कर्मवाद का सामान्य विवेचन प्राय: जैन आगमिक तथा दार्शनिक ग्रंथों एवं जैन कथा साहित्य में मिलता है। इसके साथ ही स्वतंत्र रूप से भी कर्म सम्बन्धी विशाल साहित्य का निर्माण हुआ है। जैन अनुश्रुति ‘‘कर्मवाद” नामक एक अति विस्तृत ग्रंथ का उल्लेख करती है, जिसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय कर्म सिद्धान्त था परन्तु पूर्व साहित्य के विलुप्त होने के साथ ही यह ग्रन्थ भी विलुप्त हो चुका है। कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी उपलब्ध जैन साहित्य का सामान्य परिचय इस प्रकार है-
दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में षट्खण्डागम का अन्यतम स्थान है, इस ग्रन्थ के कर्ता आचार्य पुष्पदन्त तथा भूतबलि हैं। यह ग्रन्थ अनुमानत: विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी की रचना है। इसमें छ: खण्ड हैं-जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, वेदना, वर्गणा और महाबंध। जीवस्थान आठ अनुयोग द्वारों में विभक्त है-१. सत्प्ररूपणा,
२. द्रव्यप्रमाणानुगम, ३. क्षेत्रानुगम, ४. स्पर्शानुगम ५. कालानुगम ६. अन्तरानुगम, ७. भावानुगम और ८. अल्पबहुत्वानुगम।
(१) सत्प्ररूपणा में दो प्रकार का कथन है—‘‘ओघ अर्थात् सामान्य की अपेक्षा से और आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा से।” यहाँ ओघ और आदेश से अभिप्राय क्रमश: गुणस्थान और मार्गणास्थान की दृष्टि से जीव की विभिन्न अवस्थाओं का विवेचन करना है। गुणस्थानों के विस्तृत विवेचन के लिए गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार—इन चौदह मार्गणाओं के उल्लेख हैं। गुणस्थान और मार्गणास्थान कर्मप्रकृतियों के बन्ध और उदय से सम्बन्धी हैं। ‘गुणस्थान कर्मों के क्षय, उपशम एवं क्षयोपशम के आधार पर जीवों के आध्यात्मिक विकास एवं पतन के सूचक हैं। चौदह गुणस्थान निम्नलिखित हैं—१. मिथ्यादृष्टि, २. सासादन ३. सम्यक््âमिथ्यादृष्टि, ४. असंयतसम्यग्दृष्टि ५. संयतासंयत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८.अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण १०. सूक्ष्मसाम्पराय, ११. उपशान्तकषाय १२. क्षीणकषाय, १३. सयोगकेवली और १४. अयोगकेवली। इन गुणस्थानों से कर्मप्रकृतियों के बन्धन, उदय एवं क्षयसम्बन्धी जानकारी मिलती है। ये गुणस्थान यह सूचित करते हैं कि इन पर अवरोह मुक्ति की ओर और अवतरण संसार की ओर ले जाता है। इस प्रकार गुणस्थानों का विस्तृत विवरण कर्म सिद्धान्त के सन्दर्भ में अति महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इनसे उन तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है जो कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय से संबंधित हैं।
जीवस्थान के सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में प्रथम गुणस्थान की चर्चा है एवं तदनन्तर मार्गणाओं का विवरण है तथा प्रत्येक मार्गणा में कौन-कौन से गुणस्थान पाये जाते हैं, इसका उल्लेख किया गया है। मार्गणास्थान कर्मों के अनुसार जीव को मिलने वाली विभिन्न गतियों के सूचक हैं। जीव अपने कृतकर्म के फलोपभोग हेतु इन्हीं १४ मार्गणाओं में भ्रमण करता है। इसमें प्रत्येक मार्गणा की गति मानी गयी है—नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति एवं देवगति। इसके बाद किस गुणस्थान वाले जीव इन गतियों में से किस गति में रहते हैं, इसका विवरण है, जैसे-इसमें यह उल्लेख है कि ‘नरकगति में प्रारंभ के चार गुणस्थानों वाले जीव होते हैं। तिर्यंचगति में आदि के पाँच गुणस्थान वाले जीव होते हैं। मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों वाले जीव होते हैं। देवगति में नरकगति की तरह चार गुणस्थान वाले जीव होते हैं। इसी प्रकार अन्य शेष १३ मार्गणाओं में भी कौन से गुणस्थानवर्ती जीव पाये जाते हैं, इसका विवरण है।
इन अनुयोगों में ओघ और आदेश से उन भावों पर प्रकाश डाला गया है। प्रथम किस गुणस्थान में कौन सा भाव होता है, इसका विवेचन है, जैसे—मिथ्यात्व गुणस्थान में औदयिकभाव होता है, सासादन गुणस्थान में पारिणामिक भाव होता है, सम्यक् दृष्टि गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव होता है आदि। ये पाँचों भाव कर्मों के उदय, क्षय, उपशम आदि के कारण होते हैं अत: अनुयोग द्वार कर्म सिद्धान्त से सम्बन्धित है।
इसी प्रकार उत्तरप्रकृति समुत्कीर्तन में कर्म की सभी उत्तरप्रकृतियों का उल्लेख है। ज्ञानावरणीय कर्म की चर्चा करते हुए इसकी पाँच उत्तर प्रकृतियाँ निर्दिष्ट हैं, यथा—मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्यय-ज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय। इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियाँ बतायी गयी हैं, जैसे— निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय। वेदनीय कर्म की दो उत्तरप्रकृतियाँ बताई गयी हैं, यथा-सातावेदनीय और असातावेदनीय। मोहनीय कर्म का उल्लेख करते हुए उसकी अट्ठाईस प्रकृतियाँ बताई गयी हैं। मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के उल्लेख में पहले मोहनीय कर्म को दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय इस प्रकार दो वर्गों में विभाजित किया गया है। दर्शनमोहनीय के पुन: तीन भेद किये गये हैं—सम्यक्त्वमोह, मिथ्यात्वमोह एवं सम्यग्मिथ्यात्वमोह। इसी प्रकार चारित्रमोहनीय के दो भेद किये गये हैं—कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय। चारित्रमोहनीय के भेदों में कषायवेदनीय के १६ भेद, यथा—अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ एवं संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं लोभ किये गये हैं। इस प्रकार नो कषाय (उपकषाय) वेदनीय के स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय एवं जुगुप्सा—ये नौ भेद किये गये हैं। इस प्रकार आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म की सभी उत्तर प्रकृतियों का विवेचन उत्तर प्रकृतिसमुत्कीर्तन में मिलता है।
जीवस्थान की स्थानसमुत्कीर्तन नामक दूसरी चूलिका में कर्मप्रकृतियों के बन्धन के विषय में प्रकाश डाला गया है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि किस गुणस्थान वाले जीव कर्म की किन प्रकृतियों का बन्ध करते हैं ? इसमें प्रारम्भ के ६ गुणस्थानों वाले जीवों को बन्धक कहा गया है तथा यह स्पष्ट किया गया है कि ज्ञानावरणीय कर्म की पाँचों प्रकृतियाँ एक साथ बँधती हैं और उसका बंध किस गुणस्थानवर्ती जीव करते हैं। दर्शनावरणीय कर्म के तीन बन्धस्थान बताये गये हैं तथा नौ प्रकृतियों से सम्बंधित, छ: प्रकृतियों से संबंधित और चार प्रकृतियों से संबंधित पहले और दूसरे गुणस्थान में एक साथ नौ प्रकृतियाँ बँधती हैं। तीसरे गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान पर्यन्त जीवों के नौ में से एक साथ छ: ही प्रकृतियाँ बँधती हैं, तीन नहीं बँधती। आठवें से दसवें गुणस्थान पर्यन्त छ: में से भी चार का ही बंध एक साथ होता है। वेदनीय कर्म की दो ही प्रकृतियाँ हैं—साता और असाता ।
जीवस्थान की प्रथम महादण्डक नामक तीसरी चूलिका में मुख्य रूप से पहली बार सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच एवं मनुष्य किन-किन प्रकृतियों का बंध करते हैं, इसका निरूपण किया गया है। द्वितीयमहादण्डक नामक चौथी चूलिका में प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख देव और सातवें नरक के नारकियों को छोड़कर शेष नारकियों के बँधने वाली प्रकृतियाँ बतलायी गयी हैं।
क्षुद्रकबन्ध—षट्खण्डागम के द्वितीय खण्ड क्षुद्रकबंध में भी कर्मसिद्धान्त से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण सामग्री है। इसमें अपने नामानुकूल क्षुद्र रूप से कर्म बन्ध का विवेचन है। इस खण्ड के प्रारंभ में पहले १४ मार्गणाओं का उल्लेख है। तदनन्तर उनके भेदों के अनुसार उनमें कौन बन्धक अर्थात् कर्मबन्ध करने वाली है एवं कौन अबन्धक अर्थात् कर्मबन्ध नहीं करने वाली हैं, इसको स्पष्ट किया गया है। गति-मार्गणा की दृष्टि से इसमें स्पष्टतया कहा गया है कि नारकी जीव बन्धक है, तिर्यंच बन्धक है और देव बन्धक है किन्तु मनुष्य बन्धक भी है और अबन्धक भी है। इसी तरह शेष अन्य मार्गणाओं के बन्धकत्व का विचार किया गया है।
कसायपाहुड के रचयिता आचार्य श्री गुणधर स्वामी थे। आचार्य गुणधर के इस ‘कसायपाहुड’ की रचना अति-संक्षिप्त एवं बीजपदरूप थी और उसका अर्थ-बोध कठिन था अत: सर्वप्रथम कसायपाहुड पर आचार्य यतिवृषभ ने छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र रचे, फिर भी अनेक स्थलों का अर्थ स्पष्ट नहीं होता था अत: उच्चारणाचार्य ने बारह हजार श्लोक प्रमाण उच्चारण वृत्ति का निर्माण किया, शामकुण्डाचार्य ने अड़तालीस हजार श्लोक प्रमाण ‘पद्धति’ नाम की टीका और तुम्बुलूराचार्य ने चौरासी हजार श्लोक प्रमाण चूड़ामणि नाम की टीका रची। आचार्य वीरसेन ने उपर्युक्त टीकाओं को हृदयंगम करके साठ हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका रची। इसी कारण यह कसायपाहुड -‘जयधवलसिद्धान्त’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।
कसायपाहुड प्राकृत गाथा सूत्रों में निबद्ध है। इस ग्रन्थ की पहली गाथा में बतलाया गया है कि पाँचवे पूर्व के दसवें वस्तु अधिकार में पेज्जपाहुड नामक तीसरा प्राभृत है, इसी प्राभृत से यह कषायप्राभृत उत्पन्न हुआ है।
पीठिका में पूर्वों के अन्तर्गत अधिकारों, प्राकृत अधिकारों के विषय में बतलाया गया है कि प्रत्येक पूर्व में वस्तु नामक अनेक अधिकार होते हैं और एक वस्तु अधिकार में बीस प्राकृताधिकार होते हैं। एक प्राकृताधिकार में चौबीस अनुयोग द्वार नामक अधिकार होते हैं, इस प्रकार पाँचवे पूर्व ज्ञानप्रवाद में बारह वस्तु नामक अधिकार हैं और प्रत्येक वस्तु अधिकार में बीस-बीस प्राभृताधिकार हैं। इनमें से दसवें वस्तु अधिकार के अन्तर्गत केवल एक तीसरे प्राभृत से प्राकृत कषायपाहुड रचा गया है।
कसायपाहुड की जयधवला टीका में तीसरे पेज्जपाहुड का परिमाण सोलह हजार पद प्रमाण बतलाया गया है।
कसायपाहुड में पन्द्रह अधिकार हैं तथा कुल गाथाओं की संख्या २३३ है ।
प्रेयो-द्वेष विभक्ति-
किस प्रकार किस नय की अपेक्षा किस-किस विषय में प्रेय (राग) या द्वेष का व्यवहार होता है ?… अथवा कौन सा नय किस द्रव्य में द्वेष को प्राप्त होता है और कौन नय किस द्रव्य में प्रिय (राग) भाव को प्राप्त है ?….इन आशंकाओं का समाधान किया गया है कि नैगम और संग्रहनय की अपेक्षा क्रोध द्वेष रूप है, मान द्वेष रूप है किन्तु माया प्रेय रूप है और लोभ प्रेय रूप है । व्यवहार नय की अपेक्षा क्रोध, मान, माया ये तीन कषाय द्वेष रूप हैं और लोभ कषाय राग रूप है। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा क्रोध द्वेष रूप है, मान नो द्वेष नो राग-रूप है, माया नो द्वेष नो राग रूप है और लोभ राग रूप है। शब्द नयों की अपेक्षा चारों कषाय द्वेष रूप हैं तथा क्रोध, मान, माया कषाय नो राग रूप है और लोभ स्यात् राग रूप है। यह जीव परिस्थितिवश कभी सभी द्रव्यों में द्वेष रूप व्यवहार करता है और कभी सभी द्रव्यों में राग रूप भी आचरण करता है।
इन राग द्वेष रूप चारों कषायों का बारह अनुयोगद्वारों से विवेचन किया गया है-एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंग, विचय, सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम। इन सभी अनुयोगों द्वारा राग-द्वेष का विस्तृत विवरण जयधवला टीका में किया गया है। यहाँ काल की अपेक्षा मात्र सूचित किया जाता है कि सामान्य की अपेक्षा राग द्वेष दोनों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है पर विशेष की अपेक्षा दोनों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
प्रकृति विभक्ति-
कसायपाहुड में केवल एक मोहनीय कर्म का ही वर्णन किया गया है अत: गुणस्थानों की अपेक्षा जो मोह कर्म अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृति रूप पन्द्रह सत्त्वस्थान हैं, उनका वर्णन इस प्रकृति विभक्ति में एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंग विचय, परिणाम, क्षेत्र स्पर्शन, काल, अन्तर, अल्पबहुत्व, भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि-इन तेरह अनुयोगद्वारों से किया गया है। जैसे-अट्ठाईस प्रकृति सत्त्वस्थान का स्वामी सादि मिथ्यादृष्टि जीव है। छब्बीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी अनादि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक् प्रकृति की उद्वेलना करने वाला सादि—मिथ्यादृष्टि जीव है। चौबीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान का स्वामी अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्टक का विसंयोजन जीव होता है। इक्कीस प्रकृतिक सत्त्व स्थान का स्वामी क्षायिक सम्यग्दृष्टि आदि सभी सत्त्व स्थानों का विस्तृत वर्णन इस विभक्ति में किया गया है।
स्थिति विभक्ति-
इस अधिकार में मोहकर्म की सभी प्रकृतियों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन अनेक अनुयोगद्वारों से किया गया है। जैसे-मोहनीय कर्म की सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण उत्कृष्ट-स्थिति के बन्ध का जघन्य काल एक समय है और लगातार उत्कृष्ट स्थिति बाँधने का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट बन्ध का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण अस्त काल है। जघन्य स्थिति के बन्ध का जघन्य काल और उत्कृष्ट काल एक-समय मात्र है। अजघन्य बन्ध का काल अनादि-अनन्त (अभव्यों की अपेक्षा) तथा (भव्यों की अपेक्षा) अनादिकाल सान्तकाल है। परिणाम की अपेक्षा एक समय में मोह कर्म की उत्कृष्ट स्थिति के विभक्ति वाले जीव असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थिति के विभक्तिक जीव अनन्त हैं। जघन्य स्थिति के विभक्तिक जीव संख्यात हैं और अजघन्य स्थिति के विभक्तिक जीव अनन्त हैं। इस प्रकार स्वामित्व, क्षेत्र, स्पर्शन आदि २४ अनुयोग द्वारों के द्वारा मोह कर्म की स्थिति-विभक्ति का वर्णन इस अधिकार में किया गया है।
अनुभाग विभक्ति-
आत्मा के साथ बँधने वाले कर्मों के फल देने की शक्ति को अनुभाग कहते हैं। बन्ध के समय कषाय जैसी तीव्र या मन्द जाति की हो, तदनुसार ही उसके फल देने की शक्ति भी तीव्र या मन्द रूप में पड़ती है चूँकि मोहकर्म पाप रूप ही है अत: उसका अनुभाग नीम, कांजी, विष और हालाहल के तुल्य जघन्य या मन्द स्थान से लेकर तीव्र उत्कृष्ट स्थान तक उत्तरोत्तर अधिक कटु विपाक वाला होता है। मोहकर्म के इस अनुभाग का वर्णन ‘संज्ञा’ सर्वानुभाग विभक्ति, नोसर्वानुभाग विभक्ति आदि २७ अनुयोगद्वारों से किया गया है। जैसे-संज्ञानुयोगद्वार की अपेक्षा मोहकर्म का उत्कृष्ट सर्वघाती होता है। अनुत्कृष्ट अनुभाग सर्वघाती भी होता है और देशघाती भी होता है। जघन्य अनुभाग देशघाती होता है और अजघन्य अनुभाग देशघाती भी होता है और सर्वघाती भी होता है। स्वामित्वानुयोग द्वार की अपेक्षा मोहकर्म के उत्कृष्ट अनुभाग का स्वामी संज्ञी पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, साकार एवं जागृत उपयोगी, उत्कृष्ट क्लेश परिणाम वाला ऐसा किसी भी गति का मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट अनुभाग को बाँधकर जब तक उसका घात नहीं करता है, जब तक वह उसका स्वामी है। मोहकर्म के जघन्य अनुभाग का स्वामी दशम गुणस्थान के अन्तिम समय में विद्यमान क्षपक मनुष्य है। परिणामानुयोग द्वार की अपेक्षा मोहकर्म के उत्कृष्ट अनुभाग विभक्ति वाले जीव असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट विभक्ति वाले अनन्त हैं। जघन्य विभक्ति वाले संख्यात हैं और अजघन्य विभक्ति वाले अनन्त जीव हैं। इस प्रकार शेष अनुयोग द्वारों की अपेक्षा मोहकर्म की अनुभाग विभक्ति का विस्तृत वर्णन इस अधिकार में किया गया है।
प्रदेश विभक्ति-
प्रतिसमय आत्मा के भीतर आने वाले कर्म परमाणुओं का तत्काल सर्व कर्मों में विभाजन होता जाता है, उसमें से जितने कर्म प्रदेश मोहकर्म के हिस्से में आते हैं, उनका भी विभाग उसके उत्तरभेद प्रमेयों में होता है। मोहकर्म के इस प्रकार के प्रदेश सत्व का वर्णन इस अधिकार में २२ अनुयोगद्वारों से किया गया है। जैसे-स्वामित्व की अपेक्षा पूछा गया कि मोहकर्म का उत्कृष्ट प्रदेश सत्व किसके होता है ? उत्तर-जो जीव बादर पृथ्वीकायिकों में साधिक दो सहस्र सागरोपम से न्यून कर्म स्थिति प्रमाण काल तक अवस्थित रहा। वहाँ पर उसके पर्याप्त भव अधिक और अपर्याप्तक भव अल्प हुए। पर्याप्त काल दीर्घ रहा और अपर्याप्त काल अल्प रहा। बार-बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त हुआ और बार-बार अतिसंक्लेश परिणामों को प्राप्त हुआ, इस प्रकार परिभ्रमण करता हुआ वह बादरकायिक जीवों में उत्पन्न हुआ। उनमें परिभ्रमण करते हुए उसके पर्याप्तभव अधिक और अपर्याप्तक भव अल्प हुए। पर्याप्तकाल दीर्घ और अपर्याप्तकाल ‘‘स्व” रहा। वहाँ पर भी बार-बार उत्कृष्ट योगस्थानों और अतिसंक्लेश दशा को प्राप्त हुआ। इस प्रकार संसार में परिभ्रमण करके वह सातवीं पृथ्वी के नारकों में तेतीस सागरोपम स्थिति का धारक नारकी हुआ, वहाँ से निकलकर वह पंचेन्द्रिय तिर्यंञ्चों में उत्पत्र हुआ और वहाँ अन्तर्मुहूर्त मात्र ही रहकर मरण करके, पुन: तेतीस सागरोपम आयु वाले नारकों में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसके तेतीस सागरोपम बीतने के बाद अन्तिम अन्तर्मुहूर्त के समय में मोहकर्म का उत्कृष्ट प्रदेश सत्त्व होता है। मोहकर्म की जघन्य प्रदेश विभक्ति उपर्युक्त विधान से निकलकर मनुष्य होकर क्षपक श्रेणी पर चढ़े हुए चरम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्पराय संयत के होती है।
श्री वीरसेनाचार्य ने प्रदेश विभक्ति के अन्तर्गत क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्ति ये दो अधिकार कहे हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है।
क्षीणाक्षीणाधिकार-
किस स्थिति में अवस्थित कर्म प्रदेश उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदय के योग्य या अयोग्य होते हैं, इसका विवेचन इस अधिकार में किया गया है। कर्मों की स्थिति और अनुभाग के बढ़ने को उत्कर्षण, घटने को अपकर्षण और अन्य प्रकृति रूप से परिवर्तित होने को संक्रमण कहते हैं। सत्ता में अवस्थित कर्म के समय पाकर फल देने को उदय कहते हैं। जो कर्मप्रदेश उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदय के योग्य होते हैं उन्हें क्षीण स्थिति कहते हैं और जो इनके योग्य नहीं होते उन्हें अक्षीण स्थिति कहते हैं। इन दोनों का प्रस्तुत अधिकार में बहुत सूक्ष्म वर्णन है।
स्थित्यन्तिक—
अनेक प्रकार की स्थिति को प्राप्त होने वाले कर्म परमाणुओं को स्थितिक या स्थित्यन्तिक कहते हैं। ये स्थिति-प्राप्त कर्मप्रदेश उत्कृष्ट स्थिति, निषेक स्थिति, यथानिषेक स्थिति और उदय स्थिति के भेद से चार प्रकार के होते हैं। जो कर्मबंधन के समय से लेकर उस कर्म की जितनी स्थिति है, उतने समय तक सत्ता में रहकर अपनी स्थिति के अन्तिम समय में उदय को प्राप्त होता है, उसे उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त कर्म कहते हैं। जो कर्म प्रदेश बन्ध के समय जिस स्थिति में निक्षिप्त किया गया है, तदनन्तर उसका उत्कर्षण या अपकर्षण होने पर भी उसी स्थिति को प्राप्त होकर जो उदयकाल में दिखाई देता है उसे निषेक स्थिति प्राप्त कर्म कहते हैं। बन्ध के समय जो कर्म जिस स्थिति में निक्षिप्त हुआ है, वह यदि उत्कर्षण और अपकर्षण न होकर उसी स्थिति के रहते हुए उदय में जाता है, उसे यथा निषेक स्थिति प्राप्त कर्म कहते हैं। जो कर्म जिस किसी स्थिति को प्राप्त होकर उदय में आता है उसे उदय स्थिति प्राप्त कर्म कहते हैं। प्रकृत अधिकार में इन चारों ही प्रकारों के कर्मों का बहुत सूक्ष्म वर्णन किया गया है।
बन्धक और संक्रम अधिकार-
जीव के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से पुद्गल परमाणुओं का कर्म रूप से परिणत होकर जीव के प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाही होकर बँधने को बन्ध कहते हैं। बन्ध के चार भेद हैं-प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध। यत: प्रकृति विभक्ति आदि चारों विभक्तियाँ इन चारों प्रकार के बन्धाश्रित ही हैं अत: इस बन्ध पर मूल गाथाकार और चूर्णि सूत्रकार ने केवल उनके जानने मात्र की सूचना दी है और जयधवलाकार ने यह कहकर विशेष वर्णन नहीं किया है कि भूतबली स्वामी ने महाबन्ध में विविध अनुयोग द्वारों से बन्ध का विस्तृत विवेचन किया है अत: जिज्ञासुओं को वहाँ से जानना चाहिए।
संक्रम अधिकार-
बँधे हुए कर्मों का यथासंभव अपने अवान्तर भेदो में संक्रान्त या परिवर्तित होने को संक्रम कहते हैं। बन्ध के समान संक्रम के भी चार भेद हैं—(१) प्रकृति संक्रम (२) स्थिति संक्रम, (३) अनुभाग संक्रम (४) प्रदेश संक्रम। एक कर्म प्रकृति के दूसरी प्रकृति रूप होने को प्रकृति संक्रम कहते हैं। जैसे—साता वेदनीय का असातावेदनीय रूप से परिणत हो जाना। विवक्षित कर्म की जितनी स्थिति पड़ी थी, परिणामों के वश से उसके हीनाधिक होने को या अन्य प्रकृति की स्थिति रूप से परिणत हो जाने को स्थिति संक्रम कहते हैं। सातावेदनीय आदि जिन प्रकृतियों में जिस जाति के सुखादि देने की शक्ति थी उसके हीनाधिक होने या अन्य प्रकृति के अनुभाग रूप से परिणत होने को अनुभागसंक्रम कहते हैं। विवक्षित समय में आये हुए कर्मपरमाणुओं में से विभाजन के अनुसार जिस कर्मप्रकृति को जितने प्रदेश मिले थे, उनके अन्य प्रकृतिगत प्रदेशों के रूप से संक्रम होने को प्रदेश संक्रमण कहते हैं। इस अधिकार में मोहकर्म की प्रकृतियों के चारों प्रकार के संक्रम का अनेक अनुयोग द्वारों से बहुत विस्तृत एवं अपूर्व विवेचन किया गया है।
वेदक अधिकार-
इस अधिकार में मोहकर्म के वेदन अर्थात् फलानुभव का वर्णन किया गया है। कर्म अपना फल उदय से भी देते हैं और उदीरणा से भी देते हैं। स्थिति बन्ध के अनुसार नियत समय पर कर्म के फल देने को उदय कहते हैं तथा उपाय विशेष से असमय में ही निश्चित समय के पूर्व फल देने को उदीरणा कहते हैं। जैसे—शाखा में लगे हुए आम का समय पर पककर गिरना उदय है तथा स्वयं पकने के पूर्व ही उसे तोड़कर पाल आदि में रखकर समय से पूर्व ही पका लेना उदीरणा है। ये दोनो ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार-चार प्रकार के हैं।
उपयोग अधिकार-
जीव के क्रोध, मान, मायादि रूप परिणामों के होने को उपयोग कहते हैं। इस अधिकार में चारों कषायों के उपयोग का वर्णन किया गया है और बतलाया गया है कि एक जीव के एक कषाय का उदय कितने काल तक रहता है, किस गति के जीव के कौन सी कषाय बार-बार उदय में आती है, एक भव में एक कषाय का उदय कितने बार होता है और एक कषाय का उदय कितने भवों तक रहता है ?…. जितने जीव वर्तमान समय में जिस कषाय से युक्त हैं, क्या वे उतने ही पहले उसी कषाय से युक्त थे, और क्या आगे भी युक्त रहेंगे ?…. इत्यादि रूप से कषाय विषयक अनेक ज्ञातव्य बातों का बहुत ही वैज्ञानिक विवेचन इस अधिकार में किया गया है।
चतु:स्थान अधिकार-
कर्मों में फल देने की शक्ति की अपेक्षा लता, दारु, अस्थि और शैल रूप से चार विभाग किये गये हैं जिन्हें क्रमश: एकस्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतु:स्थान कहते हैं। इस अधिकार में क्रोधादि चारों कषायों के चारों ही स्थानों का वर्णन किया गया है इसलिए इस अधिकार का नाम चतुस्थान है। इस अधिकार में बतलाया गया है कि क्रोध चार प्रकार का होता है—पाषाण रेखा के समान, पृथ्वी रेखा के समान, बालू रेखा के समान और जल रेखा के समान। जैसे जल में खींची हुई रेखा तुरन्त मिट जाती है और बालू, पृथ्वी एवं पाषाण में खींची गई रेखाएँ उत्तरोत्तर अधिक-अधिक समय में मिटती हैं, इसी प्रकार क्रोध कषाय के भी चार जाति के स्थान होते हैं, जो हीनाधिक काल के द्वारा उपशम को प्राप्त होते हैं। क्रोध के समान मान, माया और लोभ के भी चार-चार जाति के स्थान होते हैं। इन सबका वर्णन इस अधिकार में किया गया है। इसके अतिरिक्त चारों कषायों के सोलह स्थानों में से कौन सा स्थान किस स्थान से अधिक होता है और कौन किससे हीन होता है ? कौन स्थान सर्वघाती है और कौन स्थान देशघाती है ?….क्या सभी जातियों में सभी स्थान होते हैं या कहीं कुछ अन्तर है ?….. किस स्थान का अनुभवन करते हुए किस स्थान का बन्ध नहीं करते हुए किस स्थान का बन्ध नहीं होता ?…इत्यादि अनेक सैद्धान्तिक गहन बातों का निरूपण इस अधिकार में किया गया है ।
व्यंजन अधिकार-
व्यंजन नाम पर्यायवाची शब्दों का है। इस अधिकार में क्रोध, मान, माया और लोभ आदि इन चारों ही कषायों के पर्यायवाचक नामों का निरूपण किया गया है। जैसे-क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, कलह, विवाद आदि। मान के मान, मद, दर्प, स्तम्भ, परिभव आदि। माया के माया, निकृति, वंचना, सातियोग, अनृजुता आदि। लोभ के लोभ, राग निदान, प्रेयस्, मूर्च्छा आदि। इन विविध नामों के द्वारा कषायविषयक अनेक ज्ञातव्य बातों की नवीन जानकारी दी गई है।
दर्शन मोहोपशमना अधिकार-
जिस कर्म के उदय से जीव को अपने स्वरूप का दर्शन, साक्षात्कार, यथार्थ प्रतीति या श्रद्धान नहीं होने पाता है, उसे दर्शन मोह कर्म कहते हैं। काललब्धि पाकर जब कोई संज्ञी, पंचेन्द्रिय भव्य जीव तीन करण-परिणामों के द्वारा दर्शन मोह कर्म के परमाणुओं का एक अन्तमुहूर्त के लिए अन्तररूप अभाव करके उपशान्त दशा को प्राप्त करता है तब उसे दर्शनमोह की उपशमा कहते हैं। दर्शनमोह की उपशमना करने वाले जीव के कौन सा योग, कौन सा उपयोग, कौन सी कषाय, कौन सी लेश्या और कौन सा वेद होता है, इन सब बातों का विवेचन करते हुए उन अधःकरणादि परिणामों का विस्तार से वर्णन किया गया है, जिनके द्वारा यह जीव अलब्ध-पूर्व सम्यक्त्व रत्न को प्राप्त करता है। दर्शनमोह की उपशमना जीव कर सकते हैं किन्तु उन्हें संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, साकारोपयोगी, जागृत, प्रवर्धन, विशुद्ध परिणामी और शुभ लेश्या वाला होना चाहिए। अधिकार के अन्त में इस उपशम सम्यक्त्वी के कुछ विशिष्ट कार्यों और अवस्थाओं का वर्णन किया गया है।
दर्शन मोह क्षपणा अधिकार-
ऊपर जिस दर्शनमोह की उपशम अवस्था का वर्णन किया गया है वह अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही समाप्त हो जाती है और फिर वह जीव पहले जैसा ही आत्मदर्शन से वंचित हो जाता है। आत्म साक्षात्कार सदा बना रहे, इसके लिए आवश्यक है कि उस दर्शनमोह कर्म का सदा के लिए क्षय कर दिया जावे। इसके लिए जिन खास बातों की आवश्यकता होती है, उन सबका विवेचन इस अधिकार में किया गया है। दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ कर्मभूमिज मनुष्य ही कर सकता है। हाँ, उसकी पूर्णता चारों गतियों में की जा सकती है। दर्शन मोह की क्षपणा का प्रारम्भ करने वाले मनुष्य के कम से कम तेजोलेश्या अवश्य होनी चाहिए । दर्शनमोह की क्षपणा का काल अन्तर्मुहूर्त है । इस क्षपण क्रिया के पूर्ण होने के पूर्व ही यदि उस मनुष्य की मृत्यु हो जाय तो वह अपनी पूर्वबद्ध आयु के अनुसार यथासम्भव चारों ही गतियो में उत्पन्न होकर शेष क्षपण क्रिया को पूरी करता है। मनुष्य जिस भाव में दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ करता है, इसके अतिरिक्त अधिक से अधिक तीन भव धारण करके संसार से मुक्त हो जाता है । इस दर्शनमोह की क्षपणा के समय अधकरणादि परिणामों को करते हुए अन्तरंग में कौन-कौन सी सूक्ष्म क्रियाएँ होती हैं, इनका अति गहन और विस्तृत विवेचन इस अधिकार में किया गया है।
संयमासंयमलब्धि अधिकार-
जब आत्मा को अपने स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है और वह मिथ्यात्व रूप कर्दम (कीचड़) से निकलकर बाहर आता है तो वह दो बातों का प्रयास करता है-एक तो यह कि मेरा पुन: मिथ्यात्व कर्दम में पतन न हो और दूसरा यह कि लगे हुए कीचड़ को धोने का प्रयत्न करता है । इसके लिए एक ओर जहाँ वह अपने सम्यक्त्व को दृढ़तर करता है, वहीं दूसरी ओर सांसारिक विषय वासनाओं से जितना भी संभव होता है अपने को बचाते हुए लगे सलिल-कर्दम को उत्तरोत्तर धोने का प्रयत्न करता है। इसी को संयमासंयमलब्धि कहते हैं। शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय के अभाव से देशसंयम को प्राप्त करने वाले जीव के जो विशुद्ध परिणाम होते हैं उसे संयमासंयम या देशसंयम लब्धि कहते हैं। इसके निमित्त से जीव श्रावक के व्रतों को धारण करने में समर्थ होता है। इस अधिकार में संयमासंयम लब्धि के लिए आवश्यक सर्व कार्य विशेषों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
संयमलब्धि अधिकार-
यद्यपि गुणधराचार्य ने संयमासंयम और संयम इन दोनों लब्धियों को एक ही गाथा में निर्दिष्ट किया है और चूर्णिकार यतिवृषभाचार्य ने संयम के भीतर ही चारित्र मोह की उपशमना और क्षपणा का विधान किया है तथापि जयधवलाकार ने संयमालब्धि का स्वतन्त्र अधिकार के रूप में वर्णन किया है। प्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव होने पर आत्मा में संयमालब्धि प्रकट होती है, जिससे आत्मा की प्रवृत्ति हिंसादि असंयम से दूर होकर संयम धारण करने की ओर होती है। संयम के धारण कर लेने पर भी कषायों के उदयानुसार परिणामों का कैसा उतार-चढ़ाव होता है, इन सब बातों का प्रकृत अधिकार में विस्तृत विवेचन करते हुए संयमलब्धि स्थानों के भेद बतलाकर अन्त में उनके अल्पबहुत्व का वर्णन किया गया है।
चारित्र मोहोपशमना अधिकार-
चारित्र मोहकर्म के उपशम का विधान करते हुए बतलाया गया है कि उपशम कितने प्रकार का होता है, किस-किस कर्म का उपशम होता है, विवक्षित चारित्र मोह प्रकृति की स्थिति से कितने भाग का उपशम करता है, कितने भाग का संक्रमण करता है और कितने भाग की उदीरणा करता है। विवक्षित चारित्र मोहनीय प्रकृति का उपशम कितने काल में करता है, उपशम करने पर संक्रमण और उदीरणा कब करता है ? उपशम के आठ कारणों में से कब किस कारण की व्युच्छित्ति होती है, इत्यादि प्रश्नों का उद्भावन करके विस्तार के साथ उन सबका समाधान किया गया है। अन्त में बतलाया गया है कि उपशामक जीव वीतराग दशा को प्राप्त करने के बाद भी किस कारण से नीचे के गुणस्थानों में से नियम से गिरता है और उस समय उससे कौन-कौन से कार्य विशेष किस क्रम से प्रारंभ होते हैं।
चारित्रमोह क्षपणा अधिकार-
चारित्र मोह कर्म की प्रकृतियों का क्षय किस क्रम से होता है, किस प्रकृति के क्षय होने पर कहाँ, कितना स्थिति-बन्ध और स्थिति सत्त्व रहता है, इत्यादि अनेक आन्तरिक कर्मविशेषों का इस अधिकार में बहुत गहन, सूक्ष्म एवं अद्वितीय विस्तृत वर्णन किया गया है। अन्त में बतलाया गया है कि जब तक यह जीव कषायों का क्षय हो जाने पर और वीतराग दशा के पालने पर भी छद्मस्थ पर्याप्त से नहीं निकलता है तब तक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्म का नियम से वेदन करता है। तत्पश्चात् द्वितीय शुक्लध्यान से इन तीनों घातिया कर्मों का भी अन्तर्मुहूर्त में ही समूल नाश करके सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और अनन्त वीर्यशाली होकर धर्मोपदेश करते हुए वे आर्यक्षेत्र में आयुष्य के पूर्ण होने तक विहार करते हैं।
मूल कसायपाहुडसुत्त यहीं पर समाप्त हो जाता है किन्तु इसके पश्चात् भी वीतराग केवली के चार अघातिया कर्म शेष रहते हैं, उनकी क्षपणविधि बतलाने के लिए चूर्णिकार ने पश्चिमस्कन्ध अधिकार कहा।
पश्चिम स्कन्ध अधिकार-
सर्वज्ञ और सर्वदर्शी सयोगी जिन अपनी आयु के अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर पहले आवर्जित करण करते हैं और तृतीय शुक्लध्यान का आश्रय लेकर केवलि समुद्घात के द्वारा नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी निर्जरा करके उनकी स्थिति को अन्तुर्मुहूर्त प्रमाण कर देते हैं। पुन: चौथे शुक्लध्यान का आश्रय लेकर योग निरोध के लिए आवश्यक सभी क्रियाओं को करते हुए अयोगी जिन की दशा का अनुभव कर शरीर से मुक्त हो जाते हैं और सदा के लिए अजर-अमर बन जाते हैं।
कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रों पर विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण टीका लिखी गयी है, उसका नाम ‘जयधवला’ है।
जयधवला टीका की शैली व्याख्यानात्मक है। इसमें प्राकृत भाषा की बहुलता होते हुए भी बीच में कहीं-कहीं संस्कृत भाषा का प्रयोग भी दृष्टिगत होता है। जयधवला टीका में दुर्गम विषय को भी सरल शैली में प्ररूपित किया गया है ताकि सर्वसाधारण, सहज एवं स्वाभाविक रूप से विषय का अर्थावबोध कर सके। जयधवला टीका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ग्रंथ के मूल सूत्रों में जो बातें सार रूप में कही गयी हैं उनका स्पष्ट, सुविस्तृत एवं सोदाहरण विवरण इस टीका में प्राप्त होता है।
गोम्मटसार के दो भाग हैं, जो जीवकाण्ड एवं कर्मकाण्ड नाम से विख्यात हैं। इसमें कुल १७०५ गाथाएँ हैं, जिनमें ७३३ गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं और ९७२ गाथाएँ कर्मकाण्ड में हैं।
१. जीवकाण्ड-इस खण्ड में षट्खण्डागम में वर्णित जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, वेदनाखण्ड और वर्गणाखण्ड, इन पाँच विषयों का विस्तृत विवेचन किया गया है।
प्रथम गाथा में तीर्थंकर नेमि को नमस्कार करके जीव का कथन करने की प्रतिज्ञा की गयी है। दूसरी गाथा में उन २० प्ररूपणाओं अर्थात् विवेचनीय विषयों का नामोल्लेख किया गया है, जिनमें जीव का कथन है।
२. कर्मकाण्ड-गोम्मटसार के द्वितीय भाग का नाम कर्मकाण्ड है। इसमें नौ विषयों का प्रतिपादन है, जो इस प्रकार हैं-१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन, २. बन्धोदयसत्त्व ३. सत्त्वस्थानभंग, ४. त्रिचूलिका ५. स्थानसमुत्कीर्तन, ६. प्रत्यय, ७. भावचूलिका ८. त्रिकरणचूलिका, ९. कर्मस्थिति रचना।
पंचभागहारचूलिका में यह स्पष्ट किया गया है कि जीवों के शुभाशुभ कर्म कर्ता के परिणामों के निमित्त से अन्य कर्म प्रकृतियों का परिणमन करते हैं, जैसे-यदि जीव का परिणाम शुभ है, तो अशुभ परिणमन रूप असातावेदनीय कर्म भी शुभसूचक सातावेदनीय कर्म में परिणत हो जाता है। इससे कर्म की संक्रमण अवस्था पर प्रकाश पड़ता है।
पंचसंग्रह में लगभग एक हजार गाथाएँ हैं, जिनमें योगोपयोगमार्गणा, बन्धक, बन्धव्य, बन्धहु और बन्धविधि इन पाँच द्वारों का कथन किया गया है। योगोपयोगद्वार ४ से लेकर ३३ तक की गाथाओं में वर्णित है। इसमें योग के ५ भेद किये गए हैं, जिनमें सत्य, असत्य, मिश्र और असत्यामृष ये चार-चार, इस प्रकार कुल आठ मनोयोग और वचनयोग के भेद हैं और वैक्रियिक, आहारक, औदारिक, मिश्र, शुद्ध एवं कार्मण आदि सात भेद काययोग के किये गए हैं।
पंचसंग्रह की व्याख्याएँ—पंचसंग्रह की उपलब्ध टीकाओं में एक स्वोपज्ञवृत्ति तथा दूसरी मलयगिरि कृत टीका है। स्वोपज्ञवृत्ति नौ हजार श्लोक प्रमाण तथा मलयगिरि कृत टीका अट्ठारह हजार श्लोक प्रमाण है।
षट्खण्डागम, कसायपाहुड, गोम्मट्टसार प्रभृति ग्रंथों के अतिरिक्त अन्य दिगम्बर जैन ग्रंथों में भी प्रकारान्तर से कर्मविषयक विवेचन मिलता है। जैसे-
१. मूलाचार-आचार्य श्री वट्टकेर स्वामी अपरनाम श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत मूलाचार में कर्म के लक्षण एवं उसके भेद-प्रभेदों पूतिकर्म, कृतिकर्म, चित्कर्म, पूजाकर्म एवं विनयकर्म आदि का विस्तृत वर्णन है।
२. समयसार-आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी कृत समयसार में कर्म एवं उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन है।
आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी कृत प्रवचनसार मूल में कर्मसिद्धान्त जानने का प्रयोजन बताया गया है।
नियमसार एवं पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में भी कर्मविषयक विवेचन है।
३. सर्वार्थसिद्धि-पूज्यपादस्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र के टीका ग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि में द्रव्यभाव या जीव-अजीव कर्मोंं का विवेचन अच्छा किया गया है।
४. आप्तपरीक्षा-विद्यानन्दि कृत आप्तपरीक्षा में भी कर्म का पर्याप्त विवेचन मिलता है।
५. राजवार्तिक-आचार्य श्री अकलंकदेव कृत तत्त्वार्थसूत्र के वार्तिक ग्रंथ राजवार्तिक में ‘कर्म’ शब्द की विस्तृत व्याख्या की गई है।
दिगम्बर परम्परा के कर्मविषयक स्वतन्त्र ग्रर्न्थों के ऐतिहासिक स्वरूप को देखने से ऐसा लगता है कि दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों के लिप्यात्मक रचनाकाल तक कर्म सिद्धान्त की सभी महत्त्वपूर्ण अवधारणाएँ बन चुकी थीं। श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में उतनी सूक्ष्मता से प्रतिपादन नहीं हुआ है। एक मुख्य अन्तर, जो इन दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में है, वह कर्म सिद्धान्त के विवेचन की शैली से सम्बन्धित है। विद्वानों का मत है कि दिगम्बर साहित्य में कर्मविषयक तथ्यों को सूक्ष्म, गूढ़ एवं गम्भीर शैली में वर्णित किया गया है। कर्मसिद्धान्त को एक सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान करने में दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों का विशेष योगदान है।पाठ ४-विविध जैन ग्रंथों के आधार से जानें कर्म सिद्धान्त
कर्मवाद का सामान्य विवेचन प्राय: जैन आगमिक तथा दार्शनिक ग्रंथों एवं जैन कथा साहित्य में मिलता है। इसके साथ ही स्वतंत्र रूप से भी कर्म सम्बन्धी विशाल साहित्य का निर्माण हुआ है। जैन अनुश्रुति ‘‘कर्मवाद” नामक एक अति विस्तृत ग्रंथ का उल्लेख करती है, जिसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय कर्म सिद्धान्त था परन्तु पूर्व साहित्य के विलुप्त होने के साथ ही यह ग्रन्थ भी विलुप्त हो चुका है। कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी उपलब्ध जैन साहित्य का सामान्य परिचय इस प्रकार है-
दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में षट्खण्डागम का अन्यतम स्थान है, इस ग्रन्थ के कर्ता आचार्य पुष्पदन्त तथा भूतबलि हैं। यह ग्रन्थ अनुमानत: विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी की रचना है। इसमें छ: खण्ड हैं-जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्व-विचय, वेदना, वर्गणा और महाबंध। जीवस्थान आठ अनुयोग द्वारों में विभक्त है-१. सत्प्ररूपणा, २. द्रव्यप्रमाणानुगम, ३. क्षेत्रानुगम, ४. स्पर्शानुगम ५. कालानुगम ६. अन्तरानुगम, ७. भावानुगम और ८. अल्पबहुत्वानुगम।
(१) सत्प्ररूपणा में दो प्रकार का कथन है—‘‘ओघ अर्थात् सामान्य की अपेक्षा से और आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा से।” यहाँ ओघ और आदेश से अभिप्राय क्रमश: गुणस्थान और मार्गणास्थान की दृष्टि से जीव की विभिन्न अवस्थाओं का विवेचन करना है। गुणस्थानों के विस्तृत विवेचन के लिए गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार—इन चौदह मार्गणाओं के उल्लेख हैं। गुणस्थान और मार्गणास्थान कर्मप्रकृतियों के बन्ध और उदय से सम्बन्धी हैं। ‘गुणस्थान कर्मों के क्षय, उपशम एवं क्षयोपशम के आधार पर जीवों के आध्यात्मिक विकास एवं पतन के सूचक हैं। चौदह गुणस्थान निम्नलिखित हैं—१. मिथ्यादृष्टि, २. सासादन ३. सम्यक््âमिथ्यादृष्टि, ४. असंयतसम्यग्दृष्टि ५. संयतासंयत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८.अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण १०. सूक्ष्मसाम्पराय, ११. उपशान्तकषाय १२. क्षीणकषाय, १३. सयोगकेवली और १४. अयोगकेवली। इन गुणस्थानों से कर्मप्रकृतियों के बन्धन, उदय एवं क्षयसम्बन्धी जानकारी मिलती है। ये गुणस्थान यह सूचित करते हैं कि इन पर अवरोह मुक्ति की ओर और अवतरण संसार की ओर ले जाता है। इस प्रकार गुणस्थानों का विस्तृत विवरण कर्म सिद्धान्त के सन्दर्भ में अति महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इनसे उन तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है जो कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षय से संबंधित हैं।
जीवस्थान के सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में प्रथम गुणस्थान की चर्चा है एवं तदनन्तर मार्गणाओं का विवरण है तथा प्रत्येक मार्गणा में कौन-कौन से गुणस्थान पाये जाते हैं, इसका उल्लेख किया गया है। मार्गणास्थान कर्मों के अनुसार जीव को मिलने वाली विभिन्न गतियों के सूचक हैं। जीव अपने कृतकर्म के फलोपभोग हेतु इन्हीं १४ मार्गणाओं में भ्रमण करता है। इसमें प्रत्येक मार्गणा की गति मानी गयी है—नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति एवं देवगति। इसके बाद किस गुणस्थान वाले जीव इन गतियों में से किस गति में रहते हैं, इसका विवरण है, जैसे-इसमें यह उल्लेख है कि ‘नरकगति में प्रारंभ के चार गुणस्थानों वाले जीव होते हैं। तिर्यंचगति में आदि के पाँच गुणस्थान वाले जीव होते हैं। मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों वाले जीव होते हैं। देवगति में नरकगति की तरह चार गुणस्थान वाले जीव होते हैं। इसी प्रकार अन्य शेष १३ मार्गणाओं में भी कौन से गुणस्थानवर्ती जीव पाये जाते हैं, इसका विवरण है।
इन अनुयोगों में ओघ और आदेश से उन भावों पर प्रकाश डाला गया है। प्रथम किस गुणस्थान में कौन सा भाव होता है, इसका विवेचन है, जैसे—मिथ्यात्व गुणस्थान में औदयिकभाव होता है, सासादन गुणस्थान में पारिणामिक भाव होता है, सम्यक् दृष्टि गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव होता है आदि। ये पाँचों भाव कर्मों के उदय, क्षय, उपशम आदि के कारण होते हैं अत: अनुयोग द्वार कर्म सिद्धान्त से सम्बन्धित है।
इसी प्रकार उत्तरप्रकृति समुत्कीर्तन में कर्म की सभी उत्तरप्रकृतियों का उल्लेख है। ज्ञानावरणीय कर्म की चर्चा करते हुए इसकी पाँच उत्तर प्रकृतियाँ निर्दिष्ट हैं, यथा—मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्यय-ज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय। इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियाँ बतायी गयी हैं, जैसे— निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शना-वरणीय। वेदनीय कर्म की दो उत्तरप्रकृतियाँ बताई गयी हैं, यथा-सातावेदनीय और असातावेदनीय। मोहनीय कर्म का उल्लेख करते हुए उसकी अट्ठाईस प्रकृतियाँ बताई गयी हैं। मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के उल्लेख में पहले मोहनीय कर्म को दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय इस प्रकार दो वर्गों में विभाजित किया गया है। दर्शनमोहनीय के पुन: तीन भेद किये गये हैं—सम्यक्त्वमोह, मिथ्यात्वमोह एवं सम्यग्मिथ्यात्वमोह। इसी प्रकार चारित्रमोहनीय के दो भेद किये गये हैं—कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय। चारित्रमोहनीय के भेदों में कषायवेदनीय के १६ भेद, यथा—अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ एवं संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं लोभ किये गये हैं। इस प्रकार नो कषाय (उपकषाय) वेदनीय के स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय एवं जुगुप्सा—ये नौ भेद किये गये हैं। इस प्रकार आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म की सभी उत्तर प्रकृतियों का विवेचन उत्तर प्रकृतिसमुत्कीर्तन में मिलता है।
जीवस्थान की स्थानसमुत्कीर्तन नामक दूसरी चूलिका में कर्मप्रकृतियों के बन्धन के विषय में प्रकाश डाला गया है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि किस गुणस्थान वाले जीव कर्म की किन प्रकृतियों का बन्ध करते हैं ? इसमें प्रारम्भ के ६ गुणस्थानों वाले जीवों को बन्धक कहा गया है तथा यह स्पष्ट किया गया है कि ज्ञानावरणीय कर्म की पाँचों प्रकृतियाँ एक साथ बँधती हैं और उसका बंध किस गुणस्थानवर्ती जीव करते हैं। दर्शनावरणीय कर्म के तीन बन्धस्थान बताये गये हैं तथा नौ प्रकृतियों से सम्बंधित, छ: प्रकृतियों से संबंधित और चार प्रकृतियों से संबंधित पहले और दूसरे गुणस्थान में एक साथ नौ प्रकृतियाँ बँधती हैं। तीसरे गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान पर्यन्त जीवों के नौ में से एक साथ छ: ही प्रकृतियाँ बँधती हैं, तीन नहीं बँधती। आठवों से दसवें गुणस्थान पर्यन्त छ: में से भी चार का ही बंध एक साथ होता है। वेदनीय कर्म की दो ही प्रकृतियाँ हैं—साता और असाता ।
जीवस्थान की प्रथम महादण्डक नामक तीसरी चूलिका में मुख्य रूप से पहली बार सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच एवं मनुष्य किन-किन प्रकृतियों का बंध करते हैं, इसका निरूपण किया गया है। द्वितीयमहादण्डक नामक चौथी चूलिका में प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख देव और सातवें नरक के नारकियों को छोड़कर शेष नारकियों के बँधने वाली प्रकृतियाँ बतलायी गयी हैं।
क्षुद्रकबन्ध—षट्खण्डागम के द्वितीय खण्ड क्षुद्रकबंध में भी कर्मसिद्धान्त से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण सामग्री है। इसमें अपने नामानुकूल क्षुद्र रूप से कर्म बन्ध का विवेचन है। इस खण्ड के प्रारंभ में पहले १४ मार्गणाओं का उल्लेख है। तदनन्तर उनके भेदों के अनुसार उनमें कौन बन्धक अर्थात् कर्मबन्ध करने वाली है एवं कौन अबन्धक अर्थात् कर्मबन्ध नहीं करने वाली हैं, इसको स्पष्ट किया गया है। गति-मार्गणा की दृष्टि से इसमें स्पष्टतया कहा गया है कि नारकी जीव बन्धक है, तिर्यंच बन्धक है और देव बन्धक है किन्तु मनुष्य बन्धक भी है और अबन्धक भी है। इसी तरह शेष अन्य मार्गणाओं के बन्धकत्व का विचार किया गया है।
कसायपाहुड के रचयिता आचार्य श्री गुणधर स्वामी थे। आचार्य गुणधर के इस ‘कसायपाहुड’ की रचना अति-संक्षिप्त एवं बीजपदरूप थी और उसका अर्थ-बोध कठिन था अत: सर्वप्रथम कसायपाहुड पर आचार्य यतिवृषभ ने छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र रचे, फिर भी अनेक स्थलों का अर्थ स्पष्ट नहीं होता था अत: उच्चारणाचार्य ने बारह हजार श्लोक प्रमाण उच्चारण वृत्ति का निर्माण किया, शामकुण्डाचार्य ने अड़तालीस हजार श्लोक प्रमाण ‘पद्धति’ नाम की टीका और तुम्बुलूराचार्य ने चौरासी हजार श्लोक प्रमाण चूड़ामणि नाम की टीका रची। आचार्य वीरसेन ने उपर्युक्त टीकाओं को हृदयंगम करके साठ हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका रची। इसी कारण यह कसायपाहुड -‘जयधवलसिद्धान्त’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।
कसायपाहुड प्राकृत गाथा सूत्रों में निबद्ध है। इस ग्रन्थ की पहली गाथा में बतलाया गया है कि पाँचवे पूर्व के दसवें वस्तु अधिकार में पेज्जपाहुड नामक तीसरा प्राभृत है, इसी प्राभृत से यह कषायप्राभृत उत्पन्न हुआ है।
पीठिका में पूर्वों के अन्तर्गत अधिकारों, प्राकृत अधिकारों के विषय में बतलाया गया है कि प्रत्येक पूर्व में वस्तु नामक अनेक अधिकार होते हैं और एक वस्तु अधिकार में बीस प्राकृताधिकार होते हैं। एक प्राकृताधिकार में चौबीस अनुयोग द्वार नामक अधिकार होते हैं, इस प्रकार पाँचवे पूर्व ज्ञानप्रवाद में बारह वस्तु नामक अधिकार हैं और प्रत्येक वस्तु अधिकार में बीस-बीस प्राभृताधिकार हैं। इनमें से दसवें वस्तु अधिकार के अन्तर्गत केवल एक तीसरे प्राभृत से प्राकृत कषायपाहुड रचा गया है।
कसायपाहुड की जयधवला टीका में तीसरे पेज्जपाहुड का परिमाण सोलह हजार पद प्रमाण बतलाया गया है।
कसायपाहुड में पन्द्रह अधिकार हैं तथा कुल गाथाओं की संख्या २३३ है ।
प्रेयो-द्वेष विभक्ति-
किस प्रकार किस नय की अपेक्षा किस-किस विषय में प्रेय (राग) या द्वेष का व्यवहार होता है ?… अथवा कौन सा नय किस द्रव्य में द्वेष को प्राप्त होता है और कौन नय किस द्रव्य में प्रिय (राग) भाव को प्राप्त है ?….इन आशंकाओं का समाधान किया गया है कि नैगम और संग्रहनय की अपेक्षा क्रोध द्वेष रूप है, मान द्वेष रूप है किन्तु माया प्रेय रूप है और लोभ प्रेय रूप है । व्यवहार नय की अपेक्षा क्रोध, मान, माया ये तीन कषाय द्वेष रूप हैं और लोभ कषाय राग रूप है। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा क्रोध द्वेष रूप है, मान नो द्वेष नो राग-रूप है, माया नो द्वेष नो राग रूप है और लोभ राग रूप है। शब्द नयों की अपेक्षा चारों कषाय द्वेष रूप हैं तथा क्रोध, मान, माया कषाय नो राग रूप है और लोभ स्यात् राग रूप है। यह जीव परिस्थितिवश कभी सभी द्रव्यों में द्वेष रूप व्यवहार करता है और कभी सभी द्रव्यों में राग रूप भी आचरण करता है।
इन राग द्वेष रूप चारों कषायों का बारह अनुयोगद्वारों से विवेचन किया गया है-एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंग, विचय, सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम। इन सभी अनुयोगों द्वारा राग-द्वेष का विस्तृत विवरण जयधवला टीका में किया गया है। यहाँ काल की अपेक्षा मात्र सूचित किया जाता है कि सामान्य की अपेक्षा राग द्वेष दोनों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है पर विशेष की अपेक्षा दोनों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
प्रकृति विभक्ति-
कसायपाहुड में केवल एक मोहनीय कर्म का ही वर्णन किया गया है अत: गुणस्थानों की अपेक्षा जो मोह कर्म अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृति रूप पन्द्रह सत्त्वस्थान हैं, उनका वर्णन इस प्रकृति विभक्ति में एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंग विचय, परिणाम, क्षेत्र स्पर्शन, काल, अन्तर, अल्पबहुत्व, भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि-इन तेरह अनुयोगद्वारों से किया गया है। जैसे-अट्ठाईस प्रकृति सत्त्वस्थान का स्वामी सादि म्िाथ्यादृष्टि जीव है। छब्बीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी अनादि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक् प्रकृति की उद्वेलना करने वाला सादि—मिथ्यादृष्टि जीव है। चौबीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान का स्वामी अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्टक का विसंयोजन जीव होता है। इक्कीस प्रकृतिक सत्त्व स्थान का स्वामी क्षायिक सम्यग्दृष्टि आदि सभी सत्त्व स्थानों का विस्तृत वर्णन इस विभक्ति में किया गया है।
स्थिति विभक्ति-
इस अधिकार में मोहकर्म की सभी प्रकृतियों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन अनेक अनुयोगद्वारों से किया गया है। जैसे-मोहनीय कर्म की सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण उत्कृष्ट-स्थिति के बन्ध का जघन्य काल एक समय है और लगातार उत्कृष्ट स्थिति बाँधने का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट बन्ध का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण अस्त काल है। जघन्य स्थिति के बन्ध का जघन्य काल और उत्कृष्ट काल एक-समय मात्र है। अजघन्य बन्ध का काल अनादि-अनन्त (अभव्यों की अपेक्षा) तथा (भव्यों की अपेक्षा) अनादिकाल सान्तकाल है। परिणाम की अपेक्षा एक समय में मोह कर्म की उत्कृष्ट स्थिति के विभक्ति वाले जीव असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थिति के विभक्तिक जीव अनन्त हैं। जघन्य स्थिति के विभक्तिक जीव संख्यात हैं और अजघन्य स्थिति के विभक्तिक जीव अनन्त हैं। इस प्रकार स्वामित्व, क्षेत्र, स्पर्शन आदि २४ अनुयोग द्वारों के द्वारा मोह कर्म की स्थिति-विभक्ति का वर्णन इस अधिकार में किया गया है।
अनुभाग विभक्ति-
आत्मा के साथ बँधने वाले कर्मों के फल देने की शक्ति को अनुभाग कहते हैं। बन्ध के समय कषाय जैसी तीव्र या मन्द जाति की हो, तदनुसार ही उसके फल देने की शक्ति भी तीव्र या मन्द रूप में पड़ती है चूँकि मोहकर्म पाप रूप ही है अत: उसका अनुभाग नीम, कांजी, विष और हालाहल के तुल्य जघन्य या मन्द स्थान से लेकर तीव्र उत्कृष्ट स्थान तक उत्तरोत्तर अधिक कटु विपाक वाला होता है। मोहकर्म के इस अनुभाग का वर्णन ‘संज्ञा’ सर्वानुभाग विभक्ति, नोसर्वानुभाग विभक्ति आदि २७ अनुयोगद्वारों से किया गया है। जैसे-संज्ञानुयोगद्वार की अपेक्षा मोहकर्म का उत्कृष्ट सर्वघाती होता है। अनुत्कृष्ट अनुभाग सर्वघाती भी होता है और देशघाती भी होता है। जघन्य अनुभाग देशघाती होता है और अजघन्य अनुभाग देशघाती भी होता है और सर्वघाती भी होता है। स्वामित्वानुयोग द्वार की अपेक्षा मोहकर्म के उत्कृष्ट अनुभाग का स्वामी संज्ञी पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, साकार एवं जागृत उपयोगी, उत्कृष्ट क्लेश परिणाम वाला ऐसा किसी भी गति का मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट अनुभाग को बाँधकर जब तक उसका घात नहीं करता है, जब तक वह उसका स्वामी है। मोहकर्म के जघन्य अनुभाग का स्वामी दशम गुणस्थान के अन्तिम समय में विद्यमान क्षपक मनुष्य है। परिणामानुयोग द्वार की अपेक्षा मोहकर्म के उत्कृष्ट अनुभाग विभक्ति वाले जीव असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट विभक्ति वाले अनन्त हैं। जघन्य विभक्ति वाले संख्यात हैं और अजघन्य विभक्ति वाले अनन्त जीव हैं। इस प्रकार शेष अनुयोग द्वारों की अपेक्षा मोहकर्म की अनुभाग विभक्ति का विस्तृत वर्णन इस अधिकार में किया गया है।
प्रदेश विभक्ति-
प्रतिसमय आत्मा के भीतर आने वाले कर्म परमाणुओं का तत्काल सर्व कर्मों में विभाजन होता जाता है, उसमें से जितने कर्म प्रदेश मोहकर्म के हिस्से में आते हैं, उनका भी विभाग उसके उत्तरभेद प्रमेयों में होता है। मोहकर्म के इस प्रकार के प्रदेश सत्व का वर्णन इस अधिकार में २२ अनुयोगद्वारों से किया गया है। जैसे-स्वामित्व की अपेक्षा पूछा गया कि मोहकर्म का उत्कृष्ट प्रदेश सत्व किसके होता है ? उत्तर-जो जीव बादर पृथ्वीकायिकों में साधिक दो सहस्र सागरोपम से न्यून कर्म स्थिति प्रमाण काल तक अवस्थित रहा। वहाँ पर उसके पर्याप्त भव अधिक और अपर्याप्तक भव अल्प हुए। पर्याप्त काल दीर्घ रहा और अपर्याप्त काल अल्प रहा। बार-बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त हुआ और बार-बार अतिसंक्लेश परिणामों को प्राप्त हुआ, इस प्रकार परिभ्रमण करता हुआ वह बादरकायिक जीवों में उत्पन्न हुआ। उनमें परिभ्रमण करते हुए उसके पर्याप्तभव अधिक और अपर्याप्तक भव अल्प हुए। पर्याप्तकाल दीर्घ और अपर्याप्तकाल ‘‘स्व” रहा। वहाँ पर भी बार-बार उत्कृष्ट योगस्थानों और अतिसंक्लेश दशा को प्राप्त हुआ। इस प्रकार संसार में परिभ्रमण करके वह सातवीं पृथ्वी के नारकों में तेतीस सागरोपम स्थिति का धारक नारकी हुआ, वहाँ से निकलकर वह पंचेन्द्रिय तिर्यंञ्चों में उत्पत्र हुआ और वहाँ अन्तर्मुहूर्त मात्र ही रहकर मरण करके, पुन: तेतीस सागरोपम आयु वाले नारकों में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसके तेतीस सागरोपम बीतने के बाद अन्तिम अन्तर्मुहूर्त के समय में मोहकर्म का उत्कृष्ट प्रदेश सत्त्व होता है। मोहकर्म की जघन्य प्रदेश विभक्ति उपर्युक्त विधान से निकलकर मनुष्य होकर क्षपक श्रेणी पर चढ़े हुए चरम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्पराय संयत के होती है।
श्री वीरसेनाचार्य ने प्रदेश विभक्ति के अन्तर्गत क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्ति ये दो अधिकार कहे हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है।
क्षीणाक्षीणाधिकार-
किस स्थिति में अवस्थित कर्म प्रदेश उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदय के योग्य या अयोग्य होते हैं, इसका विवेचन इस अधिकार में किया गया है। कर्मों की स्थिति और अनुभाग के बढ़ने को उत्कर्षण, घटने को अपकर्षण और अन्य प्रकृति रूप से परिवर्तित होने को संक्रमण कहते हैं। सत्ता में अवस्थित कर्म के समय पाकर फल देने को उदय कहते हैं। जो कर्मप्रदेश उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदय के योग्य होते हैं उन्हें क्षीण स्थिति कहते हैं और जो इनके योग्य नहीं होते उन्हें अक्षीण स्थिति कहते हैं। इन दोनों का प्रस्तुत अधिकार में बहुत सूक्ष्म वर्णन है।
स्थित्यन्तिक—
अनेक प्रकार की स्थिति को प्राप्त होने वाले कर्म परमाणुओं को स्थितिक या स्थित्यन्तिक कहते हैं। ये स्थिति-प्राप्त कर्मप्रदेश उत्कृष्ट स्थिति, निषेक स्थिति, यथानिषेक स्थिति और उदय स्थिति के भेद से चार प्रकार के होते हैं। जो कर्मबंधन के समय से लेकर उस कर्म की जितनी स्थिति है, उतने समय तक सत्ता में रहकर अपनी स्थिति के अन्तिम समय में उदय को प्राप्त होता है, उसे उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त कर्म कहते हैं। जो कर्म प्रदेश बन्ध के समय जिस स्थिति में निक्षिप्त किया गया है, तदनन्तर उसका उत्कर्षण या अपकर्षण होने पर भी उसी स्थिति को प्राप्त होकर जो उदयकाल में दिखाई देता है उसे निषेक स्थिति प्राप्त कर्म कहते हैं। बन्ध के समय जो कर्म जिस स्थिति में निक्षिप्त हुआ है, वह यदि उत्कर्षण और अपकर्षण न होकर उसी स्थिति के रहते हुए उदय में जाता है, उसे यथा निषेक स्थिति प्राप्त कर्म कहते हैं। जो कर्म जिस किसी स्थिति को प्राप्त होकर उदय में आता है उसे उदय स्थिति प्राप्त कर्म कहते हैं। प्रकृत अधिकार में इन चारों ही प्रकारों के कर्मों का बहुत सूक्ष्म वर्णन किया गया है।
बन्धक और संक्रम अधिकार-
जीव के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से पुद्गल परमाणुओं का कर्म रूप से परिणत होकर जीव के प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाही होकर बँधने को बन्ध कहते हैं। बन्ध के चार भेद हैं-प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध। यत: प्रकृति विभक्ति आदि चारों विभक्तियाँ इन चारों प्रकार के बन्धाश्रित ही हैं अत: इस बन्ध पर मूल गाथाकार और चूर्णि सूत्रकार ने केवल उनके जानने मात्र की सूचना दी है और जयधवलाकार ने यह कहकर विशेष वर्णन नहीं किया है कि भूतबली स्वामी ने महाबन्ध में विविध अनुयोग द्वारों से बन्ध का विस्तृत विवेचन किया है अत: जिज्ञासुओं को वहाँ से जानना चाहिए।
संक्रम अधिकार-
बँधे हुए कर्मों का यथासंभव अपने अवान्तर भेदो में संक्रान्त या परिवर्तित होने को संक्रम कहते हैं। बन्ध के समान संक्रम के भी चार भेद हैं—(१) प्रकृति संक्रम (२) स्थिति संक्रम, (३) अनुभाग संक्रम (४) प्रदेश संक्रम। एक कर्म प्रकृति के दूसरी प्रकृति रूप होने को प्रकृति संक्रम कहते हैं। जैसे—साता वेदनीय का असातावेदनीय रूप से परिणत हो जाना। विवक्षित कर्म की जितनी स्थिति पड़ी थी, परिणामों के वश से उसके हीनाधिक होने को या अन्य प्रकृति की स्थिति रूप से परिणत हो जाने को स्थिति संक्रम कहते हैं। सातावेदनीय आदि जिन प्रकृतियों में जिस जाति के सुखादि देने की शक्ति थी उसके हीनाधिक होने या अन्य प्रकृति के अनुभाग रूप से परिणत होने को अनुभागसंक्रम कहते हैं। विवक्षित समय में आये हुए कर्मपरमाणुओं में से विभाजन के अनुसार जिस कर्मप्रकृति को जितने प्रदेश मिले थे, उनके अन्य प्रकृतिगत प्रदेशों के रूप से संक्रम होने को प्रदेश संक्रमण कहते हैं। इस अधिकार में मोहकर्म की प्रकृतियों के चारों प्रकार के संक्रम का अनेक अनुयोग द्वारों से बहुत विस्तृत एवं अपूर्व विवेचन किया गया है।
वेदक अधिकार-
इस अधिकार में मोहकर्म के वेदन अर्थात् फलानुभव का वर्णन किया गया है। कर्म अपना फल उदय से भी देते हैं और उदीरणा से भी देते हैं। स्थिति बन्ध के अनुसार नियत समय पर कर्म के फल देने को उदय कहते हैं तथा उपाय विशेष से असमय में ही निश्चित समय के पूर्व फल देने को उदीरणा कहते हैं। जैसे—शाखा में लगे हुए आम का समय पर पककर गिरना उदय है तथा स्वयं पकने के पूर्व ही उसे तोड़कर पाल आदि में रखकर समय से पूर्व ही पका लेना उदीरणा है। ये दोनो ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार-चार प्रकार के हैं।
उपयोग अधिकार-
जीव के क्रोध, मान, मायादि रूप परिणामों के होने को उपयोग कहते हैं। इस अधिकार में चारों कषायों के उपयोग का वर्णन किया गया है और बतलाया गया है कि एक जीव के एक कषाय का उदय कितने काल तक रहता है, किस गति के जीव के कौन सी कषाय बार-बार उदय में आती है, एक भव में एक कषाय का उदय कितने बार होता है और एक कषाय का उदय कितने भवों तक रहता है ?…. जितने जीव वर्तमान समय में जिस कषाय से युक्त हैं, क्या वे उतने ही पहले उसी कषाय से युक्त थे, और क्या आगे भी युक्त रहेंगे ?…. इत्यादि रूप से कषाय विषयक अनेक ज्ञातव्य बातों का बहुत ही वैज्ञानिक विवेचन इस अधिकार में किया गया है।
चतु:स्थान अधिकार-
कर्मों में फल देने की शक्ति की अपेक्षा लता, दारु, अस्थि और शैल रूप से चार विभाग किये गये हैं जिन्हें क्रमश: एकस्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतु:स्थान कहते हैं। इस अधिकार में क्रोधादि चारों कषायों के चारों ही स्थानों का वर्णन किया गया है इसलिए इस अधिकार का नाम चतुस्थान है। इस अधिकार में बतलाया गया है कि क्रोध चार प्रकार का होता है—पाषाण रेखा के समान, पृथ्वी रेखा के समान, बालू रेखा के समान और जल रेखा के समान। जैसे जल में खींची हुई रेखा तुरन्त मिट जाती है और बालू, पृथ्वी एवं पाषाण में खींची गई रेखाएँ उत्तरोत्तर अधिक-अधिक समय में मिटती हैं, इसी प्रकार क्रोध कषाय के भी चार जाति के स्थान होते हैं, जो हीनाधिक काल के द्वारा उपशम को प्राप्त होते हैं। क्रोध के समान मान, माया और लोभ के भी चार-चार जाति के स्थान होते हैं। इन सबका वर्णन इस अधिकार में किया गया है। इसके अतिरिक्त चारों कषायों के सोलह स्थानों में से कौन सा स्थान किस स्थान से अधिक होता है और कौन किससे हीन होता है ? कौन स्थान सर्वघाती है और कौन स्थान देशघाती है ?….क्या सभी जातियों में सभी स्थान होते हैं या कहीं कुछ अन्तर है ?….. किस स्थान का अनुभवन करते हुए किस स्थान का बन्ध नहीं करते हुए किस स्थान का बन्ध नहीं होता ?…इत्यादि अनेक सैद्धान्तिक गहन बातों का निरूपण इस अधिकार में किया गया है ।
व्यंजन अधिकार-
व्यंजन नाम पर्यायवाची शब्दों का है। इस अधिकार में क्रोध, मान, माया और लोभ आदि इन चारों ही कषायों के पर्यायवाचक नामों का निरूपण किया गया है। जैसे-क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, कलह, विवाद आदि। मान के मान, मद, दर्प, स्तम्भ, परिभव आदि। माया के माया, निकृति, वंचना, सातियोग, अनृजुता आदि। लोभ के लोभ, राग निदान, प्रेयस्, मूर्च्छा आदि। इन विविध नामों के द्वारा कषायविषयक अनेक ज्ञातव्य बातों की नवीन जानकारी दी गई है।
दर्शन मोहोपशमना अधिकार-
जिस कर्म के उदय से जीव को अपने स्वरूप का दर्शन, साक्षात्कार, यथार्थ प्रतीति या श्रद्धान नहीं होने पाता है, उसे दर्शन मोह कर्म कहते हैं। काललब्धि पाकर जब कोई संज्ञी, पंचेन्द्रिय भव्य जीव तीन करण-परिणामों के द्वारा दर्शन मोह कर्म के परमाणुओं का एक अन्तमुहूर्त के लिए अन्तररूप अभाव करके उपशान्त दशा को प्राप्त करता है तब उसे दर्शनमोह की उपशमा कहते हैं। दर्शनमोह की उपशमना करने वाले जीव के कौन सा योग, कौन सा उपयोग, कौन सी कषाय, कौन सी लेश्या और कौन सा वेद होता है, इन सब बातों का विवेचन करते हुए उन अधःकरणादि परिणामों का विस्तार से वर्णन किया गया है, जिनके द्वारा यह जीव अलब्ध-पूर्व सम्यक्त्व रत्न को प्राप्त करता है। दर्शनमोह की उपशमना जीव कर सकते हैं किन्तु उन्हें संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, साकारोपयोगी, जागृत, प्रवर्धन, विशुद्ध परिणामी और शुभ लेश्या वाला होना चाहिए। अधिकार के अन्त में इस उपशम सम्यक्त्वी के कुछ विशिष्ट कार्यों और अवस्थाओं का वर्णन किया गया है।
दर्शन मोह क्षपणा अधिकार-
ऊपर जिस दर्शनमोह की उपशम अवस्था का वर्णन किया गया है वह अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही समाप्त हो जाती है और फिर वह जीव पहले जैसा ही आत्मदर्शन से वंचित हो जाता है। आत्म साक्षात्कार सदा बना रहे, इसके लिए आवश्यक है कि उस दर्शनमोह कर्म का सदा के लिए क्षय कर दिया जावे। इसके लिए जिन खास बातों की आवश्यकता होती है, उन सबका विवेचन इस अधिकार में किया गया है। दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ कर्मभूमिज मनुष्य ही कर सकता है। हाँ, उसकी पूर्णता चारों गतियों में की जा सकती है। दर्शन मोह की क्षपणा का प्रारम्भ करने वाले मनुष्य के कम से कम तेजोलेश्या अवश्य होनी चाहिए । दर्शनमोह की क्षपणा का काल अन्तर्मुहूर्त है । इस क्षपण क्रिया के पूर्ण होने के पूर्व ही यदि उस मनुष्य की मृत्यु हो जाय तो वह अपनी पूर्वबद्ध आयु के अनुसार यथासम्भव चारों ही गतियो में उत्पन्न होकर शेष क्षपण क्रिया को पूरी करता है। मनुष्य जिस भाव में दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ करता है, इसके अतिरिक्त अधिक से अधिक तीन भव धारण करके संसार से मुक्त हो जाता है । इस दर्शनमोह की क्षपणा के समय अधकरणादि परिणामों को करते हुए अन्तरंग में कौन-कौन सी सूक्ष्म क्रियाएँ होती हैं, इनका अति गहन और विस्तृत विवेचन इस अधिकार में किया गया है।
संयमासंयमलब्धि अधिकार-
जब आत्मा को अपने स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है और वह मिथ्यात्व रूप कर्दम (कीचड़) से निकलकर बाहर आता है तो वह दो बातों का प्रयास करता है-एक तो यह कि मेरा पुन: मिथ्यात्व कर्दम में पतन न हो और दूसरा यह कि लगे हुए कीचड़ को धोने का प्रयत्न करता है । इसके लिए एक ओर जहाँ वह अपने सम्यक्त्व को दृढ़तर करता है, वहीं दूसरी ओर सांसारिक विषय वासनाओं से जितना भी संभव होता है अपने को बचाते हुए लगे सलिल-कर्दम को उत्तरोत्तर धोने का प्रयत्न करता है। इसी को संयमासंयमलब्धि कहते हैं। शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय के अभाव से देशसंयम को प्राप्त करने वाले जीव के जो विशुद्ध परिणाम होते हैं उसे संयमासंयम या देशसंयम लब्धि कहते हैं। इसके निमित्त से जीव श्रावक के व्रतों को धारण करने में समर्थ होता है। इस अधिकार में संयमासंयम लब्धि के लिए आवश्यक सर्व कार्य विशेषों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
संयमलब्धि अधिकार-
यद्यपि गुणधराचार्य ने संयमासंय्ाम और संयम इन दोनों लब्धियों को एक ही गाथा में निर्दिष्ट किया है और चूर्णिकार यतिवृषभाचार्य ने संयम के भीतर ही चारित्र मोह की उपशमना और क्षपणा का विधान किया है तथापि जयधवलाकार ने संयमालब्धि का स्वतन्त्र अधिकार के रूप में वर्णन किया है। प्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव होने पर आत्मा में संयमालब्धि प्रकट होती है, जिससे आत्मा की प्रवृत्ति हिंसादि असंयम से दूर होकर संयम धारण करने की ओर होती है। संयम के धारण कर लेने पर भी कषायों के उदयानुसार परिणामों का कैसा उतार-चढ़ाव होता है, इन सब बातों का प्रकृत अधिकार में विस्तृत विवेचन करते हुए संयमलब्धि स्थानों के भेद बतलाकर अन्त में उनके अल्पबहुत्व का वर्णन किया गया है।
चारित्र मोहोपशमना अधिकार-
चारित्र मोहकर्म के उपशम का विधान करते हुए बतलाया गया है कि उपशम कितने प्रकार का होता है, किस-किस कर्म का उपशम होता है, विवक्षित चारित्र मोह प्रकृति की स्थिति से कितने भाग का उपशम करता है, कितने भाग का संक्रमण करता है और कितने भाग की उदीरणा करता है। विवक्षित चारित्र मोहनीय प्रकृति का उपशम कितने काल में करता है, उपशम करने पर संक्रमण और उदीरणा कब करता है ? उपशम के आठ कारणों में से कब किस कारण की व्युच्छित्ति होती है, इत्यादि प्रश्नों का उद्भावन करके विस्तार के साथ उन सबका समाधान किया गया है। अन्त में बतलाया गया है कि उपशामक जीव वीतराग दशा को प्राप्त करने के बाद भी किस कारण से नीचे के गुणस्थानों में से नियम से गिरता है और उस समय उससे कौन-कौन से कार्य विशेष किस क्रम से प्रारंभ होते हैं।
चारित्रमोह क्षपणा अधिकार-
चारित्र मोह कर्म की प्रकृतियों का क्षय किस क्रम से होता है, किस प्रकृति के क्षय होने पर कहाँ, कितना स्थिति-बन्ध और स्थिति सत्त्व रहता है, इत्यादि अनेक आन्तरिक कर्मविशेषों का इस अधिकार में बहुत गहन, सूक्ष्म एवं अद्वितीय विस्तृत वर्णन किया गया है। अन्त में बतलाया गया है कि जब तक यह जीव कषायों का क्षय हो जाने पर और वीतराग दशा के पालने पर भी छद्मस्थ पर्याप्त से नहीं निकलता है तब तक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्म का नियम से वेदन करता है। तत्पश्चात् द्वितीय शुक्लध्यान से इन तीनों घातिया कर्मों का भी अन्तर्मुहूर्त में ही समूल नाश करके सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और अनन्त वीर्यशाली होकर धर्मोपदेश करते हुए वे आर्यक्षेत्र में आयुष्य के पूर्ण होने तक विहार करते हैं।
मूल कसायपाहुडसुत्त यहीं पर समाप्त हो जाता है किन्तु इसके पश्चात् भी वीतराग केवली के चार अघातिया कर्म शेष रहते हैं, उनकी क्षपणविधि बतलाने के लिए चूर्णिकार ने पश्चिमस्कन्ध अधिकार कहा।
पश्चिम स्कन्ध अधिकार-
सर्वज्ञ और सर्वदर्शी सयोगी जिन अपनी आयु के अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर पहले आवर्जित करण करते हैं और तृतीय शुक्लध्यान का आश्रय लेकर केवलि समुद्घात के द्वारा नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी निर्जरा करके उनकी स्थिति को अन्तुर्मुहूर्त प्रमाण कर देते हैं। पुन: चौथे शुक्लध्यान का आश्रय लेकर योग निरोध के लिए आवश्यक सभी क्रियाओं को करते हुए अयोगी जिन की दशा का अनुभव कर शरीर से मुक्त हो जाते हैं और सदा के लिए अजर-अमर बन जाते हैं।
कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रों पर विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण टीका लिखी गयी है, उसका नाम ‘जयधवला’ है। जयधवला टीका की शैली व्याख्यानात्मक है। इसमें प्राकृत भाषा की बहुलता होते हुए भी बीच में कहीं-कहीं संस्कृत भाषा का प्रयोग भी दृष्टिगत होता है। जयधवला टीका में दुर्गम विषय को भी सरल शैली में प्ररूपित किया गया है ताकि सर्वसाधारण, सहज एवं स्वाभाविक रूप से विषय का अर्थावबोध कर सके। जयधवला टीका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ग्रंथ के मूल सूत्रों में जो बातें सार रूप में कही गयी हैं उनका स्पष्ट, सुविस्तृत एवं सोदाहरण विवरण इस टीका में प्राप्त होता है।
गोम्मटसार के दो भाग हैं, जो जीवकाण्ड एवं कर्मकाण्ड नाम से विख्यात हैं। इसमें कुल १७०५ गाथाएँ हैं, जिनमें ७३३ गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं और ९७२ गाथाएँ कर्मकाण्ड में हैं।
१. जीवकाण्ड-इस खण्ड में षट्खण्डागम में वर्णित जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, वेदनाखण्ड और वर्गणाखण्ड, इन पाँच विषयों का विस्तृत विवेचन किया गया है।
प्रथम गाथा में तीर्थंकर नेमि को नमस्कार करके जीव का कथन करने की प्रतिज्ञा की गयी है। दूसरी गाथा में उन २० प्ररूपणाओं अर्थात् विवेचनीय विषयों का नामोल्लेख किया गया है, जिनमें जीव का कथन है।
२. कर्मकाण्ड-गोम्मटसार के द्वितीय भाग का नाम कर्मकाण्ड है। इसमें नौ विषयों का प्रतिपादन है, जो इस प्रकार हैं-१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन, २. बन्धोदयसत्त्व ३. सत्त्वस्थानभंग, ४. त्रिचूलिका ५. स्थानसमुत्कीर्तन, ६. प्रत्यय, ७. भावचूलिका ८. त्रिकरणचूलिका, ९. कर्मस्थिति रचना।
पंचभागहारचूलिका में यह स्पष्ट किया गया है कि जीवों के शुभाशुभ कर्म कर्ता के परिणामों के निमित्त से अन्य कर्म प्रकृतियों का परिणमन करते हैं, जैसे-यदि जीव का परिणाम शुभ है, तो अशुभ परिणमन रूप असातावेदन्ाीय कर्म भी शुभसूचक सातावेदनीय कर्म में परिणत हो जाता है। इससे कर्म की संक्रमण अवस्था पर प्रकाश पड़ता है।
पंचसंग्रह में लगभग एक हजार गाथाएँ हैं, जिनमें योगोपयोगमार्गणा, बन्धक, बन्धव्य, बन्धहु और बन्धविधि इन पाँच द्वारों का कथन किया गया है। योगोपयोगद्वार ४ से लेकर ३३ तक की गाथाओं में वर्णित है। इसमें योग के ५ भेद किये गए हैं, जिनमें सत्य, असत्य, मिश्र और असत्यामृष ये चार-चार, इस प्रकार कुल आठ मनोयोग और वचनयोग के भेद हैं और वैक्रियिक, आहारक, औदारिक, मिश्र, शुद्ध एवं कार्मण आदि सात भेद काययोग के किये गए हैं।
पंचसंग्रह की व्याख्याएँ—पंचसंग्रह की उपलब्ध टीकाओं में एक स्वोपज्ञवृत्ति तथा दूसरी मलयगिरि कृत टीका है। स्वोपज्ञवृत्ति नौ हजार श्लोक प्रमाण तथा मलयगिरि कृत टीका अट्ठारह हजार श्लोक प्रमाण है।
षट्खण्डागम, कसायपाहुड, गोम्मट्टसार प्रभृति ग्रंथों के अतिरिक्त अन्य दिगम्बर जैन ग्रंथों में भी प्रकारान्तर से कर्मविषयक विवेचन मिलता है। जैसे-
१. मूलाचार-आचार्य श्री वट्टकेर स्वामी अपरनाम श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत मूलाचार में कर्म के लक्षण एवं उसके भेद-प्रभेदों पूतिकर्म, कृतिकर्म, चित्कर्म, पूजाकर्म एवं विनयकर्म आदि का विस्तृत वर्णन है।
२. समयसार-आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी कृत समयसार में कर्म एवं उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन है।
आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी कृत प्रवचनसार मूल में कर्मसिद्धान्त जानने का प्रयोजन बताया गया है।
नियमसार एवं पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में भी कर्मविषयक विवेचन है।
३. सर्वार्थसिद्धि-पूज्यपादस्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र के टीका ग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि में द्रव्यभाव या जीव-अजीव कर्मोंं का विवेचन अच्छा किया गया है।
४. आप्तपरीक्षा-विद्यानन्दि कृत आप्तपरीक्षा में भी कर्म का पर्याप्त विवेचन मिलता है।
५. राजवार्तिक-आचार्य श्री अकलंकदेव कृत तत्त्वार्थसूत्र के वार्तिक ग्रंथ राजवार्तिक में ‘कर्म’ शब्द की विस्तृत व्याख्या की गई है।
दिगम्बर परम्परा के कर्मविषयक स्वतन्त्र ग्रर्न्थों के ऐतिहासिक स्वरूप को देखने से ऐसा लगता है कि दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों के लिप्यात्मक रचनाकाल तक कर्म सिद्धान्त की सभी महत्त्वपूर्ण अवधारणाएँ बन चुकी थीं। श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में उतनी सूक्ष्मता से प्रतिपादन नहीं हुआ है। एक मुख्य अन्तर, जो इन दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में है, वह कर्म सिद्धान्त के विवेचन की शैली से सम्बन्धित है। विद्वानों का मत है कि दिगम्बर साहित्य में कर्मविषयक तथ्यों को सूक्ष्म, गूढ़ एवं गम्भीर शैली में वर्णित किया गया है। कर्मसिद्धान्त को एक सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान करने में दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों का विशेष योगदान है।