सब जीवों का, और तो क्या देवताओं का भी जो कुछ कायिक और मानसिक दु:ख है, वह काम—भोगों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। वीतरागी उस दु:ख का अन्त पा जाता है। संसार—दावानल—दाह—नीरं, सम्मोह—धूलीहरणे समीरम्। माया—रसादारण—सार—सीरं, नमामि वीरं गिरिसार—धीरम्।।
संसार—रूपी दावानल के ताप के लिए जो जल (के समान) हैं, मोह—रूपी धूल का हरण करने के लिए जो वायु (के समान) हैं, माया—रूपी क्षेत्र (खेत) को विदीर्ण करने में जो हल (के समान) हैं, मैं उन पर्वत के समान धैर्यशील (भगवान् महा—) वीर को नमस्कार करता हूँ।