जिन्होंने स्वपक्ष और परपक्ष के लोगों को जीत लिया है तथा जो कवियों के चक्रवर्ती हैं ऐसे श्री वीरसेन स्वामी की निर्मल कीर्ति प्रकाशित हो रही है। ये आचार्य वीरसेन किनके शिष्य थे ? इनका समय क्या था ? इन्होंने क्या-क्या रचनायें कीं ? आदि संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
परिचय
आचार्यदेव ने स्वयं अपनी धवला टीका की प्रशस्ति में अपने गुरु का नाम एलाचार्य लिखा है पर इसी प्रशस्ति की चौथी गाथा में गुरु का नाम आर्यनंदि और दादा गुरु का नाम चन्द्रसेन कहा है। डॉ. हीरालाल जैन का अनुमान है कि एलाचार्य इनके विद्यागुरु और आर्यनंदि इनके दीक्षागुरु थे। इस प्रशस्ति से श्री वीरसेनाचार्य सिद्धान्त के प्रकाण्ड विद्वान, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और न्याय के वेत्ता तथा भट्टारक पद से विभूषित थे, ऐसा स्पष्ट है। जो भी हो एलाचार्य गुरु का वात्सल्य इन पर असीम था ऐसा स्पष्ट है, वे किसी न किसी रूप में इनके गुरु अवश्य थे।
यथा-
जीब्भमेलाइरियवच्छओ ये
स्वयं इस वाक्य में अपने को एलाचार्य का वत्स कहते हैं। ऐसे और भी अनेक स्थलों पर स्वयं आचार्य ने अपने को एलाचार्य का वत्स लिखा है।
समय निर्णय
इनका समय विवादास्पद नहीं है। इनके शिष्य जिनसेन ने इनकी अपूर्ण जयधवला टीका को शक संवत् ७५९ की फाल्गुन शुक्ला दशमी को पूर्ण किया है अत: इस तिथि के पूर्व ही वीरसेनाचार्य का समय होना चाहिए इसलिए इनका समय ईस्वी सन् की ९वीं शताब्दी (८१६) का है।
इनकी रचनाएं
इनकी दो ही रचनायें प्रसिद्ध हैं। एक धवला टीका और दूसरी जयधवला टीका। इनमें से द्वितीय टीका तो अपूर्ण रही है।
इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में दिया है कि षट्खण्डागम सूत्र पर श्री वप्पदेव की टीका लिख जाने के उपरान्त कितने ही वर्ष बाद सिद्धान्तों के वेत्ता एलाचार्य हुए, ये चित्रकूट में निवास करते थे, श्री वीरसेन ने इनके पास सम्पूर्ण सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन किया, अनन्तर गुरु की अनुज्ञा लेकर वाटग्राम में पहुंचे, वहां पर आनतेन्द्र द्वारा बनवाये गये जिनमन्दिर में ठहरे, वहां पर श्री बप्पदेवकृत टीका पढ़ी। अनन्तर उन्होंने ७२००० श्लोक प्रमाण में समस्त षट्खण्डागम पर धवला नाम से टीका रची। यह टीका प्राकृत और संस्कृत भाषा में मिश्रित होने से मणिप्रवालन्याय से प्रसिद्ध है।
दूसरी रचना कसायपाहुड सुत्त पर जयधवला नाम से टीका है। इसको वे केवल २०००० श्लोक प्रमाण ही लिख पाये थे कि वे असमय में स्वर्गस्थ हो गए। इस तरह एक व्यक्ति ने अपने जीवन में ९२००० श्लोक प्रमाण रचना लिखी, यह एक आश्चर्य की बात है। श्री वीरसेन स्वामी ने वह कार्य किया है, जो कार्य महाभारत के रचयिता ने किया है। महाभारत का प्रमाण १००००० श्लोक है और इनकी टीकायें भी लगभग इतनी ही बड़ी हैं। अतएव यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्। जो इसमें है सो ही अन्यत्र है और जो इसमें नहीं है सो कहीं पर नहीं है यह उक्ति यहां भी चरितार्थ है।
इन टीकाओं से आचार्य के ज्ञान की विशेषता के साथ-साथ सैद्धान्तिक विषयों का इनका कितना सूक्ष्म तलस्पर्शी अध्ययन था, यह दिख जाता है।
वीरसेनाचार्य ने अपनी टीका में जिन आचार्यों के नाम का निर्देश ग्रंथोल्लेखपूर्वक किया है वे निम्न प्रकार हैं-
गृद्धपिच्छाचार्य का तत्त्वार्थसूत्र , तत्त्वार्थभाष्य (तत्त्वार्थवार्तिक भाष्य) , सन्मतिसूत्र , सत्कर्मप्राभृत , पिंडिया , तिलोयपण्णत्ति , व्याख्याप्रज्ञप्ति , पंचास्तिकायप्राभृत , जीवसमास , पूज्यपाद विरचित सारसंग्रह , प्रभाचन्द्र भट्टारक (ग्रन्थकार) , समंतभद्रस्वामी (ग्रंथकार) , छंदसूत्र # सत्कर्म प्रकृतिप्राभृत , मूलतन्त्र , योनिप्राभृत और सिद्धिविनिश्चय। और भी ग्रन्थों के उद्धरण या नाम भी धवला टीका में पाये जाते हैं।
धवला टीका में जिन गाथाओं को उद्धृत किया है उनमें से अधिकांश गाथायें गोम्मटसार, त्रिलोकसार, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और वसुनंदिश्रावकाचार में भी पायी जाती हैं अत: यह अनुमान होता है कि इन प्राचीन गाथाओं का स्रोत एक ही रहा है क्योंकि गोम्मटसार आदि ग्रंथ धवला टीका से बाद के ही हैं। जयधवला की प्रशस्ति में कहा है-
‘‘टीका श्री वीरसेनीया शेषा: पद्धतिपंजिका।’’
श्री वीरसेन की टीका ही यथार्थ टीका है शेष टीकायें तो पद्धति या पंजिका हैं।वास्तव में श्री वीरसेन स्वामी को महाकर्मप्रकृति प्राभृत और कषायप्राभृत सम्बन्धी जो भी ज्ञान गुरु- परम्परा से उपलब्ध हुआ, उसे इन दोनों टीकाओं में यथावत् निबद्ध किया है। आगम की परिभाषा में ये दोनों टीकायें दृष्टिवाद के अंगभूत दोनों प्राभृतों का प्रतिनिधित्व करती हैं अतएव इन्हें यदि स्वतन्त्र ग्रंथ संज्ञा दी जाए तो भी अनुपयुक्त नहीं है। यही कारण है कि आज ‘‘षट्खण्डागम’’ सिद्धान्त धवल सिद्धान्त के नाम से और ‘‘पेज्जदोसपाहुड’’ जयधवल सिद्धान्त के नाम से प्रसिद्ध हैं।
ज्योतिष एवं गणित विषय-इस महासिद्धान्त ग्रन्थ में ज्योतिष, निमित्त और गणितविषयक भी महत्त्वपूर्ण चर्चाएं हैं। ५वीं शताब्दी से लेकर ८वीं शताब्दी तक ज्योतिषविषयक इतिहास लिखने के लिए इनका यह ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी है। ज्योतिष सम्बन्धी चर्चाओं में नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा संज्ञाओं के नाम हैं। रात्रि मुहूर्त की चर्चा है। निमित्तों में व्यंजन और छिन्न निमित्तों की चर्चायें हैं।
इसमें प्रधानरूप से एक वर्ण समीकरण, अनेक वर्ण समीकरण, करणी, कल्पित राशियाँ, समानान्तर, गुणोत्तर, व्युत्क्रम आदि बीजगणित सम्बन्धी प्रक्रियायें हैं। धवला में अ३ को अ के घन का प्रथम वर्गमूल कहा है। अ९ को अ के घन का घन बताया है। अ६ को अ के वर्ग का घन बतलाया है, इत्यादि।
आचार्यश्री की पापभीरुता-श्री वीरसेन स्वामी आचार्यों के वचनों को साक्षात् भगवान की वाणी समझते थे और परस्पर विरुद्ध प्रकरण में कितना अच्छा समाधान दिया है। इससे इनकी पापभीरुता सहज ही परिलक्षित होती है। उदाहरण देखिए- ‘‘आगम का यह अर्थ प्रामाणिक गुरु परम्परा के क्रम से आया है यह वैâसे निश्चय किया जाए ?
नहीं, क्योंकि……ज्ञान विज्ञान से युक्त इस युग के अनेक आचार्यों के उपदेश से उसकी प्रमाणता जाननी चाहिए।’’
श्री वीरसेन स्वामी जयधवला टीका करते समय गाथा सूत्रों को और चूर्णि सूत्रों को कितनी श्रद्धा से देखते हैं-
‘‘विपुलाचल के शिखर पर विराजमान वर्धमान दिवाकर से प्रगट होकर गौतम, लोहाचार्य और जम्बूस्वामी आदि की आचार्य परम्परा से आकर और गुणधराचार्य को प्राप्त होकर गाथा स्वरूप से परिणत हो पुन: आर्यमंक्षु और नागहस्ति के द्वारा यतिवृषभ को प्राप्त होकर और उनके मुखकमल से चूर्णिसूत्र के आकार से परिणत दिव्यध्वनिरूप किरण से जानते हैं।’’
इस प्रकरण से यह स्पष्ट है कि कषायप्राभृत ग्रन्थ साक्षात् भगवान की दिव्यध्वनि तुल्य है।
जब किसी स्थल पर दो मत आये हैं तब कैसा समाधान है ?
‘‘दोनों प्रकार के वचनों में से किस वचन को सत्य माना जाए ?’’
‘‘इस बात को केवली या श्रुतकेवली जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जानता क्योंकि इस समय उसका निर्णय नहीं हो सकता है इसलिए पापभीरू वर्तमान के आचार्यों को दोनों का ही संग्रह करना चाहिए अन्यथा पापभीरुता का विनाश हो जावेगा।’’ एक जगह वनस्पति के विषय में कुछ प्रश्न होने पर तो वीरसेन स्वामी कहते हैं कि-‘‘गोदमो एत्थ पुच्छेयव्वो’’ यहाँ गौतम स्वामी से पूछना चाहिए अर्थात् हम इसका उत्तर नहीं दे सकते।
तब बताइए इससे अधिक पापभीरुता और क्या होगी ? वास्तव में ये आचार्य अपने गुरु परम्परा से प्राप्त जानकारी के अतिरिक्त मन से कुछ निर्णय देना पाप ही समझते थे। इन आचार्यों के ऐसे प्रकरणों से आज के विद्वानों को शिक्षा लेनी चाहिए जो कि किसी भी विषय में निर्णय देते समय आचार्यों को अथवा उनके ग्रन्थों को भी अप्रमाणिक कहने में अतिसाहस कर जाते हैं।