वस्तुओं की भी चर्चा की गयी है और उन्हें इस्लाम में सम्पूर्णतया अपना लिया गया है।
इस्लाम धर्म के अन्तर्गत ही सूफी सम्प्रदाय भी विकसित हुआ। सूफियों का मानना है कि मुहम्मद साहब को दो प्रकार के ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त हुए थे—एक ज्ञान को उन्होंने कुरान के द्वारा व्यक्त किया और दूसरा ज्ञान, उन्होंने अपने हृदय में धारण किया। कुरान का ज्ञान, विश्व के सभी व्यक्तियों के लिए प्रसारित किया गया, जिससे वे सद्ज्ञान के द्वारा अपने जीवन को पावन बनायें। दूसरा ज्ञान, उन्होंने अपने कुछ प्रमुख शिष्यों को ही प्रदान किया। वह ज्ञान अत्यन्त रहस्यमय था, वही सूफीदर्शन कहलाया। कुरान का किताबी ज्ञान तो ‘इल्म—ए—शाफीन’ और हार्दिक ज्ञान ‘इल्म—ए—सिन’ कहलाता है।
१. सूफीदर्शन का रहस्य—परमात्मा सम्बन्धी सत्य का परिज्ञान करना। परमात्म—तत्त्व की उपलब्धि के लिए सांसारिक वस्तुओं का परित्याग करना। जब परमात्म—तत्त्व की अन्वेषणा ही सूफियों का लक्ष्य रहा है तो हिंसा—अहिंसा का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। हिंसा—अहिंसा का प्रश्न वहीं उत्पन्न होता है, जहाँ किसी के प्रति रागभाव का प्राधान्य हो और किसी के प्रति द्वेष की दावाग्नि सुलग रही हो; वहीं िंहसा का प्राधान्य रहता है।
२. सूफी सम्प्रदाय में प्रेम के आधिक्य पर बल दिया गया है—वे परमात्मा को प्रियतम मानकर सांसारिक प्रेम के माध्यम से प्रियतम के सन्निकट पहुँचना चाहते हैं। उनके अनुसार मानवीय प्रेम ही आध्यात्मिक प्रेम का साधन है। प्रेम परमात्मा का सार है। प्रेम ही ईश्वर की अर्चना करने का सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्कृष्ट रूप है।
इस प्रकार सूफी सम्प्रदाय में, प्रेम के रूप में अहिंसा की उदात्त भावना पनपी है। प्रेम के विराट रूप का जो चित्रण सूफी सम्प्रदाय में हुआ, वह अद्भुत है।
यदि हम सूक्ष्मदृष्टि से देखें तो पाएँगे कि इस्लामिक विश्वास, वचन और कर्मकाण्ड (Practice) इसके बाहरी रूप हैं, जबकि इसका आन्तरिक रूप सूफीमत है; अत: जनसाधारण की नीतिगत विचार भी सामाजिक और व्यावहारिक के नियमों के अन्तर्गत पाया जाता है, पर इसका आन्तरिक रूप सूफी विचारों में ही देखा जाता है।
जहाँ तक सूफी मत का प्रश्न है, उसमें आत्मविकास (Development of the Soul) का पाठ सिखाया गया है। इसमें बहुत ऊँचे आन्तरिक आचार की बातें बताई गई हैं। इस्लाम के अनुसार सच्चा जेहाद तो अपनी शारीरिक तृष्णाओं अथवा वासनाओं के विरुद्ध करना चाहिए। अध्यात्म की दृष्टि से सूफी अहिंसा के अधिक करीब दिखायी देते हैं।
पारसीधर्म के प्रवर्तक जरथुष्ट्र थे, उनका प्रमुख ग्रंथ ‘अवेस्ता’ है। पारसियों की प्राचीन धर्म पुस्तक को गाथा या जेन्दावेस्ता भी कहते हैं। जेन्द का अर्थ ‘टीका’ है और ‘अवेस्ता’ भाषा का नाम है।
१. इस मत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के तीन कर्तव्य हैं—(१) अपने शत्रु को मित्र बनाना, (२) दानव को मानव बनाना, और (३) अज्ञानी को ज्ञानी बनाना।
यह निर्विवाद सत्य है कि अहिंसा के द्वारा ही शत्रु को स्नेह—सद्भावना के आधार पर मित्र बनाया जा सकता है। यदि शत्रु के प्रति मन में दुर्भावनाएँ होंगी, उसके प्रति िंहसापरक व्यवहार होगा तो उसके अन्तर्मानस में मित्रता की हरियाली नहीं लहलहाएगी। अहिंसा से ही सद्भाव की वृद्धि होगी।
जरथुष्ट्र ने कहा—‘‘ जो व्यक्ति किसी के विकास में बाधाएँ उपस्थित करता है, या किसी भी प्राणी का घात कर प्रसन्न होता है तो उसे अहुरा—मज्दा निकृष्ट कोटि में रखते हैं।’’
उन्होंने कहा—‘‘किसी से भी बदला लेने की भावना अत्यन्त निम्नवृत्ति है। दूसरे से बदला लेने की भावना से अनेक प्रकार के अहित होने की सम्भावना है। बदले की भावना तुम्हें सतत सताती रहेगी, अत: शत्रु से भी बदला मत लो। बदले की भावना से
प्रेरित होकर कभी कोई पाप कार्य मत करो। सदा सर्वदा मन में सद्विचारों के दीपक प्रकाशित रखो।
पारसी धर्म ने दान आदि सद्गुणों पर अत्यधिक बल दिया है, जो अहिंसा का ही विधेयात्मक पक्ष है।