पहले नहीं जाने हुए यथार्थ अर्थ का निश्चय कराने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। ऐसी भाट्टमीमांसकों की मान्यता है। किन्तु उनका यह लक्षण अव्याप्त दोष से दूषित है, क्योंकि उन्हीं के द्वारा प्रमाणरूप में माने गये धारावाहिक ज्ञान अपूर्वार्र्थग्राही नहीं है। यदि तुम यह कहो कि धारावाहिक ज्ञान अगले-अगले क्षण से सहित अर्थ को विषय करते हैं, इसलिए अपूर्वार्थ विषयक ही हैं। तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि क्षण अत्यंत सूक्ष्म हैं। इन क्षणों का जानना संभव नहीं है। अत: धारावाहिक ज्ञानों में उक्त लक्षण की व्याप्ति निश्चित है।
प्रभाकर मतानुयायी ‘अनुभूति को प्रमाण’ कहते हैं, किन्तु उनका भी यह लक्षण युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि ‘अनुभूति’ शब्द को भाव साधन करने पर करणरूप प्रमाण में अव्याप्त रहता है एवं अनूभूति शब्द को करण साधन करने पर भावरूप प्रमाण में अव्याप्ति दोष आता है। चूँकि करण और भाव दोनों को ही उनके यहाँ प्रमाण माना गया है। जैसा कि ‘शालिकानाथ ने कहा है’-यदाभावसाधनं तदा संविदेव प्रमाणं करणसाधनत्वे त्वात्ममन: सन्निकर्ष:’।
जब प्रमाण शब्द को ‘प्रमिति: प्रमाण’ इस प्रकार भाव साधन किया जाता है उस समय ‘ज्ञान’ ही प्रमाण होता है और ‘प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं’ जिसके द्वारा जाना जाये वह प्रमाण है, ऐसा करण साधन करने पर ‘आत्मा और मन का सन्निकर्ष प्रमाण होता है। अत: अनुभूति (अनुभव) को प्रमाण का लक्षण मानने में अव्याप्ति दोष स्पष्ट है। इसलिए यह लक्षण भी सुलक्षण नहीं है।
प्रमा के प्रति जो करण है वह प्रमाण है। ऐसी नैयायिकों की मान्यता है किन्तु उनकी यह मान्यता भी प्रमादकृत ही है, क्योंकि उनके द्वारा प्रमाणरूप से माने गये ईश्वर में ही वह लक्षण अव्याप्त है। कारण ‘महेश्वर’ प्रमाण का आश्रय है करण नहीं है। ईश्वर को प्रमाण मानने पर यह कथन हम अपनी ओर से आरोपित नहीं कर रहे हैं किन्तु उनके प्रमुख ‘आचार्य उदयन’ ने स्वयं स्वीकार किया है।
अर्थात् ‘‘वह महेश्वर मेरे प्रमाण हैं’’ इस अव्याप्ति दोष को दूर करने के लिए कोई इस प्रकार व्याख्या करते हैं कि जो प्रमा का साधन हो अथवा प्रमाण का आश्रय हो वह प्रमाण है।
किन्तु उनका यह व्याख्यान भी युक्ति संगत नहीं है क्योंकि प्रभा के साधन और प्रभा के आश्रय में से किसी एक को प्रमाण मानने पर लक्षण ही परस्पर में अव्याप्ति होती है। जब प्रमा के साधन को प्रमाण का लक्षण किया जावेगा, तब ‘प्रमा के आश्रय रूप’ प्रमाण लक्ष्य में लक्षण नहीं रहेगा और जब ‘प्रमा के आश्रय को’ प्रमाण का लक्षण माना जायेगा, तब ‘प्रमा के साधनरूप’ प्रमाण लक्ष्य में लक्षण घटित नहीं होगा तथा प्रमाश्रय और प्रमासाधन दोनों को सभी लक्ष्यों का लक्षण माना जाये, तो कहीं भी लक्षण नहीं जायेगा। सन्निकर्ष आदि केवल प्रभा के आश्रय हैं प्रभा के साधन नहीं है क्योंकि उसकी प्रमा (ज्ञान) नित्य है। प्रमा का साधन भी हो और प्रमा का आश्रय भी हो, ऐसा कोई प्रमाण लक्ष्य नहीं है अत: नैयायिकों का उक्त लक्षण सदोष है।
इस प्रकार से कोई-कोई ज्ञान को अस्वसंविदित-स्व को नहीं जानने वाला कहते हैं। कोई गृहीत अर्थ के ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, कोई निर्विकल्प दर्शन को प्रमाण कहते हैं कोई संशय को, कोई विपरीत को, कोई अनध्यवसाय को ही प्रमाण कह देते हैं किन्तु ये प्रमाण नहीं है प्रत्युत प्रमाणाभास ही हैं।
जैनाचार्योें द्वारा मान्य ‘सम्यग्ज्ञान’ ही प्रमाण है वही हित की प्राप्ति और अहित का परिहार कराने में समर्थ है अन्य नहीं है।
पदार्थ और प्रकाश ज्ञान की उत्पत्ति में कारण नहीं है क्योंकि वे विषय है जैसे अंधकार। ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न न होकर भी उस पदार्थ को प्रकाशित कर देता है जैसे कि दीपक अर्थ-घट, पट आदि से उत्पन्न न होकर भी उनको प्रकाशित कर देता है।
जैनाचार्यों का कहना है कि ज्ञान न तो अर्थ से उत्पन्न ही होता है न अर्थ के आकार का ही होता है फिर भी उसे जान लेता है, क्योंकि पदार्थ के साथ ज्ञान का कोई अन्वय व्यतिरेक नहीं है, कि जहाँ पर पदार्थ होवें, वही पर ज्ञान होवे और पदार्थ के अभाव में ज्ञान का अभाव रहे। अत: ज्ञान तो आत्मा का गुण है।
जैनाचार्य द्वारा मान्य ‘विशदं प्रत्यक्षं’ यह प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण ही सुसंगत है, ऐसा समझना चाहिए।
जो ज्ञान प्रत्यक्ष आदि के सदृश मालूम पड़ें या कहे जावें किन्तु प्रत्यक्ष आदि रूप न होवें वे ज्ञान ज्ञानाभास कहलाते हैं ऐसे ही सभी में आभास को लगाकर सभी को समझ लेना।
प्रत्यक्ष प्रमाणाभास का लक्षण-अविशद ज्ञान को प्रत्यक्ष मानना प्रत्यक्षाभास है जैसे बौद्ध अकस्मात् धूम को देखकर अग्नि के ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं।
परोक्षाभास का स्वरूप-स्पष्ट ज्ञान को परोक्ष कहना परोक्षाभास है, जैसे मीमांसक करणज्ञान को परोक्ष मानता है। वास्तव में करण ज्ञान प्रत्यक्ष है। उसको परोक्ष मानना परोक्षाभास है।
स्मरणाभास का लक्षण-जिस पदार्थ को पहले कभी धारणारूप अनुभव नहीं हुआ था, उसके अनुभव को स्मरणाभास कहते हैं। अथवा जो वस्तु ‘वह’ नहीं है उसे ‘वह’ कहकर स्मरण करना स्मरणाभास है। जैसे जिनदत्त का स्मरण करके कहना कि वह देवदत्त।
प्रत्यभिज्ञानाभास का स्वरूप-सदृश में ‘यह वही है’ ऐसा ज्ञान तथा उसी में यह उसके सदृश है, ऐसा ज्ञान प्रत्यभिज्ञ्ाानाभास है, जैसे एक साथ जन्में दो बालकों में उल्टा ज्ञान हो जाता है।
तर्काभास का लक्षण-अविनाभाव रहित ज्ञान में अविनाभाव का ज्ञान या जिन पदार्थों में परस्पर में व्याप्ति नहीं है, उनमें व्याप्ति का ज्ञान होना तर्काभास है। जैसे किसी के एक पुत्र को काला देखकर व्याप्ति बनाना कि इसके जितने पुत्र होंगे, वे काले ही होंगे इत्यादि ज्ञान तर्काभास है।
अनुमानाभास का लक्षण-अनुमान के अवयवों का आभास दिखलाने से अनुमानाभास सिद्ध हो जावेगा।
अनिष्ट, बाधित और सिद्ध को पक्षाभास कहते हैं। अर्थात् साध्य के तीन विशेषण थे इष्ट, अबाधित और असिद्ध। इनके उल्टे पक्षाभास बन जाते हैं। क्योंकि साधन से होने वाले साध्य के ज्ञान का नाम ही अनुमान है।
अनिष्ट-जो अपने को इष्ट नहीं है उसे साध्य की कोटि में रखना।
बाधित-जो प्रत्यक्ष आदि से बाधित हो, उसे साध्य की कोटि में रखना।
सिद्ध-सिद्ध को सिद्ध करने का प्रयास करना। इसमें बाधित पक्षाभास के पाँच भेद माने गये हैं।
बाधित के भेद-बाधित पक्षाभास के पाँच भेद हैं। प्रत्यक्षबाधित, अनुमानबाधित, आगमबाधित, लोकबाधित और स्ववचनबाधित।
प्रत्यक्षबाधित का दृष्टान्त-अग्नि ठंडी होती है, क्योंकि वह द्रव्य है जैसे जल। यहाँ अग्नि को ठंडी कहना स्पर्शन इन्द्रिय के प्रत्यक्ष से बाधित है क्योंकि छूने से अग्नि गरम होती है।
अनुमान बाधित-‘‘शब्द नित्य होता है क्योंकि किया हुआ है जैसे घट’’। यह अनुमान बाधित पक्ष है क्योंकि ऐसा भी अनुमान कहा भी जा सकता है कि ‘‘शब्द अनित्य होता है क्योंकि वह किया गया होता है जैसे घट।’’ इस अनुमान से बाधा आ सकती है।
आगम बाधित-धर्म परलोक में दु:खदायी होता है क्योंकि वह पुरुष के आश्रित होता है। जो-जो पुरुष के आश्रित होता है वह दु:खदायी होता है जैसे अधर्म। यह पक्ष आगम से बाधित है क्योंकि आगम में धर्म को सुखदायी माना है और अधर्म को दु:खदायी कहा है। यद्यपि दोनों ही पुरुष के आश्रित हैं फिर भी भिन्न स्वभाव वाले हैं।
लोक बाधित-मनुष्य के शिर का कपाल पवित्र होता है क्योंकि वह प्राणी का अंग है। जो-जो प्राणी का अंग होता है, वह-वह पवित्र होता है जैसे-शंख और सीप। यह पक्ष लोक बाधित है क्योंकि लोक में प्राणी का अंग होते हुए भी कोई चीजें पवित्र और कोई अपवित्र मानी गयी हैं।
स्ववचन बाधित पक्षाभास का उदाहरण-मेरी माता बंध्या है क्योंकि पुरुष का संयोग होने पर भी उसके गर्भ नहीं रहता है, जैसे कि प्रसिद्ध बंध्या स्त्री। यह पक्ष अपने ही वचनों से बाधित है क्योंकि स्वयं पुत्र मौजूद है और माता भी कह रहा है। फिर भी ‘मेरी माता बंध्या हैä यह कथन स्ववचन बाधित है।
इन पाँच प्रकार से बाधित विषयों को पक्ष की कोटि में रखना बाधित पक्षाभास दोष है।
हेत्वाभास के भेद-हेत्वाभास के चार भेद हैं-असिद्ध, विरुद्ध, अनैकांतिक और अकिंचित्कर।
असिद्ध हेत्वाभास-जिस हेतु की सत्ता का अभाव हो उसे असिद्ध हेत्वाभास कहते हैं। इसके स्वरूपासिद्ध और संदिग्धासिद्ध ऐसे दो भेद हैं।
विरुद्ध हेत्वाभास-साध्य से विपरीत-विपक्ष के साथ जिस हेतु का रहना हो, वह हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है। जैसे ‘‘शब्द नित्य हैं क्योंकि किये हुए हैं’’ यहाँ यह कृतकत्व हेतु नित्य से विरुद्ध अनित्य में रहता है। अत: विरुद्ध हेतु है।
अनैकांतिक हेत्वाभास-जो पक्ष सपक्ष में रहता हुआ विपक्ष में भी चला जाता है, वह अनैकान्तिक हेत्वाभास है। इसे व्यभिचारी हेतु भी कहते हैं। इसके शंकित विपक्षवृत्ति और निश्चितविपक्षवृत्ति ऐसे दो भेद हैं।
शंकितविपक्षवृत्ति-‘नास्ति सर्वज्ञो वत्तृâत्वात्’ सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि वह वक्ता है यहाँ वक्ता है यह हेतु रह जावे और सर्वज्ञत्व भी रह जावे, इन दोनोें बातों में कोई विरोध नहीं है अत: यह हेतु शंकित व्यभिचारी है क्योंकि इसकी विपक्ष में रहने में शंका है।
निश्चितविपक्षवृत्ति-‘‘शब्द अनित्य है क्योंकि वह प्रमेय है जैसे घट’’ यहाँ प्रमेयत्व हेतु पक्ष शब्द में और सपक्ष घट में रहता हुआ विपक्षरूप नित्य आकाश में भी चला जाता है अत: निश्चित व्यभिचारी हेतु है।
अकिंचित्कर हेत्वाभास-साध्य के सिद्ध होने पर तथा प्रत्यक्षादि से बाधित होने पर जो हेतु कुछ नहीं कर सकता है, इसलिए वह अकिंचित्कर हेत्वाभास कहलाता है। जैसे-शब्द श्रवण इन्द्रिय का विषय है क्योंकि वह शब्द है।’ यहाँ शब्दत्व हेतु सिद्ध को ही सिद्ध कर रहा है। अथवा ‘अग्नि ठण्डी है क्योंकि वह द्रव्य है’ इसमें द्रव्यत्व हेतु प्रत्यक्ष से ही बाधित है। अत: ऐसे हेतु अंकिचित्कर होते हैं।
ऐसे ही अन्वय, व्यतिरेक दृष्टान्तों का विपरीत प्रयोग करना दृष्टान्ताभास कहलाता है। अन्वय दृष्टान्ताभास के तीन भेद हैं-साध्य विकल, साधनविकल और उभयविकल। तीनों का उदाहरण-‘‘शब्द अपौरुषेय है क्योंकि अमूर्त है, जैसे-इन्द्रिय सुख, परमाणु और घट।’’
यहाँ दृष्टान्त में इन्द्रिय सुख पुरुषकृत् है अत: अपने अपौरुषेय साध्य में न रहने से ‘साध्य विकल’ है। परमाणु मूर्तिक है, वह अमूर्तिक हेतु में नहीं रहता है अत: यह दृष्टांत ‘साधन विकल’ है।
घट पुरुषकृत और मूर्तिक है। वह अपौरुषेय साध्य और अमूर्तिक हेतु नहीं रहता है अत: यह साध्य-साधन विकल दृष्टान्त है।
व्यतिरेक दृष्टांताभास के भी तीन भेद हैं-
‘‘शब्द अपौरुषेय होता है क्योंकि वह अमूर्त है, जो-जो पौरुषेय होता है वह अमूर्तिक नहीं होता है। जैसे परमाणु, इन्द्रियसुख और आकाश।’’
यहाँ परमाणु असिद्धसाध्य व्यतिरेक है, क्योंकि वह अपौरुषेय है। इसलिए परमाणु के अपौरुषेयपना का साध्य से व्यतिरेक नहीं हुआ। ऐसे ही इन्द्रियसुख असिद्ध साधन व्यतिरेक है। एवं आकाश असिद्ध साध्य-साधन व्यतिरेक है।
बाल प्रयोगाभास का लक्षण-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन बालकों को बोध कराने के लिए शास्त्र में अनुमान के ये पाँच अवयव माने गये हैं। इनमें से कुछ कम अवयवों का प्रयोग करना गलत है। अत: बाल प्रयोगाभास कहलाता है।
आगमाभास का लक्षण-रागी, द्वेषी, अज्ञानी, मोही, पुरुषों के वचनों से होने वाले आगम-शास्त्र को आगमाभास कहते हैं।
आगमाभास के उदाहरण-जैसे कि हे बालकों! दौड़ों, नदी के किनारे लड्डुओं के ढेर लगे हैं, ऐसे वचन आगमाभास है। अथवा अंगुली के अग्रभाग पर सौ हाथी ठहरे हैं यह भी अनाप्त वचन हैं इन सब में विसंवाद देखा जाता है अत: ये सब आगमाभास हैं।
केवल एक सामान्य को ही ज्ञान का विषय मानना या केवल विषय को ही मानना अथवा दोनों रूप पदार्थ को ही स्वतंत्रता से प्रमाण का विषय मानना विषयाभास है।
प्रत्येक वस्तु सामान्य विशेषात्मक ही है यह बात पहले कही जा चुकी है। एवं प्रत्येक ज्ञान भी उभयात्मक वस्तु को ही जानता है तभी वह प्रमाण कहलाता है। अन्यथा अप्रमाण कहलाता है। सांख्य पर्याय रहित केवल द्रव्य-सामान्य को ही ज्ञान का विषय कहता है। नैयायिक व वैशेषिक सामान्य-विशेष स्वरूप पदार्थ को मानकर भी सामान्य और विशेष को एक-दूसरे की सहायता से रहित स्वतंत्रता से प्रमाण का विषय मानते हैं, इसलिए वे सब विषयाभास हैं क्योंकि प्रमाण का विषय परस्पर सापेक्ष उभयात्मक है।
प्रमाण से उसके अज्ञान निवृत्ति आदि फल को सर्वथा भिन्न ही मानना या सर्वथा अभिन्न ही मानना प्रमाण फलाभास है, क्योंकि कथंचित् जिसके ज्ञान प्रकट होता है उसी का अज्ञान का अभाव, त्याग आदि फल मिलते हैं तथा कथंचित् ये फल नाम, लक्षण आदि से भिन्न भी हैं। अत: एकांत मान्यता ही आभास कहलाती है।
जहां-जहां धूम है वहां-वहां अग्नि है अर्थात् किसी स्थान में धूम के होने का सद्भाव देखा पुन:-पुन: देखकर यह निश्चय किया कि किसी क्षेत्र और किसी काल में भी धूम अग्नि से व्यभिचरित नहीं होती है। इस प्रकार सब देश, काल के उपसंहारपूर्वक अर्थात् सामान्यरूप से होने वाले साध्य साधन संबंधी ज्ञान को तर्क कहते हैं यह प्रत्यक्षादि से भिन्न है।
शंका-प्रत्यक्ष के अनन्तर होने वाला विकल्प ज्ञान व्याप्ति को ग्रहण करता है ?
समाधान-यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रश्न उठता है कि वह विकल्प प्रमाण है या अप्रमाण। यदि अप्रमाण है तो उस विकल्प से ग्रहण की गई व्याप्ति में किस प्रकार विश्वास हो सकता है। यदि प्रमाण है तो प्रत्यक्ष है या अनुमान। प्रत्यक्ष तो कह नहीं सकते, क्योंकि उसका प्रतिभास स्पष्ट नहीं है। अनुमान भी नहीं कह सकते, क्योंकि उनमें लिंग, दर्शनादि की अपेक्षा नहीं है अत: वह विकल्प प्रत्यक्ष और अनुमान से भिन्न तीसरा तर्क नाम का प्रमाण है।
साधन से उत्पन्न हुए साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैंं।
नैयायिक के अनुमान का लक्षण-लिंग के ‘परामर्शात्मक’ ज्ञान को अनुमान कहते हैं किन्तु यह कहना ठीक नहीं है। जैन ऐसा कहते हैं कि जैसे स्मृति आदि की उत्पत्ति में अनुभव आदि कारण हैं उसी प्रकार अनुमान प्रमाण की उत्पत्ति में व्याप्ति स्मरण के साथ-साथ उत्पन्न हुआ लिंग परामर्श ज्ञान का कारण है; न कि अनुमान है।
साधन का लक्षण-जिसका साध्य के बिना न होना निश्चित है उसे साधन कहते हैं।
साध्य का लक्षण-जो शक्य तथा अप्रसिद्ध एवं अभिप्रेत है उसे साध्य कहते हैं।
जिसमें प्रत्यक्षादि से बाधा न आवे उसे शक्य कहते हैं।
जिसमें संदेह आदिक मौजूद हों उसे अप्रसिद्ध कहते हैं।
जो वादी को अभिमत हो उसे अभिप्रेत करते हैं।
अत: अविनाभाव ही है मुख्य लक्षण जिसका ऐसे साधन से उत्पन्न हुए शक्य, अभिप्रेत तथा अप्रसिद्ध- रूप साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं। उस अनुमान के दो भेद हैं-१. स्वार्थानुमान २. परार्थानुमान।
स्वार्थानुमान का लक्षण-स्वयं ही निश्चित साधन से उत्पन्न हुए साध्य के ज्ञान को स्वार्थानुमान कहते हैं। जैसे-यह पर्वत अग्नि वाला है धूम वाला होने से। स्वार्थानुमान के तीन अंग हैं-१. धर्मी २. साध्य ३. साधन।
साधन तो गमक अर्थात् ज्ञान कराने वाला है। साध्य गम्य अर्थात् जानने योग्य है एवं धर्मी साध्यरूप धर्म का आधार है इसीलिए ये तीनों स्वार्थानुमान के तीन अंग हैं।
स्वार्थानुमान के और भी दो अंग हैं-१. पक्ष २. साधन।
पक्ष का लक्षण-साध्य धर्म से विशिष्ट धर्मी को पक्ष कहते हैं। धर्मी प्रसिद्ध होता है। धर्मी की प्रसिद्धि कहीं तो प्रमाण से और कहीं विकल्प से और कहीं प्रमाण और विकल्प से होती है।
परार्थानुमान का लक्षण-दूसरे का उपदेश सुनने से साधन से जो साध्य का ज्ञान होता है उसे परार्थानुमान कहते हैं।
शंका-नैयायिक कहता है कि दूसरे के वचन को ही परार्थानुमान कहते हैं ?
समाधान-किन्तु यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि परोपदेश के वचन को गौणरूप से परार्थानुमान कह सकते हैं मुख्यरूप से नहीं।
उस परार्थानुमान प्रयोजक वचन के भी दो अंग हैं-१. प्रतिज्ञा २. हेतु।
प्रतिज्ञा का लक्षण-धर्म और धर्मी के समुदायरूप पक्ष कहने को प्रतिज्ञा कहते हैं। जैसे-यह पर्वत अग्नि वाला है।
हेतु का लक्षण-साध्य के ब्िाना न होने वाले साधन को हेतु कहते हैं। जैसे-
१. अन्यथा यहाँ पर धूम नहीं हो सकता है।
२. अग्नि रहने पर ही धूम रह सकता है।
इन दोनों में से किसी एक ही हेतु का प्रयोग करना चाहिए।
नैयायिक परार्थानुमान प्रयोग के ५ अवयव मानते हैं-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन।
साधर्म्य उदाहरण का लक्षण-जो-जो धूमवान होता है वह-वह अग्निमान होता है जैसे-रसोईघर, यह अन्वयरूप उदाहरण है।
वैधर्म्य उदाहरण का लक्षण-जो-जो अग्निमान नहीं होता वह-वह धूमवान भी नहीं होता है, जैसे-तालाब, यह व्यतिरेकरूप उदाहरण है।
उपनय का लक्षण-दृष्टान्त की अपेक्षा से पक्ष और हेतु के दोहराने के वचन को उपनय कहते हैं। जैसे-यह भी उसी तरह धूमवान है।
निगमन का लक्षण-हेतुपूर्वक पक्ष के दोहराने को निगमन कहते हैं। जैसे-इसीलिए यह अग्निमान है। ये परार्थानुमान के पांच अवयव हैं।
इनमें से एक के भी न होने पर वीतराग कथा हो या विजिगीषु कथा हो, कहीं भी अनुमान नहीं हो सकता। यह नैयायिकों की मान्यता ठीक नहीं है क्योंकि वीतराग कथा में शिष्य के आशय के अनुसार यद्यपि अधिक अवयव माने जा सकते हैं तथापि विजिगीषु कथा में प्रतिज्ञा और हेतु इन दो ही अवयवों की अवश्यकता है।
विजिगीषु कथा का लक्षण-वादी और प्रतिवादी अपने-अपने मत का स्थापन करने के लिए जय-पराजय की अपेक्षा रखते हुए जो चर्चा करते हैं उसे विजिगीषु कथा कहते हैं।
वीतराग कथा का लक्षण-गुरु अथवा शिष्यजन अथवा विद्वान्जन तत्त्व निर्णय के लिए जो आपस में चर्चा करते हैं उसे वीतराग कथा कहते हैं।
शंका-कोई कहता है कि हेतु से ही अनुमान समझ में आ जावेगा प्रतिज्ञा की आवश्यकता नहीं है ?
समाधान-यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि केवल हेतु का प्रयोग करने से विद्वान को भी साध्य में संदेह बना रह सकता है इसलिए प्रतिज्ञा का प्रयोग करना ही चाहिए अत: सारांश यह है कि वीतराग कथा में प्रतिज्ञा हेतुरूप दो अथवा तीन अथवा चार एवं पांच अवयवों का भी प्रयोग कर सकते हैं किन्तु विजिगीषु कथा में प्रतिज्ञा और हेतु इन दो ही अवयव का प्रयोग करना चाहिए।
नैयायिक हेतु के पाँच रूप मानते हैं-
(१) पक्षधर्मत्व (२) सपक्षसत्व (३) विपक्षाद्व्यावृत्ति (४) अबाधित विषयत्व (५) असत्प्रतिपक्षत्व।
१. पक्ष के अन्दर हेतु के रहने को पक्षधर्मत्व कहते हैं।
२. जहां साध्य साधन दोनों उपलब्ध हों उस धर्मी को सपक्ष कहते हैं। उस सपक्ष के एकदेश में अथवा संपूर्ण देश में हेतु के रहने को सपक्षसत्व कहते हैं।
३. साध्य के विरुद्ध धर्म वाले स्थल को विपक्ष कहते हैं। ऐसे सम्पूर्ण विपक्षों से हेतु के सर्वथा अलग रहने को विपक्षाद्व्यावृत्ति कहते हैं।
४. साध्य से विपरीतपने को निश्चय कराने वाला प्रबल प्रमाण जिसमें सम्भव न हो उसे अबाधित विषयत्व कहते हैं।
५. समान बल के धारक ऐसे साध्य विपरीत निश्चायक किसी विरुद्ध प्रमाण का सम्भव न होना उसे असत्प्रतिपक्षत्व कहते हैं।
१. प्रतिज्ञा-यह पर्वत अग्निमान है।
२. हेतु-क्योंकि यहां पर धूम है।
अन्वय उदाहरण-जहां-जहां धूम होता है वहां-वहां अग्नि है। जैसे-रसोईघर।
व्यतिरेक उदाहरण-जहां-जहां अग्नि नहीं होती है वहां-वहां धूम भी नहीं होता, जैसे-तालाब।
४. उपनय-यह भी उसी प्रकार धूमवान है।
५. निगमन-इसलिए अग्निमान भी होना चाहिए।
यहां धूमवान हेतु पक्ष (पर्वत) में है, सपक्ष रसोईघर में है एवं विपक्ष तालाब में नहीं पाया जाता है। अबाधित विषय भी है और असत्प्रतिपक्षत्व भी है इसलिए साध्य की सिद्धि के लिए हेतु में पांच अवयव होना ही चाहिए। इन पांच अवयवों के विपरीत पांच हेत्वाभास हैं।
हेत्वाभास के भेद-१. असिद्ध २. विरुद्ध ३. अनैकान्तिक ४. कालात्यापदिष्ट ५. प्रकरण सम।
असिद्ध हेत्वाभास का लक्षण एवं उदाहरण-जिस पक्ष का हेतु में रहना निश्चित न हो उसे असिद्ध कहते हैं। जैसे-असिद्ध शब्द अनित्य है क्योंकि चक्षु इन्द्रिय का विषय है।
यह हेतु पक्ष धर्म में न रहने से हेत्वाभास है।
विरुद्ध हेत्वाभास का लक्षण-जिस हेतु की साध्य से विपरीत के साथ व्याप्ति हो उसे विरुद्ध कहते हैं। जैसे-शब्द नित्य है क्योंकि किया हुआ है।
यहां पर ‘किया हुआ’ यह हेतु अनित्य के साथ व्याप्त है इसलिए यह विरुद्ध हेत्वाभास है।
अनैकान्तिक हेत्वाभास-व्यभिचार सहित हेतु को अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं। जैसे-शब्द अनित्य है क्योंकि प्रमेय है। यह प्रमेयत्व हेतु साध्यभूत अनित्य में और विपक्षभूत आकाश आदि नित्य में भी है अत: विपक्ष से व्यावृत्त न होने से अनैकान्तिक हेत्वाभास है।
कालात्यापदिष्ट हेत्वाभास-जिस हेतु का विषय किसी प्रमाण से बाधित हो उसे कालात्यापदिष्ट हेत्वाभास कहते हैं। जैसे-अग्नि ठंडी है क्योंकि वह पदार्थ है।
प्रकरण सम हेत्वाभास-जिसका विरोधी साधन मौजूद हो उस हेतु को प्रकरण सम हेत्वाभास कहते हैं। जैसे-शब्द अनित्य है क्योंकि वह नित्य धर्म से रहित है।
नैयायिकों का यह सब कहना ठीक नहीं है क्योंकि कृतिकोदय हेतु पक्ष धर्म में न रहकर भी रोहिणी के उदय को सिद्ध करता है दूसरी बात यह है कि नैयायिक ने हेतु के तीन भेद माने हैं।
१. अन्वयव्यतिरेकी २. केवलान्वयी ३. केवलव्यतिरेकी।
प्रथम भेद अन्वयव्यतिरेकी में पांचों अवयव पाये जाते हैं, शेष दो में पांचों अवयव नहीं पाये जाते फिर भी उसने उन्हें हेतु माना है।
अन्वयव्यतिरेकी का उदाहरण-शब्द अनित्य है क्योंकि वह कृतक है। जो-जो कृतक होता है वह-वह अनित्य होता है। जैसे-आकाश शब्द भी कृतक है इसलिए अनित्य ही है।
यहां पर कृतकत्व हेतु शब्दरूप पक्ष में एवं घटादि सपक्ष में रहता है तथा आकाशादि विपक्ष में नहीं रहता है।
केवलान्वयी का उदाहरण-जो हेतु पक्ष और सपक्ष में रहे किन्तु उसका विपक्ष कोई नहीं हो उसे केवलान्वयी कहते हैं। जैसे-अदृष्टादिक ‘भाग्य’ किसी के प्रत्यक्ष है क्योंकि अनुमेय है, जैसे-अग्नि आदि। यहां अनुमेयत्व हेतु का विपक्ष कोई है ही नहीं। पक्ष-सपक्ष में ही सारा विश्व आ गया अत: विपक्ष से व्यावृत्ति होना सम्भव नहीं है।
केवलव्यतिरेकी का उदाहरण-जो पक्ष में रहे और विपक्ष से व्यावृत्त हो किन्तु जिसका सपक्ष न हो। जैसे कि-जीवित का शरीर आत्मा कर सहित है क्योंकि उसमें स्वासोच्छ्वास है जो आत्मा कर सहित नहीं होता उसमें स्वांसादिक नहीं होता, जैसे-मिट्टी का ढेला।
यह स्वासोच्छ्वास आदि हेतु पक्ष में है और विपक्ष से व्यावृत्त है तथा सपक्ष सम्भव ही नहीं है।
अत: नैयायिक के द्वारा माने गए तीनों हेतुओं में दो हेतु उसी के कथन से दूषित हो जाते हैं।
तीनरूप और पांचरूप कर सहित अनुमान-गर्भ में स्थित मैत्री का पुत्र काला होना चाहिए क्योंकि वह मैत्री का पुत्र है अन्य मौजूद मैत्री के पुत्रों की तरह, इस मैत्री पुत्र हेतु में बौद्धों के तीनरूप और नैयायिकों के पांचरूप पाये जाते हैं परन्तु अन्यथानुपपत्ति एक लक्षण इसमें नहीं पाया जाता है अत: यह हेत्वाभास है।
हेतु के भेद-१. विधिरूप २. प्रतिषेधरूप।
विधिरूप के दो भेद हैं-१. विधि साधक २. प्रतिषेध साधक।
प्रतिषेधरूप के दो भेद हैं-१. विधि साधक २. प्रतिषेध साधक। विधि साधक हेतु का दूसरा नाम अविरुद्धोपलब्धि भी है।
विधि साधक हेतु के भेद-विधिरूप हेतु के अनेक भेद हैं यहां पर ६ भेद बताये हैं।
१. कार्यरूप हेतु का उदाहरण-जैसे-यह पर्वत अग्नि वाला है धूम वाला होने से।
२. कारणरूप हेतु का उदाहरण-जैसे-वृष्टि होवेगी क्योंकि विशिष्ट मेघ हो रहे हैं।
विशेषरूप हेतु (व्याप्यरूप हेतु)-जैसे-यह वृक्ष है क्योंकि शीशमपना इसमें पाया जाता है। पूर्वचररूप हेतु का उदाहरण-जैसे-एक मुहूर्त के बाद रोहिणी का उदय होगा क्योंकि उसके पूर्वचर कृतिका का उदय हो रहा है।
उत्तरचररूप हेतु का लक्षण-जैसे-एक मुहूर्त पहले भरणी का उदय हो चुका है क्योंकि कृतिका का उदय हो रहा है। यहां भरणी का उत्तरचर कृतिका का उदय है।
सहचररूप हेतु का उदाहरण-जैसे-इस बिजौरे में रूप है क्योंकि रूप का सहचर हेतु रस पाया जाता है।
इस प्रकार से ये भावरूप पदार्थ को सिद्ध करते हैं इसलिए इनका अविरुद्धोपलब्धि भी नाम है।
विधिरूप हेतु के दूसरे भेद प्रतिसाधकरूप हेतु का दूसरा नाम विरुद्धोपलब्धि भी है।
विरुद्धोपलब्धि (प्रतिषेध साधक) का उदाहरण-इस प्राणी के मिथ्यात्व नहीं है क्योंकि यदि मिथ्यात्व होता तो आस्तिक्य नहीं हो सकता था। यहां आस्तिक्य हेतु निषेध साधक है। यह आस्तिक्य मिथ्यात्व में नहीं रह सकता। अरहन्त के द्वारा कथित तत्त्वों में रुचि होने को आस्तिक्य कहते हैं। अथवा दूसरा उदाहरण-वस्तु सर्वथा एकान्तरूप नहीं है क्योंकि सर्वथा एकान्तरूप हो तो अनेकात्मकता बन नहीं सकती।
अनेकान्त का लक्षण-सम्पूर्ण जीवादि पदार्थों में भाव-अभाव, एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि अनेक धर्मों के रहने को अनेकान्त धर्म कहते हैं।
प्रतिषेधरूप साधक के दो भेद-१. विधि साधक २. प्रतिषेध साधक
प्रतिषेधरूप विधि साधक का उदाहरण-इस प्राणी के सम्यक्त्व है क्योंकि इसको विपरीत दुराग्रह नहीं है। विपरीत दुराग्रह न होना प्रतिषेधरूप है। वह सम्यक्त्व के सद्भाव को सिद्ध करता है इसलिए ये प्रतिषेधरूप साधक है।
प्रतिषेधरूप प्रतिषेध का उदाहरण-यहां पर धूम नहीं है क्योंकि अग्नि नहीं दिखती है यह अग्नि अभाव हेतु अभावरूप है और अभावरूप ही धूम के अभाव को सिद्ध करता है इसलिए यह प्रतिषेधरूप प्रतिषेध साधक है।
हेत्वाभास का लक्षण और उसके भेद-हेतु के लक्षण से रहित किन्तु हेतु के समान मालूम पड़े उसे हेत्वाभास कहते हैं।
१. असिद्ध २. विरुद्ध ३. अनैकान्तिक ४. अकिंचित्कर
असिद्ध हेत्वाभास का लक्षण-जिसकी साध्य के साथ व्याप्ति निश्चित है उसे असिद्ध हेत्वाभास कहते हैं।
इसके दो भेद हैं-१. स्वरूपासिद्ध २. संदिग्धासिद्ध।
विरुद्ध का लक्षण-जिस हेतु की विरुद्ध के साथ व्याप्ति हो उसे विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं।
अनैकान्तिक का लक्षण-जो पक्ष, सपक्ष और विपक्ष में रहता है उसे अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं।
इसके दो भेद हैं-१. निश्चित विपक्ष वृत्ति २. शंकित विपक्ष वृत्ति।
अकिंचित्कर का लक्षण-जो हेतु साध्य की सिद्धि करने में असमर्थ है उसे अकिंचित्कर हेत्वाभास कहते हैं।
इसके दो भेद हैं-१. सिद्ध साधन २. बाधित विषय।
बाधित विषय के पांच भेद हैं-१. प्रत्यक्ष बाधित २. अनुमान बाधित ३. आगम बाधित ४. लोक बाधित ५. स्ववचन बाधित।
उदाहरण का लक्षण-दृष्टान्त के कहने को उदाहरण कहते हैं। इसके दो भेद हैं-(१) अन्वय दृष्टान्त। (२) व्यतिरेक दृष्टान्त।
उदाहरणाभास का लक्षण-जो उदाहरण के लक्षण से रहित है और उदाहरण के समान दिखता है उसे उदाहरणाभास कहते हैं।
उदाहरणाभास के भेद-१. अन्वय उदाहरणाभास २. व्यतिरेकाभास।
उपनय का लक्षण-पर्व की दृष्टान्त के साथ साम्यता का कथन करना उपनय कहलाता है। जैसे-इसीलिए यह धूम वाला है।
निगमन का लक्षण-साधन को दोहराते हुए साध्य के निश्चयरूप वचन को निगमन कहते हैं। जैसे-यह धूम वाला होने से अग्नि वाला है।
इन दोनों का गलत उपयोग वâरने पर उपनयाभास और निगमनाभास होता है।