निश्चयचारित्र किनके होता है ?
पडिकमणपहुदिकिरियं, कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं।
तेण दु विरागचरिए, समणो अब्भुट्ठिदो होदि।।६१।।
(नियमसार गाथा-१५२)
निश्चयनय आश्रय से जो, प्रतिक्रमणादि क्रियाएँ होती हैं।
निश्चयचरित्रधारी मुनि के वे, सभी क्रियाएँ होती हैं।।
इस हेतु उन्हें ही वीतराग, मुनि की संज्ञा मिल जाती है।
श्रेणी में चढ़कर क्षण भर में, अर्हंत अवस्था आती है।।६१।।
अर्थ—निश्चयनयाश्रित प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को करने वाले के निश्चयनय चारित्र होता है, इसी हेतु मुनि वीतराग चारित्र में स्थित होते हैं।
भावार्थ—पूर्व में निर्विकल्प ध्यान को ही निश्चय-प्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान आदि कहा है अत: ये निश्चयनयाश्रित चारित्र शुद्धोपयोग में ही होता है। यह सातवें गुणस्थान से शुरू होकर बारहवें गुणस्थान में पूर्ण होता है और ये सप्तम आदि गुणस्थान भी छठे गुणस्थानवर्ती दिगम्बर मुनि के ही सम्भव हैं, गृहस्थों के नहीं।
आज के मुनि क्या करें ?
जदि सक्कदि कादुं जे, पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं।
सत्तिविहीणो जा जदि, सद्दहणं चेव कायव्वं।।६२।।
(नियमसार गाथा-१५४)
यदि करना शक्य तुम्हें है तो, प्रतिक्रमण ध्यानमय ही कर लो।
जब तक करने की शक्ति नहीं, तब तक केवल श्रद्धा कर लो।।
इस हीन संहनन से तुमको, अध्यात्म ध्यान संभव निंह है।
शुद्धात्मा की श्रद्धा करना, इस युग में भी अशक्य नहिं है।।६२।।
अर्थ—यदि करना शक्य हो तो तुम्हें प्रतिक्रमण आदि ध्यानमय करना चाहिये और जब तक शक्ति नहीं है, तब तक श्रद्धान ही करना चाहिये।
भावार्थ—इस गाथा में टीकाकार ने कहा है कि पंचमकाल में हीन संहनन होने से अध्यात्मध्यान सम्भव नहीं है अत: अपनी शुद्ध आत्मा का श्रद्धान ही करना चाहिए। हाँ, दिगम्बर मुनि को सातवें गुणस्थान में निर्विकल्पध्यान सम्भव भी है किन्तु गृहस्थ के तो निर्विकल्प ध्यान असम्भव ही है अत: शुद्धात्मा की श्रद्धा और भावना ही करना उचित है।
चारित्र ही धर्म है—
चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दिट्ठो।
मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हि समो।।६३।।
(प्रवचनसार गाथा-७)
चारित्र नियम से धर्म कहा, वह धर्म सदा समतामय है।
मिथ्यात्व मोह अरु क्षोभ रहित, आतम स्वभाव समतामय है।।
ऐसा ही यथाख्यात चारित, शुद्धात्मरूप कहलाता है।
यह साध्य तथा साधन सराग, चारित्र भाव कहलाता है।।६३।।
अर्थ—नियम से चारित्र ही धर्म है और जो धर्म है, वह समता-भाव ही है, ऐसा कहा गया है। मोह-मिथ्यात्व तथा क्षोभ, राग-द्वेष से रहित जो आत्मा का परिणाम है, वही समता भाव है।
भावार्थ—यहाँ चारित्र को ही धर्म कहा है। टीकाकारों ने चारित्र के दो भेद किये हैं—सरागचारित्र और वीतरागचारित्र। छठे गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक के मुनियों का चारित्र सरागचारित्र है। इससे आगे ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में वीतरागचारित्र है। यही चारित्र मिथ्यात्व, राग-द्वेष से रहित शुद्धसाम्यपरिणामरूप यथाख्यात चारित्र कहलाता है। यह साध्य है और सरागचारित्र साधन है।
धर्म से सहित आत्मा ही धर्म है—
परिणमदि जेण दव्वं, तक्कालं तम्मयत्ति पण्णत्तं।
तह्मा धम्मपरिणदो, आदा धम्मो मुणेयव्वो।।६४।।
(प्रवचनसार गाथा-८)
जिस समय द्रव्य जिस रूप, परिणमन करके परिणत होता है।
वह उसी काल में उसी रूप, परिणमता तन्मय होता है।।
इसलिये धर्म से परिणत आत्मा, धर्मरूप बन जाता है।
जैसे घृत युत मिट्टी का घट भी, घृत का घट कहलाता है।।६४।।
अर्थ—द्रव्य जिस काल में जिस रूप से परिणमन करता है, वह उस काल में उसी रूप ही हो जाता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है इसलिए धर्म से परिणत आत्मा धर्म ही हो जाता है, ऐसा जानना चाहिए।
भावार्थ—शुभोपयोग और शुद्धोपयोग की अपेक्षा धर्म के दो भेद हैं अथवा एकदेश चारित्र और सकलचारित्र की अपेक्षा भी दो भेद होते हैं। यह आत्मा जब जिस धर्म से परिणत होता है, वह उस समय तन्मय—तद्रूप ही माना जाता है। यहाँ तो टीकाकारों ने मुनियों के सरागचारित्र और वीतरागचारित्र को ही लिया है।
निश्चयमोक्षमार्ग के साधनरूप व्यवहार मोक्षमार्ग का लक्षण—
धम्मादीसद्दहणं, सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं।
चिट्ठा तवं हि चरिया, ववहारो मोक्खमग्गोत्ति।।६५।।
(पंचास्तिकाय गाथा-१६०)
धर्मादिक द्रव्यों की श्रद्धा, करना सम्यक्त्व कहाता है।
अंगादि पूर्व का ज्ञान करो, वह सम्यग्ज्ञान कहाता है।।
तप-संयम में प्रवृत्ति करना, सम्यक्चारित्र कहलाता है।
इन तीनों से युत मुक्ति का, व्यवहार मार्ग बन जाता है।।६५।।
अर्थ—धर्म, अधर्म आदि का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है, अंग-पूर्व का ज्ञान होना ज्ञान है और तप में प्रवृत्ति करना चारित्र है, यह व्यवहार मोक्षमार्ग है।
भावार्थ—वीतराग सर्वज्ञदेव प्रणीत तत्त्वों का श्रद्धान और ज्ञान ये दोनों मुनि तथा गृहस्थ दोनों में होते हैं किन्तु अंग-पूर्व का ज्ञान मुनियों को ही होता है। आर्यिकाओं को अंग का ज्ञान हो सकता है, पूर्व का नहीं। पंचमहाव्रत आदि चारित्र छठे-सातवें गुणस्थान योग्य मुनियों के होता है और श्रावक के दान, शील, पूजा, उपवासरूप या ग्यारह प्रतिमारूप चारित्र होता है। मुनियों के व्यवहाररत्नत्रय के बिना निश्चयरत्नत्रय असम्भव है अत: यह व्यवहार साधन है।
व्यवहार मोक्षमार्ग से साध्य निश्चयमोक्षमार्ग का कथन—
णिच्चयणयेण भणिदो, तिहि तेिंह समाहिदो हु जो अप्पा।
ण कुणदि किंचिवि अण्णं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गोत्ति।।६६।।
(पंचास्तिकाय गाथा-१६१)
जो आत्मा इस रत्नत्रय में, एकाग्र परिणती करता है।
उसमें ही तन्मय होकर वह, निंह अन्य कार्य कुछ व्ाâरता है।।
इच्छापूर्वक तजता भी निंह, वह निश्चय मोक्षमार्ग जानो।
जैसे फल आने के पहले, फूलों को तुम कारण मानो।।६६।
अर्थ—जो आत्मा इन तीनों—दर्शन, ज्ञान, चारित्र से एकाग्र परिणत होता हुआ अन्य कुछ भी न करता है और न छोड़ता ही है, वह निश्चय से मोक्षमार्ग है।
भावार्थ—‘‘अतो निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गयो: साध्यसाधनभावो नितरामुपपन्न:।’’ इसलिये निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्ग में साध्यसाधन भाव अतिशयरूप से घटित होता है। मुनि ही व्यवहार रत्नत्रय को धारण कर एकाग्रध्यान में स्थित होकर निश्चय रत्नत्रय या निश्चय मोक्षमार्ग में परिणत हो जाते हैं। जैसे फल आने के लिये फूल कारण है, वैसे ही निश्चय रत्नत्रय के लिये व्यवहार रत्नत्रय कारण है। यहाँ ऐसा क्रम समझने के लिये ये दो गाथाएँ हैं।
संवर का क्रम—
सुहजोगस्स पवित्ती, संवरणं कुणदि असुहजोगस्स।
सुहजोगस्स णिरोहो, सुद्धुवजोगेण संभवदि।।६७।।
(द्बादश अनुप्रेक्षा गाथा-६३)
जब जीव मन, वचन और काय की, शुभ प्रवृत्ति को करता है।
तब अशुभ योग का स्वयं रूप से, ही निरोध वह करता है।।
शुद्धोपयोग में वही जीव जब, स्थिर चित्त हो जाता है।
तब शुभ योगों का भी निरोध, स्वयमेव जीव कर पाता है।।६७।।
अर्थ—शुभ योग की प्रवृत्ति अशुभ योग का निरोध करती है, पुन: शुद्धोपयोग के द्वारा शुभ योग का निरोध संभव है।
भावार्थ—अशुभ क्रियायोग हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि पापों के त्याग से पुण्य होता है और पुण्य से शुभोपयोग होता है। यह ध्यान में ही होता है, अत: महामुनि के ही शुद्धोपयोग के द्वारा पाप-पुण्य दोनों का संवर हो जाता है।
तीन गुप्ति सहित मुनि ही ज्ञानी हैं—
जं अण्णाणी कम्मं, खवेइ भवसयसहस्सकोडीिंह।
तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ उस्सासमेत्तेण।।६८।।
(प्रवचनसार गाथा-२३८)
अज्ञानी आत्मा जिन कर्मों को, लाखों भव में नष्ट करें।
ज्ञानी आत्मा उन कर्मों को, उच्छ्वास मात्र में नष्ट करें।।
क्योंकि वे तीन गुप्तियों से, संयुक्त महामुनि होते हैं।
अपने शुद्धात्म ध्यान बल पर, वे ही कर्मों को धोते हैं।।६८।।
अर्थ—अज्ञानी जीव जितने कर्मों को लाखों-करोड़ों भवों में नष्ट करता है, तीन गुप्तियों से सहित ज्ञानी जीव उतने कर्मों को उच्छ्वासमात्र में नष्ट कर देता है।
भावार्थ—यहाँ ‘ज्ञानी’ शब्द से तीन गुप्ति से सहित, शुद्धोपयोगी महाध्यानी महामुनि को ही लेना चाहिये न कि शब्दशास्त्र के ज्ञानी, जैसा कि ‘तििंह गुत्तो’ पद है, अत: यह लक्षण चतुर्थकालीन उत्तमसंहनन वाले जिनकल्पी महामुनि में ही घटेगा। उससे पूर्व आज के मुनियों को शुद्धध्यान की भावना करना ही शक्य है।
स्वसमय-परसमय का लक्षण—
जीवो चरित्तदंसण, णाणट्ठिउ तं हि ससमयं जाण।
पुग्गलकम्मपदेस-ट्ठियं च तं जाण परसमयं।।६९।।
(समयसार गाथा-२)
जो आत्मा सम्यग्दर्शन ज्ञान, चरित में सुस्थित होते हैं।
उनको ही तुम स्वसमय जानो, वे निज में स्थित होते हैं।।
जो आत्मा पुद्गल कर्म प्रदेशों, में ही स्थित रहते हैं।
उन जीवों को अध्यात्म शास्त्र, ‘‘परसमय’’ शब्द से कहते हैं।।६९।।
अर्थ—दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थित जो जीव हैं, उसे ही तुम स्वसमय जानो और पुद्गल कर्म के प्रदेशों में स्थित जो जीव हैं, उन्हें ‘परसमय’ समझो।
भावार्थ—केवलज्ञान को उत्पन्न करने में समर्थ जो भेदविज्ञानरूप निश्चय रत्नत्रय है, जो कि बारहवें गुणस्थान में स्थित वीतरागचारित्रस्वरूप है, वही ‘स्वसमय’ है, उसके अतिरिक्त सभी जीव ‘परसमय’ हैं, अथवा शुद्धात्मा का जो स्वरूप है, वही ‘स्वसमय’ है, शेष नर-नारक आदि पर्यायों में स्थित जीव ‘परसमय’ हैं।
स्वचरित या स्वसमय का लक्षण—
जो सव्वसंगमुक्को, णण्णमणो अप्पणं सहावेण।
जाणदि पस्सदि णियदं, सो सगचरियं चरदि जीवो।।७०।।
(पंचास्तिकाय गाथा-१५८)
सम्पूर्ण परिग्रह तजकर जो, एकाग्रमना हो जाते हैं।
निश्चल होकर निज आत्मा के, स्वाभाविक भाव जगाते हैं।।
उनका ही दर्शन और ज्ञान, स्वचरित आचरण कहाता है।
वह निर्विकल्प ध्यानी बनकर, निश्चयरत्नत्रय पाता है।।७०।।
अर्थ—जो सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर एकाग्रमना होता हुआ स्वभाव से निश्चल होकर आत्मा को जानता है और देखता है, वह जीव स्वचरित का आचरण करता है।
भावार्थ—जो परिग्रहरहित मुनि आत्मध्यान में निश्चल होकर अपनी शुद्ध आत्मा को ही देखते-जानते हैं, वे स्वचरित में लीन हुए स्वरूपाचरण चारित्रधारी या स्वसमय कहलाते हैं। जो योगीन्द्र निर्विकल्पध्यानी होते हैं, वे निश्चय रत्नत्रयधारी हैं। ‘‘अतएव उभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति।’’ इसलिये परमेश्वर की तीर्थ-प्रवर्तना दोनों नयों के आश्रित ही है।
बहिरात्मा-अन्तरात्मा परसमय और परमात्मा स्वसमय हैं—
बहिरंतरप्पभेयं, परसमयं भण्णए जिणिंदेिंह।
परमप्पा सगसमयं, तब्भेयं जाण गुणट्ठाणे।।७१।।
(रयणसार गाथा-१४०)
जिनवर ने बहिरात्मा अन्तर, आत्मा दो भेद बताये हैं।
इन दोनों ही भेदों को जिनवर, ने परसमय बताए हैं।।
परमात्मा को स्वसमय माना, वे निज में स्थित रहते हैं।
अब इनको ही गुणस्थानों में, श्रीकुन्दकुन्द गुरु कहते हैं।।७१।।
अर्थ—श्री जिनेन्द्रदेव ने बहिरात्मा और अंतरात्मा इन दोनों भेदों को ‘परसमय’ कहा है और परमात्मा ‘स्वकसमय’ ‘स्वसमय’ है। अब इन भेदों को गुणस्थानों में समझो।
भावार्थ—आत्मा के तीन भेद हैं—बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। समय के दो भेद हैं—परसमय और स्वसमय। गुणस्थानों के १४ भेद हैं—मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली। इनसे परे सिद्ध भगवान होते हैं।
गुणस्थानों में स्वसमय-परसमय—
मिस्सोत्ति बाहिरप्पा, तरतमया तुरिय अंतरप्पजहण्णा।
सत्तोत्तिमज्झिमंतर, खीणुत्तर परमजिणसिद्धा।।७२।।
(रयणसार गाथा-१४१०)
मिथ्यात्व मिश्र सासादन में, तरतमता से बहिरात्मा हैं।
अविरत सम्यग्दृष्टी प्राणी तो, जघन्य अन्तर आत्मा हैं।।
आगे के सात गुणस्थानों तक, मध्यम अन्तर आत्मा हैं।
हैं क्षीणमोह उत्तम एवं दो, और सिद्ध परमात्मा हैं।।७२।।
अर्थ—मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थान तक के जीव तरतमता से बहिरात्मा हैं। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जघन्य अंतरात्मा हैं। सात गुणस्थान तक—पाँचवें गुणस्थान वाले से ग्यारहवें तक मध्यम अंतरात्मा हैं और क्षीणमोह—बारहवें गुणस्थान वाले उत्तम अंतरात्मा हैं तथा तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान वाले और सिद्ध भगवान परमात्मा हैं।
भावार्थ—बारहवें गुणस्थान तक के महामुनि भी ‘परसमय’ ही हैं। अर्हंत- सिद्ध भगवान स्वसमय हैं, ऐसा समझना।
विषयों की कथा परिचित है, शुद्धात्मा कथा अपरिचित—
सुदपरिचिदाणुभूदा, सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा।
एयत्तस्सुवलंभो, णवरि ण सुलहो विहत्तस्स।।७३।
(समयसार गाथा-४)
श्रुत-परिचित अरु अनुभूत काम-भोगों की सभी कथाएँ हैं।
इसलिये सुलभ हैं क्योंकि अनन्तों, बार सुनी चर्चाएँ हैं।।
लेकिन एकत्व शुद्ध निश्चय की, उपलब्धी नहिं सुलभ हुई।
क्योंकि शुद्धात्मा का परिचय, निंह हुआ अत: दुर्लभ ही रही।।७३।।
अर्थ—काम और भोग से सम्बन्धित कथा सभी जीवों के सुनने में, परिचय में और अनुभव में आई हुई है इसलिए सुलभ है किन्तु एक शुद्ध और सबसे भिन्न की उपलब्धि सुलभ नहीं है।
भावार्थ—सभी ने अनादिकाल से लेकर आज तक काम-भोगों की चर्चाएँ अनंत बार सुनी हैं, परिचय किया है और अनंतों बार ही उनको भोगा है किन्तु रत्नत्रयस्वरूप शुद्ध एक आत्मा का स्वरूप न तो सुना ही है, न परिचय में लिया है और न अपनी उस एक आत्मा का अनुभव ही किया है और न आत्मज्ञानी मुनियों की उपासना ही की है इसीलिये इस स्वात्मतत्त्व की प्राप्ति दुर्लभ है।
दर्शन-ज्ञान-चारित्र भेद व्यवहार से हैं, निश्चय से नहीं—
ववहारेणु वदिस्सइ, णाणिस्स चरित्तदंसणं णाणं।
णवि णाणं ण चरित्तं, ण दंसणं जाणगो सुद्धो।।७४।।
(समयसार गाथा-७)
ज्ञानी आत्मा के दर्शन-ज्ञान, चारित्र भाव जो माने हैं।
वे केवल व्यवहारिक नय से, आत्मा के भेद बखाने हैं।।
निश्चयनय से उसके न ज्ञान, निंह दर्शन और न चारित है।
वह ज्ञायक मात्र शुद्ध आत्मा, ऐसा आगम प्रतिपादित है।।७४।।
अर्थ—ज्ञानी जीव के दर्शन, ज्ञान और चारित्र—ये तीन भाव व्यवहारनय से कहे जाते हैं, निश्चयनय से तो उसके न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है, वह तो मात्र ज्ञायक शुद्ध ही है।
भावार्थ—यहाँ व्यवहारनय कर्म की उपाधि को कहने वाला नहीं है, प्रत्युत आत्मा के अनंत गुणों को भेदरूप कहने वाला है और निश्चयनय मात्र अभेद ज्ञानमात्र आत्मा को कहने वाला है अत: यह व्यवहारनय असत्य नहीं है, यह शुद्ध आत्मा १००८ या अनन्त गुणों को मानता है किन्तु अभेदग्राही शुद्ध निश्चयनय से आत्मा एक ज्ञानमात्र ही है।
आत्मा ज्ञायकमात्र है—
ण वि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो।
एवं भणंति सुद्धं, णाओ जो सो उ सो चेव।।७५।।
(समयसार गाथा-६)
जो आत्मा का ज्ञायक स्वभाव, वह निंह प्रमत्त-अप्रमत्तरूप।
इसलिये शुद्ध कहते उसको, वह कभी न होता अन्य रूप।।
द्रव्यार्थिक शुद्ध नयाश्रय से शुभ, अशुभ भाव निंह करता है।
बस इसीलिए उन रूप भाव में, कभी नहीं परिणमता है।।७५।।
अर्थ—जो ज्ञायक भाव है, वह अप्रमत्त भी नहीं है और न प्रमत्त ही है, इस प्रकार से उसे शुद्ध कहते हैं तथा जो यह ज्ञायकरूप से जाना गया है, वह वही है, अन्य कोई नहीं है।
भावार्थ—जो शुद्धद्रव्यार्थिकनय से शुभ-अशुभ भावरूप परिणमन नहीं करने से न प्रमत्त है, न अप्रमत्त है। प्रमत्त से यहाँ पहले से छठे गुणस्थान तक लेना और अप्रमत्त से सातवें से चौदहवें गुणस्थान तक लेना अत: यह ज्ञायक भाव गुणस्थानों से परे शुद्ध एक ज्ञानमात्र है, यही शुद्धात्मा है, ज्ञाता है, ऐसा समझना। पूरे समयसार में यह एक ज्ञानमात्र आत्मा का ही वर्णन किया गया है।
व्यवहार के बिना निश्चय नहीं है—
जह णवि सक्कमणज्जो, अणज्जभासं विणा उ गाहेउं।
तह ववहारेण विणा, परमत्थुवएसणमसक्कं।।७६।।
(समयसार गाथा-८)
जैसे म्लेच्छों को म्लेच्छों की, भाषा बिन निंह समझा सकते।
वैसे ही व्यवहारी जन को, परमार्थ नहीं बतला सकते।।
उनको तो व्यवहारिक नय द्वारा, ही समझाया जा सकता।
क्रम-क्रम से संयम पालन कर, रत्नत्रय पाया जा सकता।।७६।।
अर्थ—जैसे म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा के बिना कुछ ग्रहण कराना—समझाना शक्य नहीं है, वैसे ही व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश करना भी अशक्य ही है।
भावार्थ—आत्मा के दर्शन, ज्ञान, चारित्र—ये तीन गुण हैं, इस व्यवहारनय से ही आत्मा को एक अखण्ड ज्ञानमात्रस्वरूप तक पहुँचाया जा सकता है, क्योंकि पहले भेदरत्नत्रय को ग्रहण कर ही मुनि अभेदरत्नत्रयरूप एक परमार्थ का ध्यान कर सकते हैं। बिना मुनि बने कोई भी शुक्लध्यानी नहीं हो सकते हैं, ऐसा यहाँ अभिप्राय है।
व्यवहार अभूतार्थ है, निश्चय भूतार्थ—
ववहारोऽभूयत्थो, भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भूयत्थमस्सिदो खलु, सम्माइट्ठी हवइ जीवो।।७७।।
(समयसार गाथा-११)
व्यवहार कहा है अभूतार्थ, भूतार्थ शुद्धनिश्चयनय है।
ऐसा मुनियों ने दिखलाया, व्यवहार और निश्चयनय है।।
भूतार्थ नयाश्रित हुआ जीव, निश्चय से सम्यग्दृष्टि है।
यह वीतराग मुनिवर में ही, घट सकती सम्यक् दृष्टि है।।७७।।
अर्थ—व्यवहारनय अभूतार्थ है और शुद्धनय भूतार्थ है, ऐसा मुनियों ने दिखलाया है। भूतार्थ के आश्रित हुआ जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि है।
भावार्थ—श्री जयसेनाचार्य ने व्यवहारनय के भूतार्थ और अभूतार्थ दो भेद तथा शुद्धनय के भी भूतार्थ और अभूतार्थ ऐसे दो भेद किये हैं अर्थात् भेदग्राही व्यवहार और उपाधिग्राही व्यवहार तथा शुद्ध निश्चयनय और अशुद्धनिश्चयनय ऐसे चार भेद किये हैं। आगे अनेक स्थलों पर इनके प्रयोग किये गये हैं तथा शुद्धनय का आश्रय लेने वाले सम्यग्दृष्टि हैं, ऐसा कहने से वीतराग सम्यग्दृष्टि को लेना चाहिये क्योंकि व्यवहार के आश्रित जीव व्यवहार या सराग सम्यग्दृष्टि होते हैं।
व्यवहारनय कहाँ तक प्रयोजनीभूत है ?
सुद्धो सुद्धादेसो, णायव्वो परमभावदरिसीिंह।
ववहारदेसिदा पुण, जे दु अपरमेट्ठिदा भावे।।७८।।
(समयसार गाथा-१२)
शुद्धात्मा को कहने वाला, जो शुद्ध नयाश्रय माना है।
वह परमभावदर्शी मुनियों ने, ही सचमुच पहचाना है।।
जो अपरमभावों में मुनि हैं, उनका व्यवहार सहारा है।
क्रम से आश्रय लेने वालों ने, जीवन स्वयं सुधारा है।।७८।।
अर्थ—शुद्ध आत्मा को कहने वाला जो शुद्धनय है, वह परमभावदर्शी महापुरुषों के द्वारा जानने योग्य है पुन: जो अपरमभाव में स्थित हैं, उनके लिये व्यवहारनय का उपदेश दिया गया है।
भावार्थ—अभेदरत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प ध्यान में स्थित बारहवें गुणस्थानवर्ती महामुनि शुद्धनय में स्थित हैं। अविरती श्रावक और छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज इन सबके लिये व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है क्योंकि चतुर्थ से सप्तम गुणस्थान तक के सभी जीव अपरमभाव में स्थित हैं। श्री अमृतचंद्रसूरि ने भी कहा है कि व्यवहारनय से तीर्थ चलता है और निश्चयनय से तत्त्व को समझा जाता है।
समयसार में सम्यक्त्व का लक्षण—
भूयत्थेणाभिगदा, जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जर, बंधो मोक्खो य सम्मत्तं।।७९।।
(समयसार गाथा-१३)
भूतार्थ से जाने जीव-अजीव, अरु पुण्य-पाप-आस्रव-संवर।
हैं बंध-निर्जरा और मोक्ष ये, सब पदार्थ माने सम्यक्।।
ये नव पदार्थ सम्यक्त्व प्राप्ति के, लिये सदा सहकारी हैं।
इन पर श्रद्धा करते रहने से, मुक्त हुए संसारी हैं।।७९।।
अर्थ—भूतार्थ—निश्चय से जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नव-पदार्थ ही सम्यक्त्व हैं।
भावार्थ—ये नव-पदार्थ सम्यक्त्व के विषय हैं और कारण हैं इसलिये कारण में कार्य का उपचार कर देने से ये ही सम्यक्त्व कहे गये हैं किन्तु निश्चय से आत्मा का श्रद्धानरूप परिणाम ही सम्यक्त्व है। ये नव-पदार्थ तीर्थवंदना के निमित्त होने से भूतार्थ हैं और महामुनि के निर्विकल्पध्यान में अभूतार्थ हो जाते हैं क्योंकि वहाँ एक शुद्ध आत्मा ही अनुभव में आता है। ऐसे ही प्रमाण, नय, निक्षेप भी आगे ध्यान में अभूतार्थ हो जाते हैं। यहाँ भूतार्थ से अशुद्ध निश्चयनय लेना चाहिये क्योंकि शुद्ध निश्चयनय से नवतत्त्वों की व्यवस्था ही नहीं है।
अज्ञानी जीव का लक्षण—
कम्मे णोकम्मम्हि य, अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं।
जा एसा खलु बुद्धी, अप्पडिबुद्धो हवदि ताव।।८०।।
(समयसार गाथा-१९)
जो कर्म और नोकर्म आदि में, आत्म भावना होती है।
मैं कर्मरूप हूँ कर्म मेरे यह, अहम् भावना होती है।।
जब तक ऐसी बुद्धी रहती, तब तक अज्ञानी रहता है।
सम्यक् बुद्धी के आते ही, वह ज्ञानी भी बन सकता है।।८०।।
अर्थ—कर्म और नोकर्म—शरीर आदि में ‘यह मैं हूँ और ये मेरे हैं’ जब तक ऐसी बुद्धि रहती है, तब तक यह जीव अप्रतिबुद्ध—अज्ञानी ही रहता है।
भावार्थ—शरीर और द्रव्यकर्म आदि को अपने समझना ‘यह शरीर ही मैं हूँ’ आत्मा और शरीर में एकरूपता है, भेद नहीं है, ऐसी धारणा अज्ञान ही है—इसी का नाम मिथ्यात्व है। इससे अर्थ यह निकलता है कि जो शरीर और आत्मा को एक नहीं मानते, वे ज्ञानी हैं। आगे इसे ही पूर्वपक्ष में रखकर नयों की अपेक्षा समाधान दे रहे हैं।
तीर्थंकरों की स्तुति मिथ्या है क्या ?
जदि जीवो ण सरीरं, तित्थयरायरियसंथुदी चेव।
सव्वा वि हवदि मिच्छा, तेण दु आदा हवदि देहो।।८१।।
(समयसार गाथा-२६)
यदि जीव शरीर नहीं है तो, तीर्थंकरादि स्तुति व्यर्थ।
आचार्यों के भी जो शरीर का, वंदन वह सब हुआ व्यर्थ।।
इसलिये आत्मा और शरीर को, एक रूप मैं समझ रहा।
हे गुरुवर! यदि ऐसा निंह तो, जिनवर शरीर क्यों पूज्य कहा ?।८१।।
अर्थ—यदि जीव शरीर नहीं है तो तीर्थंकर और आचार्यों की जो स्तुति है, वह सभी मिथ्या हो जावेगी इसलिये आत्मा और शरीर एकरूप ही हैं, ऐसा शिष्य ने अपना पक्ष रखा है।
भावार्थ—यदि जीव और शरीर भिन्न हैं, एक नहीं हैं तो पुन: ‘द्वौ वुँâदेंदुतुषारहारधवलौ’ दो तीर्थंकर श्वेत वर्ण के हैं इत्यादि प्रकार से जो तीर्थंकरों की स्तुति है और ‘देसकुलजाइसुद्धा’ जो देश, कुल, जाति से शुद्ध हैं ऐसे आचार्य मेरा मंगल करें, इत्यादि स्तुतियाँ क्यों की जाती हैं ? ये स्तुतियाँ व्यर्थ ही हो जाएँगी ? ऐसा शिष्य के कहने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं।
्नाय विवक्षा ही सम्यग्दर्शन है—
ववहारणयो भासदि, जीवो देहो य हवदि खलु इक्को।
ण दु णिच्छयस्स जीवो, देहो य कदावि एकट्ठो।।८२।।
(समयसार गाथा-२७)
व्यवहारिक नय यह कहता है, जीवरू शरीर तो इक ही है।
लेकिन निश्चयनय कहता है, आत्मा-शरीर निंह एक रहे।।
निश्चय से तीनों कालों में ये, एक नहीं हो सकते हैं।
लेकिन व्यवहार बिना जिनवर की, स्तुति निंह कर सकते हैं।।८२।।
अर्थ—व्यवहारनय कहता है कि जीव और शरीर एक ही हैं किन्तु निश्चयनय कहता है कि ये जीव और शरीर किसी काल में भी एक नहीं हो सकते हैं।
भावार्थ—जो स्तुति, वंदना, भक्ति आदि क्रियाएँ हैं, ये सब व्यवहारनय की अपेक्षा से ही होती हैं। निश्चयनय से तो आत्मा स्वयं सिद्ध है, शुद्ध है अत: स्तुति आदि की आवश्यकता ही नहीं है। मुनिराज निश्चयनय का अवलम्बन लेकर मात्र शुद्धात्मा के ध्यान में स्थित होकर केवलज्ञानी हो जाते हैं।
आत्मा कर्मों का कर्त्ता-भोक्ता है—
कत्ता भोत्ता आदा, पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा।
कम्मजभावेणादा, कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो।।८३।।
(नियमसार गाथा-१८)
आत्मा व्यवहार नयाश्रय से, पुद्गल कर्मों का कर्ता है।
भोक्ता भी है क्योंकि कर्मों के, सुख-दुख फल को भर्ता है।।
कर्मोदय से उत्पन्न हुए, रागादिभाव जो आत्मा के।
निश्चयनय से उन कर्मों का, कर्त्ता भोक्तापन आत्मा में।।८३।।
अर्थ—आत्मा व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता है। यही आत्मा निश्चयनय से कर्म से उत्पन्न हुये भावों का कर्त्ता और भोक्ता है।
भावार्थ—ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मों का उपादान कारण पुद्गल ही है किन्तु निमित्त कारण आत्मा है अत: व्यवहारनय से यह आत्मा ही कर्मों का कर्त्ता-भोक्ता है पुन: कर्मोदय से हुए जो रागादिभाव हैं, उन भाव कर्मों का कर्ता-भोक्ता आत्मा निश्चयनय से ही है क्योंकि इन भावों का उपादान कारण आत्मा है और निमित्त कारण कर्मों का उदय है। यहाँ निश्चयनय से अशुद्ध निश्चयनय लेना क्योंकि शुद्ध निश्चयनय से आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध है ही नहीं।
शुद्ध आत्मा का लक्षण—
एको मे सासदो अप्पा, णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा।।८४।।
(नियमसार गाथा-१०२)
मेरा आत्मा बस एक अकेला, शाश्वत है अविनाशी है।
दर्शन सुज्ञान लक्षण वाला, स्वाभाविक ज्ञानप्रकाशी है।।
हैं शेष सभी संयोगजन्य, लक्षण वाले जो भाव कहे।
मेरी आत्मा से भिन्न भाव, होने से मुझसे बाह्य रहें।।८४।।
अर्थ—मेरा आत्मा एक अकेला, शाश्वत है, ज्ञानदर्शन लक्षणवाला है, शेष सभी भाव संयोग लक्षण वाले हैं, अत: वे मेरे से बाह्य हैं।
भावार्थ—यह आत्मा अविनाशी है, ज्ञान-दर्शन लक्षण से जाना जाता है, बाकी जितने भी भाव दिखते हैं क्रोध, मान आदि अथवा इन्द्रियजन्य सुख आदि के अनुभव से हुए हर्ष-विषादादि, ये सभी भाव कर्मों के संयोग सम्बन्ध से उत्पन्न होते हैं, अत: ये मेरी आत्मा से भिन्न ही हैं, इसे ही पुन: दूसरे शब्दों में कहते हैं।
आत्मा का परमाणुमात्र भी अपना नहीं है—
अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइयो सदारूवी।
णवि अत्थि मज्झकिंचिवि, अण्णं परमाणुमित्तंपि।।८५।।
(समयसार गाथा-३८)
मैं हूँ अनादि से एक और, सब कर्ममलों से रहित शुद्ध।
मैं दर्शन-ज्ञानस्वरूपी हूँ, अरु सदा अमूर्तिक स्वयं बुद्ध।।
कुछ अन्य और परमाणुमात्र भी, मेरे निंह हो सकते हैं।
निश्चयनय से यह आत्मभावना, सब प्राणी कर सकते हैं।।८५।।
अर्थ—मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन-ज्ञानमयी हूँ और सदा ही अमूर्तिक हूँ, अन्य कुछ परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है।
भावार्थ—मैं अनादिकाल से एक—अकेला ही हूँ, कर्ममल से रहित होने से शुद्ध हूँ, ज्ञानदर्शनस्वरूप हूँ और वर्ण, रस आदि से रहित होने से अमूर्तिक हूँ। अन्य पुद्गल द्रव्यादि अणुमात्र भी मेरे नहीं हैं।
यह गाथा सतत् हृदय पटल पर अंकित कर लेनी चाहिये। इससे सर्व-समस्याओं में मानसिक शांति मिलेगी और आत्मबल बढ़ेगा।
व्यवहारनय का कथन उपयोगी ही है—
ववहारस्स दरीसण-मुवएसो वण्णिदो जिणवरेिंह।
जीवा एदे सव्वे, अज्झवसाणादओ भावा।।८६।।
(समयसार गाथा-४६)
ये जो रागद्वेषादि भाव, नर-नारक आदिक पर्याएँ।
ये सभी जीव में होती हैं, इसलिये जीव की कहलाएँ।।
ऐसा श्री जिनवर ने व्यवहारिक, नय से ही बतलाया है।
है तीर्थप्रवृत्ति में निमित्त, इसलिये इसे समझाया है।।८६।।
अर्थ—ये सब जो राग-द्वेष आदि भाव और नर-नारक आदि पर्याएँ हैं, वे सब जीव ही हैं, ऐसा श्रीजिनेन्द्र देव ने जो कहा है, वह व्यवहारनय का मत है।
भावार्थ—श्रीअमृतचंद्र सूरि ने कहा है कि ‘व्यवहारो हि… तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव।’ व्यवहारनय तीर्थप्रवृत्ति में निमित्त है अत: उसको कहना उचित ही है। अन्यथा निश्चय से तो शरीर से जीव भिन्न है पुन: त्रस-स्थावर जीवों को राख के समान मर्दित कर देने से न हिंसा होगी, न पापबन्ध होगा और तब संसारी जीव का मोक्ष के लिये प्रयास करना ही व्यर्थ हो जायेगा, इसलिये व्यवहारनय को कहना प्रयोजनीभूत ही है।
आत्मा का स्वरूप क्या है ?
अरसमरूवमगंधं, अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं।
जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।।८७।।
(समयसार गाथा-४९)
यह जीव रूप, रस, गन्ध रहित, अरु शब्द रहित शुद्धात्मा है।
इन्द्रियगोचर भी नहीं चेतना-गुण से सहित चिदात्मा है।।
उस आत्मा को निंह किसी लिंग से, ग्रहण किया जा सकता है।
आकार रहित उस आत्मा को, शुद्धात्मा ही पा सकता है।।८७।।
अर्थ—यह जीव रसरहित, रूपरहित, गंधरहित, इन्द्रियों के अगोचर और शब्दरहित है, चेतनागुण सहित है तथा किसी भी लिंग—चिन्ह से ग्रहण नहीं किया जाता है और आकार से भी रहित है, ऐसा तुम जानो।
भावार्थ—ये रस, रूप, गंध, शब्द आदि पुद्गल के गुण और पर्याएँ हैं। जीव शुद्धनय से या स्वभाव से इन सबसे रहित है और चेतनागुण से सहित है। जैसे जल का स्वभाव शीतल है किन्तु अग्नि के सम्पर्क में गरम होकर अग्नि के समान काम कर देता है, वैसे ही संसारी जीव पुद्गल कर्म के सम्पर्क में अपने शुद्ध स्वभाव को छोड़कर शरीरधारी अशुद्ध हो रहा है, अत: यह गाथा शुद्धनय से शुद्ध जीव का स्वरूप बतलाने वाली है।
ज्ञान और Dाास्रव से छूटना एक साथ है—
जीवणिबद्धा एए, अधुव अणिच्चा तहा असरणा य।
दुक्खा दुक्खफला त्ति य, णादूण णिवत्तए तेिंह।।८८।।
(समयसार गाथा-७४)
जो ये कर्मों के आस्रव हैं, वे जीव से ही संबंधित हैं।
अध्रुव अनित्य अशरण दु:ख, औ दु:ख फल से आत्मा मिश्रित है।।
ज्ञानी आत्मा यह बात समझकर, उनसे दूर हुआ करता।
तब ही वह आश्रव का निरोध कर, संवर भाव किया करता।।८८।।
अर्थ—जो ये कर्मों के आस्रव हैं, वे जीव से सम्बन्धित हैं, अध्रुव हैं, अनित्य हैं, अशरण हैं, दु:खरूप हैं और दु:खों के फलस्वरूप हैं, ऐसा जानकर ज्ञानी उनसे दूर हो जाता है।
भावार्थ—यह जीव ध्रुव—चैतन्यमात्र है, नित्य है, सुखमय है और सुख के फलरूप है। इससे विपरीत कर्मास्रव अध्रुव व आदिस्वरूप हैं। ज्ञानी मुनिराज इन दोनों के अन्तर को जानकर आस्रव से दूर होकर ज्ञानस्वरूप आत्मा के ध्यान में तल्लीन हो जाते हैं तभी वे आस्रव का निरोध कर पूर्णसंवर करके मोक्ष की प्राप्ति कर लेते हैं। श्री अमृतचंद्रसूरि ने कहा है कि ‘ज्ञानास्रवनिर्वृत्त्यो: समकालत्वं’ ज्ञान और आस्रव का अभाव इन दोनों का एक काल है अत: यह अवस्था महामुनि के चतुर्थकाल में ही संभव है।
बंध के कारण चार हैं—
सामण्णपच्चया खलु, चउरो भण्णंति बंधकत्तारो।
मिच्छत्तं अविरमणं, कसायजोगा य बोद्धव्वा।।८९।।
(समयसार गाथा-१०९)
सामान्यरूप से कर्मबन्ध के, कारण चार कहाए हैं।
उनको श्री जिनवर ने प्रत्यय, संबोधन से बतलाए हैं।।
मिथ्यात्व और अविरति-कषाय, अरु योग बन्ध के कारण हैं।
इनके यदि भेद-प्रभेद करें तो, हो जाते सत्तावन हैं।।८९।।
अर्थ—बंध के करने वाले सामान्य प्रत्यय—सामान्य कारण चार हैं। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, ऐसा जानना चाहिये।
भावार्थ—सामान्यरूप से बंध के कारण चार हैं तथा इनके भेद-प्रभेद अनेक हैं, ये विशेष कहलाते हैं। मिथ्यात्व के ५, अविरति के १२, कषाय के २५ और योग के १५, ऐसे ५७ भेद हो जाते हैं। आस्रव के भी ये ही ५७ भेद हैं क्योंकि कर्मों का आना आस्रव है और आत्मा के प्रदेशों के साथ एकमेक हो जाना बंध है। जो मिथ्यात्व को बंध का कारण नहीं मानते हैं, उन्हें श्रीकुन्दकुन्ददेव की इस गाथा पर ध्यान देना चाहिये।
कथंचित् जीव कर्मों से बंधा है कथंचित् नहीं भी बंधा है—
जीवे कम्मं बद्धं, पुट्ठं चेदि ववहारणयभणिदं।
सुद्धणयस्स दु जीवे, अबद्धपुट्ठं हवइ कम्मं।।९०।।
(समयसार गाथा-१४१)
आत्मा में कर्म बंधे हैं अरु, आत्मा उनसे संस्पर्शित है।
व्यवहारिक नय यह कहता है, आत्मा की ही चारों गति हैं।।
लेकिन निश्चयनय कहता है, आत्मा में कर्म न बंधते हैं।
संस्पर्शित भी निंह है आत्मा, ऐसा श्री जिनवर कहते हैं।।९०।।
अर्थ—जीव में कर्म बंधे हैं और स्पर्शित हैं, ऐसा व्यवहारनय कहता है और जीव में कर्म न बंधे हैं न स्पर्शित हैं, ऐसा शुद्धनय का वचन है।
भावार्थ—व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव कर्मों से बंधा हुआ है, संसारी है, मनुष्य-देव आदि पर्यायों में है किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा से यह जीव कर्मों से बंधा न होने से सदा शिव है, शुद्ध है, मुक्त है, नित्य-निरंजन भगवान आत्मा है, ऐसा समझना। यह शुद्धनय आत्मा की शक्ति को कहने वाला है जैसे कि बीज ही वृक्ष है और दूध ही घी है इत्यादि।
समयसार कौन है ?
कम्मं बद्धमबद्धं, जीवे एवं तु जाण णयपक्खं।
पक्खातिक्कंतो पुण, भण्णदि जो सो समयसारो।।९१।।
(समयसार गाथा-१४२)
आत्मा में कर्म बंधे अथवा, निंह बंधे ज्ञान जो होता है।
नय पक्ष से ही पुद्गल कर्मों का, भान सभी को होता है।।
जो पुन: नयों के पक्षपात से, दूर हो चुके आत्मा हैं।
उनको ही समयसार कहते, वे ध्यानलीन शुद्धात्मा हैं।।९१।।
अर्थ—जीव में कर्म बंधे हुए हैं अथवा नहीं बंधे हैं, यह नयों का पक्ष है, ऐसा तुम जानो पुन: जो इन नयों के पक्ष से दूर हो चुके हैं, वे ही ‘समयसार’ हैं।
भावार्थ—शुद्धनय कहता है कि जीव शुद्ध है, अशुद्धनय कहता है कि जीव अशुद्ध है। द्रव्यार्थिकनय से जीव नित्य है, पर्यायार्थिकनय से अनित्य है। इन नयों के विकल्पों से परे निर्विकल्प ध्यान में स्थित महामुनि ही ‘समयसार’ हैं। श्रीअमृतचंद्रसूरि ने १३ काव्यों में उभयनयों के पक्ष से रहित शुद्ध, आत्मतत्त्व के ध्यानी महामुनि का वर्णन किया है। चौथे, पाँचवें गुणस्थानवर्ती श्रावक तो क्या, छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि भी इस नय पक्ष से रहित समयसारस्वरूप नहीं हो पाते हैं।
कर्मबन्ध कहाँ तक है ?
जम्हा दु जहण्णादो, णाणगुणादो पुणोवि परिणमदि।
अण्णत्तं णाणगुणो, तेण दु सो बंधगो भणिदो।।९२।।
(समयसार गाथा-१७१)
जिस हेतु ज्ञान गुण पुन:, जघन्य ज्ञानगुण में आ जाता है।
होकर जघन्य से अन्य रूप, परिणमन ज्ञान कर जाता है।।
उस ही हेतु से वही ज्ञानगुण, कर्मबन्ध को करता है।
रागी भावों से दशम, गुणस्थानों तक बंधक रहता है।।९२।।
अर्थ—जिस हेतु से ज्ञानगुण पुनरपि जघन्य ज्ञानगुण से अन्यरूप परिणमन करता है इसी हेतु से वह ज्ञानगुण कर्मबन्ध को करने वाला कहा गया है।
भावार्थ—‘‘स तु यथाख्यातचारित्रावस्थायां अधस्तादवश्यंभाविराग-सद्भावात् बंधहेतुरेव स्यात्।’’ वह ज्ञानगुण यथाख्यातचारित्र ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान के पहले-पहले दसवें गुणस्थान तक बंध का हेतु ही है क्योंकि वहाँ तक रागभाव अवश्यंभावी है अत: समयसार के अबन्धक होने वाले ज्ञानी अविरत या श्रावक नहीं हैं प्रत्युत चतुर्थकालीन तद्भव मोक्षगामी महामुनि ही हो सकते हैं। आज तो मात्र वैसे बनने की भावना ही भायी जा सकती है।
कहाँ तक कर्म बंधते हैं ? पुनरपि स्पष्टीकरण—
दंसणणाण्ाचरित्तं, जं परिणमदे जहण्णभावेण।
णाणी तेण दु बज्झदि, पुग्गलकम्मेण विविहेण।।९३।।
(समयसार गाथा-१७२)
ये दर्शन-ज्ञान-चरण जिस, कारण से जघन्य कहलाते हैं।
उस कारण ही ज्ञानी आत्मा में, विविध कर्म बंध जाते हैं।।
क्योंकि सरागरत्नत्रय के, धारी मुनि कर्मबन्ध करते।
दशवें गुणस्थान उपरि के मुनि, निंह कर्मबंध को कर सकते।।९३।।
अर्थ—ये दर्शन, ज्ञान और चारित्र जिस कारण जघन्य भाव से परिणमन करते हैं, इस कारण ही ज्ञानी विविध पुद्गल कर्मों से बंधते रहते हैं।
भावार्थ—जब तक यह रत्नत्रय-सराग संयमरूप रहता है, तब तक उन ज्ञानी मुनि के भी कर्मों का बंध होता रहता है किन्तु जब यही रत्नत्रय वीतराग बन जाता है, तब वे ध्यानी महामुनि कर्मबंध से छूट जाते हैं।
यह सरागसंयम और कर्मबन्ध दसवें गुणस्थान तक होता है। आज सातवें गुणस्थान से ऊपर मुनि जा ही नहीं सकते हैं। समयसार पढ़ते समय ये दोनों गाथाएँ और श्रीअमृतचंद्र सूरि की टीका रट लेनी चाहिये।
िंहसा से पाप और अिंहसा से पुण्य बन्ध होता है—
मारिमि जीवावेमि य, सत्ते जं एवमज्झवसिदं ते।
तं पावबंधगं वा, पुण्णस्स व बंधगं होदि।।९४।।
(समयसार गाथा-२६१)
मैं जीव मारता हूँ अथवा, जिन्दा करता यह अहं भाव।
हे प्राणी जो तेरा ऐसा, अभिप्राय वही है बन्ध भाव।।
वह पापबन्ध औ पुण्य बन्ध, दोनों का करने वाला है।
शुभ-अशुभ भाव से पुण्य-पाप का, संचय करने वाला है।।९४।।
अर्थ—मैं जीवों को मारता हूँ या जिलाता हूँ, ऐसा जो तुम्हारा अभिप्राय है, वह पाप का बन्ध करने वाला है या पुण्य का बन्ध करने वाला है ?
भावार्थ—जीवों के मारने के भावों से पापकर्मों का बन्ध होता है और जीवों को जीवनदान-दयादान देने के भावों से पुण्यकर्मों का बन्ध होता है। ऐसे ही जीवों को दु:खी या सुखी करने के भावों से पाप या पुण्य कर्म बँधते रहते हैं अत: समयसार की इन गाथाओं से ‘जीवदया’ धर्म को अधर्म नहीं कहना चाहिये। यह गाथा िंहसा-अिंहसारूप अव्रत-व्रत को कहने वाली है। आगे शेष चार व्रतों को कहते हैं।
असत्य आदि चार पापों से पाप ही बंधता है—
एवमलिये अदत्ते, अबंभचेरे परिग्गहे चेव।
कीरइ अज्झवसाणं, जं तेण दु बज्झए पावं।।९५।।
(समयसार गाथा-२६३)
इस िंहसा अव्रत के समान ही, अन्य पाप बतलाए हैं।
जिसमें असत्य-चोरी-कुशील, परिग्रह ये नाम गिनाए हैं।।
इनके करने से पाप कर्म का, बन्ध सदा होता रहता।
इनसे विरक्त होकर प्राणी, अणुव्रत-महाव्रत धारण करता।।९५।।
अर्थ—इसी िंहसा के समान ही असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह में जो भाव किये जाते हैं, उनसे पापकर्म का बन्ध होता है।
भावार्थ—पाप पाँच ही हैं—िंहसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, ये अनादिकाल से जीव के साथ लगे हुए हैं। जब तक महाव्रत या अणुव्रत नहीं लिये जाते हैं, तब तक ‘एक्के भावे अणाचारे’१ एक भाव अनाचार है, इसके अनुसार व्रतों से रहित अनाचाररूप प्रवृत्ति करते रहने से पाप का बंध होता ही रहता है क्योंकि व्रतों को भंग करना अनाचार है और व्रतों को नहीं ग्रहण करना भी अनाचार है।
सत्य आदि चार व्रतों से पुण्य बंधता है—
तहवि व सच्चे दत्ते, बह्मे अपरिग्गहत्तणे चेव।
कीरइ अज्झवसाणं, जं तेण दु बज्झए पुण्णं।।९६।।
(समयसार गाथा-२६४)
ऐसे ही अिंहसा के समान, व्रत और बताए जाते हैं।
जिनमें हैं सत्य-अचौर्य-शील, अपरिग्रह को समझाते हैं।।
ये व्रत धारण करने से मानव, व्रती पुरुष कहलाते हैं।
प्रतिसमय पुण्य का बन्ध करें, अंतिम शिवफल पा जाते हैं।।९६।।
अर्थ—उसी प्रकार अिंहसा के सदृश ही सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह में जो परिणाम होते हैं, उनसे पुण्य का बन्ध होता है।
भावार्थ—पूर्व के पाँचों पापों के त्याग से पाँच महाव्रत होते हैं। ये महाव्रत दिगम्बर जैन मुनियों के ही होते हैं। इनसे पुण्य का बन्ध तो होता ही है, साथ ही घटिका यंत्र के जल के समान प्रतिसमय असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा भी होती है क्योंकि महाव्रती मुनि ही कर्मों से छूटते हैं न कि श्रावक या अव्रती, अत: पुण्यबन्ध से डरकर व्रती नहीं बनना यह बुद्धिमानी नहीं है।
निर्विकल्पध्यानी महामुनि ही कर्मों से छूटते हैं—
एदाणि णत्थि जेसिं, अज्झवसाणाणि एवमादीणि।
ते असुहेण सुहेण व, कम्मेण मुणी ण लिप्पंति।।९७।।
(समयसार गाथा-२७०)
ये अध्यवसानादिक जितने भी, भाव कहे जिन आगम में।
उन भावों का अस्तित्व नहीं है, जिस मुनि के अन्तर्मन में।।
ऐसे मुनिवर शुभ-अशुभ कर्म के, बन्धन से निंह बंधते हैं।
वे शुक्लध्यान से घातिकर्म को, नाश केवली बनते हैं।।९७।।
अर्थ—ये िंहसा-अिंहसा आदि अनेक प्रकार के जितने भी भाव हैं, वे जिनके नहीं हैं, ऐसे मुनिराज अशुभ अथवा शुभ कर्मों से नहीं बंधते हैं।
भावार्थ—ये शुभ-अशुभ परिणाम जहाँ नहीं हैं, जहाँ ध्यान, ध्याता, ध्येय का विकल्प भी नहीं है, ऐसे निर्विकल्प ध्यान की स्थिति में तन्मय हुए बारहवें गुणस्थानवर्ती महामुनि ही शुभ-अशुभ कर्मों से नहीं बंधते हैं प्रत्युत घातिया कर्मों का नाशकर वे केवली भगवान बन जाते हैं। आज के सम्यग्दृष्टि श्रावक को तो क्या, मुनियों को भी ऐसा ध्यान सम्भव नहीं है। आज तो पापों को छोड़ अणुव्रती या महाव्रती अवश्य बनना चाहिये।
मात्र द्रव्यलिंग ही मोक्षमार्ग नहीं है—
ण वि एस मोक्खमग्गो, पाखंडीगिहिमयाणि लिंगाणि।
दंसणणाणचरित्ताणि, मोक्खमग्गं जिणा विंति।।९८।।
(समयसार गाथा-४१०)
मुनि लिंग और गृहिलिंगरूप, जो द्रव्यलिंग बतलाए हैं।
इनको निंह मोक्षमार्ग माना, ये साधन म्ाात्र बताए हैं।।
लेकिन दर्शन अरु ज्ञान-चरणमय, रत्नत्रय ही शिवपथ है।
जिनमुनियों में यह रत्नत्रय, वे ही पा जाते शिवमग हैं।।९८।।
अर्थ—मुनिलिंग और गृहिलिंगरूप द्रव्यलिंग ये मोक्षमार्ग नहीं हैं किन्तु दर्शन, ज्ञान और चारित्रमय रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
भावार्थ—यहाँ पाखण्डीलिंग शब्द से टीकाकारों ने दिगम्बर मुनिलिंग और गृहिलिंग से क्षुल्लक आदि के लिंग को लिया है। यदि ये मात्र द्रव्यलिंग ही हैं तो मोक्षमार्ग नहीं है क्योंकि रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है। हाँ, यदि यह रत्नत्रय होगा तो इन दोनों प्रकार के लिंग में—वेश में ही होगा, अन्य कुत्सित-कपोलकल्पित वेषों में नहीं होगा, यह बात ध्यान में रखना चाहिए। इसे ही कहते हैं—
दिगम्बर मुद्रा ही मोक्षमार्ग है—
णवि सिज्झइ वत्थधरो, जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो।
णग्गो विमोक्खमग्गो, सेसा उम्मग्गया सव्वे।।९९।।
(सूत्रपाहुड़ गाथा-२३)
यदि तीर्थंकर भी वस्त्रधारि हैं, मोक्ष प्राप्त निंह कर सकते।
ऐसा जिनशासन में माना, निंह मिथ्या उनको कह सकते।।
बस एक नग्न मुद्रा से ही, मुक्ती का मारग मिल सकता।
बाकी के सब उन्मार्गों से, भव-भव का भ्रमण हुआ करता।।९९।।
अर्थ—जिनशासन में ऐसा कहा है कि यदि तीर्थंकर भी वस्त्रधारी हैं, तो वे मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। एक नग्नमुद्रा ही मोक्षमार्ग है, शेष सभी वेष उन्मार्ग हैं—मिथ्यामार्ग हैं।
भावार्थ—तीर्थंकर देव मति, श्रुत, अवधिज्ञानधारी होकर भी जब तक सर्व-परिग्रह छोड़कर निर्ग्रंथ दिगम्बर मुनि नहीं बनते हैं, तब तक मोक्ष प्राप्ति नहीं कर सकते हैं अत: दिगम्बर मुद्रा के सिवाय सर्व अनेक प्रकार के साधुवेष दिगम्बर मत से बाह्य हैं, उनसे मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती है। इससे व्यवहारनय और व्यवहारवेष का बहुत बड़ा मूल्यांकन किया गया है।
मुनिवेष व्यवहारनय से मोक्ष का कारण है—
ववहारिओ पुण णओ, दोण्णिवि लिंगाणि भणइ मोक्खपहे।
णिच्छयणओ ण इच्छइ, मोक्खपहे सव्वलिंगाणि।।१००।।
(समयसार गाथा-४१४)
व्यवहार पुन: दोनों लिंगों को, मोक्षमार्ग में मान रहा।
क्योंकि इनमें ही रत्नत्रय अरु, ध्यानसिद्धि का ज्ञान कहा।।
लेकिन निश्चयनय शिवपथ में, निंह लिंग कोई स्वीकार करे।
क्योंकि निश्चय तो वीतराग, शुद्धात्मा में विश्वास करे।।१००।।
अर्थ—व्यवहारनय पुन: दोनों ही लिंगों को मोक्षमार्ग में मानता है और निश्चयनय सभी लिंगों को मोक्षमार्ग में स्वीकार नहीं करता है।
भावार्थ—मुनिवेष और क्षुल्लक आदिरूप श्रावक के वेष व्यवहारनय की अपेक्षा से मोक्ष के कारण हैं क्योंकि इन वेषों के बिना रत्नत्रयधर्म और धर्म-शुक्लध्यान की सिद्धि असम्भव है फिर भी निश्चयनय मोक्षमार्ग में इन किसी वेष को स्वीकार नहीं करता है क्योंकि निश्चयनय मात्र निर्विकल्प ध्यानरूप वीतराग अवस्था को ही मोक्षमार्ग कहता है फिर भी यह अवस्था मुनिवेषधारी महामुनि के ही होगी क्योंकि तीर्थंकर भी दिगम्बर दीक्षा लेते ही हैं और कुन्दकुन्ददेव भी दिगम्बर मुनि ही थे।