-बसंततिलका-
वज्रो पतत्यपि भयद्रुतविश्वलोक-मुक्ताध्वनि प्रशमिनो न चलन्ति योगात्।
बोधप्रदीपहतमोहमहान्धकाराः, सम्यग्दृशः किमतु शेषपरीषहेषु।।६३।।
भय से अतिशीघ्र मार्ग को छोड़कर सभी जन पलायन कर जावें, ऐसे वज्रपात के होने पर भी जो शांतचित्त मुनिराज ध्यान से चलायमान नहीं होते हैं, वे ज्ञानरूपी दीपक के द्वारा अज्ञानरूपी घोर अंधकार को दूर करने वाले सम्यग्दृष्टि महामुनि क्या शेष परीषहों के आने पर विचलित हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते।
भावार्थ- संपूर्ण जनसमूह को भय से भगा देने वाले ऐसे घोर वज्रपात के होने पर भी जो मुनिराज ध्यान में लीन रह सकते हैं ऐसे महामुनि अन्य परीषहों को तो सहज ही जीत लेते हैं।
भावार्थ– ज्येष्ठ-आषाढ़ की भयंकर गर्मी में सूर्य की उग्र किरणों से पृथ्वी की धूलि भाड़ की बालू के समान तप्तायमान हो जाती है। गर्म-गर्म लू से सब तरफ से लपट लगने लगती है, सर्वत्र नदी, सरोवरों का जल सूख जाता है ऐसे समय में जो महामुनि पर्वत के शिखर पर ध्यान लगाते हैं वे मुनिराज हम सब लोगों का कल्याण करने वाले होवें।
-शार्दूलविक्रीडित-
प्रोद्यत्तिग्मकरोग्रतेजसि लसच्चण्डानिलोद्यद्दिशि स्फारीभूतसुतप्तभूमिरजसि प्रक्षीणनद्यम्भसि।
ग्रीष्मे ये गुरुमेधनीध्रशिरसि ज्योतिर्निधायोरसि ध्वान्तध्वंसकरं वसन्ति मुनयस्ते सन्तु नः श्रेयसे।।६४।।
जिस ग्रीष्मकाल में उदित होता हुआ सूर्य अपनी तीक्ष्ण किरणों को बिखेर रहा है, जिसमें तीक्ष्ण पवन-गर्म लू से दिशायें व्याप्त हो रही हैं, जिसमें भूमि की धूलि अत्यंत तप्तायमान हो रही है तथा जिस समय नदियों का जल सूख जाता है, ऐसे ग्रीष्मकाल में जो मुनिराज अपने हृदय में अज्ञान अंधकार को नष्ट करने वाली ज्ञानज्योति को धारण करके महापर्वत के शिखर पर निवास करते हैं वे साधुगण हमारे कल्याण के लिए होवें।
-शार्दूलविक्रीडित-
ते वः पान्तु मुमुक्षवः कृतरवेरब्दै रतिश्यामलैः शश्वद्वारि वमद्भिरब्धिविषयक्षारत्वदोषादिव।
काले मज्जदिले पतद्गिरिकुले ‘धावद्धुनीसंकुले’ झंझावातविसंस्थुले तरुतले तिष्ठन्ति ये साधवः।।६५।।
जिस वर्षाकाल में गरजते हुए काले-काले मेघ बरसते रहते हैं, ऐसा लगता है मानो समुद्रविषयक खारे जल के दोष से ही वे सतत पानी को उगल रहे हों, ऐसे उन मेघों की वर्षा से पृथ्वी जल में डूबने लगती है, पानी के अविरल प्रवाह से पर्वतों का समूह गिरने लगता है, जिसमें नदियां वेग से बहने लगती हैं तथा जो झ्झावात-जलमिश्रित भयंकर हवा से सहित है, ऐसे वर्षाकाल में जो मुनिराज वृक्षों के नीचे विराजमान रहते हैं वे आप लोगों की रक्षा करें।
-शार्दूलविक्रीडित-
म्यायत्कोकनदे गलत्पिकमदे भ्रंश्यद्द्रुमौघच्छदे हर्षद्रोमदरिद्रके हिमऋतावत्यन्तदुःखप्रदे।
ये तिष्ठन्ति चतुष्पथे पृथुतपः सौधस्थिताः साधवो ध्यानोष्णप्रहितोग्रशीतविधुरास्ते मे विदध्युः श्रियम्।।६६।।
जिस शीतकाल में कमल मुरझाने लगते हैं, वानरों के मद गलित हो जाते हैं, वृक्षों से पत्ते झड़ जाते हैं, दरिद्री लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं, ऐसी अत्यंत दुःखप्रद शीत ऋतु में विशाल तपरूपी महल में स्थित तथा ध्यानरूपी उष्णता से अत्युग्र ठंड को दूर करने वाले जो महासाधु चतुष्पथ-खुले मैदान में स्थित रहते हैं वे साधु मुझे मोक्षलक्ष्मी प्रदान करें।
-बसंततिलका-
कालत्रये बहिरवस्थितजातवर्षा शीतातपप्रमुखसंघटितोग्रदुःखे।
आत्मप्रबोधविकले सकलोऽपि कायक्लेशो वृथा वृतिरिवोज्झितशालिवप्रे।।६७।।
जो साधुगण जिन तीन कालों में घर छोड़कर बाहर रहने से उत्पन्न हुए वर्षा, शीत और धूप आदि के तीव्र दुःखों को सहन करते हैं, वे यदि उन तीनों कालों में अध्यात्म ज्ञान से रहित हैं तो उनका ये सब कायक्लेश इसी प्रकार व्यर्थ है कि जिस प्रकार धान्यांकुरों से रहित खेत में कांटों से बाड़ का निर्माण करना।
भावार्थ- ‘‘आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है’’ ऐसे अध्यात्म ज्ञान से सहित अन्तरात्मा मुनि यदि वर्षा में वृक्ष के नीचे, ठंड में चौहटे में और ग्रीष्म ऋतु में पर्वतों की चोटी पर ध्यान करते हैं तो वे कर्मों के नाश में समर्थ होते हैं किन्तु आत्मज्ञान से रहित हैं उनका यह कायक्लेश तप अधिकतम नव ग्रैवेयक तक ले जा सकता है, सांसारिक वैभव दे सकता है किन्तु उसी भव से मोक्ष नहीं दे सकता है। हां, परंपरा से सम्यक्त्व आदि प्राप्त कराकर मोक्ष का कारण भी हो सकता है अतः सर्वथा निष्फल नहीं है।
-शार्दूलविक्रीडित-
सम्प्रत्यस्ति न केवली किल कलौ त्रैलोक्यचूडामणि स्तद्वाचः परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगद्द्योतिकाः।
सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवरास्तेषां समालंबनं तत्पूजा जिनवाचिपूजनमतः साक्षाज्जिनः पूजितः।।६८।।
इस कलिकाल-पंचमकाल में इस भरतक्षेत्र में इस समय यद्यपि तीनों लोकों के चूड़ामणि ऐसे केवली भगवान विराजमान नहीं हैं फिर भी लोक को प्रकाशित करने वाले उन केवली के वचन तो विद्यमान हैं हीं और उन वचनों का आश्रय लेने वाले उत्तम रत्नत्रय के धारी महामुनि भी विद्यमान हैं, इसलिए उन मुनियों की पूजा वास्तव में जिनवचनों की ही पूजा है और जिनवचनों की पूजा से प्रत्यक्ष में जिन भगवान की ही पूजा की गई है ऐसा समझना चाहिए।
विशेषार्थ– इस श्लोक में श्रीपद्मनंदि आचार्य ने बहुत ही स्पष्ट कहा है कि आज भी इस निकृष्ट पंचमकाल में सच्चे दिगम्बर जैन मुनि होते हैं और भगवान की वाणी भी विद्यमान है। इन मुनियों की पूजा से जिनवचनों की पूजा हो जाती है और जिनवचनों की पूजा से साक्षात् समवशरण मेें विराजमान जिनेन्द्रदेव की ही पूजा हो जाती है। इस कथन से निर्दोष चारित्रधारी ऐसे महामुनियों की पूजा से जिनेन्द्रदेव की पूजा की गई है ऐसा अर्थ स्पष्ट है। दिगम्बर जैन संप्रदाय में ही आज कुछ ऐसे भी निश्चयाभासी एकांतवादी हैं जो कि अपने को अध्यात्मवादी कहते हैं, वे वर्तमान शताब्दी के चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी आदि किन्हीं भी महामुनियों के प्रमाण नहीं मानते हैं, सभी को द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि कहकर न इन्हें नमस्कार करते हैं और न ही इन्हें नवधाभक्तिपूर्वक आहार ही देते हैं। येकुंदकुंददेव के ग्रन्थों का ही अधिकतर स्वाध्याय करते हैं। उनके लिए श्रीकुंदकुंददेव के ग्रंथों के आधार से ‘‘आजकल सच्चे मुनि हैं’’ यह बातें भी सिद्ध की जा रही हैं। यथा-
भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स।
तं अप्पसहावठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।।७६।।
अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं।
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुदा णिव्वुदिं जंति।।७७।।
इस भरतक्षेत्र में दुःषमकाल में मुनि को आत्मस्वभाव में स्थित होने पर धर्मध्यान होता है, जो ऐसा नहीं मानता है वह अज्ञानी है। आज भी इस पंचमकाल में रत्नत्रय से शुद्ध आत्मा (मुनि) आत्मा का ध्यान करके इन्द्रत्व और लौकांतिक देव के पद को प्राप्त कर लेते हैं और वहां से चयकर निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।
श्री गौतमस्वामी से लेकर अंग-पूर्व के एकदेश के जानने वाले मुनियों की परम्परा के काल का प्रमाण ६८३ वर्ष होता है। उसके बाद-‘जो श्रुततीर्थ धर्म प्रवर्तन का कारण है, वह बीस हजार तीन सौ सत्रह वर्षों में कालदोष से व्युच्छेद को प्राप्त हो जावेगा’ अर्थात् ६८३±२०३१७ · २१००० वर्ष का यह पंचमकाल है तब तक धर्म रहेगा। ‘‘इतने समय तक चातुर्वण्र्य संघ जन्म लेता है१।’’
-शार्दूलविक्रीडित-
स्पृष्टा यत्र मही तदंघ्रिकमलैस्तत्रैति सत्तीर्थतां तेभ्यस्तेपि सुराः कृताञ्जलिपुटा नित्यं नमस्कुर्वते।
तन्नामस्मृतिमात्रतोऽपि जनता निष्कल्मषा जायते ये जैना यतयश्चिदात्मनिरता ध्यानं समातन्वते।।६९।।
जो जैन महामुनि अपने चिच्चैतन्यस्वरूप आत्मा में परम स्नेह को करते हैं उनके चरणकमलों के द्वारा जहां की पृथ्वी स्पर्श की जाती है वहां की पृथ्वी उत्तम तीर्थ बन जाती है, देवगण भी नित्य ही उनको हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं और तो क्या, उनके नाम के स्मरण मात्र से भी जनसमूह पाप से रहित हो जाता है।
-शार्दूलविक्रीडित-
सम्यग्दर्शनवृत्तबोधनिचितः शान्तः शिवैषी मुनिः मन्दैः स्यादवधीरितोऽपि विशदः साम्यं यदालम्ब्यते।
आत्मा तैर्विहतो यदत्र विषमध्वान्तश्रिते निश्चितं सम्पातो भवितोग्रदुःखनरके तेषामकल्याणिनाम्।।७०।।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से सहित, शांत और मोक्ष के इच्छुक जो मुनिराज अज्ञानीजनों के द्वारा अपमानित होकर भी यदि परम साम्यभाव का अवलंबन लेते हैं तो वे निर्मल भाव करने वाले ही हैं प्रत्युत वैसा करने वाले अज्ञानीजन अपनी आत्मा का ही घात कर लेते हैं और तब कल्याण पथ से च्युत हुए उन अज्ञानियों को तीव्र अंधकार से व्याप्त एवं घोर दुःखों से संयुक्त ऐसे नरकों में नियम से जाना होता है।
-स्रग्धरा-
मानुष्यं प्राप्य पुण्यात्प्रशममुपगता रोगवद्भोगजालं मत्वा गत्वा वनांतं दृशि विदि चरणे ये स्थिताः संगमुक्ताः।
कस्तोता वाक्पथातिक्रमणपटुगुणैराश्रितानांमुनीनांस्तोतव्यास्तेमहद्भिर्भुवि य इह तदंघ्रिद्वयेभक्तिभाजः।।७१।।
जो मुनिराज पुण्य के प्रभाव से मनुष्य पर्याय को प्राप्त कर शांत परिणाम को प्राप्त हुए इन्द्रियजनित भोगों को रोग के समान समझकर वन में जाकर स्थित हो जाते हैं। वचन के अगोचर ऐसे उत्तम-उत्तम गुणों के निधान उन मुनियों की स्तुति भला कौन कर सकता है ? अर्थात् कोई भी नहीं कर सकता है। जो मनुष्य उन मुनियों के चरणकमलों में भक्ति सहित हैं वे यहां पृथिवी पर महापुरुषों-विद्वानों द्वारा स्तुति करने के योग्य हो जाते हैं।
विशेषार्थ-जो रत्नत्रयधारी निग्र्रन्थ महामुनियों की भक्ति करते हैं, स्तुति करते हैं वे इस संसार में विद्वानों द्वारा प्रशंसा को प्राप्त करते हैं। कहा भी है-
उच्चैर्गोत्रं प्रणतेर्भोगो दानादुपासनात्पूजा।
भक्ते: सुंदररूपं, स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु२।।
तपोनिधि साधुओं को नमस्कार करने से उच्च गोत्र मिलता है, उन्हें दान देने से भोगों की प्राप्ति होती है, उनकी उपासना करने से पूजा मिलती है, उनकी भक्ति से सुंदर रूप प्राप्त होता है और उन गुरुओं के स्तवन से कीर्ति होती है, ऐसा श्रीसमंतभद्र स्वामी का कथन है।
यहां तक मुनियों का धर्म कहा गया है।