अंगंगवज्झणिम्मी, अणाइ मज्झंत णिम्मलंगाए।
सुयदेवय अंगाए, णमो सया चक्खुमइयाए।।
यद्यपि जैनश्रुत-जैनवाङ्गमय-द्वादशांगरूप वाङ्गमय अनादि और अनन्त है। फिर भी भरत और ऐरावत क्षेत्र में काल परिवर्तन के निमित्त से यह सादि-सांत कहा जाता है। भोगभूमि में श्रुत की परम्परा नहीं रहती है। कर्मभूमि में पंचमकाल के बाद जब छठाकाल आता है उसमें भी श्रुत की परम्परा नहीं रहती है।
भगवान ऋषभदेव ने युग की आदि में फाल्गुन कृष्णा ग्यारस को प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे दिव्य केवलज्ञान प्राप्त किया था। सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर ने वहीं पर समवसरण की रचना की थी। भगवान की दिव्यध्वनि खिरी, उनकी वाणी से द्वादशांग श्रुत अवतरित हुआ अत: द्वादशांग श्रुत के अर्थकर्ता भगवान तीर्थंकर हैं और ग्रन्थकर्ता के रूप में गणधर माने जाते हैं।
यही श्रुतपरम्परा अन्य तीर्थंकरों के शासनकाल से आती रही है। भगवान महावीर को वैशाख शुक्ला दशमी को जृम्भिका ग्राम के निकट, ऋजुकूला नदी के किनारे, शालवृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्रगट हुआ। समवसरण की रचना हो गई। बारह सभा भी उपस्थित थी, लेकिन भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरी। भगवान का श्रीविहार होता गया, कई जगह समवसरण की रचना होती गई। जब भगवान का श्रीविहार होता है उस समय समवसरण विघटित हो जाता है और जहाँ भगवान पहुँचकर रुक जाते हैं वहीं समवसरण बन जाता है, यह प्रक्रिया तीर्थंकर भगवान की प्राकृतिक है। निसर्गत: भव्यों के पुण्य से जहाँ भगवान रुकते हैं वहीं कुबेर अर्धनिमिष मात्र में समवसरण की दिव्य रचना कर देता है।
जब भगवान महावीर का समवसरण विपुलाचल पर्वत पर था। आकस्मिक इन्द्र के मन में चिन्तन हुआ कि ६६ दिन हो गए हैं भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिर रही है क्या कारण है ? सभी लोग भगवान की वाणी को सुनने के लिए आतुर हैं, परन्तु भगवान मौन हैं क्या कारण है ? उनने चिंतन में सोचा-समझा कि गणधर का अभाव होने से भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिर रही है, तब उन्होंने युक्ति से इन्द्रभूति नाम के ब्राह्मण, जो कि उस समय बहुत बड़े विद्वान थे, अनेक वेद वेदांगों के पारंगत, लौकिक सम्पूर्ण विद्याओं के पारंगत, महाविद्याओं के पारंगत, अतिशय प्रखर बुद्धि वाले और अपने आप में बहुत ही विशेष थे उस समय वे अपने पाँच सौ शिष्यों को पढ़ा रहे थे।
इन्द्र वेष बदलकर उनके पास पहुँचे और उन्हें भगवान के समवसरण में लाने का प्रयास किया, उसमें वे सफल हुए। राजगृही में पहुँचते ही इन्द्रभूति ब्राह्मण ने जैसे ही मानस्तंभ को देखा तुरंत उसका मान गलित हो गया, वह अत्यन्त प्रसन्न-गद्गद् हुआ और उसके मिथ्यात्वादि कर्म के सौ-सौ खण्ड हो गए। जैसा कि आप जानते हैं कि जिनबिंब के दर्शन से मिथ्यात्व आदि कर्म के सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं। इन्द्रभूति गौतम को सम्यग्दर्शन प्रगट हो गया। भगवान की भक्ति में गद्गद् होकर उन्होंने ‘जयति भगवान हेमाम्भोज प्रचार विजृम्भिता’ आदि पढ़कर भगवान की स्तुति की-
पुन: भगवान के शिष्यत्व को स्वीकार करके जैनेश्वरी दीक्षा ले ली अर्थात् भगवान के शिष्य बन गए। ‘जयधवला’ ग्रंथ में बताया है कि यह नियम है जो तीर्थंकर भगवान से दीक्षा लेकर उनके शिष्य बनते हैं वे ही गणधर पद के धारक हो सकते हैं। भगवान के समवसरण में उस समय कई मुनि थे लेकिन उनके शिष्य नहीं थे। यह बात ‘जयधवला’ ग्रंथ में बहुत स्पष्ट की है क्योंकि संबंध दो प्रकार के माने गए हैं। व्याकरण में भी आया है एक योनिज संबंध अर्थात् माँं की योनि से जन्म लेना, माता-पिता की वह संतान कहलाती है औरस पुत्र। दत्तक पुत्र में वह बात नहीं आ सकती, चाहे जितना वह उससे अधिक भक्ति करे, विनय करे, वह बात अलग है।
दूसरा संबंध है विद्या संबंध। यह भी बहुत महत्त्वपूर्ण है, इसीलिए जब गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण ने भगवान के शिष्यत्व को स्वीकार किया और उनकी योग्यता, पात्रता अथवा उनका पुण्य कहो या भव्यों का पुण्य कहो कि उसी समय वे मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय चार ज्ञान के धारी और अनेक ऋद्धियों से सम्पन्न हो गए तथा गणधर पद को प्राप्त हो गए। उसी समय भगवान की अनक्षरी दिव्यध्वनि खिरी, जिसको ७१८ भाषाओं में माना गया है। जिसमें लघु भाषा ७०० और १८ महाभाषाएं हैं। कहीं आया है ‘सर्वभाषामय’ अर्थात् वहाँ पर जितने भव्य जीव हैं तिर्यंच, मनुष्य, असंख्यातों देवगण आदि, सभी अपनी-अपनी भाषा में भगवान की दिव्यध्वनि को श्रवण कर समझ लेते थे।
गौतम स्वामी ने भगवान महावीर की दिव्यध्वनि को सुना और अन्तर्मुहूर्त में ही द्वादशांग की रचना कर दी। कहीं पर आया है कि पूर्वरात्रि में उन्होेंने ११ अंगरूप रचना की और पश्चिमरात्रि में चौदह पूर्वरूप रचना की और कहीं किसी ग्रंथ में आया है कि अन्तर्मुहूर्त में द्वादशांग की रचना की, क्योंकि ये सम्पूर्ण ऋद्धियों से सम्पन्न हो गए थे।
जिस दिन भगवान की दिव्यध्वनि खिरी वह दिन था ‘श्रावण कृष्णा एकम्’ जो कि आज वीरशासन जयंती के नाम से प्रसिद्ध है। तभी से यह वीरशासन जयंती पर्व चला आ रहा है। यह वीरशासन जयंती पर्व अत्यन्त महान और विशेष माना जाता है क्योंकि इस दिन भगवान की वाणी खिरी थी। भगवान महावीर के शासनकाल की अपेक्षा द्वादशांग का उद्भव दिवस श्रावण कृष्णा एकम् है और इसे वर्ष का प्रथम दिवस भी माना गया है। अब समझना यह है कि इस वीरशासन जयंती के दिन हमारा-आपका क्या कर्तव्य है ? भगवान महावीर स्वामी के समवसरण की रचना करके समवसरण मण्डल विधान करें, महावीर स्वामी की पूजा करें, गौतम स्वामी की पूजा करें और द्वादशांग जिनवाणी की पूजा करें। गौतम स्वामी की पूजा मैंने लिखी है जो कि जम्बूद्वीप पूजांजलि में छपी है। भगवान की वाणी द्वादशांगरूप है जो वर्तमान में चार अनुयोग के रूप में उपलब्ध है-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।
आप सबके लिए मेरी यही प्रेरणा है कि आप सभी वीरशासन जयंती पर्व को अवश्य मनाएं और स्वाध्याय करके ज्ञान की वृद्धि करते हुए अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने का पुरुषार्थ करें।