-गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी
(१) महामंत्र अनादि है-श्री उमास्वामी का स्तोत्र पाठ
चत्तारि मंगल अनादि है-सुधारा पाठ नहीं पढ़ना, यह निर्वाणोत्सव से आया है। (श्वेताम्बरों से)
(२) चतुर्थकालीनवाणी-श्री गौतम स्वामी के मुख से निकली है, गीर्वाणी भाषा में।
‘‘जयति भगवान्’’ चैत्यभक्ति। यह संस्कृत में है-प्रमाण है।
पं. लालाराम जी शास्त्री के उद्गार आदि।
ऐसे ही ‘‘वीरभक्ति’’ भी श्री गौतमस्वामी रचित है, यह संस्कृत में है एवं ‘‘श्रीमते वर्धमानाय, नमो नमितविद्विषे। यज्ज्ञानांतर्गतं भूत्वा, त्रैलोक्यं गोष्पदायते।।१।। आदि
(३) नवपदार्थ का क्रम श्री गौतम स्वामी द्वारा कथित, षट्खण्डागम में, समयसार में, गोम्मटसार में एक समान है, ऐसे ही चार प्रत्यय आदि के प्रमाण हैं।
(४) चार प्रत्यय-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग।
ये ही श्री गौतम स्वामी के प्रतिक्रमण दण्डक सूत्रों में, षट्खण्डागम के तृतीय खण्ड में, समयसार में एवं गोम्मटसार कर्मकाण्ड में हैं, इनमें परिवर्तन या पाँचवां प्रत्यय-प्रमाद का मिश्रण नहीं करना चाहिए।
(५) पंचामृत अभिषेक परम्परा-‘अभिषेक पाठ संग्रह’ में जो ईसवी सन् १९३५ में छपा है। उसमें १६ अभिषेक पाठों में श्री पूज्यपाद स्वामीकृत अभिषेक पाठ सर्वप्राचीन है। वि. सं. ३०२ में नंदिसंघ की पट्टावली के अनुसार है। कुछ विद्वानों ने वि.सं. ५५३ में श्री पूज्यपाद स्वामी को माना है। इसमें शासन देव-देवी के अर्घ्य के मंत्र, दिग्पाल, क्षेत्रपाल के आह्वानन व अर्घ्य के मंत्र आचार्यों द्वारा रचित हैं। अत: यह परम्परा प्रामाणिक है।
(६) शासन देव–देवी की मूर्तियाँ-बड़वानी में श्री ऋषभदेव की प्रतिमा में बनी हैं। खंडगिरी-उदयगिरी के गुफाओं में उत्कीर्ण हैं आदि…..। गिरनार में अम्बिका देवी की मूर्ति को श्री कुंदकुंदस्वामी ने बुलावा दिया था। ‘सत्य पंंथ निर्ग्रंथ दिगम्बर’-३ बार देवी ने कहा था, ऐसे शिलालेखों में प्रमाण हैं।
(७) फणासहित भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं अतिप्राचीन उपलब्ध हैं, बाबानगर में १००८ फण सहित आदि….।
(८) श्री बाहुबली की मूर्तियाँ बेल सहित, वामी सहित जैसे पूज्य हैं, वैसे ही फणा सहित भगवान पार्श्वनाथ पूज्य हैं। केवलज्ञान होने के बाद न बेलें आदि थी, न फणा था। फिर भी प्रतिमाओं में परम्परा अतिप्राचीन है। हजार-दो हजार वर्ष पुरानी है।
(९) स्त्रियों द्वारा अभिषेक के प्रमाण-ग्रंथों में तो उपलब्ध हैं, मैना सुंदरी, अंजना आदि ने किये हैं। श्रवणबेलगोल में ‘‘गुल्लिकायिज्जी’’ की प्रतिमा हाथ में कलशी लिये बनी है, सबसे बड़ा प्रमाण है।
(१०) चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी की परम्परा में पंचामृत अभिषेक मुनिगण देखते हैं, कराते हैं। यह आगम परम्परा है, आर्ष परम्परा है। उनकी अपनी कोई निजी परम्परा नहीं है।
(११) मुनियों की मूर्तियाँ–मांगीतुंगी पर्वत पर प्राचीन मूर्तियाँ श्री पद्म, श्री शैल आदि की बनी हुई हैं और भी अनेक मूर्तियाँ हैं, जिनके हाथ में पिच्छी-कमण्डलु हैं, मालाएं भी हाथ में हैं, ऐसी मूर्तियाँ भी हैं।
(१२) श्री देशभूषण-कुलभूषण की प्रतिमाएं-इन्हीं मुनि प्रतिमा के प्राचीन प्रमाणों के आधार पर चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज ने कुंथलगिरि पर ये प्रतिमाएं बनवायी हैं।
आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज ने लाडनूँ में आचार्यश्री शांतिसागर जी, आचार्यश्री वीरसागर जी एवं आचार्यकल्प श्री चन्द्रसागर जी की प्रतिमाओं के विराजमान की प्रेरणा दी थी। वे वहाँ विराजमान हुई हैं। ईसवी सन् १९६२ में।
(१३) मेरी-गणिनी ज्ञानमती की प्रेरणा से भी चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागराचार्य की हजारों प्रतिमाएं श्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी ने बनवाई हैं, जो अनेक तीर्थों पर, टिवैâतनगर में मेरे वर्षायोग में (ईसवी सन् २०१९ में) घर-घर में, दुकानों में, पैâक्ट्री आदि में श्रावकों ने विराजमान की हैं।
चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री की एवं आचार्यश्री वीरसागर जी गुरुदेव की प्रतिमाएं हस्तिनापुर में भी विराजमान हैं।
(१४) अष्टमी, चतुर्दशी को हरी त्याग-इसके प्रमाण किसी दिगम्बर जैन ग्रंथों में नहीं है। आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज ने (ईसवी सन् १९६८ में) मेरी जन्मदात्री-माँ मोहिनी से कहा कि तुम अष्टमी आदि में हरी लेवोगी, खाओगी, तभी मैं आहार लूँगा। वे बहुत घबरा गईं, मेरे से बोली-माताजी् मैंने बचपन से नहीं खाया है, क्या करूँ ? मैंने कहा-गुरु आज्ञा से पहले के अपने आप लिए हुए नियम को छोड़ देने से कोई दोष नहीं है, चर्चा होती रही, मैंने कहा देखो! यदि हरी में दोष होता तो भगवान ऋषभदेव ने हस्तिनापुर में प्रथम आहार में गन्ने का रस लिया है। वे वैâसे लेते ?….. अत: आचार्यश्री का कहना है कि यह परम्परा हमारे यहाँ अन्यों से (श्वेताम्बरों से) आ गई है। हमारी दिगम्बर जैन परम्परा में ऐसा कहीं शास्त्रों में उल्लेख नहीं है आदि-तभी उन्होंने हरी खाना पर्व दिनों में शुरू किया था आदि…..।
(१५) द्विदल की व्याख्या-
आमगोरससंपृक्तं, द्विदलं द्रोणपुष्पिका।
संधानकं कलिंगं च, नाद्यते शुद्धदृष्टिभि:।।३११।।
(उमास्वामी श्रावकाचार)
कच्चे दूध, उससे बने दही आदि से द्विदल बनता है…..।
(१६) पिंडशुद्धि-त्रिलोकसार गाथा ९२४ में कहा है-
दुब्भाव-असुइ-सूदग-पुफ्फवई-जाइसंकरादीहिं।
कयदाणा वि कुवत्ते, जीवा कुणरेसु जायंते।।९२४।।
‘जातिसंकर’ दोष है। अग्रवाल, खण्डेलवाल, पोरवाड़ आदि ८४ ये जातियाँ अनादि हैं…..
(१७) श्री पूज्यपाद स्वामी ने भी कहा है-
‘वर्णेनार्हद्रूपायोग्यानां’ आदि…..।
वण& व्यवस्था आदि भी अनादि है….।
(१८) कुलदेवताओं का चारित्रचक्रवती& आचाय&श्री ने निषेध किया था न कि शासन देव-देवियों का…।
(१९) ‘तीथं&कर’ जन्म से ही भगवान हैं-नाम नहीं बदले जाते हैं….।
(२०) भविष्यत्कालीन तीथं&कर भी पूज्य हैं-
चारित्रचक्रवती& आचाय& श्री शांतिसागर जी महाराज ने तीस चौबीसी के व्रत किए हैं। भरत चक्री ने तीन चौबीसी या चौबीस तीथं&करों की प्रतिमाएं वैâलाश पव&त पर स्थापित की थीं….।
(२१) श्री ऋषभदेव का छह माह तक आहार नहीं हुआ, सो उन्होंने बैल के मुख में मुंहेड़ा लगाया था….।
यह प्रकरण कहीं भी दि. जैन ग्रंथों में नहीं है। ऐसे ही ब्राह्मी-सुन्दरी ने विवाह क्यों नहीं किया ? आदि किंवदंतियां बहुत ही प्रचलित हैं, जिनागम के परिप्रेक्ष्य में ही विद्वानों को बोलना चाहिए…..।
देखें-जैनधम& में प्रचलित ‘भ्रांतियों का निराकरण’ पुस्तक।
(२२) आयि&काओं के २८ मूलगुण हैं। वे संयतिका हैं। देखे प्रमाण-मूलाचार आदि ग्रंथों के।
आचाय& श्री वीरसागर जी महाराज ने ईसवी सन् १९५६ में जयपुर खानिया में यह बात कही थी। विद्वानों में पं. पन्नालाल जी सोनी आदि चचा& में सम्मिलित थे।
उनकी ‘नवधाभक्ति’ की आज्ञा दी थी। प्रमाण दिये थे।
(२३) क्षुल्लकों को पिच्छी एवं अघ्य& समप&ण आदि…..।
संघ में प्रारंभ से चारित्रचक्रवती& आचाय&श्री की परम्परा में यह व्यवस्था चली आ रही है।
(२४) आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने ‘जिनवाणी जीणो&द्धारक संस्थाएं’ आदि स्थापित की हैं एवं मंदिर, मूति& आदि निमा&ण की प्रेरणाएं दी हैं।
आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज ने महावीर जी में ‘श्री शांतिवीर नगर’ में तीथ& बनाने की प्रेरणा दी है।
आचार्य श्री धर्म सागर जी ने बच्चों के लिए ‘गुरुकुल’ स्थापित करने की प्रेरणाएं दी हैं।
आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने अनेक तीथ& आदि बनवाए हैं….।
ग्रंथ प्रकाशन आदि धर्म प्रभावना के कायों& की प्रेरणाएं दी हैं….।
(२५) भगवान महावीर स्वामी जैनधर्म के संस्थापक की चचा&-पाठ्य पुस्तकों में प्रकरण आदि आने से मैंने चौबीसों तीथं&करों के एवं श्री ऋषभदेव के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक धम&प्रभावना, सेमिनार-संगोष्ठी आदि के लिए प्रेरणाएं दी हैं…..।