पडिकमणपहुदिकिरियं, कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं।
तेण दु विरागचरिए, समणो अब्भुट्ठिदो होदि।।
(नियमसार गाथा-१५२)
निश्चयनय आश्रय से जो, प्रतिक्रमणादि क्रियाएँ होती हैं।
निश्चयचरित्रधारी मुनि के वे, सभी क्रियाएँ होती हैं।।
इस हेतु उन्हें ही वीतराग, मुनि की संज्ञा मिल जाती है।
श्रेणी में चढ़कर क्षण भर में, अर्हंत अवस्था आती है।।
अर्थ—निश्चयनयाश्रित प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को करने वाले के निश्चयनय का चारित्र होता है, इसी हेतु मुनि वीतराग चारित्र में स्थित होते हैं।
भावार्थ—पूर्व में निर्विकल्प ध्यान को ही निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान आदि कहा है अत: ये निश्चयनयाश्रित चारित्र शुद्धोपयोग में ही होता है। यह सातवें गुणस्थान से शुरू होकर बारहवें गुणस्थान में पूर्ण होता है और ये सप्तम आदि गुणस्थान भी छठे गुणस्थानवर्ती दिगम्बर मुनि के ही सम्भव है, गृहस्थों के नहीं।
जदि सक्कदि कादुं जे, पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं।
सत्तिविहीणो जा जदि, सद्दहणं चेव कायव्वं।।
(नियमसार गाथा-१५४)
यदि करना शक्य तुम्हें है तो, प्रतिक्रमण ध्यानमय ही कर लो।
जब तक करने की शक्ति नहीं, तब तक केवल श्रद्धा कर लो।।
इस हीन संहनन से तुमको, अध्यात्म ध्यान संभव निंह है।
शुद्धात्मा की श्रद्धा करना, इस युग में भी अशक्य नहिं है।।
अर्थ—यदि करना शक्य हो तो तुम्हें प्रतिक्रमण आदि ध्यानमय करना चाहिये और जब तक शक्ति नहीं है तब तक श्रद्धान ही करना चाहिये।
भावार्थ—इस गाथा में टीकाकार ने कहा है कि पंचमकाल में हीनसंहनन होने से अध्यात्मध्यान सम्भव नहीं है अत: अपनी शुद्ध आत्मा का श्रद्धान ही करना चाहिये। हाँ, दिगम्बर मुनि को सातवें गुणस्थान में निर्विकल्पध्यान सम्भव भी है किन्तु गृहस्थ के तो निर्विकल्प ध्यान असम्भव ही है अत: शुद्धात्मा की श्रद्धा और भावना ही करना उचित है।
चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दिट्ठो।
मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हि समो।।
(नियमसार गाथा-७)
चारित्र नियम से धर्म कहा, वह धर्म सदा समतामय है।
मिथ्यात्व मोह अरु क्षोभ रहित, आतम स्वभाव समतामय है।।
ऐसा ही यथाख्यात चारित, शुद्धात्मरूप कहलाता है।
यह साध्य तथा साधन सराग, चारित्र भाव कहलाता है।।
अर्थ—नियम से चारित्र ही धर्म है और जो धर्म है वह समता भाव ही है, ऐसा कहा गया है। मोह-मिथ्यात्व तथा क्षोभ, राग-द्वेष से रहित जो आत्मा का परिणाम है, वही समता भाव है।
भावार्थ—यहाँ चारित्र को ही धर्म कहा है। टीकाकारों ने चारित्र के दो भेद किये हैं—सरागचारित्र और वीतरागचारित्र। छठे गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक के मुनियों का चारित्र सरागचारित्र है। इससे आगे ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में वीतरागचारित्र है। यही चारित्र मिथ्यात्व, राग-द्वेष से रहित शुद्ध, साम्यपरिणामरूप यथाख्यात चारित्र कहलाता है। यह साध्य है और सरागचारित्र साधन है।
परिणमदि जेण दव्वं, तक्कालं तम्मयत्ति पण्णत्तं।
तह्मा धम्मपरिणदो, आदा धम्मो मुणेयव्वो।।
(नियमसार गाथा-८)
जिस समय द्रव्य जिस रूप, परिणमन करके परिणत होता है।
वह उसी काल में उसी रूप, परिणमता तन्मय होता है।।
इसलिये धर्म से परिणत आत्मा, धर्मरूप बन जाता है।
जैसे घृत युत मिट्टी का घट भी, घृत का घट कहलाता है।।
अर्थ—द्रव्य जिस काल में जिस रूप से परिणमन करता है वह उस काल में उसी रूप ही हो जाता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है इसलिये धर्म से परिणत आत्मा धर्म ही हो जाता है, ऐसा जानना चाहिये।
भावार्थ—शुभोपयोग और शुद्धोपयोग की अपेक्षा धर्म के दो भेद हैं अथवा एकदेश चारित्र और सकलचारित्र की अपेक्षा भी दो भेद होते हैं। यह आत्मा जब जिस धर्म से परिणत होता है वह उस समय तन्मय—तद्रूप ही माना जाता है। यहाँ तो टीकाकारों ने मुनियों के सरागचारित्र और वीतरागचारित्र को ही लिया है।
धम्मादीसद्दहणं, सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं।
चिट्ठा तवं हि चरिया, ववहारो मोक्खमग्गोत्ति।।
(पंचास्तिकाय गाथा-१६०)
धर्मादिक द्रव्यों की श्रद्धा, करना सम्यक्त्व कहाता है।
अंगादिपूर्व का ज्ञान करो, वह सम्यग्ज्ञान कहाता है।।
तप-संयम में प्रवृत्ति करना, सम्यक्चारित्र कहलाता है।
इन तीनों से युत मुक्ति का, व्यवहारमार्ग बन जाता है।।
अर्थ—धर्म, अधर्म आदि का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है, अंग-पूर्व का ज्ञान होना ज्ञान है और तप में प्रवृत्ति करना चारित्र है, यह व्यवहार मोक्षमार्ग है।
भावार्थ—वीतराग सर्वज्ञदेव प्रणीत तत्त्वों का श्रद्धान और ज्ञान ये दोनों मुनि तथा गृहस्थ दोनों में होते हैं किन्तु अंग-पूर्व का ज्ञान मुनियों को ही होता है। आर्यिकाओं को अंग का ज्ञान हो सकता है, पूर्व का नहीं। पंचमहाव्रत आदि चारित्र छठे-सातवें गुणस्थान योग्य मुनियों के होता है और श्रावक के दान, शील, पूजा, उपवासरूप या ग्यारह प्रतिमारूप चारित्र होता है। मुनियों के व्यवहार रत्नत्रय के बिना निश्चय रत्नत्रय असम्भव है अत: यह व्यवहार साधन है।
णिच्चयणयेण भणिदो, तिहि तेिंह समाहिदो हु जो अप्पा।
ण कुणदि किंचिवि अण्णं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गोत्ति।।
(पंचास्तिकाय गाथा-१६१)
जो आत्मा इस रत्नत्रय में, एकाग्र परिणती करता है।
उसमें ही तन्मय होकर वह, नाEह अन्य कार्य कुछ करता है।।
इच्छापूर्वक तजता भी निंह, वह निश्चय मोक्षमार्ग जानो।
जैसे फल आने के पहले, फूलों को तुम कारण मानो।।
अर्थ—जो आत्मा इन तीनों—दर्शन, ज्ञान, चारित्र से एकाग्र परिणत होता हुआ अन्य कुछ भी न करता है और न छोड़ता ही है, वह निश्चय से मोक्षमार्ग है।
भावार्थ—‘‘अतो निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गयो: साध्यसाधनभावो नितरामुपपन्न:।’’ इसलिये निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्ग में साध्यसाधन भाव अतिशयरूप से घटित होता है। मुनि ही व्यवहार रत्नत्रय को धारण कर एकाग्रध्यान में स्थित होकर निश्चय रत्नत्रय या निश्चय मोक्षमार्ग में परिणत हो जाते हैं। जैसे फल आने के लिये फूल कारण है वैसे ही निश्चय रत्नत्रय के लिये व्यवहार रत्नत्रय कारण है। यहाँ ऐसा क्रम समझने के लिये ये दो गाथाएँ हैं।
सुहजोगस्स पवित्ती, संवरणं कुणदि असुहजोगस्स।
सुहजोगस्स णिरोहो, सुद्धुवजोगेण संभवदि।।
(द्बादश अनुप्रेक्षा गाथा-६३)
जब जीव मन, वचन और काय की, शुभ प्रवृत्ति को करता है।
तब अशुभ योग का स्वयं रूप से, ही निरोध वह करता है।।
शुद्धोपयोग में वही जीव जब, स्थिर चित्त हो जाता है।
तब शुभ योगों का भी निरोध, स्वयमेव जीव कर पाता है।।
अर्थ—शुभ योग की प्रवृत्ति अशुभ योग का निरोध करती है, पुन: शुद्धोपयोग के द्वारा शुभ योग का निरोध संभव है।
भावार्थ—अशुभ क्रियायोग हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि पापों के त्याग से पुण्य होता है और पुण्य से शुभोपयोग होता है। यह ध्यान में ही होता है अत: महामुनि के ही शुद्धोपयोग के द्वारा पाप-पुण्य दोनों का संवर हो जाता है।
जं अण्णाणी कम्मं, खवेइ भवसयसहस्सकोडीिंह।
तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ उस्सासमेत्तेण।।
(प्रवचनसार गाथा-२३८)
अज्ञानी आत्मा उन कर्मों को, लाखों भव में नष्ट करे।
ज्ञानी आत्मा उन कर्मों को, उच्छ्वास मात्र में नष्ट करे।।
क्योंकी वे तीन गुप्तियों से, संयुक्त महामुनि होते हैं।
अपने शुद्धात्म ध्यान बल पर, वे ही कर्मों को धोते हैं।।
अर्थ—अज्ञानी जीव जितने कर्मों को लाखों-करोड़ों भवों में नष्ट करता है, तीन गुप्तियों से सहित ज्ञानी जीव उतने कर्मों को उच्छ्वास मात्र में नष्ट कर देता है।
भावार्थ—यहाँ ‘ज्ञानी’ शब्द से तीन गुप्ति से सहित, शुद्धोपयोगी महाध्यानी महामुनि को ही लेना चाहिये न कि शब्दशास्त्र के ज्ञानी, जैसा कि ‘तििंह गुत्तो’ पद है अत: यह लक्षण चतुर्थकालीन उत्तम संहनन वाले जिनकल्पी महामुनि में ही घटेगा। उससे पूर्व आज के मुनियों को शुद्धध्यान की भावना करना ही शक्य है।
जीवो चरित्तदंसण, णाणट्ठिउ तं हि ससमयं जाण।
पुग्गलकम्मपदेस-ट्ठियं च तं जाण परसमयं।।
(समयसार गाथा-२)
जो आत्मा सम्यग्दर्शन ज्ञान, चरित में सुस्थित होते हैं।
उनको ही तुम स्वसमय जानो, वे निज में स्थित होते हैं।।
जो आत्मा पुद्गल कर्मप्रदेशों, में ही स्थित रहते हैं।
उन जीवों को अध्यात्म शास्त्र, ‘‘परसमय’’ शब्द से कहते हैं।।
अर्थ—दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थित जो जीव हैं, उसे ही तुम स्वसमय जानो और पुद्गल कर्म के प्रदेशों में स्थित जो जीव हैं, उन्हें ‘परसमय’ समझो।
भावार्थ—केवलज्ञान को उत्पन्न करने में समर्थ जो भेद विज्ञानरूप निश्चय रत्नत्रय है, जो कि बारहवें गुणस्थान में स्थित वीतरागचारित्रस्वरूप है वही ‘स्वसमय’ है, उसके अतिरिक्त सभी जीव ‘परसमय’ हैं अथवा शुद्धात्मा का जो स्वरूप है वही ‘स्वसमय’ है, शेष नर-नारक आदि पर्यायों में स्थित जीव ‘परसमय’ हैं।
जो सव्वसंगमुक्को, णण्णमणो अप्पणं सहावेण।
जाणदि पस्सदि णियदं, सो सगचरियं चरदि जीवो।।
(पंचास्तिकाय गाथा-१५८)
सम्पूर्ण परिग्रह तजकर जो, एकाग्रमना हो जाते हैं।
निश्चल होकर निज आत्मा में, स्वाभाविक भाव जगाते हैं।।
उनका ही दर्शन और ज्ञान, स्वचरित आचरण कहाता है।
वह निर्विकल्प ध्यानी बनकर, निश्चय रत्नत्रय पाता है।।
अर्थ—जो सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर एकाग्रमना होता हुआ स्वभाव से निश्चल होकर आत्मा को जानता है और देखता है, वह जीव स्वचरित का आचरण करता है।
भावार्थ—जो परिग्रहरहित मुनि आत्मध्यान में निश्चल होकर अपनी शुद्ध आत्मा को ही देखते-जानते हैं, वे स्वचरित में लीन हुए स्वरूपाचरण चारित्रधारी या स्वसमय कहलाते हैं। जो योगीन्द्र निर्विकल्पध्यानी होते हैं, वे निश्चय रत्नत्रयधारी हैं। ‘‘अतएव उभयनयायत्ता परमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति।’’ इसलिये परमेश्वर की तीर्थ-प्रवर्तना दोनों नयों के आश्रित ही हैं।
बहिरंतरप्पभेयं, परसमयं भण्णए जिणिंदेिंह।
परमप्पा सगसमयं, तब्भेयं जाण गुणट्ठाणे।।
(रयणसार गाथा-१२८)
जिनवर ने बहिरात्मा अन्तर, आत्मा दो भेद बताये हैं।
इन दोनों ही भेदों को जिनवर, ने परसमय बताए हैं।।
परमात्मा को स्वसमय माना, वे निज में स्थित रहते हैं।
अब इनको ही गुणस्थानों में, श्रीकुन्दकुन्द गुरु कहते हैं।।
अर्थ—श्री जिनेन्द्रदेव ने बहिरात्मा और अंतरात्मा इन दोनों भेदों को ‘परसमय’ कहा है और परमात्मा ‘स्वसमय’ है। अब इन भेदों को गुणस्थानों में समझो।
भावार्थ—आत्मा के तीन भेद हैं—बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। समय के दो भेद हैं—परसमय और स्वसमय। गुणस्थानों के १४ भेद हैं—मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली। इनसे परे सिद्ध भगवान होते हैं।
मिस्सोत्ति बाहिरप्पा, तरतमया तुरिय अंतरप्पजहण्णा।
सत्तेत्तिमज्झिमंतर, खीणुत्तर परमजिणसिद्धा।।
(रयणसार गाथा-१२९)
मिथ्यात्व मिश्र सासादन में, तरतमता से बहिरात्मा हैं।
अविरत सम्यग्दृष्टी प्राणी तो, जघन्य अन्तर आत्मा हैं।।
आगे के सात गुणस्थानों तक, मध्यम अन्तर आत्मा हैं।
हैं क्षीणमोह उत्तम एवं दो, और सिद्ध परमात्मा हैं।।
अर्थ—मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थान तक के जीव तरतमता से बहिरात्मा हैं। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जघन्य अंतरात्मा हैं। सात गुणस्थान तक—पाँचवें गुणस्थान वाले से ग्यारहवें तक मध्यम अंतरात्मा हैं और क्षीणमोह—बारहवें गुणस्थान वाले उत्तम अंतरात्मा हैं तथा तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान वाले और सिद्ध भगवान परमात्मा हैं।
भावार्थ—बारहवें गुणस्थान तक के महामुनि भी ‘परसमय’ ही हैं। अर्हंत- सिद्ध भगवान स्वसमय हैं, ऐसा समझना।
सुदपरिचिदाणुभूदा, सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा।
एयत्तस्सुवलंभो, णवरि ण सुलहो विहत्तस्स।।
(समयसार गाथा-४)
श्रुत-परिचित अरु अनुभूत काम-भोगों की सभी कथाएँ हैं।
इसलिये सुलभ हैं क्योंकि अनन्तों, बार सुनी चर्चाएँ हैं।।
लेकिन एकत्व शुद्ध निश्चय की, उपलब्धी नहिं सुलभ हुई।
क्योंकि शुद्धात्मा का परिचय, निंह हुआ अत: दुर्लभ ही रही।।
अर्थ—काम और भोग से सम्बन्धित कथा सभी जीवों के सुनने में, परिचय में और अनुभव में आई हुई है इसलिए सुलभ है किन्तु एक शुद्ध और सबसे भिन्न की उपलब्धि सुलभ नहीं है।
भावार्थ—सभी ने अनादिकाल से लेकर आज तक काम-भोगों की चर्चाएँ अनंत बार सुनी हैं, परिचय किया है और अनंतों बार ही उनको भोगा है किन्तु रत्नत्रयस्वरूप शुद्ध एक आत्मा का स्वरूप न तो सुना ही है, न परिचय में लिया है और न अपनी उस एक आत्मा का अनुभव ही किया है और न आत्मज्ञानी मुनियों की उपासना ही की है इसीलिये इस स्वात्मतत्त्व की प्राप्ति दुर्लभ है।
ववहारेणुवदिस्सइ, णाणिस्स चरित्तदंसणं णाणं।
णवि णाणं ण चरित्तं, ण दंसणं जाणगो सुद्धो।।
(समयसार गाथा-७)
ज्ञानी आत्मा के दर्शन-ज्ञान, चारित्र भाव जो माने हैं।
वे केवल व्यवहारिक नय से, आत्मा के भेद बखाने हैं।।
निश्चयनय से उसके न ज्ञान, निंह दर्शन और न चारित है।
वह ज्ञायक मात्र शुद्ध आत्मा, ऐसा आगम प्रतिपादित है।।
अर्थ—ज्ञानी जीव के दर्शन, ज्ञान और चारित्र—ये तीन भाव व्यवहारनय से कहे जाते हैं। निश्चयनय से तो उसके न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है वह तो मात्र ज्ञायक शुद्ध ही है।
भावार्थ—यहाँ व्यवहारनय कर्म की उपाधि को कहने वाला नहीं है, प्रत्युत् आत्मा के अनंत गुणों को भेदरूप कहने वाला है और निश्चयनय मात्र अभेद ज्ञानमात्र आत्मा को कहने वाला है अत: यह व्यवहारनय असत्य नहीं है, यह शुद्ध आत्मा १००८ या अनन्त गुणों को मानता है किन्तु अभेदग्राही शुद्ध निश्चयनय से आत्मा एक ज्ञानमात्र ही है।
ण वि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणुगो दु जो भावी।
एवं भणंति सुद्धं, णाओ जो सो उ सो चेव।।
(समयसार गाथा-६)
जो आत्मा का ज्ञायक स्वभाव, वह निंह प्रमत्त-अप्रमत्तरूप।
इसलिये शुद्ध कहते उसको, वह कभी न होता अन्य रूप।।
द्रव्यार्थिक शुद्ध नयाश्रय से शुभ, अशुभ भाव निंह करता है।
बस इसीलिए उन रूप भाव में, कभी नहीं परिणमता है।।
अर्थ—जो ज्ञायक भाव है वह अप्रमत्त भी नहीं है और न प्रमत्त ही है, इस प्रकार से उसे शुद्ध कहते हैं तथा जो यह ज्ञायक रूप से जाना गया है, वह वही है, अन्य कोई नहीं है।
भावार्थ—जो शुद्धद्रव्यार्थिकनय से शुभ-अशुभ भावरूप परिणमन नहीं करने से न प्रमत्त है, न अप्रमत्त है। प्रमत्त से यहाँ पहले से छठे गुणस्थान तक लेना और अप्रमत्त से सातवें से चौदहवें गुणस्थान तक लेना अत: यह ज्ञायक भाव गुणस्थानों से परे शुद्ध एक ज्ञानमात्र है, यही शुद्धात्मा है, ज्ञाता है ऐसा समझना। पूरे समयसार में इस एक ज्ञानमात्र आत्मा का ही वर्णन किया गया है।
जह णवि सक्कमणज्जो, अणज्जभासं विणा उ गाहेउं।
तह ववहारेण विणा, परमत्थुवएसणमसक्कं।।
(समयसार गाथा-८)
जैसे म्लेच्छों को म्लेच्छों की, भाषा बिन निंह समझा सकते।
वैसे ही व्यवहारी जन को, परमार्थ नहीं बतला सकते।।
उनको तो व्यवहारिक नय द्वारा, ही समझाया जा सकता।
क्रम-क्रम से संयम पालन कर, रत्नत्रय पाया जा सकता।।
अर्थ—जैसे म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा के बिना कुछ ग्रहण कराना—समझाना शक्य नहीं है वैसे ही व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश करना भी अशक्य ही है।
भावार्थ—आत्मा के दर्शन, ज्ञान, चारित्र—ये तीन गुण हैं, इस व्यवहारनय से ही आत्मा को एक अखण्ड ज्ञानमात्रस्वरूप तक पहुँचाया जा सकता है क्योंकि पहले भेदरत्नत्रय को ग्रहण कर ही मुनि अभेदरत्नत्रयरूप एक परमार्थ का ध्यान कर सकते हैं। बिना मुनि बने कोई भी शुक्लध्यानी नहीं हो सकते हैं, ऐसा यहाँ अभिप्राय है।
ववहारोऽभूयत्थो, भूयत्थो देसिहो दु सुद्धणओ।
भूयत्थमस्सिदो खलु, सम्माइट्ठी हवइ जीवो।।
(समयसार गाथा-११)
व्यवहार कहा है अभूतार्थ, भूतार्थ शुद्धनिश्चयनय है।
ऐसा मुनियों ने दिखलाया, व्यवहार और निश्चयनय है।।
भूतार्थ नयाश्रित हुआ जीव, निश्चय से सम्यग्दृष्टि है।
यह वीतराग मुनिवर में ही, घट सकती सम्यक्दृष्टि है।।
अर्थ—व्यवहारनय अभूतार्थ है और शुद्धनय भूतार्थ है, ऐसा मुनियों ने दिखलाया है। भूतार्थ के आश्रित हुआ जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि है।
भावार्थ—श्री जयसेनाचार्य ने व्यवहारनय के भूतार्थ और अभूतार्थ दो भेद तथा शुद्धनय के भी भूतार्थ और अभूतार्थ ऐसे दो भेद किये हैं अर्थात् भेदग्राही व्यवहार और उपाधिग्राही व्यवहार तथा शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय ऐसे चार भेद किये हैं। आगे अनेक स्थलों पर इनके प्रयोग किये गये हैं तथा शुद्धनय का आश्रय लेने वाले सम्यग्दृष्टि हैं, ऐसा कहने से वीतराग सम्यग्दृष्टि को लेना चाहिये क्योंकि व्यवहार के आश्रित जीव व्यवहार या सराग सम्यग्दृष्टि होते हैं।
सुद्धो सुद्धादेसो, णायव्वो परमभावदरिसीिंह।
ववहारदेसिदा पुण, जे दु अपरमेट्ठिदा भावे।।
(समयसार गाथा-१२)
शुद्धात्मा को कहने वाला, जो शुद्ध नयाश्रय माना है।
वह परमभावदर्शी मुनियों ने, ही सचमुच पहचाना है।।
जो अपरमभावों में मुनि हैं, उनका व्यवहार सहारा है।
क्रम से आश्रय लेने वालों ने, जीवन स्वयं सुधारा है।।
अर्थ—शुद्ध आत्मा को कहने वाला जो शुद्धनय है, वह परमभावदर्शी महापुरुषों के द्वारा जानने योग्य है पुन: जो अपरमभाव में स्थित हैं उनके लिये व्यवहारनय का उपदेश दिया गया है।
भावार्थ—अभेदरत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प ध्यान में स्थित बारहवें गुणस्थानवर्ती महामुनि शुद्धनय में स्थित हैं। अविरती श्रावक और छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज, इन सबके लिये व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है क्योंकि चतुर्थ से सप्तम गुणस्थान तक के सभी जीव अपरमभाव में स्थित हैं। श्री अमृतचंद्रसूरि ने भी कहा है कि व्यवहारनय से तीर्थ चलता है और निश्चयनय से तत्त्व को समझा जाता है।
भूयत्येणाभिगदा, जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जर, बंधो मोक्खो य सम्मत्तं।।
(समयसार गाथा-१३)
भूतार्थ से जाने जीव-अजीव, अरु पुण्य-पाप-आस्रव-संवर।
हैं बंध-निर्जरा और मोक्ष ये, सब पदार्थ माने सम्यक्।।
ये नव पदार्थ सम्यक्त्व प्राप्ति के, लिये सदा सहकारी हैं।
इन पर श्रद्धा करते रहने से, मुक्त हुए संसारी हैं।।
अर्थ—भूतार्थ—निश्चय से जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नव-पदार्थ ही सम्यक्त्व हैं।
भावार्थ—ये नव पदार्थ सम्यक्त्व के विषय हैं और कारण हैं इसलिये कारण में कार्य का उपचार कर देने से ये ही सम्यक्त्व कहे गये हैं किन्तु निश्चय से आत्मा का श्रद्धानरूप परिणाम ही सम्यक्त्व है। ये नव पदार्थ तीर्थवंदना के निमित्त होने से भूतार्थ हैं और महामुनि के निर्विकल्प ध्यान में अभूतार्थ हो जाते हैं क्योंकि वहाँ एक शुद्ध आत्मा ही अनुभव में आता है। ऐसे ही प्रमाण, नय, निक्षेप भी आगे ध्यान में अभूतार्थ हो जाते हैं। यहाँ भूतार्थ से अशुद्ध निश्चयनय लेना चाहिये क्योंकि शुद्ध निश्चयनय से नव तत्त्वों की व्यवस्था ही नहीं है।
कम्मे णोकम्मम्हि य, अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं।
जा एसा खलु बुद्धी, अप्पडिबुद्धो हवदि ताव।।
(समयसार गाथा-१९)
जो कर्म और नोकर्म आदि में, आत्मभावना होती है।
मैं कर्मरूप हूँ कर्म मेरे यह, अहम् भावना होती है।।
जब तक ऐसी बुद्धी रहती, तब तक अज्ञानी रहता है।
सम्यक् बुद्धी के आते ही, वह ज्ञानी भी बन सकता है।।
अर्थ—कर्म और नोकर्म—शरीर आदि में ‘यह मैं हूँ और ये मेरे हैं’ जब तक ऐसी बुद्धि रहती है तब तक यह जीव अप्रतिबुद्ध—अज्ञानी ही रहता है।
भावार्थ—शरीर और द्रव्यकर्म आदि को अपने समझना ‘यह शरीर ही मैं हूँ’ आत्मा और शरीर में एकरूपता है भेद नहीं है, ऐसी धारणा अज्ञान ही है—इसी का नाम मिथ्यात्व है। इससे यह अर्थ निकलता है कि जो शरीर और आत्मा को एक नहीं मानते, वे ज्ञानी हैं। आगे इसे ही पूर्व पक्ष में रखकर नयों की अपेक्षा समाधान दे रहे हैं।
जदि जीवो ण सरीरं, तित्थयरायरियसंथुदी चेव।
सव्ववि हवदि मिच्छा, तेण दु आदा हवदि देहो।।
(समयसार गाथा-२६)
यदि जीव शरीर नहीं है तो, तीर्थंकरादि स्तुति व्यर्थ।
आचार्यों के भी जो शरीर का, वंदन वह सब हुआ व्यर्थ।।
इसलिये आत्मा और शरीर को, एक रूप मैं समझ रहा।
हे गुरुवर! यदि ऐसा निंह तो, जिनवर शरीर क्यों पूज्य कहा ?।।
अर्थ—यदि जीव शरीर नहीं है तो तीर्थंकर और आचार्यों की जो स्तुति है, वह सभी मिथ्या हो जावेगी इसलिये आत्मा और शरीर एकरूप ही हैं, ऐसा शिष्य ने अपना पक्ष रखा है।
भावार्थ—यदि जीव और शरीर भिन्न हैं, एक नहीं हैं तो पुन: ‘द्वौ वुँâदेंदुतुषारहारधवलौ’ दो तीर्थंकर श्वेत वर्ण के हैं इत्यादि प्रकार से जो तीर्थंकरों की स्तुति है और ‘देसकुलजाइसुद्धा’ जो देश, कुल, जाति से शुद्ध हैं ऐसे आचार्य मेरा मंगल करें, इत्यादि स्तुतियाँ क्यों की जाती हैं ? ये स्तुतियाँ व्यर्थ ही हो जाएँगी ? ऐसा शिष्य के कहने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं।
ववहारणयो भासदि, जीवो देहो य हवदि खलु इक्को।
ण दु णिच्छयस्स जीवो, देहो य कदावि एकट्ठो।।
(समयसार गाथा-२७)
व्यवहारिक नय यह कहता है, जीव रू शरीर तो इक ही है।
लेकिन निश्चयनय कहता है, आत्मा-शरीर निंह एक रहे।।
निश्चय से तीनों कालों में ये, एक नहीं हो सकते हैं।
लेकिन व्यवहार बिना जिनवर की, स्तुति निंह कर सकते हैं।।
अर्थ—व्यवहारनय कहता है कि जीव और शरीर एक ही हैं किन्तु निश्चयनय कहता है कि ये जीव और शरीर किसी काल में भी एक नहीं हो सकते हैं।
भावार्थ—जो स्तुति, वंदना, भक्ति आदि क्रियाएँ हैं ये सब व्यवहारनय की अपेक्षा से ही होती हैं। निश्चयनय से तो आत्मा स्वयं सिद्ध है, शुद्ध है अत: स्तुति आदि की आवश्यकता ही नहीं है। मुनिराज निश्चयनय का अवलम्बन लेकर मात्र शुद्धात्मा के ध्यान में स्थित होकर केवलज्ञानी हो जाते हैं।
कत्ता भोत्ता आदा, पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा।
कम्मजभावेणादा, कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो।।
(नियमसार गाथा-१८)
आत्मा व्यवहार नयाश्रय से, पुद्गल कर्मों का कर्ता है।
भोक्ता भी है क्योंकि कर्मों के, सुख-दुख फल का भर्ता है।।
कर्मोदय से उत्पन्न हुए, रागादि भाव जो आत्मा के।
निश्चयनय से उन कर्मों का, कर्त्ता भोक्तापन आत्मा में।।
अर्थ—आत्मा व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता है। यही आत्मा निश्चयनय से कर्म से उत्पन्न हुये भावों का कर्त्ता और भोक्ता है।
भावार्थ—ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मों का उपादान कारण पुद्गल ही है किन्तु निमित्त कारण आत्मा है अत: व्यवहारनय से यह आत्मा ही कर्मों का कर्त्ता-भोक्ता है, पुन: कर्मोदय से हुए जो रागादिभाव हैं, उन भाव कर्मों का कर्ता-भोक्ता आत्मा निश्चयनय से ही है क्योंकि इन भावों का उपादान कारण आत्मा है और निमित्त कारण कर्मों का उदय है। यहाँ निश्चयनय से अशुद्ध निश्चयनय लेना क्योंकि शुद्ध निश्चयनय से आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध है ही नहीं।
एको मे सासदो अप्पा, णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा।।
(नियमसार गाथा-१०२)
मेरा आत्मा बस एक अकेला, शाश्वत है अविनाशी है।
दर्शन सुज्ञान लक्षण वाला, स्वाभाविक ज्ञानप्रकाशी है।।
हैं शेष सभी संयोगजन्य, लक्षण वाले जो भाव कहे।
मेरी आत्मा से भिन्न भाव, होने से मुझसे बाह्य रहें।।
अर्थ—मेरा आत्मा एक अकेला, शाश्वत है, ज्ञानदर्शन लक्षण वाला है, शेष सभी भाव संयोग लक्षण वाले हैं अत: वे मेरे से बाह्य हैं।
भावार्थ—यह आत्मा अविनाशी है, ज्ञान-दर्शन लक्षण से जाना जाता है। बाकी जितने भी भाव दिखते हैं क्रोध, मान आदि अथवा इन्द्रियजन्य सुख आदि के अनुभव से हुए हर्ष-विषादादि, ये सभी भाव कर्मों के संयोग सम्बन्ध से उत्पन्न होते हैं, अत: ये मेरी आत्मा से भिन्न ही हैं, इसे ही पुन: दूसरे शब्दों में कहते हैं।
अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइयो सदारूवी।
णवि अत्थि मज्झकिंचिवि, अण्णं परमाणुमित्तंपि।।
(समयसार गाथा-३८)
मैं हूँ अनादि से एक और, सब कर्ममलों से रहित शुद्ध।
मैं दर्शन-ज्ञानस्वरूपी हूँ, अरु सदा अमूर्तिक स्वयंबुद्ध।।
कुछ अन्य और परमाणुमात्र भी, मेरे निंह हो सकते हैं।
निश्चयनय से यह आत्मभावना, सब प्राणी कर सकते हैं।।
अर्थ—मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन-ज्ञानमयी हूँ और सदा ही अमूर्तिक हूँ। अन्य कुछ परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है।
भावार्थ—मैं अनादिकाल से एक—अकेला ही हूँ, कर्ममल से रहित होने से शुद्ध हूँ, ज्ञानदर्शनस्वरूप हूँ और वर्ण, रस आदि से रहित होने से अमूर्तिक हूँ। अन्य पुद्गल द्रव्यादि अणुमात्र भी मेरे नहीं हैं।
यह गाथा सतत् हृदयपटल पर अंकित कर लेनी चाहिये। इससे सर्व समस्याओं में मानसिक शांति मिलेगी और आत्मबल बढ़ेगा।
ववहारस्स दरीसण, मुवएसो वण्णिदो जिणवरेिंह।
जीवा एदे सव्वे, अज्झवसाणादओ भावा।।
(समयसार गाथा-४१)
ये जो रागद्वेषादि भाव, नर-नारक आदिक पर्याएँ।
ये सभी जीव में होती हैं, इसलिये जीव की कहलाएँ।।
ऐसा श्री जिनवर ने व्यवहारिक, नय से ही बतलाया है।
है तीर्थप्रवृत्ति में निमित्त, इसलिये इसे समझाया है।।
अर्थ—ये सब जो राग-द्वेष आदि भाव और नर-नारक आदि पर्याएँ हैं, वे सब जीव के ही हैं, ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेव ने जो कहा है वह व्यवहारनय का मत है।
भावार्थ—श्रीअमृतचंद्र सूरि ने कहा है कि ‘व्यवहारो हि… तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव।’ व्यवहारनय तीर्थप्रवृत्ति में निमित्त है अत: उसको कहना उचित ही है अन्यथा निश्चय से तो शरीर से जीव भिन्न है पुन: त्रस-स्थावर जीवों को राख के समान मर्दित कर देने से न हिंसा होगी, न पापबन्ध होगा और तब संसारी जीव का मोक्ष के लिये प्रयास करना ही व्यर्थ हो जायेगा इसलिये व्यवहारनय को कहना प्रयोजनीभूत ही है।
अरसमरूवमगंधं, अव्वत्तं चेदणाण्गुणमसद्दं।
जाण अलिंगग्गहणं, जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।।
(समयसार गाथा-४९)
यह जीव रूप, रस, गन्ध रहित, अरु शब्द रहित शुद्धात्मा है।
इन्द्रियगोचर भी नहीं चेतना-गुण से सहित चिदात्मा है।।
उस आत्मा को निंह किसी लिंग से, ग्रहण किया जा सकता है।
आकार रहित उस आत्मा को, शुद्धात्मा ही पा सकता है।।
अर्थ—यह जीव रसरहित, रूपरहित, गंधरहित, इन्द्रियों के अगोचर और शब्दरहित है, चेतनागुण सहित है तथा किसी भी लिंग—चिन्ह से ग्रहण नहीं किया जाता है और आकार से भी रहित है, ऐसा तुम जानो।
भावार्थ—ये रस, रूप, गंध, शब्द आदि पुद्गल के गुण और पर्याएँ हैं। जीव शुद्धनय से या स्वभाव से इन सबसे रहित है और चेतनागुण से सहित है। जैसे जल का स्वभाव शीतल है किन्तु अग्नि के सम्पर्क में गरम होकर अग्नि के समान काम कर देता है वैसे ही संसारी जीव पुद्गल कर्म के सम्पर्क में अपने शुद्ध स्वभाव को छोड़कर शरीरधारी अशुद्ध हो रहा है अत: यह गाथा शुद्धनय से शुद्ध जीव का स्वरूप्ा बतलाने वाली है।
जीवणिबद्धा एए, अधुव अणिच्चा तहा असरणा य।
दुक्खा दुक्खफला त्ति य, णादूण णिवत्तए तेिंह।।
(समयसार गाथा-७४)
जो ये कर्मों के आस्रव हैं, वे जीव से ही संबंधित हैं।
अध्रुव अनित्य अशरण दु:ख, औ दु:ख फल से आत्मा मिश्रित है।।
ज्ञानी आत्मा यह बात समझकर, उनसे दूर हुआ करता।
तब ही वह आस्रव का निरोध कर, संवर भाव किया करता।।
अर्थ—जो ये कर्मों के आस्रव हैं, वे जीव से सम्बन्धित हैं, अध्रुव हैं, अनित्य हैं, अशरण हैं, दु:खरूप हैं और दु:खों के फलस्वरूप हैं, ऐसा जानकर ज्ञानी उनसे दूर हो जाता है।
भावार्थ—यह जीव ध्रुव—चैतन्यमात्र है, नित्य है, सुखमय है और सुख के फलरूप है। इससे विपरीत कर्मास्रव अध्रुव व आदिस्वरूप हैं। ज्ञानी मुनिराज इन दोनों के अन्तर को जानकर आस्रव से दूर होकर ज्ञानस्वरूप आत्मा के ध्यान में तल्लीन हो जाते हैं तभी वे आस्रव का निरोध कर पूर्ण संवर करके मोक्ष की प्राप्ति कर लेते हैं। श्री अमृतचंद्रसूरि ने कहा है कि ‘ज्ञानास्रवनिर्वृत्त्यो: समकालत्वं’ ज्ञान और आस्रव का अभाव इन दोनों का एक काल है अत: यह अवस्था महामुनि के चतुर्थकाल में ही संभव है।
सामण्णपच्चया खलु, चउरो भण्णंति बंधकत्तारो।
मिच्छत्तं अविरमणं, कसायजोगा य बोद्धव्वा।।
(समयसार गाथा-१०९)
सामान्य रूप से कर्मबन्ध के, कारण चार कहाए हैं।
उनको श्री जिनवर ने प्रत्यय, संबोधन से बतलाए हैं।।
मिथ्यात्व और अविरति-कषाय, अरु योग बन्ध के कारण हैं।
इनके यदि भेद-प्रभेद करें तो, हो जाते सत्तावन हैं।।
अर्थ—बंध के करने वाले सामान्य प्रत्यय—सामान्य कारण चार हैं। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ऐसा जानना चाहिये।
भावार्थ—सामान्य रूप से बंध के कारण चार हैं तथा इनके भेद-प्रभेद अनेक हैं, ये विशेष कहलाते हैं। मिथ्यात्व के ५, अविरति के १२, कषाय के २५ और योग के १५ ऐसे ५७ भेद हो जाते हैं। आस्रव के भी ये ही ५७ भेद हैं क्योंकि कर्मों का आना आस्रव है और आत्मा के प्रदेशों के साथ एकमेक हो जाना बंध है। जो मिथ्यात्व को बंध का कारण नहीं मानते हैं उन्हें श्रीकुन्दकुन्ददेव की इस गाथा पर ध्यान देना चाहिये।
जीवे कम्मं बद्धं, पुट्ठं चेदि ववहारणयभणिदं।
सुद्धणयस्स दु जीवे, अबद्धपुट्ठं हवइ कम्मं।।
(समयसार गाथा-१४१)
आत्मा में कर्म बंधे हैं अरु, आत्मा उनसे संस्पर्शित है।
व्यवहारिक नय यह कहता है, आत्मा की ही चारों गति हैं।।
लेकिन निश्चयनय कहता है, आत्मा में कर्म न बंधते हैं।
संस्पर्शित भी निंह है आत्मा, ऐसा श्री जिनवर कहते हैं।।
अर्थ—जीव में कर्म बंधे हैं और स्पर्शित हैं, ऐसा व्यवहारनय कहता है और जीव में कर्म न बंधे हैं न स्पर्शित हैं, ऐसा शुद्धनय का वचन है।
भावार्थ—व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव कर्मों से बंधा हुआ है, संसारी है, मनुष्य-देव आदि पर्यायों में है किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा से यह जीव कर्मों से बंधा न होने से सदाशिव है, शुद्ध है, मुक्त है, नित्य-निरंजन भगवान आत्मा है, ऐसा समझना। यह शुद्धनय आत्मा की शक्ति को कहने वाला है जैसे कि बीज ही वृक्ष है और दूध ही घी है इत्यादि।
कम्मं बद्धमबद्धं, जीवे एवं तु जाण णयपक्खं।
पक्खातिक्कंतो पुण, भण्णदि जो सो समयसारो।।
(समयसार गाथा-१४२)
आत्मा में कर्म बंधे अथवा, निंह बंधे ज्ञान जो होता है।
नय पक्ष से ही पुद्गल कर्मों का, भान सभी को होता है।।
जो पुन: नयों से पक्षपात से, दूर हो चुके आत्मा हैं।
उनको ही समयसार कहते, वे ध्यानलीन शुद्धात्मा हैं।।
अर्थ—जीव में कर्म बंधे हुए हैं अथवा नहीं बंधे हैं, यह नयों का पक्ष है ऐसा तुम जानो, पुन: जो इन नयों के पक्ष से दूर हो चुके हैं, वे ही ‘समयसार’ हैं।
भावार्थ—शुद्धनय कहता है कि जीव शुद्ध है, अशुद्धनय कहता है कि जीव अशुद्ध है। द्रव्यार्थिकनय से जीव नित्य है, पर्यायार्थिकनय से अनित्य है। इन नयों के विकल्पों से परे निर्विकल्प ध्यान में स्थित महामुनि ही ‘समयसार’ हैं। श्रीअमृतचंद्रसूरि ने १३ काव्यों में उभयनयों के पक्ष से रहित शुद्ध, आत्मतत्त्व के ध्यानी महामुनि का वर्णन किया है। चौथे, पाँचवें गुणस्थानवर्ती श्रावक तो क्या, छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि भी इस नय पक्ष से रहित समयसारस्वरूप नहीं हो पाते हैं।
जह्मा दु जहण्णादो, णाणगुणादो पुणोवि परिणमदि।
अण्णत्तं णाणगुणो, तेण दु सो बंधगो भणिदो।।
(समयसार गाथा-१७१)
जिस हेतु ज्ञान गुण पुन:, जघन्य ज्ञानगुण में आ जाता है।
होकर जघन्य से अन्य रूप, परिणमन ज्ञान कर जाता है।।
उस ही हेतु से वही ज्ञानगुण, कर्मबन्ध को करता है।
रागी भावों से दशम, गुणस्थानों तक बंधक रहता है।।
अर्थ—जिस हेतु से ज्ञानगुण पुनरपि जघन्य ज्ञानगुण से अन्यरूप परिणमन करता है इसी हेतु से वह ज्ञानगुण कर्मबन्ध को करने वाला कहा गया है।
भावार्थ—‘‘स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यंभाविराग-सद्भावात् बंधहेतुरेव स्यात्।’’ वह ज्ञानगुण यथाख्यातचारित्र ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान के पहले-पहले दसवें गुणस्थान तक बंध का हेतु ही है क्योंकि वहाँ तक रागभाव अवश्यंभावी है अत: समयसार के अबन्धक होने वाले ज्ञानी अविरत या श्रावक नहीं हैं प्रत्युत् चतुर्थकालीन तद्भव मोक्षगामी महामुनि ही हो सकते हैं। आज तो मात्र वैसे बनने की भावना ही भायी जा सकती है।
दंसणणाणचरित्तं, जं परिणमदे जहण्णभावेण।
णाणी तेण दु बज्झदि, पुग्गलकम्मेण विविहेण।।
(समयसार गाथा-१७२)
ये दर्शन-ज्ञान-चरण जिस, कारण से जघन्य कहलाते हैं।
उस कारण ही ज्ञानी आत्मा में, विविध कर्म बंध जाते हैं।।
क्योंकी सरागरत्नत्रय के, धारी मुनि कर्मबन्ध करते।
दशवें गुणस्थान उपरि के मुनि, निंह कर्मबंध को कर सकते।।
अर्थ—ये दर्शन, ज्ञान और चारित्र जिस कारण जघन्य भाव से परिणमन करते हैं इस कारण ही ज्ञानी विविध पुद्गल कर्मों से बंधते रहते हैं।
भावार्थ—जब तक यह रत्नत्रय-सराग संयमरूप रहता है तब तक उन ज्ञानी मुनि के भी कर्मों का बंध होता रहता है किन्तु जब यही रत्नत्रय वीतराग बन जाता है तब वे ध्यानी महामुनि कर्मबंध से छूट जाते हैं।
यह सरागसंयम और कर्मबन्ध दसवें गुणस्थान तक होता है। आज सातवें गुणस्थान से ऊपर मुनि जा ही नहीं सकते हैं। समयसार पढ़ते समय ये दोनों गाथाएँ और श्रीअमृतचंद्र सूरि की टीका रट लेनी चाहिये।
मारिमि जीवावेमि य, सत्ते जं एवमज्झवसिदं ते।
तं पावबंधगं वा, पुण्णस्स व बंधगं होदि।।
(समयसार गाथा-२६१)
मैं जीव मारता हूँ अथवा, जिन्दा करता यह अहं भाव।
हे प्राणी जो तेरा ऐसा, अभिप्राय वही है बन्ध भाव।।
वह पापबन्ध औ पुण्य बन्ध, दोनों का करने वाला है।
शुभ-अशुभ भाव से पुण्य-पाप का, संचय करने वाला है।।
अर्थ—मैं जीवों को मारता हूँ या जिलाता हूँ ऐसा जो तुम्हारा अभिप्राय है वह पाप का बन्ध करने वाला है या पुण्य का बन्ध करने वाला है ?
भावार्थ—जीवों के मारने के भावों से पाप कर्मों का बन्ध होता है और जीवों को जीवनदान-दयादान देने के भावों से पुण्य कर्मों का बन्ध होता है। ऐसे ही जीवों को दु:खी या सुखी करने के भावों से पाप या पुण्य कर्म बँधते रहते हैं अत: समयसार की इन गाथाओं से ‘जीवदया’ धर्म को अधर्म नहीं कहना चाहिये। यह गाथा िंहसा-अिंहसारूप अव्रत-व्रत को कहने वाली है। आगे शेष चार व्रतों को कहते हैं।
एवमलिये अदत्ते, अबंभचेरे परिग्गहे चेव।
कीरइ अज्झवसाणं, जं तेण दु बज्झए पावं।।
(समयसार गाथा-२६३)
इस हिंसा अव्रत के समान ही, अन्य पाप बतलाए हैं।
जिसमें असत्य-चोरी-कुशील, परिग्रह ये नाम गिनाए हैं।।
इनके करने से पाप कर्म का, बन्ध सदा होता रहता।
इनसे विरक्त होकर प्राणी, अणुव्रत-महाव्रत धारण करता।।
अर्थ—इसी िंहसा के समान ही असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह में जो भाव किये जाते हैं, उनसे पापकर्म का बन्ध होता है।
भावार्थ—पाप पाँच ही है—हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, ये अनादिकाल से जीव के साथ लगे हुए हैं। जब तक महाव्रत या अणुव्रत नहीं लिये जाते हैं तब तक ‘एक्के भावे अणाचारे’ एक भाव अनाचार है इसके अनुसार व्रतों से रहित अनाचाररूप प्रवृत्ति करते रहने से पाप का बंध होता ही रहता है क्योंकि व्रतों को भंग करना अनाचार है और व्रतों को नहीं ग्रहण करना भी अनाचार है।
तहवि व सच्चे दत्ते, ब्रह्मे अपरिग्गहत्तणे चेव।
कीरइ अज्झवसाणं, जं तेण दु बज्झए पुण्णं।।
(समयसार गाथा-२६४)
ऐसे ही अिंहसा के समान, व्रत और बताए जाते हैं।
जिनमें हैं सत्य-अचौर्य-शील, अपरिग्रह को समझाते हैं।।
ये व्रत धारण करने से मानव, व्रती पुरुष कहलाते हैं।
प्रतिसमय पुण्य का बन्ध करें, अंतिम शिवफल पा जाते हैं।।
अर्थ—उसी प्रकार अिंहसा के सदृश ही सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह में जो परिणाम होते हैं उनसे पुण्य का बन्ध होता है।
भावार्थ—पूर्व के पाँचों पापों के त्याग से पाँच महाव्रत होते हैं। ये महाव्रत दिगम्बर जैन मुनियों के ही होते हैं। इनसे पुण्य का बन्ध तो होता ही है, साथ ही घटिका यंत्र के जल के समान प्रतिसमय असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा भी होती है क्योंकि महाव्रती मुनि ही कर्मों से छूटते हैं न कि श्रावक या अव्रती, अत: पुण्यबन्ध से डरकर व्रती नहीं बनना यह बुद्धिमानी नहीं है।
एदाणि णत्थि जेसिं, अज्झवसाणाणि एवमादीणि।
ते असुहेण सुहेण व, कम्मेण मुणी ण लिप्पंति।।
(समयसार गाथा-२७०)
ये अध्यवसानादिक जितने भी, भाव कहे जिन आगम में।
उन भावों का अस्तित्व नहीं है, जिस मुनि के अन्तर्मन में।।
ऐसे मुनिवर शुभ-अशुभ कर्म के, बन्धन से निंह बंधते हैं।
वे शुक्लध्यान से घातिकर्म को, नाश केवली बनते हैं।।
अर्थ—ये हिंसा-अहिंसा आदि अनेक प्रकार के जितने भी भाव हैं, वे जिनके नहीं हैं ऐसे मुनिराज अशुभ अथवा शुभ कर्मों से नहीं बंधते हैं।
भावार्थ—ये शुभ-अशुभ परिणाम जहाँ नहीं हैं, जहाँ ध्यान, ध्याता, ध्येय का विकल्प भी नहीं है ऐसे निर्विकल्प ध्यान की स्थिति में तन्मय हुए बारहवें गुणस्थानवर्ती महामुनि ही शुभ-अशुभ कर्मों से नहीं बंधते हैं प्रत्युत् घातिया कर्मों का नाशकर वे केवली भगवान बन जाते हैं। आज के सम्यग्दृष्टि श्रावक को तो क्या, मुनियों को भी ऐसा ध्यान सम्भव नहीं है। आज तो पापों को छोड़ अणुव्रती या महाव्रती अवश्य बनना चाहिये।
ण वि एस मोक्खमग्गो, पाखंडीगिहिमयाणि लिंगाणि।
दंसणणाणचरित्तणि, मोक्खमग्गं जिणा विंति।।
(समयसार गाथा-४१०)
मुनि लिंग और गृहिलिंगरूप, जो द्रव्यलिंग बतलाए हैं।
इनक्रो निंह मोक्षमार्ग माना, ये साधन मात्र बताए हैं।।
लेकिन दर्शन अरु ज्ञान-चरणमय, रत्नत्रय ही शिवपथ है।
जिनमुनियों में यह रत्नत्रय, वे ही पा जाते शिवमग हैं।।
अर्थ—मुनिलिंग और गृहिलिंगरूप द्रव्यलिंग ये मोक्षमार्ग नहीं हैं किन्तु दर्शन, ज्ञान और चारित्रमय रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
भावार्थ—यहाँ पाखण्डीलिंग शब्द से टीकाकारों ने दिगम्बर मुनिलिंग और गृहिलिंग से क्षुल्लक आदि के लिंग को लिया है। यदि ये मात्र द्रव्यलिंग ही हैं तो मोक्षमार्ग नहीं हैं क्योंकि रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है। हाँ, यदि यह रत्नत्रय होगा तो इन दोनों प्रकार के लिंग में—वेश में ही होगा अन्य कुत्सित-कपोलकल्पित वेषों में नहीं होगा, यह बात ध्यान में रखना चाहिए। इसे ही कहते हैं—
णणि सिज्झइ वत्थधरो, जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो।
णग्गो विमोक्खमग्गो, सेसा उम्मग्गया सव्वे।।
(सूत्रपाहुड़ गाथा-२३)
यदि तीर्थंकर भी वस्त्रधारि हैं, मोक्ष प्राप्त निंह कर सकते।
ऐसा जिनशासन में माना, निंह मिथ्या उनको कह सकते।।
बस एक नग्न मुद्रा से ही, मुक्ती का मारग मिल सकता।
बाकी के सब उन्मार्गों से, भव-भव का भ्रमण हुआ करता।।
अर्थ—जिनशासन में ऐसा कहा है कि यदि तीर्थंकर भी वस्त्रधारी हैं तो वे मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। एक नग्नमुद्रा ही मोक्षमार्ग है, शेष सभी वेष उन्मार्ग हैं—मिथ्यामार्ग हैं।
भावार्थ—तीर्थंकर देव मति, श्रुत, अवधिज्ञानधारी होकर भी जब तक सर्व परिग्रह छोड़कर निर्ग्रंथ दिगम्बर मुनि नहीं बनते हैं तब तक मोक्ष प्राप्ति नहीं कर सकते हैं अत: दिगम्बर मुद्रा के सिवाय सर्व अनेक प्रकार के साधुवेश दिगम्बर मत से बाह्य हैं उनसे मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती है। इससे व्यवहारनय और व्यवहारवेष का बहुत बड़ा मूल्यांकन किया गया है।
ववहारिओ पुण णओ, दोण्णिवि लिंगाणि भणइ मोक्खपहे।
णिच्छयणओ ण इच्छइ, मोक्खपहे सव्वलिंगाणि।।
(समयसार गाथा-४१४)
व्यवहार पुन: दोनों लिंगों को, मोक्षमार्ग में मान रहा।
क्योंकि इनमें ही रत्नत्रय अरु, ध्यानसिद्धि का ज्ञान कहा।।
लेकिन निश्चयनय शिवपथ में, निंह लिंग कोई स्वीकार करे।
क्योंकि निश्चय तो वीतराग, शुद्धात्मा में विश्वास करे।।
अर्थ—व्यवहारनय पुन: दोनों ही लिंगों को मोक्षमार्ग में मानता है और निश्चयनय सभी लिंगों को मोक्षमार्ग में स्वीकार नहीं करता है।
भावार्थ—मुनिवेष और क्षुल्लक आदिरूप श्रावक के वेष व्यवहारनय की अपेक्षा से मोक्ष के कारण हैं क्योंकि इन वेषों के बिना रत्नत्रयधर्म और धर्म-शुक्लध्यान की सिद्धि असम्भव है फिर भी निश्चयनय मोक्षमार्ग में इन किसी वेष को स्वीकार नहीं करता है क्योंकि निश्चयनय मात्र निर्विकल्प ध्यानरूप वीतराग अवस्था को ही मोक्षमार्ग कहता है फिर भी यह अवस्था मुनिवेशधारी महामुनि के ही होगी क्योंकि तीर्थंकर भी दिगम्बर दीक्षा लेते ही हैं और कुन्दकुन्ददेव भी दिगम्बर मुनि ही थे।
वीतराग चारित्र का फल
उवओग विसुद्धो जो, विगदावरणंतरायमोहरओ।
भूदो सयमेवादा, जादि परं णेयभूदाणं।।
(प्रवचनसार गाथा-१५)
—शंभु छन्द—
जो महामुनी उपयोग विशुद्धी-पूर्वक ध्यान लगाते हैं।
उनके दर्शन-ज्ञानावरणी, अन्तराय-मोह नश जाते हैं।।
उस ही क्षण केवलज्ञान प्रगट, होता सर्वज्ञ कहाते हैं।
तब ज्ञेय पदार्थों के ज्ञाता, स्वयमेव प्रभो बन जाते हैं।।
अर्थ—जो उपयोग से विशुद्ध हैं, वे मोहनीय, दर्शनावरण, ज्ञानावरण और अंतराय को नष्ट करके स्वयं ही ज्ञेय पदार्थों के अन्त को प्राप्त कर लेते हैं।
भावार्थ—जब महामुनि शुद्धोपयोगी होकर निश्चल ध्यान में तन्मय हो जाते हैं तब वे मोहनीय कर्म को नष्ट कर बारहवें गुणस्थान में पहुँचकर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मों का नाश करके उसी क्षण में केवलज्ञान को प्रकट कर सर्वज्ञ भगवान बन जाते हैं पुन: ये सर्व लोक-अलोक को एक साथ जान लेते हैं।
तक्कालिगेव सव्वे, सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं।
वट्टंते ते णाणे, विसेसदो दव्वजादीणं।।
(प्रवचनसार गाथा-३७)
सर्वज्ञदेव के ज्ञान में, त्रैकालिक पर्याय झलकती हैं।
सम्पूर्ण भूत, भावी पर्याएँ, वर्तमान सम दिखती हैं।।
यदि ऐसा निंह मानें तो प्रभु का, दिव्यज्ञान वैâसे होगा ?।
बिन दिव्यज्ञान के जिनवर को, सम्पूर्ण ज्ञान वैâसे होगा ?।।
अर्थ—उन केवली भगवान के ज्ञान में सम्पूर्ण भूत और भविष्यत् पर्याएँ विशेष रीति से वर्तमान की पर्यायों के समान प्रतिभासित होती रहती हैं।
भावार्थ—सर्वज्ञ के ज्ञान में अतीतकालीन राम-रावण आदि भविष्यत्कालीन महापद्म तीर्थंकर आदि वर्तमान के समान प्रत्यक्ष झलक रहे हैं। यदि ऐसा न माना जाए तो पुन: ‘तं णाणं दिव्वं त्ति हि के परूवेंति’। उन सर्वज्ञ भगवान का ज्ञान दिव्य है—अलौकिक है ऐसा भला कौन कहेंगे ? अत: सर्वज्ञ भगवान का ज्ञान त्रैकालिक सर्व पर्यायों में एक समय में जानता है, इसमें संदेह नहीं करना।
पुण्णफला अरहंता, तेसिं किरिया पुणो हि ओदयिया।
मोहादीिंह विरहिया, तम्हा सा खाइगत्ति मदा।।
(प्रवचनसार गाथा-४५)
अरिहंत अवस्था पुण्य प्रकृति का, फल है यह निश्चय मानो।
उनकी प्रत्येक क्रियाएँ, औदयिकी कहलातीं यह जानो।।
मोहादिक से विरहित होने से, क्षायिक भी कहलाती हैं।
उन वीतराग की दिव्यध्वनि, आत्मा की ज्योति जलाती है।।
अर्थ—अरिहंत भगवान पुण्य प्रकृति के फल हैं और उनकी क्रियाएँ निश्चय से औदयिकी हैं क्योंकि वे मोहादि से रहित होने से क्षायिक मानी गयी हैं।
भावार्थ—अरिहंत भगवान तीर्थंकर प्रकृति पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के फल ही हैं। उनका श्रीविहार, उपदेश आदि क्रियाएँ पुण्योदय से होती हैं अत: औदयिकी हैं फिर भी मोह के अभाव में इच्छा के न होने से वे सब घातिकर्म के क्षय से हुई हैं अत: क्षायिकी मानी जाती हैं। ऐसे भगवान का श्रीविहार और दिव्य उपदेश अनंत जीवों के लिये सुखकर माना गया है।
जाणदि पस्सदि सव्वं, ववहारणएण केवली भगवं।
केवलणाणी जाणदि, पस्सदि णियमेण अप्पाणं।।
(नियमसार गाथा-१५९)
भगवान केवली सारे जग को, जान रहे अरु देख रहे।
निंह है असत्य व्यवहारिक नय, वह ही ऐसा स्वीकार करे।।
फिर वही केवली निज आत्मा को, जान रहे अरु देख रहे।
इस पूर्ण सत्य को निश्चयनय, निश्चय से ही स्वीकार करे।।
अर्थ—केवली भगवान व्यवहारनय से सारे विश्व को जानते हैं तथा देखते हैं और नियम से—निश्चयनय से केवली भगवान अपनी आत्मा को ही जानते-देखते हैं।
भावार्थ—यहाँ व्यवहारनय असत्य नहीं है, वह पराश्रित है ऐसा समझना अन्यथा सर्वज्ञ भगवान का सर्व लोकालोक का जानना-देखना झूठा मानना पड़ेगा इसलिये व्यवहारनय के अनेक भेदों को समझना चाहिये। ये सभी नय अपने-अपने विषय को कहने में सच्चे ही हैं, झूठे नहीं हैं। हाँ! जो व्यवहारनय उपाधि को ग्रहण करने वाला है, वह अपेक्षाकृत ही अभूतार्थ है।
आउस्स खयेण पुणो, णिण्णासो होइ सेसपयडीणं।
पच्छा पावइ सिग्घं, लोयग्गं समयमेत्तेण।।
(नियमसार गाथा-१७५)
अपनी आयूपर्यन्त केवली, समवसरण में रहते हैं।
आयू के क्षय के साथ शेष, कर्मों का क्षय भी करते हैं।।
पश्चात् शीघ्र ही समय मात्र में, लोक शिखर बस जाते हैं।
अशरीरी सिद्धात्मा बनकर, सिद्धालय में बस जाते हैं।।
अर्थ—केवली भगवान के आयु के क्षय के साथ ही शेष प्रकृतियों का नाश हो जाता है, पश्चात् वे शीघ्र ही एक समयमात्र में लोकाग्र को प्राप्त कर लेते हैं।
भावार्थ—केवली भगवान अपनी आयुपर्यंत समवसरण में विराजकर दिव्यध्वनि के द्वारा असंख्य भव्य जीवों को धर्मोपदेश से तार देते हैं पुन: आयु कर्म के समाप्त होने के साथ-साथ शेष—अघाति कर्मों की प्रकृतियाँ भी नष्ट हो जाती हैं। तब अशरीरी सिद्धात्मा एक समय मात्र में यहाँ से गमन कर तीन लोक के अग्रभाग में सिद्धालय में जाकर विराजमान हो जाते हैं।
जीवाणं पुग्गलाणं, गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी।
धम्मत्थिकायभावे, तत्तो परदो ण गच्छंति।।
(नियमसार गाथा-१८३)
जीव अरु पुद्गल का गमनक्षेत्र, धर्मास्तिकाय के आश्रित है।
उसके अभाव में जीव और, पुद्गल आगे निंह जा सकते हैं।।
बस पुरुषाकार प्रमाण लोक तक, धर्म द्रव्य की सत्ता है।
इस कारण ही उसके आगे निंह, जीव द्रव्य जा सकता है।।
अर्थ—जीव और पुद्गलों का गमन जहाँ तक धर्मास्तिकाय है, वहीं तक जानो क्योंकि धर्मास्तिकाय के अभाव में ये उससे परे नहीं जा सकते हैं।
भावार्थ—पुरुषाकारप्रमाण लोकाकाश में ही जीव और पुद्गल हैं, यहीं तक धर्म, अधर्म और कालद्रव्य हैं इसलिये तीनों लोकों से परे धर्मास्तिकाय के न होने से सिद्ध भगवान भी अलोकाकाश में नहीं जा सकते हैं। यह व्यवहारनयप्रधान कथन है क्योंकि निश्चयनय से जीव के गमनागमन का प्रश्न ही नहीं है।
इस प्रकार अनंत-अनंत संसारी प्राणी, श्रावक और मुनिधर्म को प्राप्त कर ध्यान के बल से कर्मों का नाश कर सिद्ध भगवान हो चुके हैं। वे वापस संसार में कभी भी नहीं आयेंगे।
णाणं सरणं मे, दंसणं च सरणं चरियसरणं च।
तव संजमं च सरणं, भगवं सरणो महावीरो।।
(मूलाचार गाथा-९६)
मेरी आत्मा के लिये ज्ञान ही, शरण चरित्र शरण ही है।
तप, संयम, शरण और सम्यग्दर्शन, बिन शरण कोई निंह हैं।।
भगवान वीर की शरण मुझे, अंतिम समाधि की शरण मिली।
इन सच्चे चरणों में आकर, मुझको आत्मा की शरण मिली।।
अर्थ—मेरे लिये ज्ञान शरण है, चारित्र शरण है, तप शरण है, संयम शरण है और भगवान महावीर स्वामी शरण हैं।
भावार्थ—यहाँ श्री कुन्दकुन्द देव ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और संयम को शरण माना ही है क्योंकि ये ही आत्मा को शुद्ध करने वाले हैं और आत्मा के ही गुण हैं, पुन: भगवान महावीर स्वामी की शरण ली है। हमें भी इन रत्नत्रय गुण की और भगवान महावीर की शरण लेनी चाहिये क्योंकि भगवान की शरण के बिना केवल अध्यात्म आपत्ति में रक्षा नहीं कर सकता है, यह नियम है।
इदि णिच्छयववहारं, जं भणियं कुन्दकुन्दमुणिणाहे।
जो भावइ सुद्धमणो, सो पावइ परमणिव्वाणं।।
(द्वादश अनुप्रेक्षा गाथा-९१)
मुझे कुन्दकुन्द मुनिनाथ ने जो, ऐसा निश्चय व्यवहार कहा।
दोनों ही नय के द्वारा जो, सिद्धान्त समन्वयसार कहा।।
उसको जो मुनिवर शुद्धमना, हो करके नितप्रति भाते हैं।
वे ही मुनिवर संसार छोड़, निर्वाण धाम पा जाते हैं।।
अर्थ—मुझ कुन्दकुन्द मुनिनाथ ने जो इस प्रकार से निश्चय और व्यवहार को कहा है, उसको जो शुद्धमना होकर भाते हैं वे परमनिर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।
भावार्थ—‘बारस अणुपेक्खा’ ग्रन्थ में आचार्य श्रीकुन्दकुन्ददेव ने अंत में अपना नाम रखा है अत: ग्रन्थ की समाप्ति में अपना नाम नहीं रखना ऐसा एकान्त नहीं लेना चाहिये। आज प्राय: कई ग्रन्थों में कर्त्ता का नाम न होने से वे ग्रन्थ ही विसंवाद के विषय बन जाते हैं, जैसे कि पंचाध्यायी आदि।
इस प्रकार अपने सर्व ग्रन्थों में आचार्यदेव ने निश्चय-व्यवहार दोनों नयों का समन्वय किया है। जो दोनों नयों को लेकर शुद्ध आत्मतत्त्व आदि भाते हैं वे ही निर्वाण सुख को प्राप्त कर लेते हैं।