धर्मप्रभावना हेतु विदेश की भूमि पर स्वस्तिश्री स्वामी जी विश्वशांति शिखर सम्मेलन (न्यूयार्क) में कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन द्वारा भगवान ऋषभदेव का उद्घोष
समापन सत्र (३१-८-२०००,Waldorf astoria hotel, Newyork) मैं आज प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ कि सम्पूर्ण विश्व में शांति, मैत्री और सुभिक्षता स्थापित करने के लिए समस्त विश्व के धर्माचार्य संयुक्त राष्ट्र संघ के आमंत्रण पर यहाँ एकत्रित हुए हैं। युद्ध की विभीषिका में जलते हुए विश्व में शांति की शीतल जलधारा वैâसे प्रवाहित हो, उसी के लिए यह प्रयास किया गया है। मैं उस पवित्र भारत भूमि से यहाँ आया हूँ जहाँ की हर श्वास में आध्यात्मिकता, त्याग, तपस्या एवं अहिंसा की सुगंध है। उस पावन धरा पर न जाने कितने ही ऋषियों-मुनियों ने जन्म लेकर सारे वातावरण को अपने त्याग से सुवासित किया है। करोड़ों-करोड़ों वर्ष पूर्व इसी भारत देश की अयोध्या नगरी में शाश्वत जैनधर्म के वर्तमान युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने जन्म लिया। वही महापुरुष थे जो मानवीय संस्कृति के आद्य प्रवर्तक थे। सर्वप्रथम उन्होंने ही जीवनयापन की कला सिखाई-असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य एवं शिल्प का उपदेश दिया। भगवान ऋषभदेव ने ही विश्व को सर्वप्रथम राज्य को संचालित करने की कला सिखाई, उन्होंने ही विवाह परम्परा का सूत्रपात किया, अपनी पुत्रियों ब्राह्मी और सुंदरी को क्रमश: अक्षर विद्या एवं अंक विद्या सिखाकर ‘शिक्षा’ का शुभारंभ किया। उन्होंने समस्त राजाओं को राजनीति की शिक्षा देते हुए कहा कि मात्र अपनी स्वतंत्रता को ही हम सर्वोपरि न मान लें, उसके साथ दूसरे के अस्तित्व का भी हमें ध्यान रखना चाहिए। हम देख रहे हैं कि आज विश्व में शस्त्रों की होड़ मची हुई है, जगह-जगह युद्ध, अशांति, कलह और वैर का वातावरण छाया हुआ है। इस सम्मेलन में सभी धर्माचार्यों के विचारों से यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो गई है कि आज हमें दूसरे के प्राणों का हरण कर लेने वाले शस्त्रों की आवश्यकता नहीं बल्कि सभी के प्राणों की रक्षा करने वाले महापुरुषों के अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह जैसे सुंदर शस्त्रों की आवश्यकता है, ये ऐसे शस्त्र हैं जिनको धारण करने से परस्पर एक दूसरे के प्रति कोमलता की, सहृदयता की एवं मैत्री की भावना विकसित होती है, अपने विकास के साथ-साथ दूसरे की उन्नति भी हमें अच्छी लगने लगती है, दूसरों के दु:ख हमें अपने प्रतीत होने लगते हैं। आज के विश्व को धर्मगुरुओं के वैचारिक उद्बोधन की जरूरत है, सही विचारधारा को जन-जन में स्थापित करने की जरूरत है और यह कार्य धर्मगुरु की कुशलतापूर्वक कर सकते हैं। धर्मगुरुओं द्वारा बताई गई नीतियों में विकृति लाकर विश्व ने आज अपने लिए समस्याएँ उत्पन्न कर ली हैं इसमें दोष हमारा अपना है। अहिंसा के सिद्धांत में युद्ध की विभीषिका से शांति के साथ-साथ पर्यावरण का संरक्षण भी होता है, जिसके लिए आज अनेक देश की सरकारें प्रयासरत हैं। भगवान ऋषभदेव की धर्मनीति ने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि सभी में जीव मानकर इन सभी के प्राणों की रक्षा का उपदेश करोड़ों वर्ष पूर्व ही दिया था। उनका अपरिग्रह का सिद्धान्त गरीबी दूर करने में आधारभूत है क्योंकि हर देश में कतिपय स्वार्थी हाथों में संग्रह की वृत्ति होने के कारण ही बाकी सामान्य जनता को गरीबी की समस्या से जूझना पड़ता है। मेरी गुरु एवं भारतीय जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने वर्तमान में संसार भर के लिए इन सिद्धांतों की आवश्यकता को महसूस किया इसीलिए उन्होंने भगवान ऋषभदेव के नाम एवं उनके सर्वोदयी सिद्धांतों को जन-जन में और संसार के कण-कण में पहुँचाने का महान लक्ष्य बनाया है। इसके लिए उन्होंने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कई कार्यक्रम आयोजित करने की प्रेरणा दी है। इस विश्वशांति शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए उन्होंने मुझे यहाँ भेजा है, उनकी यही मंगल प्रेरणा है कि विश्व की ज्वलंत समस्याओं का यदि कोई हल है तो वह है ‘आपसी सौहार्द’ तथा ‘जिओ और जीने दो’ का अमर सिद्धांत। भगवान महावीर जो इस युग में जैनधर्म के अंतिम २४वें तीर्थंकर हैं, उन्होंने भी २६०० वर्ष पूर्व इन्हीं सिद्धांतों को विश्व के सम्मुख रखा था। अंत में मैं इस अनूठी परिकल्पना के संयोजन को मूर्तरूप देने वाले सम्मेलन के महासचिव श्री बावा जैन को सम्पूर्ण भारतीय जैन समाज की ओर से हार्दिक बधाई देता हूँ, जिन्होंने इस जिम्मेदारी का सफलतापूर्वक निर्वहन करके दुनिया भर के धर्माचार्यों को एक मंच पर लाने का यह पुरुषार्थ किया है और उनके नाम के माध्यम से विश्व के कोने-कोने में शांति का संदेश पहुँचाने का यह प्रयास निश्चित ही सराहनीय हैं एक उच्च कोटि के उद्देश्य की प्रािप्त में आधार बनकर बावा जैन ने जैन समाज के मस्तक को गौरवान्वित कर दिया है। विश्वभर के समस्त धर्माचार्यों द्वारा चार दिनों तक जो बहुमूल्य विचार प्रस्तुत किये गये हैं, उनका सार जब हम अपनी-अपनी मातृभूमि पर अपने लोगों के बीच में क्रियान्वित करेंगे, तभी इस शिखर सम्मेलन की सार्थकता सिद्ध हो पावेगी। सम्पूर्ण विश्व में शांति हो, सुभिक्षता हो, मैत्री हो, समन्वय हो, यही मेरी भगवान ऋषभदेव से प्रार्थना है।